Saturday, December 7, 2024
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अध्याय – 10 – ऋग्वैदिक समाज एवं धर्म (द)

ऋग्वैदिक आर्यों का धार्मिक जीवन

ऋग्वैदिक आर्यों का जीवन धर्ममय था। जीवन का ऐसा कोई अंग नहीं था जिस पर धर्म की गहरी छाप न हो। इस काल का धर्म बड़ी उच्च-दशा में था तथा प्राकृतिक शक्तियों एवं उनके नियामक देवताओं की पूजा होती थी। इस प्रकार ऋग्वैदिक आर्यों का धर्म बहुदेववादी था।

ऋग्वैदिक धर्म की विशेषताएँ

(1.) ईश्वर की परम सत्ता में विश्वास: ऋग्वैदिक आर्यों का ईश्वर की परम सत्ता में विश्वास था जो इस जगत् का निर्माण तथा पालन करने वाला है। प्रारम्भ में आर्यों ने वरुण को देवाधिदेव माना परन्तु बाद में उसका स्थान इन्द्र ने ले लिया। बाद में आर्यों ने अनुभव किया कि इन्द्र के ऊपर भी कोई परमसत्ता है, जो समूचे ब्रह्माण्ड को संचालित करती है तथा स्रष्टा ही सृष्टि के रूप में विस्तृत है।

वह प्रकाश के रूप में ज्योतिर्मय आकाश में व्याप्त है, वसु के रूप में अन्तरिक्ष में निवास करता है, प्राण के रूप में मनुष्य के अन्तःस्थल में विद्यमान है। वस्तुतः सृष्टा, सृष्टि, प्रकृति और मानव एक ही अनुशासन से निष्पन्न होकर तथा एक ही अनुशासन से ग्रथित होकर समन्वित हैं। ऋग्वेद तथा तैत्तिरीय ब्राह्मण में कहा गया है- ‘अग्नि वाक् में प्रतिष्ठित है और वाक् हृदय में, हृदय मुझ में, मैं अमृत्व में और अमृत्व ब्रहा में सन्निहित है।’

(2.) ऐकेश्वरवाद में विश्वास: अनेक देवताओं में विश्वास करते हुए भी ऋग्वैदिक आर्यों के धर्म का मूलाधार एकेश्वरवाद था। उनका एक ही ईश्वर था जिसे वे प्रजापति कहते थे जो सर्वव्यापी था। ऋषियों का कहना था- ‘सत एक ही है। विद्वान उसे अग्नि, यम, मातरिश्वा आदि विभिन्न नामों से पुकारते है।’

आर्यों ने इनके उपर भी एक परम तत्त्व की प्रतिष्ठता की और उसे हिरण्यगर्भ, प्रजापति तथा विश्वकर्मा नामों की संज्ञा दी। एकेश्वरवाद की यही पराकाष्ठा मानी जाती है।

इसी एक तत्त्व को आर्यों ने  ‘सत’ नाम से पुकारा। इस प्रकार ऋग्वैदिक आर्य इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि सत का ज्ञान ही आत्मा का ज्ञान है। संसार के विभिन्न जीव विभिन शरीर अवश्य धारण किए हुए हैं पर उन सब की आत्मा एक ही है। मोह जनित भेदों को नष्ट करके उस परमसत् से साक्षात्कार करना ही जीवन का परम लक्ष्य है। इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए आर्य-ऋषि परम-तत्त्व की ओर उन्मुख होने लगे।

(3.) प्राकृतिक शक्तियों की उपासना: प्राकृतिक घटनाएं यथा- वर्षारंभ, सूर्य एवं चंद्र का उदय, नदियों तथा पर्वतों आदि का अस्तित्त्व, आर्यों के लिए पहेली-जैसे थे। ऋग्वेद में ऐसी अनेक दैवी शक्तियों का समावेश है जिनकी स्तुति में विभिन्न ऋषि-कुलों ने सूक्तों की रचना की। इस प्रकार ऋग्वैदिक-काल में प्राकृतिक शक्तियों की पूजा आरंभ हुई।

ऋग्वैदिक आर्यों का विश्वास था कि सूर्य, चन्द्र, वायु, मेघ आदि में ईश्वर निवास करता है। इसलिए वे इन सबकी उपासना करते थे। आर्यों ने सर्वप्रथम ‘द्यौस’ तथा ‘पृथ्वी’ की पूजा की। आर्यों का विश्वास था कि द्यौस तथा पृथ्वी की अनुकम्पा से ही मानव-जीवन सम्भव था। इन दोनों को अन्य समस्त देवताओं का जन्मदाता मान लिया गया।

आकाश देवता को ‘वरुण’ कहा जाने लगा। पृथ्वी और आकाश के मध्य में विद्यमान समस्त वस्तुओं में वरुण का वास माना गया। ऋग्वेद में वरुण के दो रूपों का उल्लेख मिलता है। एक रूप में सुख-समृद्धि देने वाला, सहृदय, सृष्टि के निर्माता का, तो दूसरा रूप है विनाश तथा अभिशाप देने वाले का।

ऋग्वैदिक आर्यों की मान्यता थी कि वरुण की भक्ति, पूजा तथा प्रार्थना से वह प्रसन्न होता है और पापियों के पाप क्षमा कर देता है। कुछ विद्वानों का माना है कि वरुण की उपासना से ही आर्यों में कर्मवाद और भक्तिमार्ग के सिद्धान्तों का उदय हुआ। जब वरुण को वृत्रासुर ने बंदी बना लिया तब इंद्र ने वृत्रासुर को मारकर वरुण को मुक्त करवाया तथा तथा उसे पुनः देवत्व प्रदान किया।

वरुण के साथ ही ‘मित्र’ की भी पूजा की जाने लगी। आर्यों ने बहिर्जगत् के प्रकाश का मानवीकरण करके उसे ‘मित्र’ का नाम दिया। दोनों को संयुक्त रूप से ‘मित्रावरुण’ कहा गया। बहिर्जगत में ‘सूर्य’ का भी बड़ा महत्त्व था। अतः आर्यों ने सूर्य को भी देवता माना। उसे सम्पूर्ण चर-अचर का रक्षक तथा मनुष्यों के समस्त सत् असत् कर्मों का दृष्टा माना गया।

सूर्य के व्यापक रूप को ‘सविता’ कहा गया। सविता में सूर्य का व्यक्त तथा रात्रि को अव्यक्त रहने वाला रूप दोनों ही सम्मिलित हैं। सविता को पाप-मोचन देवता भी माना गया है।

ऋग्वैदिक आर्यों ने ‘विष्णु’ को विश्व का संरक्षक माना। विष्णु, भक्तों की प्रार्थना पर तुरन्त सहायता के लिए पहॅुंचने वाला देवता है। ऋग्वेद में उसके तीन पदों का उल्लेख है, जिसके अनुसार वह समस्त ब्रह्मण्ड में भ्रमण करता है। विष्णु के व्यापक स्वरूप के कारण उसे ‘उरु-गाय’ अर्थात् व्यापक रूप से गमनशील, और ‘उरु-क्रम’ अर्थात् व्यापक रूप से अतिक्रमण करने वाला आदि नामों से पुकारा गया है।

ऋग्वैदिक आर्यों के लिए विष्णु के समान ही ‘अग्नि’ का भी विशेष महत्त्व था। ऋग्वेद में अग्नि की प्रार्थना सम्बन्धी लगभग 200 मंत्र हैं जो अग्नि के महत्त्व को प्रकट करते हैं। यज्ञ में अग्नि का विशेष महत्त्व था। इसीलिए उसे ‘पुरोहित’, ‘यज्ञिय’ और ‘होता’ कहा गया। अग्नि को देवताओं का मुख्य माना गया है, क्योंकि उसी के द्वारा आहुतियाँ समस्त देवताओं तक पहुँचती हैं। दाहकर्म के लिए भी अग्नि अनिवार्य थी। अग्नि को समस्त लोकों के राक्षसों को भगाने वाला कहा गया है।

वैदिक आर्य ‘सोमरस’ के प्रेमी थे। उन्होंने ‘सोम’ को भी देवता मान लिया तथा सोम को सूर्य और विद्युत से उत्पन्न हुआ बताया। ऋग्वेद के अनेक सूक्तों में वनस्पति से इस पेय के तैयार करने की विधि का वर्णन मिलता है परन्तु इस वनस्पति की सही पहचान अभी तक नहीं हो पाई है। देवताओं के अनुरोध पर सोम चंद्रमा में समा गया जहाँ से वह जल एवं वनस्पतियों को प्राप्त हुआ।

आँधी, तूफान और वर्षा का देवता ‘इन्द्र’ था। ऋग्वेद में इसे सर्वाधिक शक्तिशाली देवता माना गया है। उसे आकाश, अन्तरिक्ष और पृथ्वी से भी अधिक बड़ा माना गया है। एक स्थान पर उसे ‘वृत्र’ नामक असुर का वध करके बादलों में रुके हुए जल को मुक्त कराने वाला कहा गया है। वृत्र को शीत, कोहरे और पाले का असुर माना गया है।

ऋग्वेद में इन्द्र की प्रार्थना करने वाली लगभग 250 ऋचाएँ हैं। ऋग्वेद में उपरोक्त देवताओं के साथ-साथ मरुत, वात, पर्जन्य, अश्विन, यम, रुद्र, पूषण आदि देवताओं का उल्लेख है। देवियों में उषा, अदिति, सिन्धु, आरुयानी और सरस्वती के नाम उल्लेखनीय हैं। ‘उषा’ का अर्थ है- अरुणोदय के पूर्व की वेला। ‘अदिति’ का अर्थ है- सर्वव्यापिनी प्रकृति। ‘आरुयानी’ का तात्पर्य वन-देवी से है और मानवी बुद्धि का दैवीकरण ‘सरस्वती’ के रूप में किया गया था।

(4.) देवताओं का मानवीकरण: ऋग्वेद के अधिकांश मंत्र, विभिन्न देवताओं की स्तुतियाँ हैं। आराध्य और उपास्य देवों की प्रशंसा करते हुए ऋषिगण उनके गुणों का निर्देशन करते हैं। प्रारम्भिक स्तुतियाँ देवताओं को प्राकृतिक शक्ति के रूप में प्रस्तुत करती हैं किन्तु बाद में अग्नि को अग्निदेव तथा सूर्य को सूर्यदेव आदि संज्ञाओं से सम्बोधित किया गया है।

इससे आभास होता है कि प्राकृतिक शक्ति को ही दिव्य शक्ति में परिवर्तित किया गया। इसके लिए उन्होंने प्राकृतिक शक्तियों का मानवीकरण किया। उनमें मानव अथवा पशु गुणों का आरोपण करके उन्हें जीवित शक्तियाँ माना। धीरे-धीरे प्रत्येक देवता की एक पत्नी भी स्वीकार कर ली गई तथा उसे देवी माना गया। कालान्तर में वैदिक देवता और देवियों में मानवीय दुर्बलताओं का भी दिग्दर्शन किया गया तथा यह माना गया कि वे मनुष्यों की तरह कार्य कर  सकते हैं।

(5.) देवताओं का वर्गीकरण: ऋग्वेद में 33 देवताओं की प्रार्थना की गई है जिन्हें तीन वर्गों में बांटा गया है। प्रत्येक वर्ग में 11 देवता हैं, जिनमें से एक सर्वप्रधान है- (1) आकाश के देवता- आकाश के देवता में द्यौस, वरुण, मित्र, सविता, पूषण, उषा, अदिति तथा अश्विन आदि सम्मिलित थे। आकाश के सर्वश्रेष्ठ देवता सूर्य हैं। (2) मध्य-स्थान के देवता- मध्य स्थान के देवताओं में इन्द्र, मरुत, वायु, पर्जन्य आदि आते हैं। मध्य-स्थान के सर्वश्रेष्ठ देवता वायु अथवा इन्द्र हैं। (3) पृथ्वी के देवता- पृथ्वी के देवताओं में पृथ्वी, अग्नि, सोम, बृहस्पति, सरस्वती आदि आते थे। पृथ्वी के प्रधान देवता अग्नि हैं।

(6.) देवताओं की विशेषताएँ: ऋग्वैदिक-काल के देवताओं में कुछ निश्चित विशेषताएँ पाई जाती हैं- (1) समस्त देवी-देवता सदाचार तथा नैतिकता के प्रतीक हैं। (2) समस्त देवता दयावान तथा शुभचिन्तक हैं। कोई भी देवता दुष्ट स्वभाव का नहीं है। (2) समस्त देवता अलग-अलग गुणों एवं शक्तियों वाले हैं और इनके कार्य भी विभिन्न प्रकार के हैं। (3) समस्त देवता जन्म लेते हैं परन्तु फिर अमर हो जाते हैं। (4) समस्त देवता वायु में भ्रमण करते हैं जिनके रथों में घोड़े अथवा अन्य पशु-पक्षी जुते रहते हैं। (5) इन्हें मानव-स्वरूप में प्रदर्शित किया गया है तथा इन्हें मनुष्य के खाद्य-पदार्थ, यथा दूध, अन्न आदि की बलि दी जाती है।

(7.) देवियों की तुलना में देवताओं को प्रमुखता: आर्यों ने उषा काल का प्रतिनिधित्व करने वाली उषस् और अदिति जैसी देवियों की भी पूजा की किंतु ऋग्वैदिक-काल में इन देवियों को विशेष महत्त्व नहीं दिया गया। पितृत्ंत्रात्मक समाज के वातावरण में देवियों की अपेक्षा इन्द्र एवं वरुण आदि देवताओं को अधिक महत्त्व मिलना स्वाभाविक था।

(8.) धार्मिक कृत्य: देवताओं की आराधना मुख्यतः स्तुतिपाठ और यज्ञाहुति से की जाती थी। ऋग्वैदिक-काल में स्तुति पाठ का बड़ा महत्त्व था। स्तुति पाठ अकेले और सामूहिक रूप में होते थे। आर्यों का विश्वास था कि प्रार्थना ईश्वर तक पहुँचती है और ईश्वर प्रार्थनाओं से प्रसन्न होता है। गायत्री मन्त्र का बड़ा महत्त्व था और इसका पाठ दिन में तीन बार अर्थात् प्रातःकाल, मध्याह्न तथा सन्ध्या समय किया जाता था। आरम्भ में प्रत्येक कबीले अथवा कुल का अपना एक विशिष्ट देवता होता था। अनुमान होता है कि सम्पूर्ण कबीले के सदस्य इस स्तुतिगान में भाग लेते थे।

‘यज्ञ’ ऋग्वैदिक आर्यों की उपासना पद्धति के मुख्य अंग थे। इसलिए ऋग्वेद-धर्म को ‘यज्ञ-धर्म’ कहा जाता है। यज्ञों में अन्न, घी, जौ तथा सुगन्धित सामग्री की आहुति दी जाती थी तथा देवताओं से लम्बी आयु, पुत्र-पौत्र, धन-धान्य की प्राप्ति तथा शत्रुओं का विनाश करने की प्रार्थना की जाती थी। प्रारम्भ में प्रत्येक आर्य यजन कार्य स्वयं करत था, परन्तु बाद में ब्राह्मण अथवा पुरोहित की सहायता ली जाने लगी। सम्पूर्ण ‘जन’ अर्थात् ‘कबीले’ द्वारा दी जाने वाली यज्ञबलि को ग्रहण करने के लिए अग्नि और इंद्र का आह्नान किया जाता था।

ऋग्वैदिक-काल में यज्ञाहुति के अवसर पर कोई अनुष्ठान अथवा मंत्रपाठ नहीं होता था। उस समय शब्द की चमत्कारिक शक्ति को उतना महत्त्व नहीं दिया जाता था जितना कि उत्तर-वैदिक-काल में दिया जाने लगा था। ऋग्वैदिक-काल में आर्य, आध्यात्मिक उन्नति अथवा मोक्ष के लिए देवताओं की आराधना नहीं करते थे। वे इन देवताओं से मुख्यतः संतति, पशु, अन्न, धन, स्वास्थ्य आदि मांगते थे। ऋग्वेद में वृहत एवं व्ययात्मक यज्ञों का भी उल्लेख मिलता है, जो प्रायः राजाओं और धनी व्यक्तियों द्वारा करवाए जाते थे।

(9.) पितरों की पूजा: ऋग्वैदिक आर्यों में पितरों की पूजा प्रचलित थी। उनका मानना था कि पितरों की कृपा प्राप्त करने से कष्ट क्षीण होते हैं।

(10.) सदाचार पर बल: ऋग्वैदिक आर्यों में सदाचार पर बहुत बल दिया जाता था। चोरी, डकैती, मिथ्या भाषण, निरपराधों एवं निःशक्तों की हत्या, पराये धन का हरण आदि कार्य निकृष्ट माने जाते थे। जादू, टोना-टोटका, धोखा, व्यभिचार आदि को पाप समझते थे। ऋग्वेद में पाप पुण्य और स्वर्ग-नर्क की परिकल्पना भी मिलती है। आर्यों का विश्वास था कि पुण्यकर्म करने वाले लोग मृत्यु के पश्चात् स्वर्ग में रहते हैं तथा पापकर्म करने वाले लोग नर्क एवं अन्धकूप में धकेले जाते हैं।

(11.) दान: ऋग्वैदिक आर्यों में दान देने की परम्परा थी। आर्य अपने पुरोहितों को गाय, रथ, घोड़े, दास-दासियां दान करते थे। पुरोहितों को दान देने के जितने भी उल्लेख मिलते हैं उनमें गायों और स्त्री दासों के रूप में दान देना बताया गया है, भूखंड के रूप में कभी नहीं।

(12.) मंदिरों तथा मूर्तियों का अभाव: ऋग्वैदिक-काल में मन्दिरों का निर्माण नहीं हुआ था और न मूर्ति-पूजा प्रचलित थी किन्तु ऋग्वेद में एक स्थान पर दस गायें देकर इन्द्र की प्रतिमा लेने का उल्लेख आया है। इससे ज्ञात होता है कि ऋग्वैदिक आर्य मूर्ति-पूजा से परिचित थे। उनकी पूर्ववर्ती एवं समकालीन सैन्धव सभ्यता में मूर्ति-पूजा बड़े स्तर पर प्रचलित थी।

(13.) आत्मा एवं मोक्ष सम्बन्धी विचार: आर्य लोग अमरता में विश्वास करते थे। कुछ विद्वानों का माना है कि ऋग्वैदिक आर्यों में पुनर्जन्म की भावना का उदय हो चुका था। ऋग्वेद में मोक्ष का उल्लेख नहीं मिलता परन्तु पर्याप्त साक्ष्यों के अभाव में इस सम्बन्ध में निश्चयपूर्वक कहना कठिन है।

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