महर्षि अगस्त्य से भेंट के साथ ही श्रीराम की युद्ध तैयारियां पूरी हो जाती हैं। जब सीताजी श्रीराम को राक्षसों से युद्ध करने के लिए उतावला देखती हैं तो वे बड़ी चिंत्ति होती हैं तथा अपनी चिंता श्रीराम से कहती हैं। इस सम्बन्ध में वाल्मीकि रामायण में एक बड़ा विचित्र प्रसंग आया है। सीताजी कहती हैं कि मनुष्य में मिथ्या भाषण, परस्त्रीगमन तथा बिना कारण ही दूसरों के प्रति शत्रुता का भाव पालने की प्रवृत्ति होती है।
मैं जानती हूँ कि आपने जीवन में कभी मिथ्या भाषण नहीं किया और मुझे विश्वास है कि आगे भी नहीं करेंगे। इसी प्रकार मैं यह भी जानती हूँ कि आपने अपनी इंद्रियों को जीत रखा है, आप एक स्त्री व्रती हैं तथा मैं निश्चय पूर्वक कह सकती हूँ कि आप जीवन में कभी किसी स्त्री की ओर दृष्टि उठाकर नहीं देख सकते।
किंतु मैं देख रही हूँ कि जब से आपने दण्डकारण्य में प्रवेश किया है, तब से आपमें राक्षसों के संहार के लिए विशेष उत्साह ने प्रवेश किया है। आपने धनुष-बाण धारण कर रखे हैं, इसलिए मुझे भय है कि आप कहीं राक्षसों को देखते ही बिना किसी कारण के उन पर आक्रमण न कर दें। यदि आपके मन में राक्षसों के प्रति ऐसे विचार हैं तो कृपया उन्हें त्याग दें। बिना अपराध के ही किसी को मारना अच्छी बात नहीं है। आप अपने शस्त्रों का उपयोग केवल संकट में पड़े हुए प्राणियों के वध के लिए करें।
केवल शस्त्र का सेवन करने से मनुष्य की बुद्धि कलुषित हो जाती है। हम लोग इस समय वन में आए हुए हैं, इसलिए हमें तापस का जीवन व्यतीत करना चाहिए। एक तापस को शस्त्रों की क्या आवश्यकता है! आप अपने शस्त्र अयोध्या लौटकर धारण कर लेना क्योंकि वहां आप राजा होंगे और राजा को शस्त्रों की आवश्यकता होती है।
सीताजी कहती हैं- धर्मादर्थः प्रभवति धर्मात् प्रभवते सुखम् धर्मेण लभते सर्वे धर्मसारमिदं जगत्।।
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अर्थात्- धर्म से अर्थ प्राप्त होता है, धर्म से सुख का उदय होता है और धर्म से ही मनुष्य सब कुछ पा लेता है। इस संसार में धर्म ही सार है।
सीताजी कहती हैं- ‘नारी बुद्धि की चपलता के कारण मैंने आपको धर्म का उपदेश दिया है किंतु आप धर्म के सम्पूर्ण स्वरूप को जानने वाले हैं, अतः आप जिसे धर्म समझते हों, वही करें!’
सीताजी की बात सुनकर श्रीराम कहते हैं- ‘हे देवि आपने सत्य ही कहा है। धनुष किसी प्राणी को दुःख पहुंचाने के लिए धारण नहीं किया जाता, यह तो संकटग्रस्त प्राणी के प्राणों की रक्षा के लिए धारण किया जाता है। तुम देख चुकी हो कि दण्डकारण्य में रहने वाले तापस एवं मुनि जन कितने दुःखी हैं। वे सब मेरी शरण में आए हैं। कंद-मूल खाकर जीवित रहने वाले इन निरीह तापसों को खाने वाले क्रूरकर्मा राक्षस किसी भी तरह दया के पात्र नहीं हैं। मैं संकटग्रस्त इन तापसों और मुनियों की प्राणरक्षा के लिए राक्षसों का संहार अवश्य करूंगा। मैं अपना प्रण छोड़ सकता हूँ, मैं तुम्हें और लक्ष्मण को भी छोड़ सकता हूँ किंतु मैं अपनी शरण में आए हुए ब्राह्मणों की रक्षा का संकल्प कभी नहीं छोड़ सकता हूँ। अतः तुम निश्चिंत रहो, मैं केवल आततायी राक्षसों का संहार करूंगा।’
रामचरित मानस में इस प्रसंग का उल्लेख नहीं है। रामचरित मानस के अनुसार श्रीराम अगस्त्य मुनि से पूछते हैं- ‘अब मुझे वनवास की शेष अवधि में कहाँ निवास करना चाहिए!’
इस पर अगस्त्य ऋषि ने कहा- ‘हे राम! आप दण्डकवन में स्थित पंचवटी नामक स्थान पर जाकर निवास करें ताकि दण्डकवन को गौतम मुनि के श्राप से मुक्त किया जा सके।’ अगस्त्य मुनि के इस कथन से अनुमान होता है कि उस काल में दण्डकारण्य एवं दण्डक वन अलग-अलग स्थान थे।
वाल्मीकि रामायण में आए एक प्रसंग के अनुसार श्रीराम, लक्ष्मण एवं जानकी पंचासर नामक सरोवर के पास पहुंचे जहाँ हर समय मधुर संगीत सुनाई देता था। श्रीराम ने अपने साथ चल रहे धर्मभृत् नामक मुनि से पूछा- ‘यह संगीत क्यों सुनाई दे रहा है।’
मुनि धर्मभृत् ने कहा- ‘इस स्थान पर माण्डकर्णि नामक महाममुनि दस हजार वर्ष से तपस्या कर रहे हैं। देवताओं ने उनकी तपस्या भंग करने के लिए पांच अप्सराएं नियुक्त की हैं। माण्डकर्णि मुनि उन अप्सराओं को अपनी पत्नी बनाकर इस सरोवर के निकट बने आश्रम में निवास करते हैं। यह संगीत वे अप्सराएं ही बजा रही हैं।’
यह सुनकर श्रीराम ने कहा- ‘बड़ी विचित्र बात है!’
इसके बाद श्रीराम ने गोदावरी के निकट पंचवटी नामक स्थान पर पर्णकुटी बनाई। इस स्थान पर पहुंचने के बाद श्रीराम राक्षसों के बिल्कुल निकट पहुंच गए। यहीं पर उन्हें राक्षसराज रावण की बहिन शूर्पनखा ने तंग करना आरंभ किया। उसके चरित्र का वर्णन करते हुए गोस्वामी तुलसीदासजी ने लिखा है-
सूपनखा रावण कै बहिनी, दुष्ट हृदय दारुन जस अहिनी।
अर्थात्- रावण की बहिन शूर्पनखा अत्यंत दुष्ट-हृदय सर्पणी की भांति भयंकर थी।
राम चरित मानस में आए प्रसंग के अनुसार एक दिन शूर्पनखा की दृष्टि वन में निवास कर रहे रघुवंशी राजकुमारों श्रीराम एवं लक्ष्मण पर पड़ी। वह सुंदर रूप बनाकर श्रीराम के पास गई। वह चाहती थी कि श्रीराम उससे विवाह कर लें किंतु श्रीराम एवं लक्ष्मण दोनों ने उससे विवाह करने से मना कर दिया। शूर्पनखा आर्यों की इस पावन संस्कृति से परिचित नहीं थी जिसमें पराई स्त्री की ओर आंख उठाकर देखना भी पाप समझा जाता था। इसलिए वह राम-लक्ष्मण से विवाह करने का बार-बार अनुरोध करने लगी। जब श्रीराम ने किसी भी तरह श्ूार्पनखा का प्रस्ताव स्वीकार नहीं किया तो शूर्पनखा अपने वास्तविक स्वरूप में प्रकट हो गई तथा उसने सीताजी को मारने का निश्चय किया ताकि उसके बाद श्रीराम शूर्पनखा से विवाह कर लें।
इस पर श्रीराम ने अनुज लक्ष्मण को आदेश दिया कि वे इस असुर-नारी की नासिका भंग करके उसे शिक्षा दें। लक्ष्मण ने शूर्पनखा की नाक काट दी। इससे कुपित होकर शूर्पनखा के भाइयों खर एवं दूषण ने अपनी सेना लेकर श्रीराम एवं लक्ष्मण पर आक्रमण किया। जब श्रीराम ने उनका भी वध कर दिया तो शूर्पनखा रोती हुई रावण के दरबार में गई तथा उनसे कहा कि तेरे राज्य में दो आर्य-राजकुमार घुस आए हैं और उन्होंने तेरे जीवित रहते हुए ही, मेरा यह हाल किया है। शूर्पनखा की यह दशा देखकर रावण ने शूर्पनखा के अपमान का बदला लेने के लिए सीताजी का हरण कर लिया।
इस पर श्रीराम ने पंचवटी से आगे दक्षिण दिशा में बढ़कर सीताजी को ढंूढना आरम्भ किया। इसी उपक्रम में श्रीराम का परिचय किष्किंधा के निर्वासित राजा सुग्रीव और उनके मंत्रियों हनुमान एवं जाम्बवान से हुआ। श्रीराम ने किष्किंधा के अन्यायी शासक बाली का वध करके सुग्रीव को राज्य दिलवाया।
सुग्रीव के मंत्रियों ने समुद्र के बीच बने हुए द्वीपों में सीताजी को ढूंढ निकाला तथा सुग्रीव की वानर सेना को साथ लेकर त्रिलोक-विजयी रावण की लंका पर आक्रमण कर दिया। इस कार्य में रावण द्वारा लंका से निष्कासित रावण के भाई विभीषण ने श्रीराम की सहायता की। श्रीराम ने रावण और उसके पुत्रों, मंत्रियों, सेनापतियों एवं सम्पूर्ण सेना को नष्ट करके सीताजी को पुनः प्राप्त कर लिया। सम्पूर्ण रामकथा बहुत दिव्य है। इसके बहुत से रूप हैं। अलग-अलग लेखकों ने अपनी रुचि के अनुसार इसे कहा है।
गोस्वामीजी ने लिखा है- ‘नाना भांति राम अवतारा, रामायन सत कोटि अपारा।’
हम इस कथा के केवल तीन बिंदुओं पर चर्चा करना चाहते हैं। ये तीनों ही पक्ष आर्य संस्कृति का उस काल की अन्य संस्कृतियों से अंतर स्पष्ट करते हैं। पहला बिंदु है भाइयों के बीच झगड़े का। आर्य संस्कृति के इक्ष्वाकु राजकुमार राज्य के लोभी नहीं हैं, वे इस पर बड़े भाई का नैसर्गिक अधिकार मानते हैं जबकि बड़ा भाई भी पिता के वचनों के पालन के लिए राज्य त्यागकर जंगलों आता है और आर्य-संस्कृति के पोषक मुनियों की रक्षा के लिए राक्षसों का संहार करता है। आर्य संस्कृति के समानांतर चल रही वानर संस्कृति के दो भाई बाली एवं सुग्रीव और राक्षस संस्कृति के दो भाई रावण एवं विभीषण एक-दूसरे के प्राण लेने को आतुर हैं।
यहाँ यह स्पष्ट करना उचित होगा कि बाली एवं सुग्रीव में से बाली अधर्म के रास्ते पर है और सुग्रीव उसके अधर्म से बचने का प्रयास कर रहे हैं। जबकि रावण और विभीषण में से रावण अधर्म के मार्ग पर है और विभीषण अपने भाई को अधर्म के मार्ग पर चलने से रोकने का प्रयास कर रहे हैं।
हमारी चर्चा का दूसरा बिंदु है विजित राज्य पर अधिकार! श्रीराम ने बाली और रावण दोनों राजाओं का वध किया। इस कारण किष्किंधा एवं लंका के राज्यों पर श्रीराम का अधिकार था किंतु उन्होंने ये राज्य स्वयं अपने अधिकार में न लेकर उन्हीं राज्यों के राजकुमारों को सौंप दिए। यह आर्य संस्कृति की एक और बड़ी विशेषता थी जो बाद में सैंकड़ों साल तक आर्य-राजाओं में देखी गई।
रामकथा के जिस तीसरे बिंदु की चर्चा हम करना चाहते हैं, वह है स्त्री-लोलुपता एवं स्त्री से विवाह सम्बन्धी मान्यताएं। किष्किंधा का राजा बाली अपने छोटे भाई सुग्रीव को राज्य से निकालकर उसकी पत्नी को अपने पास रख लेता है और जब सुग्रीव किष्किंधा के राजा बनते हैं तो वे मृत-भाई की पत्नी तारा से विवाह कर लेते हैं। यह उस काल के वनवासी वानर समुदाय की संस्कृति है। इसी प्रकार जब विभीषण लंका के राजा बनते हैं तो वे भी रावण की पटरानी मंदोदरी से विवाह कर लेते हैं। यह उस काल के राक्षस समुदाय की संस्कृति है। जबकि उस काल की आर्य संस्कृति न तो छोटे भाई की पत्नी से विवाह करने की अनुमति देती है और न बड़े भाई की पत्नी से। रावण सीताजी को बहुत से प्रलोभन एवं भय दिखाकर उनसे विवाह करना चाहता है किंतु सीताजी को न तो अपने प्राणों की परवाह है और न राज्य के सुखों की। उन्हें अपने वनवासी राम को छोड़कर अन्य कोई भी पुरुष पति रूप में स्वीकार नहीं है। यह उस काल के आर्यों की संस्कृति है।