Sunday, December 8, 2024
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अध्याय – 63 : भारत में क्रांतिकारी आन्दोलन – 5

विदेशों में क्रांतिकारी आन्दोलन

देशभक्त क्रांतिकारियों ने अन्य देशों के क्रांतिकारियों से सम्पर्क स्थापित करके उनसे भारत की स्वाधीनता के लिये समर्थन, सहायता एवं हथियार प्राप्त किये। विदेशों में काम करने वाले प्रमुख क्रांतिकारी इस प्रकार से थे-

 (1.) श्यामजी कृष्ण वर्मा

श्यामजी कृष्ण वर्मा का जन्म काठियावाड़ के मांडवी नामक गांव में एक निर्धन परिवार में 1857 ई. में हुआ था। 1879 ई. में वे कानून की शिक्षा प्राप्त करने के लिए इंग्लैण्ड गये। 1884 ई. में उन्होंने बैरिस्टरी की परीक्षा उत्तीर्ण की और वे भारत लौट आये। कुछ वर्षों बाद वे राजस्थान की उदयपुर रियासत में उच्च पद पर नौकरी करने करने लगे। 1893 से जनवरी 1895 ई. तक वे उदयपुर रियासत की स्टेट कौंसिल के सदस्य रहे। ब्रिटिश रेजीडेंट के दबाव के कारण उन्हें यह नौकरी छोड़नी पड़ी। इसके बाद वे जूनागढ़़ रियासत की सेवा में चले गये किन्तु वहाँ से भी उन्हें हटना पड़ा। 1897 ई. में श्यामजी वापस इंग्लैंड चले गये क्योंकि पूना के प्लेग कमिश्नर रैण्ड तथा उसके सहायक आयर्स्ट की हत्या में सरकार को श्यामजी कृष्ण वर्मा का हाथ होने का भी सन्देह था। इंग्लैण्ड में उन्होंने व्यापार के माध्यम से बहुत धन कमाया और सारा धन इंग्लैंण्ड में भारत के राष्ट्रीय आन्दोलन के प्रचार में लगा दिया। जनवरी 1905 में लन्दन में श्यामजी कृष्ण वर्मा ने इण्डियन होमरूल सोसाइटी की स्थापना की और इण्डियन सोशियोलॉजिस्ट शीर्षक से मुखपत्र निकालना आरम्भ किया। इस पत्र में क्रांतिकारी विचारों से ओतप्रोत लेख प्रकाशित होते थे। 1905 ई. में उन्होंने लन्दन में इंडिया हाउस नामक हॉस्टल की स्थापना की, जो शीघ्र ही भारतीय क्रांतिकारियों का मुख्य केन्द्र बन गया। इंडिया हाउस में जमा होने वाले युवकों में विनायक दामोदर सावरकर, लाला हरदयाल और मदनलाल धींगरा प्रमुख थे। इण्डियन होमरूल सोसायटी द्वारा प्रतिवर्ष इंग्लैण्ड में 1857 की क्रांति की वर्षगांठ बड़ी धूमधाम से मनाई जाती थी जिसमें जोशीले भाषण होते थे। ऐसी सभाओं में इंग्लैंड में पढ़ने जाने वाले भारतीय नवयुवकों की टोलियां सम्मिलित होती थीं। उनकी इन गतिविधियों को देखकर ब्रिटिश सरकार श्यामजी कृष्ण वर्मा को तंग करने लगी। इस पर श्यामजी ने इंग्लैण्ड छोड़ दिया और 1907 ई. में पेरिस चले गये। 1914 ई. में वे फ्रांस से स्विट्जरलैंड चले गये। 30 मार्च 1930 को स्विट्जरलैंड में उनका देहान्त हुआ। इस प्रकार, श्यामजी कृष्ण वर्मा पहले व्यक्ति थे जिन्होंने विदेशों में क्रांतिकारी गतिविधियां आरम्भ कीं। 

(2.) विनायक दामोदर सावरकर

श्यामजी कृष्ण वर्मा के लन्दन से पेरिस चले जाने के बाद विनायक दामोदर सावरकर ने लन्दन के इंडिया हाउस का काम संभाला। उनके नेतृतव में पहले की ही भांति सन् 1857 की क्रांति की वर्षगांठ धूमधाम से मनाई जाती रही और क्रांतिकारी परचे छपवा कर भारत के विभिन्न हिस्सों में भिजवाये जाते रहे। आर्थर एफ. हार्सली के सहयोग से इण्डियन सोशियोलाजिस्ट भी छपता रहा। जुलाई 1909 में हार्सली को जेल में डाल दिया गया। तब गाई अल्फ्रेड ने पत्र के प्रकाशन का दायित्व संभाला। सितम्बर 1909 में अल्फ्रेड को भी एक साल के लिये जेल भेज दिया गया। इसके बाद इण्डियन सोशियोलाजिस्ट छपना बन्द हो गया। ब्रिटिश सरकार द्वारा सावरकर के भाई गणेश सावरकर को अनुचित रूप से दण्डित किया गया था। इसका बदला लेने के लिये 1 जुलाई 1909 को मदनलाल धींगरा ने सर वाइली की गोली मार दी। अँग्रेज अधिकारियों का मानना था कि वाइली की हत्या की योजना विनायक दामोदर सावरकर ने बनाई थी परन्तु आरोप सिद्ध करने के लिए साक्ष्य नहीं मिल सके। इसके बाद सावरकर पर अपने रसोइये चतुर्भुज अमीन के हाथ फरवरी 1909 में 20 ब्राउनिंग पिस्तौलें और कारतूस भारत भेजने का आरोप लगाया गया। मार्च 1910 में सावरकर को बंदी बनाकर भारत भेज दिया गया जहाँ उन्हें 37 अन्य व्यक्तियों के साथ नासिक षड़यंत्र केस का अभियुक्त बनाया गया। 22 मार्च 1911 को सावरकर को 50 वर्ष की कैद की सजा देकर अण्डमान भेज दिया गया, जहाँ उन्हें कोल्हू में बैल की जगह जोता गया और अमानवीय यातनाएं दी गईं। 1937 ई. में जब बम्बई में नया मंत्रिमण्डल बना तब उन्हें 10 मई 1937 को जेल से मुक्त किया गया। दिसम्बर 1937 में उन्हें हिन्दू महासभा के अहमदाबाद अधिवेशन का अध्यक्ष चुना गया।

(3.) सरदारसिंहजी रेवा भाई राना

जब मार्च 1910 में विनायक दामोदर सावरकर को लन्दन में बंदी बनाया गया तब भारतीय क्रांतिकारियों ने लंदन के स्थान पर पेरिस को अपने कार्यों का केन्द्र बनाया। पेरिस में श्यामजी कृष्ण वर्मा को अपने सहयोगी मिल गये जिनमें सरदारसिंहजी रेवा भाई राना और श्रीमती भीखाजी रूस्तम कामा प्रमुख थे। राना, बम्बई के एल्फिंस्टन कॉलेज से 1898 ई. में स्नातक उपाधि प्राप्त करने के बाद कानून की पढ़ाई के लिये लन्दन गये। पढ़ाई के साथ-साथ वे व्यापार भी करने लगे और पेरिस में जाकर बस गये। उन्हें भारतीय क्रांतिकारियों से सहानुभूति थी, वे क्रांतिकारियों को आर्थिक सहायता देते रहते थे। ब्रिटिश सरकार को इसकी जानकारी मिलते ही उसने फ्रांसीसी सरकार पर राना को गिरफ्तार करने के लिए दबाव डाला। प्रथम विश्व युद्ध के दौरान फ्रांसीसी सरकार ने राना को बन्दी बनाकर मार्टिनिक द्वीप भिजवा दिया।

(4.) श्रीमती भीखाजी रुस्तम कामा

श्रीमती कामा का जन्म 1875 ई. के लगभग एक भारतीय पारसी परिवार में हुआ। उनके पति सफल वकील थे। 1902 ई. में वे यूरोप गईं। उन्होंने इंग्लैण्ड के क्रांतिकारियों को यथा संभव आर्थिक सहायता प्रदान की। इसीलिए उन्हें भारतीय क्रांति की माता भी कहा जाता है। राना और कामा ने अगस्त 1907 में जर्मनी के स्टुटगार्ट में आयोजित इंटरनेशनल सोशलिस्ट कांग्रेस में भारत का प्रतिनिधित्व किया। श्रीमती कामा ने सम्मेलन के मंच से भारत में ब्रिटिश शासन के अत्याचारों एवं निरंकुशता की भर्त्सना करते हुए भारत की स्वतंत्रता का जोरदार समर्थन किया। 1909 ई. के मध्य में श्रीमती कामा पेरिस वापस आ गईं और श्यामजी कृष्ण वर्मा के साथ मिलकर काम करने लगीं। उन्होंने क्रांतिकारी साहित्य के प्रकाशन एवं वितरण में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। सितम्बर 1909 में कामा ने जेनेवा से वंदेमातरम् नामक मासिक पत्र निकाला जो शीघ्र ही प्रवासी भारतीय क्रांतिकारियों का मुखपत्र बन गया। 1909-10 ई. की अवधि में लाला हरदयाल ने भी इस पत्र का सम्पादन किया। श्रीमती कामा ने जर्मनी में आयोजित एक अंतर्राष्ट्रीय समाजवादी सम्मेलन में प्रभम भारतीय तिरंगा फहराया।

(4.) गदर पार्टी और इण्डिया लीग

जिस प्रकार श्यामजी कृष्ण वर्मा ने इंग्लैण्ड, फ्रांस व जर्मनी में कार्य किया था, उसी प्रकार भाई परमानन्द ने अमेरिका और इंग्लैण्ड में कार्य किया। 1911 के आरम्भ में लाला हरदयाल अमरीका पहुँचे। 1913 ई. में उन्होंने वहाँ कार्यरत भारतीय क्रांतिकारियों के साथ मिलकर गदर पार्टी की स्थापना की। कनाडा की सरकार इस समय पंजाबी अप्रवासियों के विरुद्ध रंगभेद की नीति अपना रही थी। पंजाबियों को तिरस्कार का सामना करना पड़ता था। इसलिए लाला हरदयाल ने बाबा सोहनसिंह भखना की अध्यक्षता में पोर्टलैंड में हिन्दुस्तान एसोसिएशन ऑफ दि पैसिफिक फोस्ट नामक संस्था स्थापित की। इसका उद्देश्य विदेशों में भारतीयों के अधिकारों की रक्षा करना और भारत की आजादी के लिए भारतीयों में चेतना पैदा करना था। इस संस्था का नाम भी गदर पार्टी पड़ गया। इस गदर पार्टी के सभापति बाबा सोहनसिंह, उप सभापति बाबा केसरसिंह, मंत्री लाला हरदयाल और कोषाध्यक्ष पं. काशीराम चुने गये। इस पार्टी ने 1 नवम्बर 1913 से एक साप्ताहिक अँग्रेजी पत्रिका गदर का प्रकाशन आरम्भ किया। इस पत्रिका का अनेक भारतीय भाषाओं में अनुवाद प्रकाशित होता था। यह पत्रिका, भारत तथा भारत से बाहर उन देशों में भेजी जाती थी जहाँ बड़ी संख्या में भारतीय रहते थे। इस पत्रिका में क्रांति और भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के सम्बन्ध में प्रचुर सामग्री रहती थी। विदेशों में बसे भारतीय, इस सामग्री को बड़ी रुचि के साथ पढ़ते थे। गदर पार्टी ने गुरिल्ला युद्ध के द्वारा भारत को स्वतंत्र कराने की योजना बनाई।

अमेरिका में पहले गदर पार्टी ने और बाद में इण्डिया लीग ने भारतीय स्वतंत्रता के लिए महत्त्वपूर्ण कार्य किया। जे. जे. सिंह कई वर्षों तक अमेरिका स्थित इण्डिया लीग के प्रधान रहे। जब अमेरिका में कोमागाटामारू की घटना का समाचार पहुँचा तब गदर पार्टी ने कनाडा और भारत सरकार के विरुद्ध क्रांति कराने के उद्देश्य से हजारों स्वयंसेवकों को भर्ती कर लिया।

प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान लाला हरदयाल जर्मनी गये। उन्होंने जर्मनी के बादशाह विलियम कैसर से सहायता प्राप्त करने का प्रयास किया परन्तु उन्हें विशेष सफलता नहीं मिली। इन्हीं दिनों लाला हरदयाल की प्रेरणा से राजा महेन्द्रप्रताप ने काबुल में एक अस्थाई सरकार का गठन किया। राजा महेन्द्रप्रताप के मंत्रिमण्डल में बरकतुल्ला को प्रधानमंत्री, मौलाना अब्दुल्ला, मौलाना बशीर, सी. पिल्ले, शमशेरसिंह, डॉ. मथुरासिंह, खुदाबख्श और मुहम्मद अली को मंत्री बनाया गया। अस्थायी सरकार ने निश्चय किया कि जर्मनी और तुर्की की सहायता से ईरान, इराक, अरब और अफगानिस्तान के मुसलमान विद्रोह कर दें और उधर पंजाब में सिक्ख उनका साथ दंे। लाला हरदयाल ने इस कार्य के लिए सैकड़ों क्रांतिकारी और बहुत सा गोला बारूद भारत भिजवाया। लाला हरदयाल ने जर्मनी में भारत स्वतंत्रता समिति स्थापित की जो क्रांतिकारियों को अस्त्र-शस्त्र तथा आर्थिक सहायता उपलब्ध कराती थी।

राष्ट्रीय स्तर पर क्रांति की योजना

रासबिहारी बोस, करतारसिंह, पिंगले और शचीन्द्र सान्याल ने ढाका से लाहौर तक एक साथ विद्रोह कराने की एक योजना तैयार की। 21 फरवरी 1915 को क्रांति का दिन निश्चित किया गया किन्तु कृपालसिंह नामक सैनिक ने यह योजना समय से पूर्व ही, ब्रिटिश अधिकारियों के सामने उजागर कर दी। इससे योजना बुरी तरह विफल हो गई।

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