Friday, April 19, 2024
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09. भगवान श्री हरि ने आदि वाराह रूप धरकर धरती का उद्धार किया!

पिछली कड़ी में हमने बताया था कि दक्ष पुत्री दिति और मरीचि के पुत्र कश्यप से उत्पन्न के दैत्य हिरण्याक्ष ने पृथ्वी को पाताल में छिपा दिया ताकि देवगण कभी धरती पर पहुंच कर यज्ञ-भाग प्राप्त न कर सकें। धरती के रसातल में चले जाने से समस्त ब्रह्मांड में उथल-पुथल मच गई। सृष्टि के नियम भंग होने लगे और चतुर्दिक हा-हा-कार मच गया।

ऋषियों-मुनियों तथा देवताओं ने मिलकर भगवान श्री हरि विष्णु से प्रार्थना की- ‘भगवन्! इन महापराक्रमी असुरों ने देवताओं का यज्ञ भाग छीन लिया है, पूजा-पाठ, धार्मिक कर्मकांड समाप्त कर दिए हैं और समस्त भूमण्डल को रसातल में ले गए हैं। इस कारण ब्रह्माजी की बनाई सृष्टि में बड़ा व्यवधान उत्पन्न हो गया है। पृथ्वी जल में डूब रही है, इसलिए आप कृपा करके ऋषियों-मुनियों तथा मानवों के रहने के लिए स्थान बनाएं।

भगवान विष्णु ने देवताओं तथा ऋषियों को अभयदान देते हुए कहा- ‘आप लोग निश्चिन्त होकर जाइये। मैं मेदिनी का उद्धार करता हूँ।’

पृथ्वी को समुद्र में छिपा देने के बाद हिरण्याक्ष ने गर्वित होकर तीनों लोकों को जीतने का विचार किया। वह हाथ में गदा लेकर इन्द्रलोक में जा पहुंचा। देवताओं को जब उसके आने की सूचना मिली, तो वे भयभीत होकर इन्द्रलोक से भाग गए। देखते ही देखते समस्त इन्द्रलोक पर हिरण्याक्ष का अधिकार स्थापित हो गया। जब इन्द्रलोक में युद्ध करने के लिए कोई नहीं मिला, तो हिरण्याक्ष ‘वरुण देव’ की राजधानी ‘विभावरी नगरी’ में जा पहुंचा।

हिरण्याक्ष ने वरुण देव से कहा- ‘वरुण देव! आपने दैत्यों को पराजित करके राजसूय यज्ञ किया था। आज आपको मुझसे युद्ध करना पड़ेगा। कमर कसकर तैयार हो जाइए, मेरी युद्ध-पिपासा को शांत कीजिए।’ हिरण्याक्ष का कथन सुनकर वरुण देव के मन में रोष उत्पन्न हुआ किंतु उन्होंने बड़े शांत भाव से कहा- ‘हिरण्याक्ष! तुम महान् योद्धा हो। तुमसे युद्ध करने के लिए मेरे पास शौर्य कहाँ? तीनों लोकों में भगवान यज्ञ-पुरुष-विष्णु को छोड़कर कोई भी ऐसा नहीं है, जो तुमसे युद्ध कर सके। अतः तुम उन्हीं के पास जाओ। वे ही तुम्हारी युद्ध पिपासा शांत करेंगे।’

पूरे आलेख के लिए देखें यह वी-ब्लॉग-

हिरण्याक्ष ने वरुण देव से पूछा- ‘विष्णु कहाँ है?’

वरुण देव ने कहा- ‘वे धरती का उद्धार करने के लिए पाताल लोक गए हैं।’ इतना सुनते ही हिरण्याक्ष क्रोध में भरकर पाताल लोक के लिए रवाना हो गया।

उधर जब हिरण्याक्ष वरुण देव से भगवान श्रीहरि विष्णु के बारे में पूछताछ कर रहा था, इधर भगवान श्रीहरि विष्णु धरती को ढूंढ रहे थे। उन्होंने देखा कि पृथ्वी का कहीं पता नहीं है, सर्वत्र जल ही जल दिखाई दे रहा है। इस पर भगवान श्रीहरि विष्णु वराह के रूप में प्रकट हुए और उन्होंने समुद्र में घुसकर पृथ्वी को ढूंढ लिया।

श्रीहरि विष्णु ने पृथ्वी को अपने विशाल दांत पर धारण किया तथा भयंकर गर्जना करते हुए पृथ्वी को अथाह जल राशि में से निकाल लाए। इस घटना को भारतीय ग्रंथों में ‘मेदिनी-उद्धार’ के नाम से जाना जाता है। पृथ्वी को समुद्र से ऊपर आते हुए देखकर तथा वराह का भयंकर शब्द सुनकर हिरण्याक्ष क्रोध में भरकर दौड़ा।

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हिरण्याक्ष ने देखा कि भगवान वराह पृथ्वी को अपनी दाढ़ पर रखकर पाताल लोक से ऊपर की ओर बढ़ रहे हैं। उस महाबली दैत्य ने अत्यंत क्रोध में भरकर वराह रूपी भगवान श्रीहरि विष्णु से कहा- ‘अरे जंगली पशु! तू जल में कहाँ से आ गया है? मूर्ख पशु! तू इस पृथ्वी को कहाँ लिए जा रहा है? इसे तो ब्रह्माजी ने हमें दे दिया है। तू मेरे रहते इस पृथ्वी को रसातल से निकालकर नहीं ले जा सकता। तू दैत्य और दानवों का शत्रु है इसलिए आज मैं तेरा वध करूंगा!’

हिरण्याक्ष के कठोर वचनों को सुन कर भी वराह-रूप-धारी भगवान श्रीहरि शांत बने रहे। वे पृथ्वी को बीच में छोड़ कर हिरण्याक्ष से युद्ध नहीं करना चाहते थे इसलिए हिरण्याक्ष के कटु वचनों को सहन करते हुए वे आगे बढ़ते रहे और जल से बाहर आ गए।

भगवान वराह का पीछा करते हुए दुष्ट हिरण्याक्ष भी जल से बाहर आ गया और कहने लगा- ‘हे कायर! तुझे भागने में लज्जा नहीं आती? आ, मुझसे युद्ध कर।’

दैत्य से भयभीत पृथ्वी को अभयदान देकर भगवान ने उसे जल के ऊपर स्थापित कर दिया और उसे उचित आधार प्रदान करके महादैत्य की ओर मुड़े।

भगवान ने कहा- ‘अरे ग्राम-सिंह हम तो जंगली-पशु हैं और तुझ जैसे ग्राम-सिंहों को ही ढूँढते रहते हैं। अब तेरी मृत्यु सिर पर नाच रही है।’ ज्ञातव्य है कि संस्कृत साहित्य में ‘श्वान’ को व्यंग्य से ‘ग्राम-सिंह’ कहते हैं।

वाराह रूपी भगवान श्रीहरि विष्णु ने आधा शरीर समुद्र के भीतर तथा आधा शरीर समुद्र से बाहर रखकर हिरण्याक्ष को अपनी दाढ़ पर उठाकर आकाश में दूर फेंक दिया। आकाश में चक्कर काटता हुआ विशाल दैत्य भयानक शब्द करते हुए पृथ्वी पर गिर पड़ा।

दैत्यराज हिरण्याक्ष तथा उसके भाई हिरण्यकश्यप ने ब्रह्माजी से वरदान प्राप्त कर रखा था। इस कारण वे देवता, असुर, गन्धर्व, यक्ष, नाग, राक्षस, मनुष्य और पिशाच द्वारा मारे जाने पर नहीं मर सकते थे। उन्हें किसी अस्त्र-शस्त्र, पर्वत या वृृक्ष से भी नहीं मारा जा सकता था। वे न जल में मारे जा सकते थे, न आकाश में और न पृथ्वी पर। उन्हें न दिन में मारा जा सकता था, न रात में। उन्हें न बाहर मारा जा सकता था न भीतर। उनकी मृत्यु किसी पशु, पक्षी अथवा सरीसृप द्वारा भी नहीं हो सकती थी।

हिरण्याक्ष ने देखा कि उसे एक मायावी वराह ने मारा है जो देवता, असुर, गन्धर्व, यक्ष, नाग, राक्षस, मनुष्य और पिशाच नहीं है। वराह ने आधा शरीर जल में एवं आधा शरीर आकाश में रखकर बिना किसी शस्त्र के ही, ऐसे समय मारा है जब न दिन है न रात, आधा पानी में डूबे हुए होने के कारण वह न भीतर है न बाहर, न धरती पर है न आकाश में और न समुद्र में।

मरणासन्न हिरण्याक्ष ने देखा कि वराह के स्थान पर स्वयं भगवान श्रीहरि विष्णु सुशोभित हैं। हिरण्याक्ष को अपने पूर्व-जन्म का स्मरण हो आया। उसने भगवान के चरण पकड़ लिए और कहा-‘भगवन्! आपने मुझ पापी के शाप का अंत कर दिया और अपने ही हाथों से मुझे इस जन्म से मुक्ति दिलाई। कृपा करके मेरे भाई हिरण्यकश्यप को भी मुक्ति दीजिये।’

भगवान विष्णु हंसकर बोले- ‘समय से पूर्व किसी के पाप का अंत नहीं होता। तुम्हारे भाई हिरण्यकश्यप के पाप का अभी अंत नहीं है। उसका अंत करने के लिए मुझे एक और अवतार लेना पड़ेगा। तुम्हारे लिए वराह बनना पड़ा, उसके लिए नृसिंह बनना पड़ेगा।’

भगवान वराह के विजय प्राप्त करते ही ब्रह्माजी सहित समस्त देवतागण भगवान श्रीहरि विष्णु पर आकाश से पुष्प-वर्षा एवं स्तुति-गायन करने लगे।

विभिन्न पुराणों में भगवान वराह द्वारा मेदिनी-उद्धार की कथा अलग-अलग प्रकार से मिलती है। भागवत पुराण के अनुसार ब्रह्मा ने मनु और सतरूपा नामक पुरुष एवं स्त्री का निर्माण किया और उन्हें सृष्टि आरम्भ करने की आज्ञा दी। सृष्टि आरम्भ करने के लिए भूमि की आवश्यकता थी किंतु इस समय हिरण्याक्ष नामक दैत्य धरती को सागर के भीतर ले जाकर भू-देवी को अपना तकिया बना कर सोया हुआ था। हिरण्याक्ष ने अपने चारों ओर विष्ठा का घेरा बना रखा था ताकि देवता हिरण्याक्ष के निकट नहीं आएं।

जब मनु और सतरूपा को चारों ओर जल ही जल दिखाई दिया तो उन्होंने ब्रह्माजी को बताया कि धरती दिखाई नहीं दे रही। उसे तो हिरण्याक्ष रसातल में ले गया है। तब ब्रह्माजी ने विचार किया कि देव विष्ठा के पास तक नहीं जाते, एक शूकर ही है जो विष्ठा के समीप जा सकता है। इसलिए ब्रह्माजी ने भगवान विष्णु का ध्यान किया और अपनी नासिका से वराह नारायण को जन्म दिया। ब्रह्माजी ने वराह को आज्ञा दी कि वह पृथ्वी को रसातल से ऊपर ले आए। इस पर वराह भगवान समुद्र में उतरे और हिरण्याक्ष का संहार करके भू-देवी को मुक्त करा लिया।

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