17 मार्च 1527 को खानवा के मैदान में बाबर एवं महाराणा सांगा के बीच हुए युद्ध में सांगा किसी हथियार के लगने से घायल होकर मूर्च्छित हो गया तथा मेड़ता का राजा वीरमदेव सांगा को युद्ध के मैदान से बाहर ले गया। आम्बेर, मेवाड़, मेड़ता, जोधपुर, बीकानेर आदि राज्यों की ख्यातों में बड़ी संख्या में उन हिन्दू योद्धाओं के नाम दिए गए हैं जो इस युद्ध में काम आए थे। राजपूतों की ऐसी कोई शाखा नहीं थी जिसका कोई प्रमुख राजा इस युद्ध में न काम आया हो!
दूसरी ओर बाबर ने अपनी पुस्तक बाबरनामा में इस बात पर मौन ही धारण किया है कि बाबर के पक्ष के कौन-कौन से मुसलमान सेनापति एवं बेग इस युद्ध में काम आए।
भाटों के एक दोहे से प्रकट होता है कि बाबर की सेना के पचास हजार सैनिक इस युद्ध में काम आए थे। गौरीशंकर हीराचंद ओझा ने लिखा है कि यह संभव है कि बाबर की सेना का भीषण संहार हुआ हो। इसमें कोई दो राय नहीं कि बाबर ने यह लड़ाई तोपों और बंदूकों के बल पर जीती थी और हिन्दुओं ने यह लड़ाई तीरों एवं तलवारों पर आश्रित होने के कारण हारी थी। फिर भी कुछ ऐसे अवसर आए थे जब महाराणा सांगा इस युद्ध को अपने पक्ष में कर सकता था।
पानीपत के युद्ध की समाप्ति के तुरंत बाद महाराणा सांगा के पास एक बड़ा अवसर था जब वह बाबर को परास्त कर सकता था। सांगा को चाहिए था कि वह स्वयं पानीपत, दिल्ली अथवा आगरा के आसपास अपनी सेनाओं को लेकर तैयार रहता ताकि जैसे ही बाबर पानीपत के मैदान से आगे बढ़ता, सांगा उस पर टूट पड़ता और उसे दिल्ली तथा आगरा पहुंचने ही नहीं देता।
सांगा ने बाबर को अगले युद्ध की तैयारी का पूरा अवसर दिया, इसे सांगा की रणनीतिक कमजोरी ही कहना चाहिए। कुछ इतिहासकारों ने लिखा है कि सांगा को आशंका थी कि गुजरात का सुल्तान मेवाड़ पर आक्रमण करने की तैयारियां कर रहा था, इसलिए सांगा पानीपत से दूर रहा।
बाबर ने पानीपत के युद्ध में तूलगमा टुकड़ियों का प्रयोग किया था, यदि सांगा ने अपने गुप्तचरों को पानीपत के युद्ध की टोह लेने भेजा होता तो सांगा को इन टुकड़ियों की कार्यप्रणाली के बारे में ज्ञात हो जाता और वह भी इसी प्रकार की तैयारी कर सकता था किंतु सांगा परम्परागत युद्ध तकनीक पर ही आंख मूंद कर भरोसा किये रहा और शत्रु-दल के छल-बल के बारे में नहीं जान सका।
पानीपत के युद्ध में इब्राहीम लोदी की पराजय के बाद राणा सांगा को यह ज्ञात हो चुका होगा कि तोपों और बंदूकों के सामने तीरों और तलवारों से कुछ नहीं हो सकेगा। इसलिए सांगा को चाहिए था कि वह बाबर को अपनी तोपें लेकर खानवा तक नहीं पहुंचने देता। यदि वह बाबर पर उस समय हमला बोलता जब बाबर अपनी तोपों को आगरा से मंधाकुर तथा सीकरी होता हुआ खानवा की ओर बढ़ा रहा था तो बाबर को तोपों में बारूद भरने का समय ही नहीं मिलता।
ऐसी स्थिति में बाबर को तीरों, भालों और तलवारों से लड़ना पड़ता। उसे बंदूकों से कुछ सहायता मिलती फिर भी राजपूत मुगलों को आसानी से काबू कर लेते। एल्फिंस्टन ने अपनी पुस्तक हिस्ट्री ऑफ इण्डिया में लिखा है- ‘यदि राणा मुसलमानों की पहली घबराहट पर ही आगे बढ़ जाता तो उसकी विजय निश्चित थी।’
इसमें कोई संदेह नहीं कि हिन्दू-राजा हिन्दू-अस्मिता की रक्षा के लिए लड़े किंतु उनकी युद्ध-तकनीक हजारों साल पुरानी थी इस कारण वे समरकंद और अफगानिस्तान से आए बाबर के सामने टिक नहीं सके जिनके पास मंगोलों, तुर्कों, उज्बेकों, रूमियों तथा ईरानियों से प्राप्त युद्ध कौशल एवं युद्ध तकनीकें थीं। यद्यपि यह कहा जा सकता है कि खानवा के युद्ध में बाबर की तोपें और बंदूकें जीत गईं तथा हिन्दुओं के तीर-कमान, तलवारें और भाले हार गये तथापि यह भी सच है कि गुहिलों के नेतृत्व में लड़े गये इस युद्ध में हिन्दू राजाओं की पराजय के और भी बड़े कारण थे। हिन्दू राजा अब भी युद्ध सम्बन्धी नैतिकताओं का पालन करते हुए शत्रु पर सामने से आक्रमण करने के सिद्धांत पर डटे हुए थे।
दूसरी ओर बाबर पर युद्ध सम्बन्धी नैतिकता का कोई बंधन नहीं था। उसकी तूलगमा युद्ध-पद्धति का तो आधार ही पीछे से वार करना, धोखा देकर युद्ध-क्षेत्र में घुसना और शत्रु को चारों तरफ से घेरकर मारने का था। जब हिन्दू सामने खड़े शत्रु से लड़ रहे थे तब बाबर की सेनाओं ने दोनों ओर से प्रहार करके हिन्दुओं को पराजित कर दिया।
बाबर घोड़े पर सवार था जबकि महाराणा अपने राज्यचिह्नों को धारण करके हाथी पर सवार हुआ। यह हिन्दू-पक्ष की सबसे बड़ी कमजोरी थी। इससे बाबर के सैनिकों ने राणा को दूर से ही पहचान लिया और दूर से ही उस पर निशाना साध लिया। विभिन्न ख्यातों के संदर्भ से कविराजा श्यामलदास ने अपने ग्रंथ वीरविनोद में लिखा है कि युद्ध आरम्भ होते ही रायसेन का मुस्लिम शासक सलहदी महाराणा सांगा का पक्ष त्यागकर बाबर की तरफ चला गया।
कर्नल टॉड तथा हरबिलास सारड़ा ने भी इस तथ्य को स्वीकार किया है। डॉ. के. एस. गुप्ता तथा उनके साथी लेखकों ने लिखा है कि जब राणा सांगा घायल हो गया तब रायसेन का मुस्लिम शासक सलहदी तथा नागौर का मुस्लिम शासक खानजादा, महाराणा सांगा का पक्ष त्यागकर बाबर से जा मिले तथा उन्होंने बाबर को बताया कि सांगा युद्ध-क्षेत्र में घायल होकर मूर्च्छित हो गया है। इस कारण सांगा को युद्ध-क्षेत्र में से निकाल लिया गया है।
गौरीशंकर हीराचंद ओझा ने सलहदी द्वारा सांगा का पक्ष त्यागकर बाबर के पक्ष में जाने को स्वीकार नहीं किया है। अंग्रेज इतिहासकारों रशब्रुक विलियम्स, अर्सकिन तथा स्टेन्ली लेनपूल ने भी इस मत का विरोध किया है कि सलहदी बाबर से मिल गया था। सलहदी अपने जन्म के समय पंवार राजपूत था किंतु बाद में किसी काल में मुसलमान हो गया था। बाबर ने उसका नाम सलाहुद्दीन लिखा है।
उसका पुत्र भूपत राव संभवतः हिन्दू ही बना रहा था। कहा नहीं जा सकता कि जिस समय सलहदी सांगा का पक्ष त्यागकर बाबर की तरफ गया उस समय भूपतराव ने क्या निर्णय लिया किंतु इस बात की संभावना अधिक है कि भूपतराव सांगा के पक्ष में बना रहा और युद्ध-क्षेत्र में लड़ते हुए काम आया।
बाबर ने इस युद्ध को जेहाद घोषित किया था और अपनी सेनाओं को इस्लाम की सेना घोषित किया था किंतु हिन्दुओं की तरफ से इसे धर्मयुद्ध घोषित नहीं किया गया था। इस युद्ध में कम से कम तीन बड़े मुस्लिम सेनापति राणा सांगा की तरफ से लड़े। इनमें मेवात का शासक हसन खाँ मेवाती, सिकंदर लोदी का पुत्र महमूद खाँ तथा रायसेन का शासक सलहदी सम्मिलित थे। ये लोग खानवा के मैदान में सांगा की सहायता करके अपने राज्यों की मुक्ति का मार्ग खोलना चाहते थे।
इन तीन मुस्लिम सेनापतियों में से केवल हसन खाँ मेवाती वीरतापूर्वक लड़ते हुए रणक्षेत्र में काम आया। सिकंदर लोदी का पुत्र महमूद खाँ लोदी युद्ध-क्षेत्र से पलायन कर गया।
सलहदी तो युद्ध आरम्भ होने से ठीक पहले ही सांगा को छोड़कर बाबर से जा मिला था। बाबर ने हिन्दुओं पर विजयचिह्न के तौर पर शत्रु सैनिकों के सिरों की एक मीनार बनवाई। इसके बाद बाबर बयाना की ओर चला। अब वह राणा के देश पर चढ़ाई करना चाहता था किंतु ग्रीष्म ऋतु का आगमन जानकर उसने यह विचार त्याग दिया।
– डॉ. मोहनलाल गुप्ता