इस जगत में विष्णु सर्वत्र व्याप्त हैं, इस जगत् का कारण विष्णु हैं।…… विष्णु के समान कोई अन्य देव नहीं है।
-नारद पुराण, पूर्व भाग, 6/58
जब जैन-धर्म तथा बौद्ध-धर्म ह्रास के मार्ग पर बढ़ रहे थे तब दूसरी ओर वैदिक-धर्म अपने पुनरुत्थान में लगा था। ब्राह्मण-चिंतकों ने खर्चीले वैदिक-यज्ञों, जटिल-कर्मकाण्डों तथा लम्बे-अनुष्ठानों और उपनिषदों के ब्रह्मज्ञान से उकताई हुई प्रजा के लिए भक्ति पर अवलम्बित नवीन धर्म की खोज की जिसमें वेद-वर्णित देवताओं को बलि देने की बजाए उनकी पूजा एवं भक्ति पर जोर दिया गया।
वेद-वर्णित सर्वव्यापी, सर्वशक्तिमान एवं भक्तवत्सल परमात्मा को देवताओं का भी स्वामी माना गया जो सम्पूर्ण सृष्टि का सर्जक, पालक एवं संहारक था। वह देवताओं का भी स्वामी था। उसकी भक्ति को धर्म एवं मोक्ष का साधन घोषित किया गया। रामायण एवं महाभारत नामक महाकाव्यों में इस नए धर्म का न केवल बीज-वपन हो चुका था अपितु वे भलीभांति पल्लवित भी हो चुका था।
यही नवीन धर्म पौराणिक धर्म अथवा वैष्णव धर्म के रूप में विशाल वटवृक्ष बन गया। रामायण के मर्यादा पुरुषोत्तम राम तथा महाभारत के योगेश्वर कृष्ण को पौराणिक धर्म में वेद-वर्णित विष्णु के अवतार घोषित किया गया।
पौराणिक धर्म अथवा वैष्णव धर्म का विकास
पौराणिक धर्म अथवा वैष्णव धर्म का मुख्य आधार वेद-वर्णित देवता विष्णु एवं उनके दस अवतार- मत्स्य, कूर्म, वाराह, नृसिंह, वामन, परशुराम, राम, कृष्ण, बलराम एवं कल्कि हैं। पहले तीन अवतार अर्थात् मत्स्य, कूर्म और वराह सतयुग में, नृसिंह, वामन, परशुराम और राम त्रेतायुग में तथा कृष्ण और बलराम द्वापरयुग में अवतरित हुए। कलियुग के लिए भविष्य में होने वाला कल्कि अवतार कल्पित किया गया।
विष्णु एवं उनके अवतारों के साथ-साथ शिव, सूर्य, दुर्गा, गणेश एवं कर्तिकेय भी भक्तों पर प्रसन्न होने वाले, उनके कष्ट हरने वाले, संकट के समय उनकी रक्षा करने वाले देवता घोषित किए गए। इन देवी-देवताओं के प्राकट्य, उनके विविध स्वरूपों, उनमें निहित शक्तियों एवं गुणों तथा उनकी लीलाओं पर आधारित कथाओं की रचना की गई। इन कथाओं को विभिन्न पुराणों में लिखा गया। इसलिए इसे ‘पौराणिक धर्म’ कहा गया।
‘पुराण’ अपने पूर्ववर्ती वेदों, उपनिषदों, ब्राह्मणों, आरण्यकों आदि से बिल्कुल अलग तथा पूरी तरह नवीन ग्रंथ थे किंतु इनके रचयिताओं ने इन्हें ‘पुराण’ कहकर पुकारा जिसका अर्थ होता है- ‘पुराना।’ इन नवीन ग्रंथों को पुराना कहकर पुकारे जाने का कारण यह था कि इन ग्रंथों के रचनाकार जनसामान्य को यह संदेश नहीं देना चाहते थे कि उन्होंने किसी नवीन धर्म का प्रतिपादन अथवा निर्माण किया है, अपितु इन ग्रंथों के माध्यम से वे जनसामान्य को यह संदेश देना चाहते थे कि इन ग्रंथों में उन्हीं वेदविहित ईश्वर तथा देवी-देवताओं के स्वरूपों, गुणों एवं लीलाओं का वर्णन किया गया है जिनकी पूजा आर्यजन अनादि काल से करते चले आए हैं।
भगवान के ‘सर्वशक्तिशाली’, ‘भक्त-वत्सल’, ‘संकट मोचक’ एवं ‘मोक्षदायक’ स्वरूप ने जनसामान्य को तेजी से अपनी ओर आकर्षित किया। भगवान की कृपा में विश्वास रखने के कारण इस धर्म को ‘भागवत् धर्म’ कहा गया। चूंकि विष्णु इस धर्म के मुख्य उपास्य थे इसलिए इसे वैष्णव धर्म भी कहा गया। इस धर्म में विष्णु को सर्वशक्ति सम्पन्न तथा सर्वश्रेष्ठ देवता से भी आगे बढ़कर सर्वव्यापी भगवान माना गया।
इस कारण उन्हें ‘वासुदेव’ कहा गया जिसका अर्थ है ‘जो सब जगह व्याप्त’ है तथा ‘जिसमें सारे पदार्थ निवास करते हैं’। वह ‘ज्ञान, शक्ति, बल, ऐश्वर्य, वीर्य तथा तेज’ नामक छः उत्तम गुणों से युक्त तथा हेय गुणों से रहित है।
इस धर्म को ‘सात्वत धर्म’, ‘पांचरात्र धर्म’ तथा ‘नारायणीय धर्म’ भी कहा जाता है। कुछ विद्वानों का मानना है कि भागवत् धर्म, सात्वत धर्म, पांचरात्र धर्म तथा नारायणी धर्म उत्तर-पश्चिम भारत में अलग-अलग एवं स्वतंत्र रूप से प्रकट हुए थे। उनके देवी-देवता लगभग एक जैसे थे तथा भक्ति एवं ईश्वरीय कृपा ही इन धर्मों के मुख्य आधार थे, इसलिए ये सब धर्म अपने-अपने देवी-देवताओं, धार्मिक मान्यताओं एवं उपासना विधियों को साथ लेकर वैष्णव धर्म में समाहित हो गए जो अपने पूर्ववर्ती धर्मों अर्थात् भागवत् धर्म, सात्वत धर्म, पांचरात्र धर्म तथा नारायणी धर्म से अधिक पुष्ट था।
इस प्रकार वैष्णव धर्म का उदय किसी एक व्यक्ति द्वारा रची जाने वाली अथवा किसी एक निश्चित समय में घटित होने वाली घटना नहीं थी अपितु इसका विकास दीर्घकाल में तथा बहुत से लोगों द्वारा अलग-अलग किए गए प्रयासों का परिणाम था।
वैदिक धर्म तथा पौराणिक धर्म (वैष्णव धर्म) में अंतर
वैदिक धर्म तथा पौराणिक धर्म (वैष्णव धर्म) में मूल अंतर यह था कि वैदिक धर्म का ऋषि यज्ञ, हवन, अनुष्ठान, कर्मकाण्ड तथा बलि के माध्यम से विभिन्न देवताओं की कृपा प्राप्त करता था जो कि विविध प्राकृतिक शक्तियों की प्रतीक थीं। जबकि वैष्णव धर्म का उपासक अपने उपास्य देव में विश्वास, भक्ति, प्रणाम, निवेदन, समर्पण आदि के माध्यम से उपास्य देव की कृपा प्राप्त करता था जो कि किसी अथवा किन्हीं प्राकृतिक शक्तियों का प्रतीक नहीं था अपितु सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापी, भक्तवत्सल एवं संकट मोचन परमात्मा था और समस्त सृष्टि एवं समस्त देवताओं का स्वामी था।
पौराणिक धर्म (वैष्णव धर्म) का इतिहास
पौराणिक धर्म (वैष्णव धर्म) का इतिहास जानने के लिए साहित्य, शिलालेख, मुद्राएं, प्रतिमाएं, मंदिरों के ध्वंसावशेष आदि विविध सामग्री का उपयोग किया जाता है। संस्कृत साहित्य के अंतर्गत लिखित विविध उपनिषद्, रामायण, महाभारत, श्रीमद्भागवत्, विविध पुराण वैष्णव धर्म के इतिहास को जानने के मूल साधन हैं। इन ग्रंथों में लेखकों द्वारा कुछ अतिरिक्त बातें लिख दिए जाने एवं कुछ मूलभूत बातें छोड़ दिए जाने का अंदेशा रहता है इसलिए शिलालेखों एवं मुद्राओं को अधिक प्रामाणिक माना जाता है।
भागवत् धर्म अथवा वैष्णव धर्म का सर्वप्रथम उल्लेख ई.पू. पांचवी शती में पाणिनी द्वारा लिखित अष्टाध्यायी (4/3/98) में उपलब्ध होता है। इससे अनुमान किया जाता है कि ई.पू. छठी शताब्दी में अस्तित्त्व में आए जैन धर्म, बौद्ध धर्म एवं उपनिषदों के बाद के किसी काल में वैष्णव धर्म का उदय हुआ। अतः इसे जैन-धर्म एवं बौद्ध धर्म की प्रतिक्रिया में उत्पन्न हुआ धर्म माना जाता है।
चौथी शताब्दी ईस्वी में यूनानी राजदूत मेगस्थिनीज ने मगध सम्राट चंद्रगुप्त मौर्य की सभा में रहा। उसने लिखा है कि ‘सौरसेनाई’ नामक भारतीय जाति ‘हेरेक्लीज’ का विशेष रूप से पूजन करती थी। विद्वानों ने हेरेक्लीज को वासुदेव कृष्ण माना है।
ई.पू.113 का भिलसा अभिलेख कहता है कि ‘भागवत् हेलिओडोरस ने देवाधिदेव वासुदेव की प्रतिष्ठा में गरुड़-स्तम्भ का निर्माण करवाया।’
यह हेलियोडोरस तक्षशिला निवासी ‘दिय’ का पुत्र था तथा इण्डो-बैक्ट्रियन यवन राजा एण्टिालकिडस का राजदूत बनकर मालवा नरेश भागभद्र के दरबार में रहता था। इससे स्पष्ट है कि ई.पू. द्वितीय शती में भागवत् धर्म का पर्याप्त प्रचार हो चुका था। यह धर्म भारत के पश्चिमोत्तर भाग में फैला हुआ था जिसमें तब का गांधार तथा आज का पश्चिमी पाकिस्तान और पूर्वी अफगानिस्तान तक का क्षेत्र सम्मिलित था।
उस काल में अनेक इण्डो-यूनानी शासकों ने भागवत् धर्म को स्वीकार कर लिया था। चित्तौड़गढ़ के निकट घोसुण्डी में प्राप्त ई.पू.200 के शिलालेख में संकर्षण एवं वासुदेव के उपासना मण्डल के चारों ओर पूजा-शिला प्राकार का निर्माण किए जाने का उल्लेख है।
ई.पू. पहली शती के नानाघाट के गुहा अभिलेख के प्रारम्भिक मंगलाचरण में अन्य देवों के नाम के साथ-साथ संकर्षण (अर्थात् बलराम) तथा वासुदेव (अर्थात् कृष्ण) के नाम भी प्राप्त होते हैं। मथुरा में जब शक क्षत्रपों का शासन था तब इस मण्डल में वैष्णव धर्म का उत्थान हुआ।
ई.पू.80 से ई.पू.57 की अवधि में मथुरा के महाक्षत्रप शोडाश के काल का एक शिलालेख मिला है जिसमें लिखा है कि ‘वसु’ नामक व्यक्ति ने महास्थान (जन्मस्थान) में भगवान् वासुदेव का एक चतुःशाला मंदिर, तोरण तथा वेदिका (चौकी) का निर्माण करवाया। मथुरा में कृष्णमंदिर के निर्माण का यह पहला उल्लेख है। ईसा पूर्व प्रथम शती के उपरोक्त उल्लेख के लगभग 400 साल बाद तक ब्राह्मण धर्म के किसी भी सम्प्रदाय का अभिलेख अथवा शिल्प सम्बन्धी प्रमाण नहीं मिला है। ये प्रमाण पुनः ईसा की चौथी शती के प्रथम भाग में गुप्त शासकों के काल में मिलते हैं।
पौराणिक धर्म का सर्वाधिक उन्नयन गुप्त शासकों के काल में हुआ। गुप्तवंशीय राजा स्वयं को ‘परमभागवत्’ कहते थे। गुप्तकालीन अभिलेखों, मूर्तियों एवं ताम्रपत्रों आदि में पौराणिक धर्म के उन्नयन तथा विकास का सांगोपांग विवरण मिलता है। पौराणिक धर्म का प्रारम्भिक इतिहास अत्यंत अस्पष्ट है जिसमें एक ओर सात्वत, भागवत्, पांचरात्र, नारायणीय, पौराणिक आदि विभिन्न मतों के संयोजन की तथा दूसरी ओर नारायण, वासुदेव, विष्णु तथा कृष्ण नामों के एकीकरण की दीर्घकालीन एवं जटिल प्रक्रिया है।
वैष्णव धर्म के विकास की जटिल प्रक्रिया को महाभारत के विभिन्न स्थलों पर अनुभव किया जा सकता है। महाभारत के शांति पर्व के नारायणीय खण्ड (अध्याय 334-351) में वासुदेव कृष्ण की नारायण विष्णु से अभेद स्थापना की गई है। वैष्णव धर्म के प्रमुख ग्रंथ श्रीमद्भगवगीता, श्रीहरिवंश पुराण, विष्णु सहस्रनाम तथा अध्यात्म रामायण महाभारत के ही अंश हैं।
उत्तर भारत के शूरसेन मण्डल में ‘सात्वत’ नामक क्षत्रिय जाति निवास करती थी। भागवत् पुराण में परमब्रह्म को भगवत् अथवा वासुदेव कहने वाले तथा वासुदेव की पूजा की विशिष्ट पद्धति रखने वाले सात्वतों का वर्णन है। इसमें वासुदेव को ‘सात्वतर्षभ’ कहा गया है। जिस वृष्णि वंश में वासुदेव (कृष्ण), संकर्षण (बलराम), अनिरुद्ध (कृष्ण के पुत्र) आदि ने जन्म लिया था, उस वृष्णि जाति का ही दूसरा नाम सात्वत था।
कुछ विद्वान ‘सात्वत’ को वृष्णि का पर्यावाची न मानकर ‘वृष्णि’ का एक गोत्र मानते हैं जिसमें कृष्ण आदि का जन्म हुआ। इस प्रकार एक ही धार्मिक पद्धति ‘सात्वत’ तथा ‘भागवत्’ दोनों नामों से प्रसिद्ध हुई। पुराणों तथा महाकाव्यों में कृष्ण के लोकोत्तर कार्यों का वर्णन है। यादव वंश का यह असाधारण मेधा सम्पन्न वीर पुरुष शीघ्र ही अपने जन में पूज्य पुरुष के रूप में स्थापित हुआ तथा उनके धर्म का उपास्य देव बना।
यही भागवत अथवा सात्वत धर्म कहलाया। महाभारत के शांति पर्व में भागवत धर्म को सात्वत विधि कहा गया है और उसी सात्वत विधि को पांचरात्र नाम भी दिया गया है। वैष्णव तंत्रों में अन्यतम पद्मतंत्र में भागवत् धर्म के लिए सात्वत, एकान्तिक तथा पंचरात्र पर्याय नाम दिए गए हैं।
उपरोक्त विवेचन के आधार पर कहा जा सकता है कि यादव वंश की सात्वत जाति ने एक ऐसे धार्मिक सम्प्रदाय को विकसित किया जिसने बौद्ध एवं जैन धर्म के विपरीत, परमेश्वर के विचार को मान्यता दी तथा मुक्ति प्राप्त करने के लिए उस परमेश्वर की भक्ति का मार्ग बताया। सात्वतों के इस धर्म में परम पुरुष के रूप में वासुदेव की पूजा की जाती थी। मेगस्थिनीज ने सात्वतों तथा उनके द्वारा की जाने वाली वासुदेव कृष्ण की पूजा का स्पष्ट संकेत किया है।
महाभारत में सात्वत धर्म के पर्याय के रूप में पांचरात्र मत का नाम दिया गया है। महाभारत के शांति पर्व के नारायणीय खण्ड में सर्वप्रथम पांचरात्र का उल्लेख हुआ है। नारायण के उपासक को पांचरात्र तथा स्वयं नारायण को पांचरात्रिक कहा गया है। महाभारत के अनुसार यह मत महोपनिषद् है जिसमें चारों वेदों तथा सांख्य का समावेश है। शतपथ ब्राह्मण में पांच रात्रियों तक चलने वाले एक ‘पांचरात्र सत्र’ का वर्णन है।
पुरुष नारायण ने यह पांचरात्र सत्र किया था जिससे उन्हें समस्त प्राणियों पर आधिपत्य प्राप्त हो गया। अतः इस सत्र के आधार पर इस मत का नाम पांचरात्र पड़ा। नारद संहिता में इस मत में विवेच्य विषयों की संख्या पांच होने से यह पांचरात्र कहलाया। रात्र का अर्थ ज्ञान होता है तथा इस धर्म में परमतत्त्व (परमात्मा), मुक्ति (मोक्ष), भुक्ति (भोग अथवा आहार), योग (प्राणायाम एवं ध्यान आदि) तथा विषय (संसार) नामक पांच प्रकार के ज्ञान का निरूपण किया गया है।
ईश्वर संहिता के अनुसार शांडिल्य, औपगायन, मौंजायन, कौशिक तथा भारद्वाज नामक पांच ऋषियों की तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान् ने पांचों को पांच दिन एवं रातों तक इस धर्म की शिक्षा दी थी इसलिए इसका नाम पांचरात्र हुआ। शंकराचार्य ने ब्रह्मसूत्र पर अपनी टीका में भागवत् सम्प्रदाय का उल्लेख करते हुए पांच पूजा-विधियां बताई हैं जिनके कारण इस धर्म का नाम पांचरात्र पड़ा-
(1.) अभिगमन्: मन वचन एवं शरीर को भगवान पर केन्द्रित करके मंदिर में जाना।
(2.) उपादान: पूजा सामग्री एकत्रित करना।
(3.) इज्या: पूजा करना।
(4.) स्वाध्याय: मंत्र का जाप करना।
(5.) योग: समाधि लगाना।
पद्मतंत्र के अनुसार इस मत के सम्मुख पांच मत- योग, सांख्य, बौद्ध, जैन तथा पाशुपत रात्रि के सदृश मलिन हो जाते हैं, अतः यह पांचरात्र है। अहिर्बुध्न्य संहिता के अनुसार उपास्य देव के पांच रूपों- पर, व्यूह, विभव, अन्तर्यामिन् तथा अर्चा को स्वीकार करने के कारण इस मत का नाम पांचरात्र हुआ। अहिर्बुध्न्य संहिता पांचरात्र मत की प्रारम्भिक संहिताओं में से एक है।
उपरोक्त वर्णित सात्वत, भागवत् तथा पांचरात्र धर्मों का वैष्णव धर्म में एकीकरण कब हुआ, यह कहना कठिन है किंतु निश्चित रूप से यह एक लम्बी प्रक्रिया थी। इन सभी मतों के उपास्यदेव वासुदेव ही थे। उन वासुदेव कृष्ण का संश्लेषण विष्णु एवं नारायण से होने की प्रक्रिया भी उतनी ही लम्बी रही होगी। विष्णु, नारायण, वासुदेव, कृष्ण आदि विभिन्न नामों में सर्वाधिक प्राचीन नाम विष्णु ही है। इस नाम का उल्लेख ऋग्वेद में भी कई बार हुआ है। इस प्रकार वैष्णव धर्म में विष्णु की जो महत्ता स्थापित की गई है उसका बीज आर्यों के सर्वप्रथम ग्रंथ ऋग्वेद में उपलब्ध है।
पौराणिक धर्म अथवा वैष्णव धर्म के इतिहास का काल विभाजन
पौराणिक धर्म के इतिहास को काल विभाजन की दृष्टि से दो मुख्य युगों में बाँटा जा सकता है-
(1) पौराणिक धर्म (वैष्णव धर्म) का उद्भव काल
ई.पू. 600 से ई.300 तक लगभग 900 वर्षों का काल भक्ति प्रधान सम्प्रदायों के बीजारोपण, अंकुरण और पल्लवित होने का युग था किन्तु इस सम्पूर्ण समय में बौद्ध धर्म तथा जैन-धर्म की प्रबलता के कारण पौराणिक धर्म का पूर्ण विकास नहीं हो पाया। इस काल के 1500 से भी अधिक अभिलेख मिले हैं जिनमें से 50 से भी कम अभिलेख शैव, वैष्णव अथवा हिन्दू-धर्म के अन्य सम्प्रदायों से सम्बन्ध रखते हैं शेष समस्त बौद्ध और जैन धर्मों का उल्लेख करते हैं।
स्पष्ट है कि ई.पू. 600 से ई.पू. 300 तक पौराणिक धर्म का विशेष उत्कर्ष नहीं हुआ। नन्द राजाओं (ई.पू.345-321) तथा चन्द्रगुप्त मौर्य (ई.पू.321-296) के संरक्षण में जैन-धर्म का प्रसार हुआ। सम्राट अशोक (ई.पू.268-ई.पू.232) ने बौद्ध धर्म को राज्याश्रय प्रदान किया।
मौर्य शासकों का विनाश करके पुष्यमित्र आदि राजाओं ने अश्वमेध आदि यज्ञों को पुनर्जीवित किया किंतु ई.पू. 200 से ई.100 तक पश्मिोत्तर भारत पर शासन करने वाले मिनेण्डर आदि यवन राजाओं और कनिष्क आदि कुषाण राजाओं ने पुनः बौद्ध धर्म को प्रश्रय दिया। इस कारण इस काल में पौराणिक धर्म सात्वत धर्म, भागवत धर्म, नारायणी धर्म, पांचरात्र धर्म आदि प्रारम्भिक स्वरूपों में विद्यमान रहा तथा उनका संशलिष्ट स्वरूप ‘वैष्णव धर्म’ के रूप में इसके बाद ही सामने आया।
तीसरी शताब्दी ईस्वी में कुषाणों का उच्छेदन करने वाले भारशिव-नाग राजाओं ने हिन्दू-धर्म को राजधर्म बनाया। उसने दस अश्वमेध यज्ञ किए। भारशिव-नागों से तथा उनके बाद के गुप्त राजाओं का संरक्षण पाकर पौराणिक हिन्दू-धर्म का उत्कर्ष होने लगा और बौद्ध धर्म में क्षीणता आ गई।
(2) पौराणिक धर्म (वैष्णव धर्म) का उत्कर्ष काल
ई.300 से ई.1200 तक लगभग 900 वर्षों का काल पौराणिक धर्म का उत्कर्ष काल माना गया है। इस काल का प्रारम्भ मगध में गुप्त सामाज्य की नींव पड़ने से होता है जो ई.495 तक अस्त्तिव में रहता है। राजनीतिक स्तर पर गुप्त वंश ही सच्चे अर्थों में पौराणिक धर्म का उन्नायक था। गुप्त शासकों के संरक्षण में वैष्णव धर्म की स्थापना राष्ट्रीय स्तर पर बड़ी धूमधाम से हुई किंतु बौद्ध धर्म अपना अस्त्तिव बनाए रहा।
चौथी शताब्दी ईस्वी से भारत में बौद्ध तथा जैन धर्मों की तुलना में पौराणिक हिन्दू-धर्म को प्रधानता मिलने लगी। पांचवी शताब्दी ईस्वी के अंत में विदेशी हूण शक्ति ने गुप्त साम्राजय का विनाश किया किंतु हूण बौद्धों के परम-शत्रु सिद्ध हुए। उनके क्रूर प्रहारों से बौद्ध धर्म इतिहास के अस्ताचल में खिसक गया और पौराणिक धर्म को भलीभांति फलने-फूलने का अवसर प्राप्त हुआ।
सातवीं शताब्दी ईस्वी में थाणेश्वर में पुष्भूति वंश का उदय हुआ जिसका सर्वाधिक शक्तिशाली राजा हर्षवर्द्धन, सभी धर्मों को आदर देने वाला था किंतु उसने बौद्ध धर्म की पुनर्स्थापना के विशेष प्रयास किए।
हर्ष की मृत्यु के बाद उत्तरी भारत में राजपूत वंशों का उदय हुआ जिनका राज्य निरंतर होने वाले युद्धों पर टिका था। इसलिए राजपूत राजाओं ने बौद्ध एवं जैन-धर्म की बजाए पौराणिक धर्म को अपनाया जिसमें सर्वशक्तिमान, भक्तवत्सल एवं शत्रुविनाशक विष्णु, शिव एवं दुर्गा तथा उनके विविध अवतारों की पूजा होती थी।
राजपूत राज्य 12वीं शताब्दी के अंत तक अपना स्वतंत्र अस्त्तिव बनाए रहे किंतु जब दिल्ली में मुस्लिम सल्तनत की स्थापना हुई तो पौराणिक धर्म की प्रगति अवरुद्ध हो गई। दिल्ली के मुस्लिम सुल्तानों ने हजारों मंदिरों एवं मूर्तियों को तोड़ डाला, हिन्दू ग्रंथों को नष्ट कर दिया और लाखों हिन्दुओं को बलपूर्वक मुसमलमान बनाया। फिर भी पौराणिक धर्म, बौद्ध धर्म की तरह नष्ट नहीं हुआ।
वह भक्तवत्सल भगवान की शरण में जीवन जीने की शक्ति प्राप्त करता रहा। पौराणिक धर्म आज भी पूरे उत्साह के साथ जीवित है और भारत की लगभग 80 प्रतिशत जनसंख्या इस धर्म का पालन करती है। 12 वीं शताब्दी के अन्त तक पौराणिक धर्म के दोनों प्रतिद्वंद्वी समाप्त हो गए। बौद्ध धर्म का तो भारत में नामलेवा तक नहीं बचा और जैन-धर्म का प्रभाव नगण्य रह गया।