Sunday, December 8, 2024
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18. धरती पर वर्षा आरम्भ होने की घटना से जुड़ी है इन्द्र द्वारा वृत्रासुर के वध की कथा!

इन्द्र द्वारा वृत्रासुर के वध की कथा सबसे पहले ऋग्वेद के चतुर्थ ब्राह्मण में मिलती है। बाद में यह कविता बहुत से पुराणों में भी कही गई है। यद्यपि वैदिक ब्राह्मण एवं पौराणिक ग्रंथों में मिलने वाली इस कथा के मुख्य पात्र इन्द्र, त्वष्टा, विश्वरूप एवं वृत्रासुर ही हैं तथापि बाद की कथाओं में गुरु बृहस्पति एवं महर्षि दधीचि के कथानक भी जुड़ गए हैं जिनके कारण कथाओं के स्वरूप में पर्याप्त अंतर आ गया है।

इस कड़ी में हम वैदिक ग्रंथों अर्थात् ब्राह्मणों में आए संदर्भों के अनुसार इन्द्र द्वारा वृत्रासुर के वध की कथा की चर्चा करेंगे। यह कथा वस्तुतः संसार में अनावृष्टि एवं अकाल के उत्पन्न होने एवं इन्द्र द्वारा फिर से बादलों को धरती पर बरसा कर वनस्पतियों को प्रकट करने की घटना की ओर संकेत करती हुई प्रतीत होती है।

यह कथा अत्यंत प्राचीन समय से सम्बन्ध रखती है। इस समय तक देव जाति अपने पराक्रम के चरम पर नहीं पहुँची थी। देवों में तब अनेक नयी व्यवस्थायें बन रही थीं। फिर भी प्रकृति की अधिकतर शक्तियाँ इन्द्र के पास ही थीं। इस कारण कई देवता इन्द्र से वैमनस्य रखते थे। उनमें से त्वष्टा भी एक था। त्वष्टा के पुत्र विश्वरूप के तीन सिर और तीन मुख थे। विश्वरूप एक मुख से सोमपान करता था तो दूसरे मुख से सुरा पीता था। तीसरे मुख से वह अन्न का भक्षण करता था।

प्रजापति ने सोम देवों के लिये, सुरा असुरों के लिये तथा अन्न मनुष्यों के लिये बनाया था किंतु विश्वरूप तीनों ही पदार्थों का भक्षण करके असीमित शक्तिशाली और स्वेच्छाचारी हो गया। इस कारण प्रजापति की बनाई व्यवस्था नष्ट होने लगी। इसलिये इन्द्र ने उस गर्वित विश्वरूप के तीनों सिर काट डाले।

विश्वरूप का सोमपायी मुख कटते ही बटेर बन गया। इसलिए बटेर का मुख सोम के समान ही भूरा होता हैै। सुरा पीने वाला मुख गौरैया बन गया। वह मद्यमत्त की ही तरह कहता रहता है- ‘कः इव?’ अर्थात् कौन है वह? विश्वरूप का तीसरा अन्नभक्षी मुख तीतर बन गया। उसमें घृत और मधु की बूंदें अंकित रहती हैं।

विश्वरूप के तीनों मुख कट जाने से विश्वरूप का पिता त्वष्टा कुपित हुआ। कुपित त्वष्टा ने इन्द्र का आह्वान किए बिना ही सोम का आहरण किया। सोम जैसे चुवाया हुआ था वैसे ही बिना इन्द्र के भी रहा। अर्थात् बिना इन्द्र की सहायता के भी सोम अपने सात्त्विक रूप में बना रहा। यह देखकर इन्द्र ने सोचा कि इससे तो मुझे सोम से वंचित कर दिया जायेगा। अतः इन्द्र ने द्रोण-कलश में रखे सोम का बलपूर्वक भक्षण कर लिया।

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त्वष्टा द्वारा इन्द्र का आह्वान किए बिना ही इन्द्र द्वारा बलपूर्वक पिये जाने से सोम कुपित हो गया और उसने इन्द्र को आहत किया। मुख को छोड़कर इन्द्र के जितने भी प्राण-छिद्र थे, उन सबमें से सोम बाहर आने लगा। इन्द्र की नाक से बाहर निकला हुआ सोम सिंह बन गया। जो सोम कानों से बहा, वह भेड़िया बन गया। जो सोम वाक् और प्राण से बहा, वह शार्दूल प्रधान श्वापद बन गया। इन्द्र ने तीन बार थूका उससे गूलर, घुंघची तथा बेर बने। शरीर से सोम के बह जाने के कारण इन्द्र अत्यंत कमजोर हो गया तथा लड़खड़ाता हुआ अपने घर गया। तब अश्विनी कुमारों ने इन्द्र की चिकित्सा की।

जब त्वष्टा को ज्ञात हुआ कि इन्द्र ने सोमपान कर लिया तो वह और भी कुपित हो गया। त्वष्टा ने द्रोण-कलश में बचे हुए सोम को यह कह कर यज्ञ में प्रवाहित किया कि ‘इन्द्र-शत्रु तुम बढ़ो।’

बहता हुआ सोम अग्नि में पहुँच कर ‘वृत्र’ के रूप में प्रकट हुआ। उसे सब विद्याएं, यश, अन्न एवं वैभव प्राप्त हुए। वह लुढ़कता हुआ उत्पन्न हुआ इससे वृत्र कहलाया। वह बिना पैरों के हुआ इसलिए ‘अहि’ कहलाया। दनु और दनायु उसके माता-पिता हुए इसलिए वह ‘दनुज’ कहलाया।

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क्रोध से भरे हुए त्वष्टा के कोप से इन्द्र को बचाने के लिए ऋषियों ने मंत्रजाप में त्रुटि कर दी जिससे मंत्र का अर्थ ‘इंद्र के शत्रु तुम बढ़ो’ के स्थान पर ‘शत्रु इन्द्र तुम बढ़ो’ हो गया। इससे इन्द्र का बल बढ़ गया।

त्वष्टा के आदेश पर ‘वृत्र’ द्युलोक और पृथ्वी के बीच में जो कुछ भी है, उस सब को आच्छादित करके सो गया। वृत्र ने पूर्व और पश्चिम में समुद्रों को समेट लिया और उतना ही अन्न खाने लगा। उसे पूर्वाह्न में देवता अन्न देते थे, मध्याह्न में मनुष्य और अपराह्ण में पितर।

वृत्र द्वारा वरुण को बंदी बना लिए जाने से चारों ओर हा-हा कार मच गया। वनस्पतियाँ सूख गयीं। नदियों ने प्रवाहित होना बंद कर दिया। पशु-पक्षी, देव, मानव सब कष्ट पाने लगे।

इस पर इन्द्र ने अग्नि और सोम का आह्वान करके कहा कि तुम तो मेरे हो और मैं तुम्हारा हूँ। तुम क्यों इस दस्यु को बढ़ावा देते हो। इन्द्र ने अग्नि और सोम को प्रसन्न करने के लिए ‘एका-दशक-पाल पुरोडाश’ का निर्वपन किया। इस यज्ञ से इन्द्र ने पुनः इन्द्रत्व प्राप्त किया और अग्नि एवं सोम पुनः इन्द्र की ओर हो गए। उनके साथ अन्य देवता भी इन्द्र की ओर आ गए।

इन्द्र ने भगवान श्रीहरि विष्णु से प्रार्थना की- ‘मैं वृत्र पर वज्र का प्रहार करूंगा, आप मेरे निकट खड़े रहना।’

विष्णु ने कहा- ‘अच्छी बात है। मैं तुम्हारे पास रहूँगा, तुम प्रहार करो।’

इससे पहले कि इन्द्र वृत्र पर प्रहार कर पाता, वृत्र ने विशाल आकार धारण करके इन्द्र को निगल लिया। इस पर बृहस्पति की प्रेरणा से देवताओं ने इन्द्र को वृत्र के पेट से बाहर निकाला। इन्द्र की प्रार्थना पर विष्णु ने वज्र में प्रवेश किया। इस बार जब इन्द्र ने वज्र उठाया तो वृत्र डर गया। वृत्र ने कहा- ‘मुझे मारो मत, मैं तुम्हें अपना पराक्रम देता हूँ।’ इन्द्र रुक गया और वृत्र ने इन्द्र को ‘यजुष्’ अर्थात् यज्ञ प्रदान कर दिया।

इन्द्र ने दुबारा वज्र उठाया तो वृत्र ने कहा- ‘मुझे मारो मत, मैं अपना ‘ऋक्’ अर्थात् ‘पूजा-स्तुति’ तुमको देता हूँ।’ इन्द्र रुक गया और वृत्र ने इन्द्र को पूजा-स्तुति प्रदान कर दिए। जब इन्द्र ने तीसरी बार वज्र उठाया तो वृत्र ने अपना ‘साम’ अर्थात् ‘वाणी चातुर्य’ भी इन्द्र को दे दिया।

इस प्रकार इन्द्र को समस्त विद्या, यश, अन्न और समस्त वैभव की प्राप्ति हो गयी और वृत्र खाली घड़े के समान रह गया। पुत्र को निर्बल हुआ देखकर वृत्र की माता तिरछी होकर उसके ऊपर छा गयी तथा ‘कालेय’ नामक दैत्य, वृत्र की सहायता करने को आ गए।

इस पर देवों ने ‘साकमेध’ का आयोजन किया। अग्नि तीक्ष्ण बाणों के रूप में प्रकट हुआ। सोम और सविता ने वृत्र को मारने के लिए इंद्र को तीक्ष्ण प्रेरणा प्रदान की। सरस्वती ने कहा- ‘मारो-मारो।’

पुष्टि के देवता पूषा ने वृत्र को कसकर पकड़ लिया। विष्णु ने बताया कि वृत्र को लौह, काष्ठ तथा बांस से निर्मित तथा किसी भी ऐसे पदार्थ से निर्मित अस्त्र-शस्त्र से नहीं मारा जा सकता जो सूखी अथवा गीली हो। इसे न दिन में मारा जा सकता है न रात्रि में।

इस पर जब दिवस और रात्रि के मध्य संध्या काल उपस्थित हुआ तो इन्द्र ने अग्नि की ब्रह्मशक्ति और अपनी क्षमशक्ति से वज्र को समुद्र के फेन में लपेट कर वृत्र पर प्रहार किया जिससे वृत्र तथा उसकी माता के दो टुकडे़ हो गए। कालेय भाग कर समुद्र में छिप गए।

इन्द्र के प्रहार से आहत वृत्र सड़ांध के साथ सब दिशाओं से समुद्र की ओर बहने लगा। इससे समुद्रों में जल का स्तर फिर से बढ़ गया। ऋग्वेद में लिखा है कि वृत्र रंभाती हुई गायों के समान समुद्र की ओर बढ़ चला। वृत्र के ‘सौम्य’ भाग से चन्द्रमा बन गया और ‘आसुरि’ भाग से समस्त प्राणियों का उदर। इसी कारण प्रत्येक प्राणी उदर रूपी वृत्र के लिए बलिहरण करता है और अन्न भक्षण करना चाहता है। 

वृत्र के मरने पर मरुतों ने संगीत का आयोजन किया किंतु वज्र के फेन में लिपटे हुए होने से इन्द्र को वृत्र की मृत्यु का पता नहीं चला और इन्द्र डर कर ‘अनुष्टप’ में छिप गया। अग्नि, हिरण्यस्तूप तथा बहती उसे ढंूढने निकले। अग्नि ने इन्द्र को ढूंढ लिया। देवताओं ने बारह पात्रों में आहरण किया हुआ पुरोडाश इन्द्र को समर्पित किया।

इन्द्र ने कहा- ‘वृत्र पर वज्र का प्रहार करने से मेरे समस्त अंग शिथिल हो गए हैं, इसलिए इस पुरोडाश से मेरी तृप्ति नहीं होती। जिस वस्तु से मेरी तृप्ति हो वही वस्तु मुझे दो।’

इस पर देवताओं ने विचार किया कि सोम के बिना इन्द्र तृप्त नहीं होगा। देवताओं के आह्वान पर सोम रात्रि में चन्द्रमा के साथ आया और जल तथा वनस्पतियों में समा गया। गायों ने उन वनस्पतियों का भक्षण करके तथा सोमयुक्त जलपान करके सोम का सम्भरण किया। देवताओं ने गौओं से सोम प्राप्त करके उसे इन्द्र को प्रदान किया। इन्द्र ने कहा- ‘मुझे इससे भी तृप्ति नहीं होती, मुझे उबाला हुआ सोम दो।’

अंत में अमावस्या को दही और उबले हुए दूध को मिलाकर ‘सान्नय्य याग’ किया गया जिससे इन्द्र तृप्त हुआ और नवीन बल धारण करके प्रकट हो गया।

यदि प्राकृतिक घटनाओं के आधार पर इस कथा का विश्लेषण करें तो हमें स्पष्ट हो जाता है कि विभिन्न देवताओं द्वारा इन्द्र से शत्रुता मानने के कारण इन्द्र कमजोर पड़ गया अर्थात् विभिन्न प्राकृतिक शक्तियों में असंतुलन हो जाने से धरती पर वर्षा कम होने लगी तथा धरती का सारा जल बर्फ में बंद हो गया। इस कारण समुद्रों का जल-स्तर घट गया तथा वर्षा बंद होने लगी। इस पर इन्द्र अर्थात् ‘बादलों के स्वामी’ ने विष्णु, वरुण एवं सरस्वती आदि देवी-देवताओं की सहायता से चारों दिशाओं में छाई हुई बर्फ पर प्रहार किया जिससे बर्फ टूट गई तथा उसमें बंद पानी फिर से समुद्रों को प्राप्त हो गया तथा धरती पर वर्षा आरम्भ हो गई। जब वृत्रासुर मरा तो सड़ा हुआ पानी समुद्र की ओर बहा, इस कथन से तात्पर्य यह प्रतीत होता है कि बर्फ में पानी को बंद हुए काफी समय हो चुका था।

इस आख्यान में ‘वृत्रासुर’ प्रकृति का वह असंतुलन है जो जल को बर्फ में सीमित कर देता है तथा वर्षा को बंद करके धरती के अन्न, सोम एवं अन्य वैभव को सोख लेता है। इस आख्यान में ‘वरुण’ को जल के रूप में तथा सरस्वती को ‘नदी’ के रूप में देखा जाना चाहिए। ऋग्वेद के चतुर्थ ब्राह्मण की यह कथा विभिन्न पुराणों में अलग-अलग रूप धारण कर लेती है जिनके बारे में हम आगामी कथाओं में जानेंगे।

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