इतिहास के साथ किंवदन्तियाँ और मिथक भी अवश्य ही जुड़ जाते हैं जिनके कारण सत्य और असत्य का निर्धारण कठिन हो जाता है। इसी प्रवृत्ति के कारण रजिया का सौंदर्य और प्रेम के किस्से इतिहास पर हावी हो गए!
तेरहवीं शताब्दी ईस्वी में जब दिल्ली पर अफगानिस्तान के पहाड़ी क्षेत्रों से आए लड़ाका तुर्की कबीले काबिज थे, एक यतीम शहजादी का दिल्ली सल्तनत पर काबिज हो जाना बहुत ही आश्चर्य जनक घटना थी किंतु सख्त इरादों की मलिका रजिया सुल्ताना ने उस युग में ऐसा कर दिखाया।
अपनी सल्तनत और तख्त की रक्षा करने के लिये रजिया सुल्ताना तलवार और कलम दोनों चलाना जानती थी। वह युद्ध अभियानों का संचालन कर सकती थी। वह तख्त पर बैठकर अमीरों और रियाया पर शासन कर सकती थी। वह दिल्ली की गलियों में घूमकर जनता का विश्वास जीतने में समर्थ थी।
वह पतली-दुबली सी लड़की, विद्राहियों के विरुद्ध रण में जूझने को तत्पर रहती थी। जब वह घोड़े की पीठ पर बैठती तो घोड़े हवाओं से बातें करने लगते। जब वह अपनी सेनाओं को प्रयाण का आदेश देती तो बड़े-बड़े योद्धा मैदान छोड़कर भाग जाते। अपने दृढ़ निश्चय के बल पर ही रजिया ने मध्यकालीन भारत का इतिहास कुछ समय के लिए बदल दिया।
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रजिया के तख्त पर बैठते ही सबसे पहले रुकुनुद्दीन के मुख्य वजीर कमालुद्दीन मुहम्मद जुनैदी ने रजिया के विरुद्ध विद्रोह का झण्डा खड़ा किया और बदायूं, मुल्तान, झांसी तथा लाहौर के गर्वनरों से जा मिला जो अपनी-अपनी सेनाओं के साथ दिल्ली के निकट ही मौजूद थे। ये गवर्नर अपनी-अपनी सेनाएं लेकर दिल्ली की ओर बढ़ने लगे। इनका लक्ष्य रजिया के स्थान पर इल्तुतमिश के छोटे पुत्र बहराम को सुल्तान बनाना था।
इन लोगों ने योजना बनाई कि बजाय इसके कि वे दिल्ली पर आक्रमण करें, रजिया को दिल्ली से बाहर खींचा जाये क्योंकि आम रियाया के समर्थन के चलते, दिल्ली में रजिया की स्थिति काफी मजबूत थी। रजिया का सौंदर्य रजिया को दिल्ली के युवकों का समर्थन दिलवाने में सहायक बना हुआ था।
रजिया के लिये यह परीक्षा की घड़ी थी किंतु उसने हिम्मत से काम लिया तथा प्रांतपतियों की संयुक्त सेनाओं से लड़ने के लिये दिल्ली नगर से बाहर निकलकर अपना सैनिक शिविर स्थापित किया। रजिया ने अपने विरोधियों में फूट पैदा कर दी। इस कार्य के लिए उसने अपने सौन्दर्य तथा अपने अविवाहित होने का लाभ उठाया। रजिया का सौंदर्य रजिया की ऐसी ताकत बन गया जिसका तोड़ दिल्ली के तुर्क अमीरों के पास नहीं था।
रजिया ने अपने विरोधी गवर्नरों के पास अलग-अलग दूत भेजकर उनके साथ विवाह करने की इच्छा व्यक्त की। कोई भी विरोधी गवर्नर रजिया की इस चाल को नहीं समझ सका और वह इस युद्ध से अलग होने के लिए बहानेबाजी करने लगा।
इस प्रकार गवर्नरों में मन-मुटाव उत्पन्न हो गया और वे विभिन्न दिशाओं में भाग खड़े हुए। अब रजिया की सेनाओं ने इन बागी गवर्नरों के नेता अर्थात् पंजाब के गवर्नर कबीर खाँ अयाज का पीछा किया और उसका बुरी तरह से दमन किया। इस प्रकार रजिया ने दिल्ली से लेकर पंजाब तक के क्षेत्र में अपनी सत्ता स्थापित कर ली। दूसरी ओर बंगाल तथा सिंध के गवर्नरों ने बिना लड़े ही रजिया के आधिपत्य को स्वीकार कर लिया क्योंकि उन दोनों को लगता था कि रजिया उसके साथ विवाह करेगी। यद्यपि रजिया ने अपने पिता इल्तुतमिश को ही अपना आदर्श माना था तथा उसी के पदचिह्नों पर चलकर वह शासन का संचालन करती थी तथापि कई मामलों में वह अपने पिता से भी दो कदम आगे थी। जिन तुर्की अमीरों के समक्ष इल्तुतमिश तख्त पर बैठने में संकोच करता था, रजिया उन्हीं अमीरों को सख्ती से आदेश देती और उन आदेशों की पालना करवाती थी। इल्तुतमिश ने तुर्की अमीरों को खुश करने के लिये हिन्दू जनता पर भयानक अत्याचार किये किंतु रजिया ने अपने अमीरों को निर्देश दिये कि वे हिन्दू रियाया के साथ नरमी से पेश आएं। उस युग के मुस्लिम उलेमाओं और मौलवियों को रजिया सुल्तान की यह बात उचित नहीं लगती थी, वे शासन द्वारा विधर्मियों के साथ नरमी का नहीं अपितु सख्ती का व्यवहार चाहते थे।
इसलिए ये उलेमा और मुल्ला-मौलवी रजिया सुल्तान के इस कार्य से चिढ़ गए और उन्होंने सुल्तान का विरोध करना आरम्भ कर दिया। इन मुल्ला-मौलवियों की शक्ति इस्लाम की व्याख्या करने के अधिकार में निहित थी और वे इस निर्बाध शक्ति का उपयोग अपनी इच्छा से करना चाहते थे। विधर्मी काफिरों के सम्बन्ध में वे ऐसे-ऐसे सिद्धांत प्रस्तुत करते थे जो इस्लाम की किसी भी पुस्तक में नहीं लिखे हुए थे।
उस काल के सुल्तान मुल्ला-मौलवियों की इस शक्ति को पहचानते थे तथा उनकी इस शक्ति का उपयोग अपने शासन को मजबूती देने में किया करते थे इसलिए वे मुल्ला-मौलवियों की बातों को चुपचाप स्वीकार कर लिया करते थे। रजिया के समक्ष भी यही एक रास्ता था कि वह मुल्ला-मौलवियों द्वारा प्रस्तुत की जा रही दार्शनिक व्याख्याओं को चुपचाप स्वीकार कर ले, संभवतः वह ऐसा कर भी लेती किंतु मुल्ला-मौलवी तो स्वयं रजिया के अस्तित्व का ही विरोध कर रहे थे, ऐसी स्थिति में रजिया उन्हें सहन कैसे कर सकती थी!
रजिया में एक शासक के गुण विद्यमान थे किंतु दगा, फरेब, जालसाजी और खुदगर्जी से भरे उस युग में रजिया के समर्थक कम और विरोधी अधिक थे। इस कारण वह केवल सवा तीन साल ही शासन कर सकी। रजिया को लेकर प्रायः उसके सौन्दर्य और प्रेम के किस्से ही इतिहास में हावी हो गये हैं जबकि सुल्तान के रूप में उसके संघर्ष और उपलब्धियां कम दिलचस्प नहीं हैं। रजिया के प्रेम के किस्सों की सच्चाई पर हम आगे चर्चा करेंगे।
विरोधी गवर्नरों को अपने अधीन करने के बाद रजिया ने दिल्ली में अपनी स्थिति सुदृढ़ बनाने के लिये उच्च पदों का पुनः वितरण किया। उसने ख्वाजा मुहाजबुद्दीन को अपना वजीर बनाया तथा प्रांतीय सूबेदारों के पदों पर भी नये अधिकारी नियुक्त कर दिए। मिनहाज उस् सिराज ने लिखा है- ‘लखनौती से लेकर देवल तथा दमरीला तक के मल्लिकों एवं अमीरों ने रजिया की अधीनता स्वीकार कर ली।’
रजिया ने सुल्तान की प्रतिष्ठा का उन्नयन करने के लिए तुर्कों के स्थान पर अन्य मुसलमानों को ऊँचे पद देने आरम्भ किये जिससे तुर्की अमीरों का अहंकार तथा एकाधिकार नष्ट हो जाए और वे राज्य पर अपना प्रभुत्व न जता सकें। उसने जमालुद्दीन याकूत नामक एक हब्शी को ‘अमीर आखूर’ के पद पर नियुक्त किया और मलिक हसन गौरी को प्रधान सेनापति बनाया।
इन नियुक्तियों से प्रान्तीय शासकों के मन में यह संदेह उत्पन्न होने लगा कि रजिया शम्सी तुर्क सरदारों की शक्ति का उन्मूलन करना चाहती है। अतः वे अपने बचाव के लिए फिर से रजिया के विरुद्ध षड्यन्त्र रचने लगे और विद्रोह की तैयारियां करने लगे। इन विद्रोहियों पर रजिया का सौंदर्य कोई जादू नहीं कर सका।
सबसे पहले पंजाब के गर्वनर कबीर खाँ अयाज ने रजिया सुल्तान के विरुद्ध विद्रोह का झण्डा खड़ा किया। रजिया भी एक सेना लेकर आगे बढ़ी। अयाज ने उसका सामना किया किंतु अधिक देर तक नहीं टिक सका और परास्त होकर पीछे की ओर अर्थात् चिनाव नदी की ओर भागा। कबीर खाँ के दुर्भाग्य से चिनाब नदी पर मंगोलों का सैन्य शिविर लगा हुआ था जो पंजाब में लूट-मार मचाते घूम रहे थे। मंगोलों से डरकर कबीर खाँ को रजिया की तरफ आना पड़ा तथा बिना शर्त रजिया के पैरों में गिरकर माफी मांगनी पड़ी।
रजिया ने उसे माफ कर दिया तथा उससे लाहौर छीनकर केवल मुल्तान उसके अधिकार में रहने दिया। कबीर खाँ की इस भयावह पराजय के बाद भी सल्तनत में षड्यंत्र तथा विद्रोह की अग्नि शांत नहीं हुई।
अब तुर्क प्रांतपतियों ने दिल्ली के अमीरों की सहायता से सल्तनत पर अधिकार करने की योजना बनाई। इन विद्रोही तुर्क अमीरों का नेता इख्तियारूद्दीन एतिगीन था। विद्रोहियों ने बड़ी सावधानी तथा सतर्कता के साथ कार्य करना आरम्भ किया।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता