Friday, October 4, 2024
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8. धरती के समुद्र में डूब जाने की द्योतक है हिरण्याक्ष द्वारा धरती को समुद्र में छिपाने की कथा!

पिछली कड़ी में हमने भगवान श्री हरि विष्णु के नील वाराह के अवतार की चर्चा की थी। इस कड़ी में हम भगवान श्री हरि विष्णु के आदि वाराह के रूप में अवतार लेने की कथा की चर्चा करेंगे। यह कथा इस प्रकार से है- एक बार ब्रह्माजी के मानस पुत्र सनक, सनन्दन, सनातन और सनत्कुमार भगवान श्री हरि विष्णु के दर्शन करने के लिए वैकुंठ धाम पहुंचे। ये चारों सनकादि ऋषि कहलाते हैं। उस समय विष्णु धाम के द्वार पर भगवान के दो पार्षद जय एवं विजय द्वारपाल के रूप में बैठे थे। जय एवं विजय दिगम्बर साधुओं को देखकर हंसते हुए बोले- ‘आप लोग कौन हैं और इस प्रकार नंग-धड़ंग होकर यहाँ क्यों चले आ रहे हैं?

सनकादि ऋषियों ने जय-विजय से कहा-‘हम सनत कुमार हैं तथा सदा इसी रूप में रहते हैं, हम भगवान विष्णु के दर्शन करना चाहते हैं। इसलिए हमें अंदर जाने दो।’

ऋषियों के बार-बार आग्रह करने पर भी जय एवं विजय नामक उन द्वारपालों ने सनकादि ऋषियों को वैकुण्ठ धाम के भीतर नहीं जाने दिया। इससे ऋषियों को क्रोध आ गया और उन्होंने शाप देते हुए कहा- ‘तुम दोनों ने देवों के साथ रहकर भी दैत्यों जैसा व्यवहार किया है, इसलिए धरती पर जाकर दैत्य कुल में जन्म लो।’

द्वार पर हो रहे विवाद को सुनकर भगवान श्री हरि विष्णु लक्ष्मीजी सहित द्वार पर आए और सनकादि ऋषियों से भीतर आने के लिए आदर-पूर्वक अनुरोध किया तथा जय-विजय द्वारा किए गए व्यवहार के लिए क्षमा मांगते हुए कहा कि सेवकों द्वारा की गई गलती, स्वामी की ही गलती मानी जाता है। इसलिए आप इसे मेरी गलती मानते हुए मुझे क्षमा कर दें। सनकादि ऋषि भगवान श्री हरि के दर्शन करके चले गए।

भगवान विष्णु ने जय-विजय को दुःखी देखकर उनके दुःख का कारण पूछा तो उन्होंने सनकादि ऋषियों द्वारा दिए गए शाप की बात बताई। भगवान श्रीहरि विष्णु ने जय-विजय से कहा- ‘उद्दंडता का फल तो तुम्हें भोगना ही पड़ेगा। तुम्हारा अगला जन्म दैत्य-कुल में अवश्य होगा किंतु तुम मेरे पार्षद हो, इसलिए मैं तुम्हारा उद्धार करूंगा। मेरे द्वारा मृत्यु प्रदान करने पर ही तुम्हें दैत्य-योनि से मुक्ति मिलेगी।’

पूरे आलेख के लिए देखें यह वी-ब्लॉग-

कुछ समय बाद जय-विजय स्वर्ग से निकलकर धरती पर स्थित कश्यप ऋषि की पत्नी दिति के गर्भ में आ गए। दिति दैत्य-कुल की माता थी। जय-विजय के नाम इस जन्म में क्रमशः ‘हिरण्याक्ष’ और ‘हिरण्यकश्यप’ हुए। हिरण्याक्ष का अर्थ होता है- ‘सोने की आंख वाला’ तथा हिरण्यकश्यप का अर्थ होता है- ‘सोने का कछुआ।’ उन दानों दैत्यों के जन्म की कथा इस प्रकार है-

एक बार मरीचि-नन्दन महर्षि कश्यप ने भगवान श्रीहरि विष्णु को प्रसन्न करने के लिए खीर की आहुति दी और उनकी आराधना करके सन्ध्या-काल के समय अग्निशाला में ध्यानस्थ होकर बैठे गए। उसी समय दक्ष प्रजापति की पुत्री दिति, कामातुर होकर पुत्र प्राप्ति की लालसा से अपने पति कश्यप के निकट आई।

दिति ने अत्यंत मधुर शब्दों में महर्षि कश्यप से अपने साथ रमण करने के लिए प्रार्थना की ताकि उसे एक पुत्र की प्राप्ति हो सके। इस पर महर्षि कश्यप ने कहा- ‘प्रिये! मैं तुम्हारी इच्छानुसार तुम्हें तेजस्वी पुत्र अवश्य दूँगा किन्तु तुम्हें एक प्रहर के लिए प्रतीक्षा करनी होगी। सन्ध्या-काल में सूर्यास्त के पश्चात् भूतनाथ भगवान शंकर अपने भूत, प्रेत तथा यक्षों को लेकर बैल पर चढ़ कर विचरते हैं। इस समय तुम्हें काम-क्रीड़ा में रत देख कर वे अप्रसन्न हो जावेंगे। अतः यह समय सन्तानोत्पत्ति के लिए उचित नहीं है। सारा संसार मेरी निन्दा करेगा। यह समय तो सन्ध्या-वन्दन और भगवत्-पूजन आदि के लिए ही है। इस समय जो पिशाचों जैसा आचरण करते हैं वे नरकगामी होते हैं।’

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पति के इस प्रकार समझाने पर भी दिति को कुछ भी समझ में नहीं आया और उस कामातुर दिति ने निर्लज्ज भाव से कश्यप के वस्त्र पकड़ लिए। इस पर कश्यप ने दैव-इच्छा को प्रबल समझ कर दैव को नमस्कार किया और दिति की इच्छा पूर्ण की। इसके पश्चात् ऋषि कश्यप शुद्ध जल से स्नान करके सनातन ब्रह्मरूप गायत्री का जप करने लगे। ऋषि-पत्नी दिति ने गर्भ धारण करके कश्यप से प्रार्थना की- ‘हे आर्यपुत्र! भगवान भूतनाथ मेरे अपराध को क्षमा करें और मेरा यह गर्भ नष्ट न करें। उनका स्वभाव बड़ा उग्र है किन्तु वे अपने भक्तों की सदा रक्षा करते हैं। वे मेरे बहनोई हैं, मैं उन्हें नमस्कार करती हूँ।’

कश्यप जब सन्ध्यावन्दन आदि से निवृत्त हुए तो उन्होंने अपनी पत्नी को अपनी सन्तान के हित के लिए प्रार्थना करते हुए और थर-थर काँपते हुए देखा तो वे बोले- ‘हे दिति! तुमने मेरी बात नहीं मानी क्योंकि तुम्हारा चित्त काम-वासना में लिप्त था। तुमने असमय में भोग किया है। इसलिए तुम्हारी कोख से महा-भयंकर अमंगलकारी दो अधम पुत्र उत्पन्न होंगे। वे सम्पूर्ण लोकों के निरपराध प्राणियों को अपने अत्याचारों से कष्ट देंगे और धर्म का नाश करेंगे। तुम्हारे पुत्र साधु और स्त्रियों को सतायेंगे किंतु जब उनके पापों का घड़ा भर जाएगा तब भगवान श्रीहरि विष्णु कुपित होकर उनका वध करेंगे।’

दिति ने कहा- ‘हे भगवन्! मेरी भी यही इच्छा है कि मेरे पुत्रों का वध भगवान के ही हाथों से हो। तब कश्यप बोले, हे देवि! तुम्हें अपने कर्म का अति पश्चाताप है इसलिए तुम्हारा पौत्र भगवान का बहुत बड़ा भक्त होगा और तुम्हारे यश को उज्वल करेगा। वह बालक साधुओं की सेवा करेगा और काल को जीत कर भगवान का पार्षद बनेगा।’

कश्यप के मुख से भगवद्भक्त पौत्र के उत्पन्न होने की बात सुनकर दिति को अत्यंत प्रसन्नता हुई और अपने पुत्रों का वध साक्षात् भगवान के हाथों से होना सुनकर उसका समस्त खेद समाप्त हो गया। इसके बाद जय और विजय बैकुण्ठ से गिर कर दिति के गर्भ में आ गए। कुछ काल के पश्चात् दिति के गर्भ से दो पुत्र उत्पन्न हुये जिनके नाम प्रजापति कश्यप ने हिरण्याक्ष और हिरण्यकश्यपु (हिरण्यकश्यप) रखे।

इन दोनों दैत्यों के उत्पन्न होने के समय तीनों लोकों में अनेक प्रकार के भयंकर उत्पात होने लगे। स्वर्ग, पृथ्वी, आकाश सभी काँपने लगे और भयंकर आँधियाँ चलने लगीं। सूर्य और चन्द्र पर केतु और राहु बार-बार बैठने लगे। उल्कापात होने लगे। बिजलियाँ गिरने लगीं। नदियों तथा जलशयों के जल सूख गए। गायों के स्तनों से रक्त बहने लगा। उल्लू एवं सियार आदि रोने लगे।

हिरण्याक्ष और हिरण्यकश्यप ने दिति के गर्भ से जुड़वां रूप में जन्म लिया, उनके जन्म लेते ही पृथ्वी कांप उठी। आकाश में नक्षत्र और दूसरे लोक इधर से उधर दौड़ने लगे, समुद्र में बड़ी-बड़ी लहरें पैदा हो उठीं और प्रलयंकारी हवा चलने लगी। ऐसा ज्ञात हुआ, मानो प्रलय आ गई हो। हिरण्याक्ष और हिरण्यकश्यप दोनों पैदा होते ही बड़े हो गए। वे दोनों ही अत्यंत बलवान थे। उन्होंने अमर एवं अजेय होने का वरदान पाने के लिए ब्रह्माजी को प्रसन्न करने का निश्चय किया तथा घनघोर तपस्या की। उनके तप से प्रसन्न होकर ब्रह्माजी प्रकट हुए। उन्होंने कहा- ‘मैं तुम्हारे तप से अत्यंत प्रसन्न हूँ। वरदान मांगो, क्या चाहते हो?’

हिरण्याक्ष और हिरण्यकश्यप ने उत्तर दिया- ‘प्रभो! हमें ऐसा वरदान दीजिए, जिससे हमें देवता, असुर, गन्धर्व, यक्ष, नाग, राक्षस, मनुष्य और पिशाच न मार सकें। हम अस्त्र-शस्त्र, पर्वत या वृृक्ष से न मरें। हम न जल में मरें, न आकाश पर और न पृथ्वी पर मरें। हम न रात में मरें न दिन में, न बाहर मरें न भीतर। किसी मृग, पक्षी अथवा सरीसृप से भी हमारी मृत्यु न हो।’

ब्रह्माजी ‘तथास्तु’ कहकर अपने लोक में चले गए। ब्रह्माजी से वरदान पाकर हिरण्याक्ष और हिरण्यकश्यप उद्दंड और स्वेच्छाचारी बन गए। वे तीनों लोकों में स्वयं को सर्वश्रेष्ठ मानने लगे। दूसरों की तो बात ही क्या, स्वयं भगवान श्रीहरि विष्णु को भी अपने समक्ष तुच्छ मानने लगे। हिरण्याक्ष और हिरण्यकश्यप ने घोषणा की कि धरती पर समस्त यज्ञ हिरण्याक्ष और हिरण्यकश्यप के ही नाम पर होंगे। देवों को कोई यज्ञ भाग नहीं मिलेगा। किसी भी देवी-देवता या ईश्वर की पूजा के स्थान पर हिरण्याक्ष और हिरण्यकश्यप की ही पूजा होगी। इसके बाद हिरण्याक्ष ने सोचा कि देवगण कभी धरती पर पहुंच कर यज्ञ-भाग प्राप्त न कर सकें, इसलिए मैं पृथ्वी को ही पाताल में पहुंचा देता हूँ। यह निश्चय करके हिरण्याक्ष आसुरी शक्ति के बल पर पृथ्वी को रसातल में ले गया।

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