चंद्रवंशी राजाओं की कथाओं के क्रम में महर्षि अत्रि के कुल में उत्पन्न सातवें चंद्रवंशी राजा ययाति तथा उसके वंशजों की चर्चा कर रहे हैं। राजा ययाति ने अपने सबसे छोटे पुत्र पुरु को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया था तथा उसे गंगा-यमुना के बीच के प्रदेशों का स्वामी बनाया था। उसकी वंश परम्परा में तेबीसवां राजा दुष्यंत हुआ। दुष्यंत की माता सम्मता, ययाति के शापित पुत्र तुर्वसु के कुल में जन्मी थी जिसका लालन-पालन संवत्र्त ऋषि ने किया था, इस प्रकार वह संवत्र्त ऋषि की पालित पुत्री थी।
राजा दुष्यंत से पुरु वंश को पौरव वंश कहा जाने लगा। दुष्यंत की रानी शकुंतला की कथा महाभारत के आदिपर्व में मिलती है। इसी कथा को आधार बनाकर महाकवि कालिदास ने अभिज्ञान शाकुंतलम् नामक काव्य की रचना की है जिसे संस्कृत साहित्य का श्रेष्ठ महाकाव्य माना जाता है।
यह कथा इस प्रकार से है- एक बार महर्षि विश्वामित्र ने घनघोर तपस्या की। इससे इन्द्र को भय हुआ कि कहीं विश्वामित्र इन्द्रासन प्राप्त नहीं कर लें। इसलिए इन्द्र ने मेनका नामक अप्सरा को ऋषि विश्वामित्र की तपस्या भंग करने के लिए भेजा।
दैवयोग से विश्वामित्र मेनका के सौन्दर्यजाल में फंस गए तथा वे मेनका के साथ रमण करने लगे। कुछ समय पश्चात् मेनका ने एक कन्या को जन्म दिया। मेनका ने उस कन्या को महर्षि कण्व के आश्रम में छोड़ दिया तथा स्वयं स्वर्गलोक को चली गई।
कण्व ऋषि ने शकुंतला को अपने आश्रम में पड़े हुए पाया तो उन्होंने उसे पुत्री मानकर उसका लालन-पालन किया। समय आने पर शकुंतला एक सुंदर युवती में बदल गई। एक दिन राजा दुष्यंत शिकार खेलने के लिए वन में आया तथा अपने साथियों से बिछड़कर कण्व ऋषि के आश्रम में जा पहुंचा। वहाँ राजा दुष्यंत को शकुंतला दिखाई दी। महर्षि कण्व उस समय तीर्थयात्रा पर गए हुए थे। राजा ने शकुंतला के रूप एवं यौवन पर मुग्ध होकर उसे अपना परिचय दिया तथा उससे प्रणय निवेदन किया। शकुंतला भी उस महान् राजा से प्रभावित हो गई तथा उसने राजा का प्रणय निवेदन स्वीकार कर लिया।
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राजा दुष्यंत ने शकुंतला ने गन्धर्वविवाह कर लिया तथा कुछ समय पश्चात् अपनी राजधानी प्रतिष्ठानपुर चला गया। उसने शकुंतला को वचन दिया कि वह शीघ्र ही उसे अपनी राजधानी में बुलवा लेगा। उसने शकुंतला को अपनी अंगूठी भी प्रदान की। कुछ समय पश्चात् शकुंतला को अपने गर्भवती होने का पता चला। वह बहुत काल तक राजा के आने की प्रतीक्षा करती रही किंतु राजा दुष्यंत शकुंतला को लेने के लिए नहीं आया। एक दिन शकुंतला राजा दुष्यंत के आने की प्रतीक्षा में बैठी थी।
उसी समय दुर्वासा ऋषि कण्व ऋषि के आश्रम में आए किंतु शकुंतला अपने विचारों में इतनी तल्लीन थी कि उसे दुर्वासा ऋषि के आगमन का पता नहीं चला। जब शकुंतला ने दुर्वासा ऋषि का स्वागत-सम्मान नहीं किया तो दुर्वासा ऋषि कुपित हो गए और उन्होंने शकुंतला को श्राप दिया कि तू जिसके विचारों में इतनी तल्लीन है, वह तुझे भूल जाए।
दुर्वासा के क्रोध भरे शब्दों से शकुंतला का ध्यान भग्न हुआ और उसने सामने खड़े दुर्वासा को देखा। शकुंतला ने महर्षि से अपनी त्रुटि के लिए क्षमा याचना की। इस पर दुर्वासा ने शकुंतला को सांत्वना दी कि जब श्राप की अवधि बीत जाएगी तब राजा ने तुम्हें जो अंगूठी दी है, उसे देखकर राजा को तुम्हारा स्मरण हो जाएगा।
शकुंतला पहले से ही दुष्यंत के वियोग में उदास रहती थी किंतु अब दुर्वासा द्वारा शाप दिए जाने से उसका दुःख दोगुना हो गया। गर्भवती शकुन्तला कई दिनों तक दुष्यंत की प्रतीक्षा करती रही। जब महर्षि कण्व तीर्थयात्रा से लौटे तो शकुंतला ने उन्हें राजा दुष्यंत के आने, अपने गर्भवती होने तथा दुर्वासा द्वारा श्राप दिए जाने के बारे में बताया।
इस पर कण्व ऋषि शकुंतला को लेकर राजा दुष्यंत के राजमहल में गए। मार्ग में जब शकुंतला ने एक सरोवर से जल पिया तब उसकी अंगुली में पहनी हुई अंगूठी दुर्वासा के श्राप के कारण सरोवर में गिर गई। जब शकुंतला राजा दुष्यंत से मिली तो दुर्वासा ऋषि के श्राप के कारण राजा दुष्यंत शकुंतला को पूरी तरह भूल चुका था इसलिए राजा ने शकुंतला को नहीं पहचाना।
शकुंतला निराश होकर राजमहल से निकली। जब मेनका ने अपनी पुत्री को इस अवस्था में देखा तो वह शकुंतला को अपने साथ ले गई और उसे कश्यप ऋषि के आश्रय में रख दिया जहाँ शकुन्तला ने एक पुत्र को जन्म दिया। महर्षि कश्यप ने उस बालक का नाम भरत रखा।
शकुंतला का पुत्र भरत ऋषि-पुत्रों के साथ वन में पलने लगा। कुछ वर्ष बीत जाने पर एक मछुआरा, राजा दुष्यंत को एक मछली के पेट से मिली अँगूठी भेंट करने के लिए आया। अँगूठी को देखते ही राजा दुष्यन्त को शकुन्तला की याद आई। राजा ने शकुन्तला को ढूँढना आरम्भ किया किंतु शकुंतला कहीं नहीं मिली।
कुछ समय बाद राजा दुष्यंत को देवराज इन्द्र के निमन्त्रण पर देवासुर संग्राम में भाग लेने के लिए अमरावती जाना पड़ा। देवासुर संग्राम में विजय प्राप्त करने के बाद जब राजा दुष्यंत आकाश मार्ग से वापस अपनी राजधानी लौट रहे थे तब उन्होंने मार्ग में कश्यप ऋषि के आश्रम को देखा। आश्रम में एक सुंदर बालक खेल रहा था जिसके अंग शुभ लक्षणों से सम्पन्न थे। राजा दुष्यंत कौतूहल वश आश्रम में उतर पड़े और उस बालक के निकट गए।
जब राजा ने उस बालक को अपनी गोद में उठाने के लिए हाथ आगे बढ़ाए तो बालक की सुरक्षा कर रही शकुंतला की एक सखि ने राजा को बताया कि यदि वे इस बालक को छुएंगे तो बालक की भुजा में बंधा हुआ काला डोरा सर्प बनकर राजा को डंस लेगा।
राजा दुश्यन्त ने उसकी बात पर ध्यान नहीं दिया और बालक को गोद में उठा लिया। इससे बालक की भुजा में बंधा हुआ काला डोरा टूट गया। दुष्यंत ने उस धागे को पहचान लिया। एक दिन राजा ने यह धागा शकुंतला के केशों में बांधा था।
जब शकुंतला को ज्ञात हुआ कि किसी अनजान राजा ने उसके बालक को उठा लिया है तो वह दौड़ती हुई आई। उसने राजा दुष्यंत को पहचान लिया। दुर्वासा के श्राप की अवधि समाप्त हो चुकी थी इसलिए दुष्यंत ने भी शकुंतला को पहचान लिया। राजा ने अपनी इस महान् भूल के लिए शकुंतला से क्षमा माँगी और वे शकुंतला तथा भरत को अपने राजमहल में ले आए। इसके बाद शकुंतला और दुष्यन्त सुख-पूर्वक जीवन बिताने लगे।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता