Sunday, December 8, 2024
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03. जल-प्लावन से जुड़ी हैं भगवान के मत्स्यावतार, कूर्मअवतार एवं वराह अवतार की कथाएं!

भगवान श्री हरि विष्णु के तीन प्रथम अवतारों मत्स्यावतार, कूर्मअवतार एवं वराहअवतार की कथाएं अग्नि पुराण, मत्स्य पुराण, हरिवंश पुराण, भविष्य पुराण नारद पुराण, पद्म पुराण, ब्रह्मवैवर्त्त पुराण, ब्रह्माण्ड पुराण, भागवत पुराण, वायु पुराण, वाल्मीकि रामायण, महाभारत, गणेश पुराण, गरुड़ पुराण, गर्ग संहिता, कथासरित्सागर, अमरकोश आदि अत्यंत प्राचीन ग्रंथों में मिलती हैं।

ये कथाएं प्रकृति में दो हिमकालों के बीच होने वाले जलप्लावन एवं तत्पश्चात् ऊष्णकाल के आगमन की घटनाओं को दर्शाती हैं तथा भगवान द्वारा धरती को जल में बाहर निकालने, मानव सृष्टि एवं ज्ञान की रक्षा करने, सृष्टि को उसका खोया हुआ वैभव लौटाने आदि उद्देश्यों के लिए अवतार लेने की संकल्पना को व्याख्यायित करती है।

पिछली कहानी में हमने देखा कि किस प्रकार हमारे सौर मण्डल के समस्त ग्रह सूर्य से टूटकर अलग हुए जिनमें से पृथ्वी भी एक है। कूर्मअवतार एवं वराह अवतार की कथाओं के पौराणिक संदर्भों के परिप्रेक्ष्य में उनके वैज्ञानिक पक्ष को भी समझना चाहिए। यह न केवल पृथ्वी पर आने वाले हिम युगों, गर्म युगों एवं जल प्लावन की घटनाओं को समझाने में सहायता देता है अपितु डार्विन के विकासवाद को भी किसी सीमा तक समर्थन देता हुआ प्रतीत होता है। वैज्ञानिकों द्वारा हिमयुगों एवं उनके बीच आने वाले गर्म युगों का वैज्ञानिक इतिहास इस प्रकार बताया जाता है-

पूरे आलेख के लिए देखें यह वी-ब्लॉग-

आज से लगभग 457 करोड़ वर्ष पूर्व जब पृथ्वी सूर्य से अलग हुई, उस समय यह आग का गोला थी। यह धीरे-धीरे ठण्डी हुई। इस प्रक्रिया में करोड़ों वर्ष लगे। धीरे-धीरे यह इतनी ठण्डी हो गई कि पूरी तरह बर्फ की मोटी पर्त से ढक गई। इसे धरती का पहला हिमयुग कहते हैं। यह घटना आज से लगभग 240 करोड़ वर्ष पहले हुई। कई करोड़ वर्ष तक पृथ्वी इसी स्थिति में रही। इसके बाद सूर्य के प्रभाव से धरती की बर्फ पिघलने लगी और धीरे-धीरे धरती पर समुद्रों, झीलों एवं नदियों का विकास हुआ। इस काल को गर्मयुग कहते हैं।

वैज्ञानिकों ने पानी के चिह्नों के आधार पर धरती पर अब तक हुए पाँच बड़े हिमयुगों तथा उनके बाद आने वाले गर्मयुगों का पता लगाया है। सबसे अंतिम हिमयुग आज से 26 लाख साल पहले आरम्भ हुआ जो आज से लगभग 20 हजार साल पहले समाप्त होना आरम्भ हुआ तथा आज से लगभग 11,700 वर्ष पहले समाप्त हो गया।

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जब भी धरती पर हिमयुग समाप्त होता और गर्मयुग आता तो धरती पर जल-प्लावन की स्थिति बन जाती। जब यह जल मानसून के चक्र के कारण धरती के वायुमण्डल में चला जाता तो धरती जल से बाहर निकलती थी और वनस्पतियों एवं जीव-जंतुओं का विकास होने लगता था। इसके विपरीत जब हिमयुग आता तो जीव-जंतु एवं वनस्पतियाँ नष्ट होने लगते, केवल कुछ स्थानों पर ही उनका अस्तित्व बचा रहता। ऐसे ही एक गर्मयुग के आगमन पर आज से लगभग 6 करोड़ वर्ष पूर्व धरती पर मानव जाति का विकास होना आरम्भ हुआ। ये मानव आधुनिक मानवों एवं वानरों के बीच की जातियाँ थीं।

आज से लगभग तीन लाख साल पहले इन्हीं वानरों में से मानव की आधुनिक जाति का विकास हुआ जिसे हम ‘होमोसेपियन’ कहते हैं। यही होमोसेपियन जाति आज से लगभग 10 हजार साल पहले ‘क्रोमैगनन मैन’ नामक आधुनिकतम जाति में बदल गई जिसने मानव सभ्यता का बहुत तेजी से विकास किया। मानव की इस प्रजाति को अपना पिछला इतिहास धुंधले रूपों में याद है।

‘होमोसेपियन’ मानव ने पिछले 25 हजार सालों में धरती पर छोटे-छोटे हिमकाल देखे थे तथा इन हिमकालों के बाद ग्लेशियरों का जल पिघल कर समुद्रों में आते हुए तथा धरती को उस जल में समाते हुए एवं पुनः हिमकाल के आरम्भ होने पर धरती को जल से बाहर निकलते हुए देखा था। मत्स्यावतार, कूर्मावतार एवं वराह अवतार की कथाएं इसी प्रकार की प्राकृतिक घटनाओं से जुड़ी हुई हैं। 

भू वैज्ञानिक खोजों से ज्ञात हुआ है कि राजस्थान का दक्षिण-पूर्वी भाग संसार का प्राचीनतम क्षेत्र है जबकि पश्चिमी एवं उत्तरी भाग इसके बाद का है। जालोर-भीनमाल-जसवंतपुरा का धन्व क्षेत्र तो उत्तरी भागों से भी बाद का है। यह अंशतः समुद्र के गर्भ में स्थित था। इस काल में मध्यप्रदेश से पंजाब जाने के लिए समुद्री मार्ग नर्मदा घाटी तथा कच्छ से होकर था।

यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता कि पश्चिमी राजस्थान के मरुस्थलीय क्षेत्र से समुद्र कब हटा किंतु यह निश्चित है कि इसको हटने में हजारों वर्ष लगे होंगे। यह भी निश्चित है कि समुद्र के इस क्षेत्र से हटने की घटना ऋग्वैदिक मानव ने अपनी आंखों से देखी। ऋग्वेद के 10वें मण्डल के 136वें सूक्त के 5वें मंत्र में पूर्व तथा पश्चिम के दो समुद्रों का स्पष्ट उल्लेख है जिनका विवरण शतपथ ब्राह्मण भी देता है।

पुराणों में वर्णित जल प्लावन की घटना भी इस ओर संकेत करती दिखाई देती है। काठक संहिता, तैत्तरीय संहिता, तैत्तरीय ब्राह्मण तथा शतपथ ब्राह्मण में प्रजापति के वराह बनकर पृथ्वी प्राप्ति का विवरण मिलता है।

पण्डित भगवद्दत्त बी.ए. लिखते हैं- ‘भारतीय ऋषियों के अनुसार एक बार सारी पृथ्वी का संवर्तक अग्नि से भंयकर दाह हुआ। तदनु एक वर्ष की अतिवृष्टि से महान् जल-प्लावन आया। सारी पृथ्वी जल-निमग्न हो गई। वृष्टि की समाप्ति पर, जल के शनै-शनैः नीचे होने से, कमलाकार पृथ्वी प्रकट होनी लगी। उस समय उन जलों में श्री ब्रह्माजी ने योगज शरीर धारण किया। उनके साथ योगज शरीर-धारी सप्तर्षि और कई अन्य ऋषि-मुनि भी प्रकट हुए। सृष्टि वृद्धि को प्राप्त हुई। तब बहुत काल के पश्चात समुद्रों के जलों के ऊंचा हो जाने के कारण एक दूसरा जल प्लावन वैवस्वत मनु और यम के समय में आया। मनु ने एक नौका में अनेक प्राणियों की रक्षा की। लिंग पुराण में इस घटना का उल्लेख हुआ है।’

समुद्र के हट जाने पर प्रकट हुई धरती अर्थात् थार के रेगिस्तान में आज भी नमक, फ्लोराइड, संगमरमर, चूना पत्थर एवं खड्डी आदि खनिज बहुतायत से उपस्थित हैं तथा रेतीले धोरों में शंख, सीपी एवं घोंघे प्राप्त होते हैं। राजस्थान एवं गुजरात का वह हिस्सा जो समुद्र से लगता हुआ है, आज भी इस प्रक्रिया से होकर निकल रहा है।

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