पिछली कथा में हमने देवगुरु शुक्राचार्य की पुत्री देवयानी तथा दैत्यराज वृषपर्वा की पुत्री शर्मिष्ठा की चर्चा की थी। विभिनन पुराणों में आए आख्यानों के अनुसार वे दोनों ही अत्यंत सुंदर थीं। एक दिन देवयानी तथा शर्मिष्ठा अपनी सखियों के साथ उद्यान में घूम रही थीं। कुछ समय पश्चात् दोनों कन्याएं अपनी सखियों को साथ लेकर उद्यान में बने जलाशय में उतरकर स्नान करने लगीं।
उसी समय भगवान शंकर एवं पार्वती उधर से निकले। भगवान शंकर को आते देखकर देवयानी, शर्मिष्ठा एवं उनकी समस्त सखियां सरोवर से बाहर निकलकर अपने-अपने वस्त्र पहनने लगीं। महाभारत में लिखा है कि दैत्यों में कलह उत्पन्न करने के उद्देश्य से इन्द्र ने वायु बनकर देवयानी और शर्मिष्ठा के कपड़े आपस में मिला दिए।
दैत्यराज वृषपर्वा की पुत्री शर्मिष्ठा ने शीघ्रता करने की हड़बड़ाहट में देवयानी के वस्त्र पहन लिए। इस पर शुक्राचार्य की पुत्री देवयानी अत्यंत क्रोधित होकर बोली- ‘शर्मिष्ठा! एक असुर-पुत्री होकर तूने ब्राह्मण कन्या के वस्त्र धारण करने का साहस कैसे किया? तूने मेरे वस्त्र धारण करके मेरा अपमान किया है।’
रानी देवयानी के कठोर वचनों को सुनकर राजकुमारी शर्मिष्ठा अपमान से तिलमिला गई। उसने कहा- ‘तेरे पिता तो मेरे पिता को सोते-बैठते कभी नहीं छोड़ते। नीचे खड़े होकर भाट की तरह स्तुति करते हैं और तेरा इतना घमण्ड!’
इस बात पर शुक्राचार्य की पुत्री देवयानी और अधिक क्रुद्ध हो गई तथा वह वृषपर्वा की पुत्री शर्मिष्ठा की देह पर धारण किए हुए अपने वस्त्र खींचने लगी। इस पर शर्मिष्ठा ने गुरुपुत्री देवयानी के वस्त्र खींचकर उसे कुएं में धकेल दिया और अपनी सखियों को लेकर वहाँ से चली गई!
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कुछ समय पश्चात् पुरुवंशी राजा ययाति आखेट करते हुए वहाँ आ पहुंचे। राजा ने अपनी प्यास बुझाने के लिए कुएं में से जल निकालना चाहा तभी राजा की दृष्टि कुएं में पड़ी हुई वस्त्रहीन देवयानी पड़ी।
राजा ने पूछा- ‘आप कौन हैं तथा इस कुएं में कैसे गिर गई हैं।’
देवयानी ने कहा- ‘हे आर्य! मैं दैत्यगुरु शुक्राचार्य की पुत्री हूँ। जब देवता असुरों का संहार करते हैं तब मेरे पिता उन्हें अपनी संजीवनी विद्या से जीवित कर देते हैं। मैं इस विपत्ति में पड़ गई हूँ, यह बात उन्हें मालूम नहीं है। तुम मेरा दाहिना हाथ पकड़कर मुझे कुएं से बाहर निकालो। मैं समझती हूँ कि तुम कुलीन, शांत बलशाली और यशस्वी हो। इसलिए मुझे कुएं से बाहर निकालना तुम्हारा कर्त्तव्य है।’
राजा ययाति ने ब्राह्मण कन्या जानकर देवयानी को देह ढंकने के लिए अपने वस्त्र दिए और उसे कुएं से बाहर निकाला। इसके बाद वह अपनी राजधानी को लौट गया।
कुछ पुराणों में लिखा हुआ है कि देवयानी ने राजा ययाति से प्रेमपूर्वक कहा- ‘हे आर्य! मैं दैत्यगुरु शुक्राचार्य की पुत्री हूँ। आपने मेरा हाथ पकड़ा है अतः मैं आपको अपने पति रूप में स्वीकार करती हूँ। हे क्षत्रियश्रेष्ठ! यद्यपि मैं ब्राह्मण-पुत्री हूँ किन्तु बृहस्पति के पुत्र कच के शाप के कारण मेरा विवाह ब्राह्मण कुमार के साथ नहीं हो सकता। इसलिए आप मुझे अपने प्रारब्ध का भोग समझ कर स्वीकार कीजिए।’
राजा ययाति ने प्रसन्न होकर देवयानी के इस प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया।
महाभारत में देवयानी द्वारा राजा ययाति के समक्ष विवाह का प्रस्ताव रखने का उल्लेख नहीं है। महाभारत के अनुसार जब राजा ययाति वहाँ से चला गया तब देवयानी नगर के निकट आई। वहाँ देवयानी को अपनी एक दासी दिखाई दी जो उसे ही खोजती फिर रही थी। देवयानी ने अपनी दासी से कहा- ‘तू मेरे घर जाकर मेरे पिता शुक्राचार्य से कह दे कि अब मैं वृषपर्वा के राज्य में नहीं रह सकती।’
देवयानी के आदेश से दासी ने शुक्रचार्य से वही सब जाकर कह दिया। इस पर शुक्राचार्य तुरंत ही अपनी पुत्री के पास गए और उससे कहने लगे- ‘प्रत्येक प्राणी को अपने कर्म का फल भोगना पड़ता है। जान पड़ता है कि तुमने कोई अनुचित कार्य किया है, इसी के कारण तुम्हें यह कष्ट मिला है।’
इस पर देवयानी ने कहा- ‘पिताजी! मुझे एक बात बताइए! वृषपर्वा की पुत्री ने अपनी आंखें लाल करके मुझसे यह क्यों कहा कि तेरे पिता तो मेरे पिता के भाट हैं?’
शुक्राचार्य ने कहा- ‘पुत्री! तू किसी भाट या भिखारी की बेटी नहीं है। तू उस पवित्र ब्राह्मण की कन्या है जो किसी की स्तुति नहीं करता और जिसकी स्तुति सभी लोग करते हैं। इस बात को वृषपर्वा, इन्द्र और राजा ययाति सभी जानते हैं। अचिन्त्य ब्राह्मणत्व और निर्द्वन्द्व ऐश्वर्य ही मेरा बल है। मुझे ब्रह्मा ने अधिकार दिया है। भूलोक और स्वर्ग में जो कुछ भी है, मैं उस सबका स्वामी हूँ। मैं ही प्रजा के हित के लिए जल बरसाता हूँ और मैं ही औषधियों का पोषण करता हूँ। हे पुत्री! जो मनुष्य अपनी निंदा सह लेता है, उसने सारे जगत् पर विजय प्राप्त कर ली है। जो मनुष्य घोड़े के समान भड़के हुए अपने क्रोध को अपने वश में कर लेता है, वही सच्चा सारथी है। जो क्रोध को क्षमा से दबा लेता है, वही श्रेष्ठ पुरुष है। जो क्रोध को रोक लेता है, निंदा सह लेता है और दूसरों के सताने पर भी दुःखी नहीं होता, वह समस्त पुरुषार्थों का भाजन होता है। एक मनुष्य निरंतर सौ वर्ष तक निरंतर यज्ञ करे और दूसरा क्रोध न करे तो इन दोनों में से क्रोध न करने वाला अधिक श्रेष्ठ है। मूर्खजन ही एक-दूसरे से वैर करते हैं। समझदार को ऐसा नहीं करना चाहिए!’
देवयानी ने कहा- ‘पिताजी! मैं आपकी पुत्री हूँ, इसलिए धर्म-अधर्म का अंतर समझती हूँ, क्षमा और निंदा की सबलता और निर्बलता भी मुझे ज्ञात है। शिष्य का हित चाहने वाले गुरु को अपने शिष्य की त्रुटि क्षमा नहीं करनी चाहिए। इसलिए मैं इन क्षुद्र विचार वालों के राज्य में नहीं रहना चाहती। जो किसी के सदाचार और कुलीनता की निंदा करते हैं, उनके बीच में नहीं रहना चाहिए। मनुष्य को वहाँ निवास करना चाहिए जहाँ सदाचार एवं कुलीनता की प्रशंसा हो।’
शुक्राचार्य अपनी पुत्री से अत्यंत प्रेम करते थे, इसलिए उन्होंने अपनी पुत्री को सांत्वना देते हुए कहा- ‘तुम ठीक कहती हो, मैं दैत्यराज वृषपर्वा से बात करता हूँ।’ इतना कहकर शुक्राचार्य दैत्यराज के महल के लिए रवाना हो गए।’
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता