Saturday, July 27, 2024
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शाहशुजा की हत्या

औरंगजेब अपने भाई शाहशुजा की हत्या स्वयं करना चाहता था किंतु उसे जंगली लोगों ने पकड़ कर मार डाला!

जब महाराजा जसवंतसिंह खजुआ के मैदान से पलायन करके मारवाड़ की ओर जा रहा था, तब वह मार्ग में आगरा से होकर निकला। इस समय औरंगजेब का मामा शाइस्ता खाँ आगरा की रक्षा के लिए तैनात था। जब उसने सुना कि महाराजा जसवंतसिंह औरंगजेब से विद्रोह करके आगरा की ओर आ रहा है तो शाइस्ता खाँ बुरी तरह घबरा गया।

औरंगजेब की तरह शाइस्ता खाँ भी राठौड़ राजाओं से बहुत डरता था। उसने सोचा कि महाराजा जसवंतसिंह के हाथों कैद होने की बजाय स्वयं ही जहर खाकर मरना उचित होगा। इसलिए उसने जहर का प्याला मंगवाया। फ्रैंच इतिहासकार बर्नियर ने लिखा है कि जब औरंगजेब के हरम की औरतों को पता चला कि शाइस्ता खाँ जहर पीने वाला है तो हरम की औरतें वहाँ पहुंच गईं तथा उन्होंने शाइस्ता खाँ के हाथों से जहर का प्याला छीन लिया।

बर्नियर ने लिखा है कि यदि महाराजा चाहता तो वह शाहजहाँ को छुड़वा सकता था क्योंकि इस समय आगरा में अधिक सेना नहीं थी किंतु महाराजा ने आगरा की तरफ देखा तक नहीं।

आगरा पर आक्रमण नहीं करने का महाराजा का निर्णय, उन परिस्थितियों में एकदम उचित ही था क्योंकि महाराजा के द्वारा विद्रोह किए जाने के बाद औरंगजेब ने नागौर के पूर्व राव अमरसिंह के पुत्र रायसिंह को जोधपुर का राजा नियुक्त करके उसे मारवाड़ पर चढ़ाई करने के लिए रवाना कर दिया था। इसलिए यदि महाराजा जसवंतसिंह आगरा में रुक जाता तो संभवतः जोधपुर उसके हाथों से निकल जाता।

पूरे आलेख के लिए देखें यह वी-ब्लॉग-

जिस समय महाराजा जसवंतसिंह खजुआ के मैदान में आधी रात को औरंगजेब के सेना पर चढ़ बैठा था उस समय शाहशुजा अपने डेरे में छिपकर बैठा किसी शुभ समाचार के आने की प्रतीक्षा कर रहा था। उस कायर ने रात के अंधेरे में अपने डेरे से बाहर निकलने की हिम्मत ही नहीं की। इस प्रकार अपने बड़े भाई दारा शिकोह की तरह शाहशुजा भी हाथ आए मौके को गंवा बैठा।

अगली सुबह 4 जनवरी 1659 को कड़ाके की ठण्ड के बीच शाहशुजा और औरंगजेब के बीच भयानक लड़ाई छिड़ गई। महाराजा जसवंतसिंह के चले जाने के कारण औरंगजेब का पक्ष काफी कमजोर हो गया था फिर भी इस समय औरंगजेब के पास लगभग 50 हजार सैनिक थे जबकि शाहशुजा के पास केवल 23 हजार सिपाही थे। तोपों, गोलों और बंदूकों की भयंकर गर्जना के बीच दोनों पक्षों में युद्ध हुआ। इस युद्ध में औरंगजेब ने स्वयं युद्ध के मैदान में रहकर अपनी सेना का नेतृत्व किया। इस दौरान कई बार औरंगजेब के प्राणों पर संकट आया किंतु औरंगजेब ने न तो धीरज खोया और न प्राणों की परवाह की।

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युद्ध के दौरान औरंगजेब जिस हाथी पर सवार हुआ था, अंत तक उसी पर डटा रहा। युद्ध के मैदान में शाहशुजा के पक्ष के तीन मदमत्त हाथी जिन्होंने खूब शराब पी रखी थी, बंदूकों से निकली गोलियों की परवाह किए बिना, औरंगजेब की तरफ झपट पड़े। इस पर औरंगजेब का हाथी मुड़कर भागने की कोशिश करने लगा। औरंगजेब ने अपने हाथी के पैरों को लोहे की जंजीरों से बंधवा दिया जिससे औरंगजेब का हाथी अपनी जगह से नहीं हिल सका।

अंत में औरंगजेब के सिपाहियों ने शाहशुजा की तरफ से आए तीनों शराबी हाथियों को मार डाला। इस प्रकार औरंगजेब अंत तक युद्ध के मैदान में डटा रहा और अपनी सेना का उत्साह वर्द्धन करता रहा।

जबकि दूसरी ओर जो गलती शामूगढ़ के मैदान में दारा शिकोह ने की थी, वही गलती खजुआ के मैदान में शाहशुजा ने भी दोहराई। शाहशुजा औरंगजेब की तोपों के सामने पड़ गया और तोपों के गोले शाहशुजा के सिर के ऊपर से होकर निकलने लगे। शाहशुजा घबराकर हाथी से उतर कर एक घोड़े पर बैठ गया। जब सेना ने शाहशुजा के हाथी पर शाहशुजा को नहीं देखा तो शाहशुजा की सेना युद्ध छोड़कर भाग खड़ी हुई।

जब शाहशुजा ने देखा कि उसकी सेना युद्ध के मैदान से भाग छूटी है तो वह भी सिर पर पैर रखकर अपनी सेना के पीछे-पीछे भाग लिया।

औरंगजेब ने मुहम्मद खाँ तथा मीर जुमला को उसके पीछे लगाया तथा स्वयं अजमेर के लिए रवाना हो गया क्योंकि उसे समाचार मिल चुके थे कि दारा शिकोह अजमेर में मोर्चाबंदी कर रहा है।

12 अप्रेल 1659 को शाहशुजा बड़ी कठिनाई से अपनी पुरानी राजधानी ढाका पहुंच पाया। वह बीस साल तक बंगाल का शासक रहा था किंतु इस बार जब वह औरंगजेब के हाथों परास्त होकर बंगाल पहुँचा तो बंगाल के मुस्लिम जागीरदारों ने शाहशुजा का विरोध किया। अब वे औरंगजेब की मातहती में रहना चाहते थे।

शाहशुजा को ढाका से अराकान भाग जाना पड़ा। अराकान के हिन्दू राजा ने शाहशुजा को शरण दी किंतु कुछ समय बाद कृतघ्न शाहशुजा ने अराकान के राजा की हत्या का षड्यन्त्र रचा। यह षड्यन्त्र विफल हो गया तथा शाहशुजा जान बचाकर जंगलों में भाग गया। शाहशुजा अराकान के जंगलों में रहने वाले जंगली लोगों के हाथ लग गया और मारा गया। उसके शरीर के टुकड़े-टुकड़े कर दिए गए। शाहशुजा की हत्या से औरंगजेब की राह का एक और कांटा नष्ट हो गया।

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता

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