शाहजहाँ के काल मेंं तीन राठौड़ राजा बहुत प्रबल थे। ये तीनों ही औरंगजेब की अमानवीय नीतियों एवं मजहबी कट्टरता से परिचित थे। इस कारण राठौड़ राजाओं को औरंगजेब बिल्कुल पसंद नहीं था!
इन तीनों राठौड़ राजा किसी न किसी मोर्चे पर औरंगजेब के साथ रहे थे और इन तीनों ने ही राजाओं ने कभी कोई युद्ध नहीं हारा था किंतु कभी भी किसी भी युद्ध की जीत का सेहरा अपने सिर पर नहीं लिया था। फिर भी औरंगजेब इन तीनों राठौड़ राजाओं को पसंद नहीं करता था।
दूसरी ओर औरंगज़ेब के घमण्डी स्वभाव के कारण महाराजा जसवंतसिंह राठौड़, महाराजा रूपसिंह राठौड़ तथा महाराजा कर्णसिंह राठौड़ भी औरंगज़ेब को पसंद नहीं करते थे तथा वे तीनों ही सल्तनत के अगले बादशाह के रूप में दारा शिकोह को देखा करते थे।
यदि ये तीनों राठौड़ राजा समय रहते ही औरंगजेब के विरुद्ध कोई मोर्चा बना लिए होते तो भारत का इतिहास पूरी तरह बदल सकता था।
औरंगज़ेब इन तीनों हिन्दू राजाओं की राजनीति को अच्छी तरह समझता था तथा दारा शिकोह से उनके सम्बन्धों के कारण मन ही मन भयभीत भी रहता था। इसलिए वह ऊपर से तो इन हिन्दू राजाओं से अपने सम्बन्ध खराब नहीं करता था किंतु मन ही मन यह इच्छा अवश्य रखता था कि मौका मिलते ही इन तीनों को निबटा दे।
औऔरंगजेब की दृष्टि में ये तीनों राठौड़ राजा दारा के साथ मिलकर बादशाह का दिमार्ग तीनों छोटे शहजादों की ओर से फेरते थे। इसलिए औरंगजेब न केवल दारा शिकोह तथा इन तीनों राठौड़ राजाओं से अपितु स्वयं शाहजहाँ से भी बेइंतहा नफरत करता था।
औरंगजेब के सौभाग्य से ये तीनों राठौड़ राजा आपस में एक नहीं थे। यद्यपि वे एक ही कुल में उत्पन्न हुए थे, उनका पूर्वज जोधा उन तीनों के लिए ही श्रद्धा का पात्र था और तीनों राठौड़ राजा धर्म की लीक पर चलने वाले थे।
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जिस समय शाहजहाँ आगरा पहुंचकर दुबारा बीमार पड़ा, औरंगजेब, आगरा से लगभग ढाई हजार किलोमीटर दूर स्थित दक्षिण का सूबेदार था।
न केवल लाल किले की दीवारों से अपितु एक दूसरे से भी हजारों किलोमीटर दूर बैठे शाहशुजा, औरंगज़ेब तथा मुराद बक्श पत्र-व्यवहार द्वारा एक दूसरे के सम्पर्क में थे। इन पत्रों के माध्यम से ही उनमें सल्तनत के विभाजन के लिए समझौता हो गया।
हालांकि तीनों ही जानते थे कि इस समझौते का कोई अर्थ नहीं है क्योंकि हर हाल में केवल एक ही शहजादा पूरी सल्तनत पर कब्जा करेगा और बाकी के तीनों शहजादों को या तो अंधे होकर किसी किले में पड़े रहना होगा या किसी युद्ध के मैदान में किसी तलवार के नीचे अपने प्राण छोड़ने होंगे।
फिर भी इस समय तीनों का लक्ष्य एक ही था- दारा शिकोह। इसलिए इन तीनों शाहजादों ने सबसे पहले दारा की शक्ति को छिन्न-भिन्न करने का निश्चय किया।
जब औरंगज़ेब ने सुना कि बादशाह ने अमीरों और अहलकारों को आदेश दिया है कि वे केवल दारा शिकोह के आदेश स्वीकार करें तो वह समझ गया कि शाहजहाँ के इस कदम से लाल किला औरंगज़ेब की पहुँच से बहुत दूर हो गया है। बहिन रौशनआरा द्वारा भेजी गई इस सूचना से औरंगज़ेब परेशान तो हुआ किंतु वह जल्दी से हार मानने वाला नहीं था।
औरंगज़ेब न केवल हिन्दुस्तान की किस्मत का मालिक बनना चाहता था अपितु बड़े भाई दारा शिकोह के कारण मुगलिया राजनीति जिस गलत दिशा में चल पड़ी थी, उस दिशा का मुँह भी मोड़ देना चाहता था।
औरंगज़ेब की दृष्टि में उसका बड़ा भाई दारा शिकोह एक काफिर था जो इस्लाम के काम को आगे बढ़ाने की बजाय काफिर हिन्दुओं को बढ़ावा देता था तथा हिन्दू ग्रंथों का अरबी एवं फारसी में अनुवाद करवाता था। इस नाते वह इस्लाम का अपराधी था।
औरंगज़ेब इस समय लाल किले से ढाई हजार किलोमीटर दूर दक्षिण के भयानक मोर्चों पर शिया मुसलमानों से जूझ रहा था। यहाँ भी औरंगज़ेब के इरादे दारा शिकोह से मेल नहीं खाते थे। दारा शिकोह केवल यह चाहता था कि दक्षिण के शिया राज्य मुगलों की अधीनता स्वीकार करके प्रतिवर्ष निर्धारित कर दिया करें किंतु औरंगज़ेब इन शिया राज्यों का उच्छेदन करके उन्हें पूर्णतः नष्ट करना चाहता था। उसकी दृष्टि में शिया भी वैसे ही काफिर थे जैसे कि हिन्दू।
शियाओं के प्रति दारा शिकोह की नीतियों को लेकर औरंगज़ेब अपने दोस्तों के सामने यह कहने में नहीं हिचकिचाता था कि कि लाल किले का असली वारिस केवल एक सुन्नी ही हो सकता है और वह केवल औरंगज़ेब ही है। यदि ऐसा नहीं हुआ तो एक दिन हिन्दुस्तान पर भी फारस की तरह शियाओं का राज्य हो जाएगा। ऐसा कहते हुए औरंगज़ेब एक पल के लिए भी नहीं सोचता था कि उसकी अपनी बेगम दिलरास बानू भी एक शिया अमीर की बेटी है।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता