अजमेर के मैदान में औरंगजेब की सेना से परास्त होकर दारा शिकोह मेड़ता चला गया। औरंगजेब ने महाराजा जयसिंह तथा बहादुर खाँ को महाराजा के पीछे भेजा तथा समस्त मुगल सूबेदारों को पत्र भिजवाए कि जो भी सूबेदार, अमीर, उमराव या हिन्दू राजा दारा शिकोह का साथ देगा या अपने यहाँ आश्रय देगा, उसे बागी समझा जाएगा।
जब मिर्जाराजा जयसिंह तथा बहादुर खाँ की सेनाएं मेड़ता के निकट पहुंचीं तो दारा शिकोह अपने दो हजार सिपाहियों, हरम की औरतों तथा अपने खजाने के साथ अहमदाबाद के लिए रवाना हो गया। उसने अपना एक संदेशवाहक अहमदाबाद भेजकर वहाँ के सूबेदार को सूचित किया कि हम अहमदाबाद आ रहे हैं।
इस पर अहमदाबाद के सूबेदार ने कहलवाया कि यदि दारा अहमदाबाद आएगा तो उसे पकड़कर औरंगजेब को सौंप दिया जाएगा। इस पर दारा ने अपने समस्त घोड़ों एवं हाथियों को त्याग दिया तथा ऊंटों पर जितने आदमी, खजाना एवं रसद आ सकता था, उन्हें लेकर सिंध के रेगिस्तान की तरफ रवाना हो गया।
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मुगलिया इतिहास अपने आप को दोहरा रहा था। दारा के सिंध में पहुंचने से लगभग सवा सौ साल पहले दारा का पूर्वज हुमायूँ भी एक दिन अजमेर से भागकर सिंध पहुंचा था तथा दारा के परबाबा अकबर का जन्म सिंध के इसी रेगिस्तान में हुआ था।
जिस समय दारा सिंध पहुंचा, उस समय उसके पास केवल एक घोड़ा, एक बैलगाड़ी तथा पांच-सात ऊंट बचे थे। जो दारा एक दिन मुगलों के अकूत खजाने का मालिक था, आज मुट्ठी भर अनाज और बाल्टी भर पानी को भी तरस रहा था।
मिर्जाराजा जयसिंह अब भी दारा के पीछे लगा हुआ था। लाहौर से खलीलुल्ला खाँ अपनी सेनाएं लेकर भक्खर आ गया। सिंध में नियुक्त मुगल हाकिम सिंध के निचले हिस्से से दारा को घेरने लगे। इस प्रकार दारा के लिए पूर्व, उत्तर तथा दक्षिण दिशा में जाना संभव नहीं रहा किंतु ईरान जाने का रास्ता अब भी खुला था। इसलिए वह भी अपने पूर्वज हुमायूँ की तरह ईरान के लिए रवाना हो गया।
यहाँ से दारा उत्तर-पश्चिम की ओर मुड़ा और सिंधु नदी पार करके सेहवान पहुंच गया। जब तक महाराजा जयसिंह, शहजादे दारा का पीछा करता हुआ सिंधु नदी तक पहुंचा तब तक दारा भारत की तथा मुगलों के राज्य की सीमा पार कर चुका था। जयसिंह यहाँ से लौट गया।
दारा की बेगम नादिरा बानू अब भी बीमार थी। वह ईरान जाने के पक्ष में नहीं थी। इसलिए दारा बोलन घाटी पार करके भारतीय सीमा से नौ मील पश्चिम में स्थित दादर नामक छोटे से जागीरदार के पास पहुंच गया किंतु दादर पहुंचने से पहले ही बेगम नादिरा बानूं का निधन हो गया।
दादर का जागीरदार मलिक जीवां किसी समय शाहजहाँ के दरबार में अमीर हुआ करता था। एक बार शाहजहाँ ने किसी बात से नाराज होकर मलिक जीवां को मृत्यु-दण्ड की सजा दी थी। तब दारा शिकोह ने अपने बाप के कदमों में गिरकर मलिक जीवां के प्राणों की रक्षा की थी। इस पर शाहजहाँ ने मलिक जीवां को मुगल सल्तनत से बाहर चले जाने का आदेश सुनाया था।
तब से मलिक जीवां मुगल सल्तनत की सीमा के उस पार रहता था। यहीं उसने स्थानीय शासक से छोटी सी जागीर प्राप्त कर ली थी। 6 जून 1661 को दारा वहाँ पहुंचा। मलिक जीवां ने शहजादे का स्वागत किया तथा बड़े आदर से अपने घर में शहजादे के रहने का प्रबंध किया।
कुछ समय बाद जीवां के मन में पाप आ गया। उसने सोचा कि वह दारा को पकड़कर औरंगजेब को सौंप दे तो वह फिर से मुगल दरबार में बड़ा पद पा सकता है। इस लालच में आकर पापी मलिक जीवां ने दारा को उसके छोटे पुत्र सिपहर शिकोह तथा दो पुत्रियों सहित गिरफ्तार कर लिया और दुष्ट बहादुर खाँ के हाथों में सौंप दिया जो अजमेर से अब तक दारा का पीछा कर रहा था।
शाही बंदियों को पकड़कर दिल्ली लाया गया। दिल्ली का लाल किला एक बार फिर दारा की आंखों के सामने था। जिसके लिए यह सारी मारकाट मची थी। बहादुर खाँ की सिफारिश पर औरंगजेब ने विश्वासघाती मलिक जीवां को एक हजार का मनसब दिया तथा उसका नाम बख्तियार खाँ रख दिया।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता