Friday, March 29, 2024
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1. सप्तसिंधु

नदियाँ केवल जल लेकर प्रवाहित नहीं होतीं। जल के साथ पर्वतीय खण्ड भी उनके आकर्षण में बंधे चले आते हैं। लगातार होने वाले घर्षण के कारण ये खण्ड शनैः-शनैः रेत में बदलते रहते हैं। बहुत सी रेत समुद्र तक पहुँचने से पहले नदियों के तटों पर जमा होती रहती है। उपजाऊ होने के कारण यह रेत कृषि के लिये उपयोगी होती है। इस उपजाऊ रेत के कारण ही नदी-तटों पर विश्व की महान सभ्यतायें पनपती हैं। प्रत्येक नदी के जीवन में एक ऐसा समय भी आता है जब इसी रेत के कारण नदियों के तट रेगिस्तान में परिवर्तित हो जाते हैं और नदी को अपने प्रवाह क्षेत्र में परिवर्तन करना पड़ता है। एक तरह से यही रेत मानव सभ्यताओं का भाग्य लिखती है। मानव सभ्यताओं के भाग्य को ही हम इतिहास के रूप में पढ़ते हैं।

 जिन दिनों की यह कथा है उन दिनों भारतवर्ष का पश्चिमी प्रांतर आज की भांति मरूस्थल से पूर्ण रूपेण आच्छादित नहीं हुआ था। तब आज के मरूस्थल के अधिकांश भाग पर हरित जल राशि युक्त[1]  द्रुमकुल्य नामक समुद्र हिलोरें लेता था। द्रुमकुल्य की गरजती, उफनती विशाल लहरें, तटों से टकराकर घनघोर रव[2]  उत्पन्न करती थीं। सिंधु, शतुद्रि,[3]  विपाशा,[4]  परुष्णि,[5]  असिक्नी,[6]  वितस्ता[7]  तथा सरस्वती नामक सात प्रमुख नदियाँ हिमालय से जल लाकर इस समुद्र को सदैव निर्मल जल से आप्लावित[8]  रखती थीं। आज के समुद्रों की भांति द्रुमकुल्य का जल खारा नहीं था। 

हिमालय से निकलने के पश्चात विपाशा, परुष्णि, असिक्नी तथा वितस्ता कुछ दूरी तक स्वतंत्र रूप में प्रवाहित होने के पश्चात् एक-एक करके सिंधु में ही आ मिलती थीं जिससे सिंधु ‘नदी’ न कहलाकर ‘नद’ कहलाता था। आज जहाँ तीर्थराज प्रयाग स्थित हैं, तब वहाँ गंगा, यमुना और सरस्वती का संगम नहीं होता था।

सिंधु की भांति सरस्वती भी एक महानदी थी जो हिमालय से निकलकर अरावली के पश्चिम में पूर्ण रूपेण स्वतंत्र रूप से बहती हुई हरियाणा और राजस्थान को पार करके द्रुमकुल्य सागर तक आती थी। मार्ग में यमुना और शतुद्रि की धारायें भी सरस्वती में आ मिलती थीं। अरावली पर्वत भी तब आज की तरह बूढ़ा नहीं हुआ था। अरावली पर वर्ष-पर्यंत मेघ छाये रहते थे और निरंतर मूसलाधार वर्षा होती रहती थी। अरावली से निकलने वाली जल धारायें सरस्वती नदी का बलवर्धन करती हुई द्रुमकुल्य से आ मिलती थीं। चर्मण्यवती[9]  का प्रवाह भी तब आज के समान दक्षिण से उत्तर पूर्व की ओर नहीं था। यह बहुत बाद की बात है जब चर्मण्यवती का प्रवाह उलट जाने से सरस्वती को अपना मार्ग बदलना पड़ा और यमुना सरस्वती को लेकर गंगा के पावन जल में कूद पड़ी। कहते हैं जिस प्रकार यम प्राणियों के प्राण हर लेता है उसी प्रकार यम की बहिन यमुना ने सरस्वती के प्राण हर लिये। यही वह समय था जब सतलज सरस्वती को छोड़कर सिंधु में जा मिली।[10] अनुमान होता है कि स्वयं सरस्वती की भी कुछ धारायें पश्चिम में मुड़कर सिंधु में जा मिलीं।   यह अभी भविष्य के गर्भ में था जबकि सरस्वती को अल्पजला होते-होते अन्तःसलिला बनकर मरूस्थल में विलीन हो जाना था एवं उसके अवशिष्ट घघ्घर, शर्करा[11]  तथा लवणाद्रि[12]  के रूप में रह जाने थे।

जिस युग की यह कथा है उस युग में सरस्वती नदी द्रुमकुल्य तक पहुँचत-पहुँचते अनेक क्षीण धाराओं में परिवर्तित हो जाती थी। इसके जल से सिंचित इक्षु की कृषि इतनी अधिक उपज देती थी कि सरस्वती का यह दक्षिणी छोर शर्करा के नाम से विख्यात हो चला था। उन दिनों द्रुमकुल्य के भीतर से यत्र-तत्र धरा प्रकट होने लगी थी। जिन पर असुर एवं द्रविड़ बस्तियों का प्रसार होता जा रहा था। दु्रमकुल्य से निकलने वाली धरा कहीं-कही इतनी ऊँची हो गयी थी कि उन पर मरूस्थल प्रकट होने लगा था।

पृथ्वी पर महा-जलप्लावन[13] घटित हुए कई शताब्दियाँ बीत चुकी थीं। प्रबल-प्रतापी देव प्रजा अपने सम्पूर्ण बल और वैभव के साथ जल प्लावन में नष्ट हो चुकी थी। वैवस्वत मनु[14]  ने तब प्रजापति बनकर प्रजा का संगठन किया और मानव संस्कृति की नींव रखी। वैवस्वत प्रजाजन तब सलिलाओं [15] के तटों पर पर्णकुटी [16] बनाकर रहते थे तथा जनों [17] के रूप में संगठित हो चुके थे। आगे चलकर यही वैवस्वत प्रजाजन आर्य कहलाये।

आर्य जन देवों की प्रसन्नता प्राप्ति के लिये भांति-भांति के यज्ञ-हवन करते थे जिनके सुवासित धूम्र से पुण्य सलिलाओं के तट आप्लावित रहते थे। आर्य ऋषि ‘इंद्र’ तथा ‘अग्नि’ को सबसे बड़ा देवता मानते थे तथा उसी रूप में उनकी अराधना करते थे।

सोम[18] की प्राप्ति के लिये आर्य जन सदैव तत्पर रहते थे। सोम उनके लिये हिरण्य[19] और अमृत से भी अधिक मूल्यवान था। सोम का पान कर वे देवों के समान ही शक्ति सम्पन्न हो जाना चाहते थे। मंत्र दृष्टा [20] ऋषियों ने कई ऋचाओं [21] का आह्वान कर उन्हें प्राप्त कर लिया था किंतु वेदों का प्राकट्य अभी भविष्य के गर्भ में था।

यह एक विस्मयकारी बात ही थी कि आर्य जन देवप्रजा के इतिहास को उसी तरह स्मरण करते थे जैसे यह उनका अपना इतिहास हो। आर्यों ने देववाणी संस्कृत को ही अपना लिया था और वे इसी वाणी में व्यवहार करते थे। संभवतः यही कारण था कि वे देव प्रजा के इतिहास को अपना इतिहास समझते थे। देवताओं से उन्हें गौ, अश्व, बीज, हल आदि उत्तम पदार्थ प्राप्त हुए थे। कृषि करने, विमान बनाने, विविध आयुधों का निर्माण एवं उपयोग करने सहित कई विद्यायें उन्हें देवताओं से प्राप्त हुई थीं।

जहाँ असुर, दैत्य तथा दानव आदि प्रजायें उन दिनों प्रस्तर[22] तथा काष्ठ [23] निर्मित अस्त्र-शस्त्रों का उपयोग कर रहीं थीं, वहीं आर्य जन ताम्र [24] तथा कांस्य [25] के साथ-साथ लौह के अस्त्र-शस्त्रों तथा रथों का उपयोग करते थे। उन दिनों ताम्र को अयस तथा लौह को कृष्ण अयस कहा जाता था। अश्वों, रथों तथा लौह निर्मित आयुधों के कारण आर्यों ने सम्मुख युद्धों में बढ़त प्राप्त कर ली थी जबकि असुर आदि प्रजायें छिपकर हानि पहुँचाने में विश्वास रखती थीं।

इतना होने पर भी आर्यों की रुचि युद्धों में नहीं थी। वे युद्धों से उदासीन रहकर यज्ञ, हवन तथा गौ-चारण [26] में ही रत रहते थे। फिर भी उन्हें युद्ध करने पड़ते थे। आर्य जन यद्यपि कृषि आरंभ कर चुके थे तथापि कृषि में भी उनकी विशेष रुचि नहीं थी क्योंकि कृषि कर्म में निरत होने का अर्थ था, एक स्थान पर स्थायी रूप से बस जाना। जबकि परम्परागत रूप से आर्य पशुचारण में निरत रहकर नये-नये प्रदेश खोजते रहने में विश्वास रखते थे। इसके उपरांत भी धीरे-धीरे कृषि का विस्तार हो रहा था और सरिताओं के तटों पर आर्यों की बस्तियाँ बस गयी थीं जिन्हें वे जन कहते थे।

आर्य जन प्रकृति के उपासक थे। वे प्रकृति के निकट रहकर प्रकृति के रहस्यों को समझने में लगे हुए थे। उन्होंने असुरों, नागों, और द्रविड़ों की भांति पक्की ईंटों से भवन, पुर एवं दुर्ग बनाने के स्थान पर पर्ण-कुटियों के जनों की स्थापना को ही अधिक श्रेष्ठ माना था।

उन दिनों सिंधु, शतुद्रि, विपासा, परुष्णि, असिक्नी, वितस्ता तथा सरस्वती का सम्पूर्ण क्षेत्र सप्त सैंधव कहलाता था। यह बहुत बाद की बात है कि गंगा-यमुना का क्षेत्र आर्य संस्कृति के प्रसार का केन्द्र बना। उन दिनों सप्त सैंधव क्षेत्र के ऊपरी भागों में आर्य बस्तियों का प्रसार था जिसका केन्द्र सरस्वती नदी थी तथा निचले क्षेत्रों में द्रविड़ सभ्यता विद्यमान थी जिसका केन्द्र सिंधु नदी थी। आर्यों तथा द्रविड़ों के पश्चिम में असुर प्रजा का निवास था। हिमालय की तराई में यक्ष, गंधर्व, किन्नर तथा किरात आदि अन्यान्य प्रजायें निवास करती थीं।

आर्यों के समान ही एक और प्रबल प्रजा भी तब तक अपनी पर्याप्त शक्ति स्थापित कर चुकी थी। नगों [27] में रहने के कारण यह प्रजा नाग कहलाती थी। नाग मूलतः आर्य प्रजा से ही विलग हुई एक शाखा थी। जहाँ आर्य जन सम्पूर्ण जीवन को कठोर तपस्या में व्यतीत करना श्रेयस्कर मानते थे वहीं नाग प्रजा जीवन के प्रवाह को मंद प्रवाही सलिला के समान व्यतीत करती थी। नाग तपस्या में तन कसने के स्थान पर प्रकृति का यथा-संभव दोहन कर जीवन को सुखमय और सुविधा-सम्पन्न बनाने में विश्वास रखते थे। आमोद, प्रमोद और रति विलास में उनकी अधिक निष्ठा थी। यही कारण था कि  संस्कृति के उषःकाल [28] में ही आर्यों और नागों ने अलग-अलग मार्ग पकड़ लिये। आर्य यद्यपि नागों की संस्कृति को हेय [29] समझते थे फिर भी वे नागों से द्वेष अथवा वैर नहीं रखते थे।

विंध्याचल से काफी नीचे गहन वनों में रहने वाले वानर तब तक अपनी संस्कृति का निर्माण नहीं कर सके थे और न ही आर्यों से मित्रता स्थापित कर सके थे। यह काफी बाद की बात है कि जिस प्रकार आर्य-प्रजा देव-प्रजा को अपना स्वाभाविक हितैषी मानती थी उसी प्रकार वानर-प्रजा ने भी प्रकृति के अत्यंत निकट रहने वाले आर्यों की संस्कृति को अपनाया तथा उन्हें अपना परम हितैषी समझा।

उन दिनों शर्करा के तट से सिंधु नद तक पहुँचने के दो मार्ग थे। पहला मार्ग जलमार्ग था जो काफी असुविधाजनक और लम्बा था। छोटी नौकाओं से यह मार्ग पार नहीं किया जा सकता था। विशाल प्रवहणों [30] को भी इस मार्ग से सिंधु तक पहुँचने में कई माह लग जाते थे। द्रुमकुल्य के उत्तरी तट पर रहने वाली दोनों प्रमुख सभ्यताओं- असुर तथा द्रविड़ों ने विशाल प्रवहणों का निर्माण कर लिया था जिन पर बैठकर वे दूर-दूर की यात्रायें करते थे।[31]

दूसरा मार्ग, थल-मार्ग था जो अपेक्षाकृत कम लम्बा और कम असुविधाजनक था। इस मार्ग को पार करने के लिये मरूस्थल से होकर गुजरना पड़ता था। तीव्रगामी उष्ट्रों [32] से यह मरूस्थल लगभग एक माह में पार किया जा सकता था। विभिन्न सभ्यताओं के मध्य वाणिज्य-व्यापार करने वाले पणियों के सार्थवाह [33] अधिकांशतः इसी मार्ग को अपनाते थे।

  वर्षों से समीप रहने के कारण असुरों तथा द्रविड़ों में पर्याप्त मेल था। सत्य तो यह था कि द्रविड़ असुरों के अनुगत थे तथा युद्धों में उनकी कोई रुचि नहीं थी इसलिये असुरों ने उन्हें अभय दे रखा था। द्रविड़ों को इससे कोई लेना-देना नहीं था कि असुर कैसे रहते हैं, क्या करते हैं और कितने विध्वंसकारी हैं! वे तो इसी में प्रसन्न थे कि असुर द्रविड़ों के पुरों  [34] पर आक्रमण नहीं करते हैं। केवल मद्य-मज्जा पाकर संतुष्ट हो जाते हैं।


[1] द्रुमकुल्य का जल हरे रंग का दिखाई देता था। वाल्मिीकि रामायण में उल्लेख है कि भगवान श्रीराम ने अग्निबाण से इस समुद्र का उत्तरी भाग सुखा दिया जिससे मरुस्थल का निर्माण हुआ।

[2]  ध्वनि

[3] सतलज

[4] व्यास

[5]  रावी

[6] चिनाब

[7] झेलम

[8] परिपूर्ण

[9]  चम्बल

[10] नदी पात्रों की पुरातात्त्विक शोधों एवं उपग्रह फोटोग्राफी से इस प्रकार के साक्ष्य प्राप्त हुए हैं किंतु सूक्ष्मकालक्रम निर्धारित करना कठिन है। महाकवि कालिदास ने भी सरस्वती को अन्तःसलिला कहा है। उपग्रह चित्रों से सरस्वती के पाँच प्राचीन मार्ग मिले हैं। प्रत्येक मार्ग पर यह नदी सहस्रों वर्ष तक बहती रही।

[11] मध्यकाल तक यह नदी राजस्थान के जोधपुर संभाग में बहती थी जिसे हाकड़ा कहा जाता था। मारवाड़ में कहावत है कि इस नदी का पानी मुल्तान चला गया। पाकिस्तान के चोलीस्तान रेगिस्तान में इसके 1000 किलोमीटर लम्बे सूखे नदी तल को हाकड़ा या वाहिन्द कहते हैं। इससे आगे सिन्ध प्रान्त में सिन्ध नदी से पूरब में असके समानान्तर चलने वाले हाकड़ा नदी तल को साकड़ा तथा नारा कहते हैं।

[12] इसका जल लवण युक्त अर्थात् खारा था, इसी से यह लवणाद्रि कहलाती थी। अब इसे लूनी के नाम से जाना जाता है। 

[13] जल प्रलय

[14] मनु अनेक हुए हैं। उनमें से विवस्वान् (सूर्य) का पुत्र ‘वैवस्वत मनु’ कहलाता है। इसी कारण मनु के वंशज ‘सूर्यवंशी’ तथा ‘मनुज’ कहलाये। वैवस्वत मनु इक्कीस प्रजापतियों में से एक था। यम, यमी, यमुना और शनि भी इसी विवस्वान की संतानें थीं।

[15] नदियों

[16] पत्तों की कुटिया

[17] कई ग्रामों का समूह मिलकर एक जन का निर्माण करता था। 

[18] यह एक प्रकार का पेय पदार्थ था। अनुमान होता है कि इसे एक विशिष्ट प्रकार की पर्वतीय लता के रस से बनाया जाता था।  वेदों में सोम को मौजवत कहा गया है जिससे अनुमान होता है कि सोम लतायें मूजवान् पर्वत पर पायी जाती होंगी। समस्त सचर अचर जगत में जो प्राण तत्व है उसे भी सोम कहते हैं। सोम शक्तिदायक और आनंददायक पेय था। ऋग्वेद में इसके सम्बंध में एक ऋचा इस प्रकार मिलती है-

ऊर्ध्व नुनुद्रेअ् वतं त ओजसा दाद्दहाणं चिद् बिभिदुर्वि पवर्तम्।

धमन्ता वाणं मरुतः सुदानवो मदे सोमस्य रण्यनि चक्रिरे ।।

अर्थात् मरुतों ने कूप को ऊपर उठा लिया और अपने मार्ग का अवरोध करने वाले पर्वत का भेदन कर डाला। दानवीर मरुतों ने वाण बजाते हुए सोम से मस्त होकर यजमानों को सुंदर दान दिये।

[19]  स्वर्ण

[20] मंत्र रचने वाले

[21]  वेदमंत्र

[22] पत्थर

[23] लकड़ी

[24] ताम्बा

[25]  कांसा

[26] गाय चराना

[27]  पर्वत

[28] प्रारंभ

[29]  हीन

[30] जलयानों 

[31] सिंधु सभ्यता की उत्तरी राजधानी हड़प्पा से प्राप्त मुहरों में ऐसी नावें दिखाई गई हैं जो समुद्र में लम्बी यात्रायें करने में सक्षम थीं। अनुमान लगाया जाता है कि ये नावें अरब सागर के किनारे-किनारे फारस की खाड़ी से होकर जाती होंगी।

[32] ऊंटों

[33]   व्यापारियों के समूह

[34] नगरों।

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