Saturday, July 27, 2024
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इस्लाम का उदय तथा प्रसार

मध्य एशिया में स्थित ‘सउदी अरेबिया’ नामक देश के ‘मक्का’ नगर में रहने वाले ‘कुरेश कबीले’ में ई.570 में ‘हजरत मुहम्मद’ का जन्म हुआ। लगभग चालीस वर्ष की आयु में उन्होंने ‘इस्लाम’ की स्थापना की तथा मूर्तिपूजा का विरोध किया। ई.622 में हजरत मुहम्मद, मक्का से मदीना गये, वहाँ उन्होंने अपने अनुयायियों की एक सेना संगठित करके मक्का पर आक्रमण कर दिया तथा सैन्य-बल से मक्का में सफलता प्राप्त की। मुहम्मद, न केवल इस्लाम के प्रधान स्वीकार कर लिये गये वरन् राजनीति के भी प्रधान बन गये और उनके निर्णय सर्वमान्य हो गये। इस प्रकार पैगम्बर मुहम्मद के जीवन काल में इस्लाम तथा राज्य के अध्यक्ष का पद एक ही व्यक्ति में संयुक्त हो गया और मुहम्मद के जीवन काल में ही इस्लाम को सैनिक तथा राजनीतिक स्वरूप प्राप्त हो गया। हजरत मुहम्मद के बाद उनके उत्तराधिकारी ‘खलीफा’ कहलाये। मुहम्मद के बाद उनके ससुर अबूबकर, प्रथम खलीफा चुने गये। उनके प्रयासों से मेसोपोटमिया तथा सीरिया में इस्लाम का प्रचार हुआ। अबूबकर की मृत्यु होने पर ई.634 में ‘उमर’ खलीफा बने। उन्होंने इस्लाम के अनुयायियों की एक विशाल सेना संगठित की और साम्राज्य विस्तार तथा धर्म प्रचार का कार्य साथ-साथ आरम्भ किया। जिन देशों पर उनकी सेना विजय प्राप्त करती थी वहाँ के लोगों को मुसलमान बना लेती थी। इस प्रकार थोड़े ही समय में फारस, मिस्र आदि देशों में इस्लाम का प्रचार हो गया। खलीफाओं ने इस्लाम का दूर-दूर तक प्रचार किया। खलीफाओं के समय में भी इस्लाम तथा राजनीति में अटूट सम्बन्ध बना रहा क्योंकि खलीफा, न केवल इस्लाम के अपितु राज्य के भी प्रधान होते थे। उनके राज्य का शासन कुरान के अनुसार होता था। इस कारण शासन पर मुल्ला-मौलवियों का प्रभाव रहता था। इस प्रकार इस्लाम का प्रचार शान्तिपूर्ण विधि से उपदेशकों द्वारा नहीं, वरन् खलीफा के सैनिकों द्वारा तलवार के बल पर किया गया। जहाँ कहीं इस्लाम का प्रचार हुआ वहाँ की धरा रक्त-रंजित हो गई। इस्लामी सेनाध्यक्ष, युद्ध में विजय प्राप्त करने के लिये ‘जेहाद’ अर्थात् धर्म युद्ध का नारा लगाते थे जिसका अर्थ था, विधर्मियों का विनाश।

इस्लाम का भारत में प्रवेश

ई.711 में ईरान के गवर्नर हज्जाज ने बगदाद के खलीफा की आज्ञा लेकर अपने भतीजे ‘मुहम्मद बिन कासिम’ जो कि हज्जाज का दामाद भी था, की अध्यक्षता में एक सेना सिन्ध पर आक्रमण करने भेजी। यह भारत पर इस्लाम का प्रथम आक्रमण था। इसका प्रभाव बहुत कम समय के लिये तथा बहुत कम स्थान तक सीमित था किंतु जब अफगानिस्तान में इस्लाम के अनुयायियों का शासन स्थिर हो गया, तब भारत पर इस्लामी सेनाओं के आक्रमण बढ़ गये तथा अंततः ई.1193 में दिल्ली उनके अधीन चला गया। इस प्रकार इस्लाम के अनुयायियों ने आक्रांताओं तथा विजेताओं के रूप में भारत में प्रवेश किया।

सांस्कृतिक संघर्ष

   विजेता इस्लामी सेनाओं तथा उनके नेताओं की वेष-भूषा, खान-पान, लिपि एवं भाषा, दर्शन एवं अध्यात्म आदि के रूप में एक परिपक्व संस्कृति थी जो भारत की मूल संस्कृति से काफी अलग थी। चूंकि वे विजेता के रूप में आये थे इसलिये उन्होंने पराजित भारतीय संस्कृति को अपनाने से मना कर दिया तथा उन्होंने अपनी हर बात को पराजित भारतीय संस्कृति पर थोपने की चेष्टा की। इस कारण स्वाभाविक ही था कि भारतीय लोग इस संस्कृति को नकार देते तथा उनसे घृणा करते। इस प्रकार राजनीतिक संघर्ष के साथ-साथ सांस्कृतिक संघर्ष भी आरम्भ हो गया जिसके कारण दोनों संस्कृतियों के बीच इतनी गहरी खाई उत्पन्न हो गई जिसे पाटना लगभग असंभव हो गया। इस सांस्कृतिक संघर्ष को रोकने तथा चौड़ी होती जा रही खाई को पाटने के लिये इस्लाम के भीतर एक अध्यात्मिक क्रांति हुई जिसे सूफी मत कहा जाता है।

सूफी परम्परा

   वैराग्ययुक्त साधना द्वारा अल्लाह की उपासना को श्रेयस्कर मानने वाले सूफी कहलाते थे। सूफी मत अथवा ससव्वुफ इन्हीं फकीरों की देन है। यह एक सम्पूर्ण सांस्कृतिक परम्परा है तथा इसका इतिहास इस्लाम की तरह पुराना है। सूफी शब्द की व्युत्पत्ति के सम्बन्ध में विद्वानों में मतभेद है। प्रायः यह अरबी भाषा के सफा शब्द से बना हुआ माना जाता है जिसका अर्थ पवित्र तथा शुद्ध होता है। इस प्रकार सूफी एक ऐसे व्यक्ति को कहते हैं जो मन, वचन एवं कर्म से पवित्र हो। कुछ विद्वानों के अनुसार सूफी शब्द की व्युत्पत्ति सोफिया शब्द से हुई है। सोफिया का अर्थ ज्ञान होता है अतः सूफी उसे कहते हैं जो ज्ञानी हो। इसकी व्युत्पत्ति सफ शब्द से मानने वालों का मत है कि सफ का अर्थ पंक्ति अथवा प्रथम श्रेणी होता है, अतः सूफी उन पवित्र व्यक्तियों को कहा जाता है जो अल्लाह के प्रिय होने के कारण कयामत के दिन प्रथम पंक्ति में खड़े होंगे। अरबी भाषा में सूफ ऊन को कहते हैं। अतः सूफी शब्द का अर्थ सूफ अर्थात् एक प्रकार के पश्मीने से है। यह लबादा मोटे ऊन का बनता था और अत्यधिक सस्ता होता था। यह सादगी तथा निर्धनता का प्रतीक माना जाता था। पश्चिम एशिया में ऐश्वर्य तथा भौतिक वैभव से परे सादा-सरल जीवन यापन करने वाले संत (इस में ईसाई भी शामिल थे) इस प्रकार का वस्त्र धारण करते थे। अल्लाह की उपासना में तल्लीन मुसलमान फकीरों ने भी इसे अपना लिया। वे इसी वस्त्र के धारण करने के कारण पवित्रता, सादगी तथा त्याग के प्रतीक बन गये और सूफी कहलाने लगे। एक विचारधारा के अनुसार सूफी मत पैगम्बर मुहम्मद के रहस्यमय विचारों को प्रतिनिधित्व करता है। कुरान शरीफ तथा हदीस में कतिपय उल्लेख इसके मौलिक रूप से सम्बन्धित हैं। इस प्रकार सूफी मत, इस्लाम के समान ही प्राचीन माना जाता है।

सूफी मत पर वैश्विक दर्शनों का प्रभाव

सूफी मत का जन्म भले ही विदेशी धरती पर हुआ हो किंतु उसका पोषक तत्व भारतीय वेदान्त वाद है। सूफी प्रेम काव्य कोमल हृदय की सुन्दर एवं सरस अभिव्यक्ति है। कुछ विद्वानों के अनुसार सूफी मत पर चार दार्शनिक प्रभाव हैं-

1. आर्यों का अद्वैततवाद एवं विशष्टाद्वैतवाद,

2. नव अफलातूनी मत

3. विचार स्वातंत्र्य

4. इस्लाम की गुह्य विद्या।

सूफी मत का आदम में बीजवपन हुआ, नूह में अंकुर जमा, इब्राहीम में कली खिली, मूसा में विकास हुआ, मसीह में परिपाक हुआ तथा मुहम्मद में फलागम हुआ। सूफी मत के स्वरूप के सम्बन्ध में एक विद्वान ने लिखा है- ‘ईश्वर द्वारा पुरुष में व्यक्तित्व की समाप्ति और ईश्वर की उद्बुद्धि का नाम तसव्वुफ है। यह एक प्रकार से रहस्यवाद है तथा आदर्शवाद से भिन्न है।

शामी जातियों का प्रभाव

सूफी मत का आदि स्रोत हमें शामी जातियों की आदिम प्रवृत्तियों में मिलता है। सूफी मत की आधार शिला रति भाव था, जिसका पहले पहल शामी जातियों ने बहुत समय तक विरोध किया था। मूसा और मुहम्मद ने संयत भोग का विधान किया। मूसा ने प्रवृत्ति मार्ग पर जोर देकर लौकिक प्रेम का समर्थन किया। सूफी इश्कमजाजी को इश्कहकीकी की पहली सीढ़ी मानते हैं। सूफियों के इलहाम और हाल की दशा का मूल भी शामी जातियों में पाया जाता है। कुछ शामी रतिदान से घृृणा करने के कारण नबी की संतान कहलाये। कभी-कभी वे देवता के वश में होकर जो कुछ बोलते थे, वह इलहाम कहलाया और इनकी ऐसी दशा हाल। सूफियों ने पीर परस्ती तथा समाधि पूजा भी शामियों से ली। शामियों में मूर्ति चूमने की परिपाटी थी जो सूफियों में बोसे और वस्ल के रूप में ग्रहण की गई। सूफियों के प्रमुख तत्व प्रेम का स्रोत भी शामियों की गुह्य मण्डली थी जिसमें निरन्तर सुरा सेवन होता रहता था। कहीं हाल आ रहा है, कहीं करामात दिखाई जा रही है है। उस आधार पर कहा जा सकता है कि सूफियों के पूर्व पुरुष ये नबी ही हैं जो सहजानंद के उपासक थे और आत्मशुद्धि के लिये अनेक प्रकार के उपायों का आश्रय लेकर प्रेम का राग अलापते थे। इन्हीं की भावना सूफी मत में पल्लवित और पुष्पित हुई। यद्यपि यहोवा के आविर्भाव के कारण नबियों की प्रतिष्ठा क्षीण हो गई तथापि सूफीमत को इन्हीं नबियों का प्रसाद समझना चाहिये।

यहोवा का प्रभाव

आरम्भ में यहोवा के उपासकों की कट्टरता और संकीर्णता के कारण मादक भाव (हाल) को भारी क्षति पहुंची किंतु बाद में यही भाव उनमें कव्वाली के रूप में मान्य हुआ। यहोवा ने रतिक्रिया से दूर रहने की काफी चेष्टा की कि यहोवा मंदिरों में देवदासों और देवदासियों के रूप में प्रेम का यह स्रोत फूट पड़ा। हसीअ को यहोवा के इस प्रेम में अपने अली के प्रेम का प्रमाण मिला। सूफियों की इश्कमजाजी तथा इश्कहकीकी में यही भावना निहित है। सुलेमान के गीतों में भी प्रेम की इसी दशा के दर्शन होते हैं। परमात्मा और आत्मा इन गीतों के दुल्हा-दुल्हन होते हैं। इन गीतों में लौकिक प्रेम से अलौकिक प्रेम की अभिव्यक्ति है। यही पद्धति सूफियों के यहां मान्य है।

वेदान्त का प्रभाव

यसअियाह ने अहं ब्रह्मास्मि की घोषणा करके अद्वैत की प्रतिष्ठा की उसके गान में करुणा, वेदना और कामुकता का सम्मिश्रण है। इस प्रकार वे अंशतः सूफी हैं।

मसीह का प्रभाव

मसीह के आविर्भाव से शामी जातियों में विराग की प्रवृत्ति जागी किंतु धीरे-धीरे उपासकों में प्रणय भावना प्रचारित होती गई। एक स्थान पर मसीह को दूल्हा तथा उनके भक्तों को दुल्हन कहा गया है। संभवतः इस पर यूनान की गुप्त टोलियों या अफलातून के प्रेम का प्रभाव पड़ा हो। जिनका मसीह पर विश्वास नहीं जमा, उन्हें नास्तिक कहा गया।

नास्तिक मत का प्रभाव

नास्तिक नामक मत का प्रवर्तक साइमन नामक फकीर था। इस नास्तिक मत का प्रभाव सूफी मत पर भी पड़ा। इसी कारण सूफी आज भी पीरेमुगां का जाप करते हैं तथा उससे मधुपान की याचना करते हैं। मादन भाव नास्तिक मत का प्रधान अंग था। सूफी मत का प्राचीन नाम भी नास्तिक मत मिलता है।

बुद्ध का प्रभाव

नास्तिक मत की बिखरी शक्तियों से मानी मत का विकास हुआ। सूफी मत के विकास में मानी मत का बड़ा योगदान है। मानी मत पर बुद्ध का प्रभाव पड़ा था। गुरु-शिष्य परम्परा का विधान, मूर्तियों के खण्डन और जन्मान्तर निरूपण के सम्बन्ध में मानी मत ने जिस विचारधारा को जन्म दिया, वह सूफी मत हो गया। सूफियों का स्वतंत्र मत जिन्दी मानी मत का अवशेष है। मानी मत की परिणति तसव्वुफ हो गई।

अफलातून के दर्शन का प्रभाव

मसीह के मत के यूनान में पहुंचने पर उस पर अफलातून के दर्शन का प्रभाव पड़ा। फिर प्लेटिनस के द्वारा उस पर भारतीय दर्शन का भी प्रभाव पड़ा। प्लेटिनस ने पृथ्वी से लेकर नक्षत्र मण्डल तक व्याप्त अलौकिक सत्ता के आलोक का वर्णन अनूठे ढंग से किया है। सूफियों की अध्यात्म भावना इससे अत्यंत प्रभावित है। सूफी मत में इस प्रभाव से जो आनन्द प्रस्फुटित हुआख् वह प्रजा और प्रेम का प्रसाद है।

मुहम्मद साहब का प्रभाव

सूफी मत के इतने विकास के बाद पैगम्बर मुहम्मद का नबी के रूप में आविर्भाव हुआ। उन्होंने कुरान को इलहाम कहकर इस्लाम का प्रवर्त्तन किया। उन्होंने ईमान और दीन की अपेक्षा इस्लाम पर अधिक जोर दिया। यही कारण है कि उन्हें पूर्णरूपेण सूफी नहीं कहा जा सकता है। उनकी भक्ति में प्रेम के स्थान पर दास्य भाव है। प्रेम और संगीत के अतिरिक्त सूफियों के प्रायः सभी लक्षण पैगम्बर मुहम्मद में पाये जाते हैं।

सूफी मत का भारत में प्रवेश

भारत में सूफी मत का प्रचार 12वीं शताब्दी में प्रसिद्ध सूफी अल्हुज्विरी के आगमन से हुआ। आइने अकबरी में सूफियों के 14 सम्प्रदाय बताये गये हैं जिनमें से भारत के चार सूफी सम्प्रदाय अधिक प्रसिद्ध हुए-

1. कादरी सम्प्रदाय

2. सुहरावर्दी सम्प्रदाय

3. नक्शबंदी सम्प्रदाय

4. चिश्ती सम्प्रदाय

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