Saturday, July 27, 2024
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10. फ्लोरेंस में तीसरा दिन – 24 मई 2019

आंख खुली तो देखा पाँच बज रहे हैं। यह कमाल ही था कि शरीर की जैविक घड़ी में भी अब भारत के पाँच बजे की बजाय इटली के पाँच बजे का अलार्म स्थिर हो गया था। हमें आज इटली में आठवां दिन था। उठते ही सैलफोन चार्जिंग पर लगाया तथा उसमें कैद तस्वीरों एवं वीडियो को गूगल पर ट्रांसफर किया।

ये दोनों कार्य भी यात्रा के दौरान अत्यंत महत्त्वपूर्ण हो जाते हैं। इस कार्य में एक भी दिन की चूक की तो भारी गड़बड़ हो सकती है। इस बार मैं लैपटॉप साथ नहीं लाया था, इसलिए फोटो और वीडियो प्रतिदिन गूगल पर ट्रांसफर करने पड़ रहे हैं। इसके बाद डायरी लिखने बैठ गया और सात बजे तक लिखता रहा।

घर से निकलते-निकलते 10.30 बज गए। आज फ्लोरेंस शहर देखने का कार्यक्रम बनाया था जिसे स्थानीय भाषा में फिरेंजे कहते हैं। किसी भी शहर के भीतरी भाग को देखना हो तो सबसे बढ़िया माध्यम पैदल चलना ही हो सकता है।

हमने पिताजी को घर पर छोड़ा और हम ट्राम से फ्लोरेंस रेल्वे स्टेशन पहुँचे। यहांँ से हमने पैदल यात्रा आरम्भ की। स्टेशन से थोड़ी दूरी पर एक चौक है जहाँ एक पुराना किंतु विशाल प्रेयर हाउस है। यहीं से घने बाजार का सिलसिला आरम्भ होता है। पर्यटकों के लिए प्रार्थना घर में प्रवेश करना प्रतिबंधित है, इस आशय की सूचना पढ़कर हम बाजार की तरफ मुड़ गए।

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यहाँ कुछ चित्रकार सड़क के किनारे मेज-कुर्सी लगाकर चित्र बना रहे थे। ये चित्र इतने सुंदर, मनोहारी और संतुलित थे कि कम्प्यूटर के लिए भी बनाने कठिन हैं। सदियों पहले फ्लोरेंस शहर ने इन्हीं चित्रों और मूर्तियों के निर्माण से इटली की जड़ता को समाप्त करके नवयुग का अवतरण किया था। वह युग भी कभी का बीत गया किंतु चित्र और मूर्तियां बनाने की परम्परा शहर ने आज भी जीवित रख रखी है। इस चौक के मध्य भाग में फ्लोरेंस के किसी दार्शनिक या चित्रकार की बड़ी प्रतिमा लगी हुई है।

थोड़ा आगे चलने पर लैदर से बने सामान के क्योस्क लगे हुए थे। ये क्योस्क लकड़ी के अस्थाई ढांचों से बने हैं तथा दोनों ओर से सड़क के इतने बीच में आ गए हैं कि यात्रियों के लिए चलना भी कठिन हो जाता है। यहाँ चमड़े की कमर-पेटियां और लेडीज पर्स अधिक बिक रहे थे।

भारतीय रुपए के हिसाब से यहाँ की प्रत्येक चीज बहुत महंगी थी। इन्हीं गलियों में चलते हुए हम एक विशाल चौक पर पहुँचे। इस चौक में इतनी अधिक भीड़ थी कि देखने वाले को लगता है मानो पूरी दुनिया ही सिमट कर इस स्थान पर आ गई हो! यहाँ ई.1408 में निर्मित एक बैपिस्ट्री है। सफेद और हरे रंग के इटैलियन पत्थरों से निर्मित यह बैपिस्ट्री अत्यंत कलात्मक है। इसके आसपास भी अन्य कई विशाल भवन हैं। एक भवन तो ऊँची मीनार की तरह आकाश में जा घुसा प्रतीत होता है।

कुछ पर्यटक क्रेन में बने प्लेटफॉर्म पर खड़े होकर इस सैंकड़ों फुट ऊंची मीनार के ऊपर तक जा रहे थे और वहाँ से नीचे की दुनिया देख रहे थे। हर ओर भीड़ ही भीड़। पर्यटकों के रेले के रेले समुद्री लहरों की तरह आ रहे थे और रुकने का नाम नहीं ले रहे थे। इनमें से एक भवन में म्यूजियम भी बना हुआ था जिसमें प्रवेश करने के लिए लोग घण्टों से तिहरी कतारों में लगे हुए थे।

 इस भवन के बाहर एक सूचना पट्ट लगा है जिसके अनुसार इस बैपिस्ट्री के उत्तरी द्वार का जीर्णोद्धार करने के लिए दुनिया भर के सेठों ने धन दिया था। उनमें भारतीय उद्योगपति एवं स्वतंत्रता सेनानी जमना लाल बजाज का नाम सबसे ऊपर है।

चौक पर विक्टोरिया जैसी शैली में बनी घोड़ा-बग्घियां चल रही थीं जिन पर दुनिया भर से आए पर्यटक पूरे चौक एवं आसपास की गलियों का चक्कर लगा रहे थे। भारत में इन्हें टमटम कहा जाता है। संभवतः इस गाड़ी पर लगी घण्टियों की आवाज के कारण! इस चौक में एक लम्बी कतार में बहुत से चित्रकार बैठकर चित्र बना रहे थे। बहुत से पर्यटक इन चित्रकारों से बात करने का प्रयास करते हैं। इन चित्रकारों में 14-15 साल की किशोरियों से लेकर 80-85 साल के वृद्ध चित्रकार शामिल हैं। सचमुच फ्लारेंस चित्रकारों का नगर है।

हम इन दृश्यों को देखते हुए उस चौक पर घूम ही रहे थे कि अचानक एक विदेशी युवती ने विजय की आंखों पर से चश्मा उतार लिया। शक्ल-सूरत से वह कोई चीनी लड़की दिखाई दे रही थी। उस युवती ने बहुत गुस्से में अंग्रेजी भाषा में विजय को डांटा- ‘हाऊ डेयर यू टू टेक माई ग्लासेज!’

इस अप्रत्याशित छीन-झपट से विजय हक्का-बक्का रह गया और यह समझने का प्रयास करने लगा कि यह अनाजन स्त्री ऐसा क्यों कर रही है? इससे पहले कि विजय कुछ जवाब दे पाता, उस लड़की का साथी दौड़ता हुआ आया और उसने युवती को अपने हाथ में रखा एक चश्मा दिखाते हुए (संभवतः चीनी भाषा में) कुछ कहा। उस लड़की ने तुरन्त चश्मा विजय को लौटा दिया और माफी मांगती हुई बोली- ‘आई एम सॉरी, आई थौट यू हैव टेकन माई ग्लासेज।’ विजय अब भी कुछ नहीं बोल पाया, केवल मुस्कुरा दिया।

इस पूरे घटनाक्रम के दौरान हम विजय के पास ही खड़े हुए थे किंतु हम सभी का ध्यान चौक में चल रही विभिन्न गतिविधियों की तरफ होने से हम इस घटना को देख ही नहीं पाए। जब वह युवती जाने लगी तब विजय ने हमें पूरा घटनाक्रम बताया।

यहाँ से हम कुछ गलियां पार करके लगभग 650 मीटर दूर स्थित एक अन्य चौक में पहुँचे। गूगल मैप हमारा पथ-प्रदर्शन करता रहा। इन गलियों से गुजरते हुए हमें बड़े-बड़े दरवाजों वाले भवनों के सामने से गुजरना होता था। हमें यह देखकर आश्चर्य होता था कि हर घर का दरवाजा पूरी तरह बंद था।

इसलिए उनके भीतर एक दृष्टि फैंकना भी संभव नहीं था। इस चौक के बीचों-बीच एक बड़ा सा फव्वारा है जिसके चारों ओर बहुत सारी मनुष्याकार से भी बड़े आकार की मूर्तियां लगी हुई हैं। ज्यादातर मूर्तियां सफेद संगमरमर की हैं और लगभग सभी मूर्तियां बिना वस्त्रों के हैं। फव्वारे की बाहरी रिंग पर बनी हुई कुछ दैत्याकार मूर्तियां कांसे की हैं जो पानी बहते रहने के कारण गहरी हरी हो गई हैं।

पियाजा डेला सिगनोरिया

वस्तुतः इस समय हम जिस चौक में पहुँच गए थे, उसका नाम पियाजा डेला सिगनोरिया अर्थात् सिगनोरिया चौक है। इस चौक में विश्व-प्रसिद्ध ‘फोंटाना डेल नेट्टूनो’ अर्थात् ‘नेपच्यून देवता का फव्वारा’ स्थित है। यह फव्वारा प्राचीन रोमन देवता नेपच्यून को समर्पित है जिसे भारत में वरुण देव कहा जाता है।

वेदों में वरुण को असुर माना गया है जो बाद में देवताओं से मित्रता हो जाने के कारण देवता बन गया था। इटली में भी नेपच्यून की जो प्राचीन प्रतिमाएं मिलती हैं, उनकी आकृति देवताओं की तरह सौम्य न होकर दैत्यों की तरह क्रूर दिखाई देती हैं। प्राचीन यूनानी धर्म में नेपच्यून को शुद्ध जल एवं समुद्रों का देवता माना जाता था।

यह यूनानी देवता पोजीडोन का सहयोगी देवता है तथा इसे जूपीटर (बृहस्पति) एवं प्लूटो (यम) का भाई माना जाता है। प्राचीन रोमन-वासी नेपच्यून को लैटिन भाषा में नेप्ट्यूनस कहते थे तथा जल एवं झरनों के देवता के रूप में उनकी पूजा करते थे। नेपच्यून स्वर्ग, धरती तथा पाताल लोक का देवता था।

इसे घोड़ों के देवता के रूप में भी स्वीकार किया गया। नेपच्यून देवता की पत्नी का नाम सेलेसिया था। प्राचीन यूनानी धर्म में ओसेनस को भी समुद्र और नदियों का देवता माना जाता था। रोम वासियों ने भी इस यूनानी देवता को उसी रूप में स्वीकार किया। इटली की राजधानी रोम तथा अन्य नगरों में नेपच्यून तथा ओसेनस दोनों देवताओं के नाम वाले झरने एवं फव्वारे मिलते हैं जिनमें नेपच्यूटन अथवा ओसेनस देवताओं के साथ-साथ अन्य देवी-देवताओं की मूर्तियां भी लगी हुई हैं।

प्राचीन यूनानी एवं प्राचीन रोमन देवी-देवताओं की अधिकांश प्रतिमाएं निर्वस्त्र हैं। कुछ मूर्तियों की कमर अथवा वक्ष पर एक कपड़ा उत्कीर्ण किया जाता है। यही कारण है कि इटली की राजधानी रोम एवं अन्य नगरों में चौराहों, मुख्य गलियों एवं झरनों तथा फव्वारों आदि पर संगमरमर एवं कांसे की विशाल निर्वस्त्र प्रतिमाएं दिखाई देती हैं।

यूनानी एवं रोमन देवी-देवता वस्तुतः भारतीय वैदिक देवी-देवताओं के ही बदले हुए नाम हैं। वेदों में नेपच्यून को वरुण, जूपीटर को बृहस्पति तथा प्लूटो को यम कहा गया है जबकि ओसेनस ऋग्वेद में वर्णित वृत्र का बदला हुआ रूप है। वेदों में वृत्र को असुर माना गया है जिसने समुद्रों के जल को बांध लिया था और इन्द्र ने वृत्र का वध करके समुद्रों के जल को मुक्त करवाया। रोम का मुख्य फव्वारा ओसेनस अर्थात् वृत्र को एवं फ्लोरेंस का मुख्य फव्वारा नेपच्यून अर्थात् वरुण देवता को समर्पित है।

फ्लोरंस में नेपच्यून फाउंटेन के नाम से कई फव्वारे हैं जिनमें से पियाजा डेला सिगनोरिया अर्थात् सिगनोरिया चौक पर स्थित नेपच्यून फाउंटेन प्रमुख है। यह फव्वारा पलाज्जो वेचियो के सामने बना हुआ है। इस फव्वारे की मूर्तियों के निर्माण में संगमरमर तथा कांसे का प्रयोग हुआ है।

यह फव्वारा मूलतः ई.1565 में बना था। इसका डिजाइन बेक्कियो बैण्डिनेली नामक शिल्पकार ने तैयार किया था। इस फव्वारे की मूर्तियां बर्टोलोमियो नामक मूर्तिकार ने बनाई थीं। कांसे से निर्मित समुद्री-घोड़ों का निर्माण जियोवानी डा बोलोग्ना ने किया था। ई.1559 में फ्लोरेंस नगर में पेयजल की आपूर्ति के लिए एक नवीन नहर का निर्माण किया गया।

तब फ्लोरेंस के शासक कोसीमो प्रथम मेडिसी ने इस फव्वारे को डिजाइन करने के लिए एक प्रतियोगिता का आयोजन किया। उस समय रोम साम्राज्य का विस्तार लगभग सम्पूर्ण भू-मध्य सागरीय क्षेत्र पर था।

इसलिए उस काल में रोम एवं फ्लोरेंस में बने अधिकांश फव्वारों में समुद्रों के देवता नेपच्यून एवं उससे सम्बद्ध देवी-देवताओं की प्रतिमाएं लगती थीं। जो रोमन साम्राज्य के भूमध्यसागर पर अधिकार होने का प्रतीक थीं। नेपच्यून को सामान्यतः रथ पर आरूढ़ दिखाया जाता था जिसे काल्पनिक समुद्री घोड़ों द्वारा खींचा जाता था।

फ्लोरेंस में हुई प्रतियोगिता में बेक्कियो बैण्डिनेली का डिजाइन चुना गया किंतु काम पूरा होने से पहले ही उसकी मृत्यु हो गई। इसके बाद शिल्पकार अम्मान्नाटी को काम पूरा करने के लिए नियुक्त किया गया। इस फव्वारे में लगे नेपट्यून देवता का चेहरा, फ्लोरेंस के ग्राण्ड ड्यूक कोसीमो के चेहरे की अनुकृति है।

यह प्रतिमा लगभग 13 फुट ऊंची है। इसे अपून मार्बल से बनाया गया है। यह मार्बल मकराना के मार्बल से भी अधिक सफेद है। यह फव्वारा ई.1565 में बनकर तैयार हुआ ताकि फ्लोरेंस के तत्कालीन शासक फ्रैंसिस्को डे मेडिसी प्रथम तथा ऑस्ट्रिया की राजकुमारी ग्राण्ड ड्यूश जोहान्ना के विवाह को यादगार बनाया जा सके। फ्लोरेंसवासियों को यह फव्वारा  पसंद नहीं आया और उन्होंने फव्वारे में लगी नेपट्यून की मूर्ति को ‘विशाल सफेद दैत्य’ कहकर नकार दिया।

 नेपच्यून की प्रतिमा के चारों ओर कांसे की देव-प्रतिमाएं लगाई गई हैं जिन्हें उनके गहरे हरे रंग के कारण सहज ही पहचाना जा सकता है। फव्वारे के निकट अन्य देवी-देवताओं के साथ-साथ नेप्ट्यून की पत्नी देवी सैयला तथा चैरीब्डिस की प्रतिमाएं बनाई गई हैं। ये सभी प्रतिमाएं निर्वस्त्र हैं क्योंकि प्राचीन यूनानी एवं रोमन देवता इसी प्रकार बिना कपड़ों के ही बनाए जाते थे।

फव्वारे के चारों ओर लगी तथा उसके निकट चौक में यत्र-तत्र बनी हुई संगमरमर एवं कांसे की प्रतिमाओं के निर्माण में लगभग 10 साल लगे। फव्वारे के चारों ओर अष्टकोणीय कुण्ड बनाया गया है। उसके ठीक मध्य में नेप्ट्यून का प्लेटफॉर्म खड़ा किया गया है। इस चौक में खड़ी समस्त प्रतिमाएं ई.1574 तक बनकर तैयार हुईं। ई.1800 में उन प्रतिमाओं की अनुकृतियां तैयार करवाई गईं तथा मूल प्रतिमाओं को राष्ट्रीय संग्रहालय में भेज दिया गया।

विगत चार सौ सालों में इस फव्वारे को अनेक प्रकार के नुक्सान सहन करने पड़े। कुछ समय बाद फव्वारा उजड़ गया तथा इसका कुण्ड धोबियों द्वारा कपड़े धोने के काम में लिया जाने लगा। 25 जनवरी 1580 को इस फव्वारे में वाण्डाल आक्रांताओं द्वारा तोड़-फोड़ की गई।

इस फव्वारे में एक ‘सैटिर’ की प्रतिमा लगी हुई थी जिसे ई.1830 के कार्निवल के दौरान किसी ने चुरा लिया। जंगल के देवता को ‘सैटिर’ कहते हैं। यूनान में इसका अंकन एक ऐसे मनुष्य की तरह किया जाता था जिसके कान तथा पूंछ घोड़े की तरह हों। रोमन सैटिर में इसका अंकन ऐसे मनुष्य की तरह किया जाता था जिसके कान, पूंछ, पैर तथा सींग बकरी के जैसे होते थे। कुछ देशों में इस देवता का अंकन पंख वाले मनुष्य के रूप में किया जाता था।

ई.1848 में इस फव्वारे पर बमों से हमला किया गया। सरकार द्वारा इसे बनाया जाता था तथा उपद्रवी तत्वों द्वारा इसे तोड़ दिया जाता था। इसका मुख्य कारण यह प्रतीत होता है कि इस काल में ईसाई संघ के कुछ पदाधिकारी नहीं चाहते थे कि प्राचीन रोमन धर्म के देवी-देवताओं की प्रतिमाएं लोगों को दिखाई दें तथा उनमें अपने पुराने धर्म के प्रति आस्था का उदय हो।

फिर भी सरकार समय-समय पर फ्लोरेंस शहर की पहचान के रूप में इस फव्वारे का जीर्णोद्धार करवाती रही। 4 अगस्त 2005 की रात्रि में कुछ गुण्डों ने फव्वारे पर हमला किया। तीन लोग नेप्ट्यून देवता की प्रतिमा पर चढ़ गए और उन्होंने प्रतिमा का हाथ एवं त्रिशूल तोड़ दिया। वर्ष 2007 में इस प्रतिमा की मरम्मत की गई। वर्ष 2007 में एक बार पुनः चार लड़कों ने इस फव्वारे को नुक्सान पहुँचाया।

इटली में लगभग एक दर्जन नेप्ट्यून (नेप्चयून) फाउण्टेन हैं। फ्लोरेंस शहर के बोबोली गार्डन्स में पलाजो पित्ती के पीछे भी एक नेप्ट्यून फाउण्टेन है। इस फव्वारे की प्रतिमाएं भी बोलोग्ना ने बनाई थीं। इस फव्वारे को देखने के लिए संसार भर से आए पर्यटकों की इतनी भीड़ रहती है कि इसका चित्र उतारना भी आसान नहीं है।

उन्हीं दिनों जियोवान्नी एंजिलो मोण्टोर्सोली ने इटली के सिसली राज्य में स्थित मेसीना शहर में ऐसा ही फव्वारा बनाया। ई.1878 में रोम में भी नेप्ट्यून फाउण्टेन बनाया गया जिसमें नेप्ट्यून को एक ऑक्टोपस से लड़ते हुए दिखाया गया है।

चौक के बीचों-बीच एक विशाल और ऊंचे घोड़े पर किसी घुड़सवार योद्धा की प्रतिमा है। यह कांसे की विशाल प्रतिमा है तथा गहरे हरे रंग की दिखाई देती है। मेरे अनुमान से यह प्रतिमा इस फव्वारे को बनवाने वाले राजा फ्रैंसिस्को डे मेडिसी (प्रथम) की है तथा यह भी फव्वारे के साथ ई.1565 में बनकर तैयार हुई थी। इस प्रतिमा में बने घोड़े तथा राजा की आकृति का शिल्प और धातु ठीक वैसे ही हैं जैसे फव्वारे में लगी कांस्य-निर्मित देव-मूर्तियों के हैं।

लघु शंका

फव्वारे को देखकर हम चले ही थे कि मुझे लघुशंका से निवृत्त होने की इच्छा होने लगी। हम लगभग पूरा शहर घूम आए थे किंतु किसी भी स्थान पर हमें टॉयलेट की सुविधा दिखाई नहीं दी थी। क्या यहाँ के लोगों को पेशाब नहीं लगता!

मैंने विजय से प्रश्न किया तो वह समझ गया कि मेरी समस्या क्या है! उसने भानु से कहा कि वह सामने वाली शॉप पर काम कर रही लड़की से टॉयलेट के बारे में पूछे। भानु ने उस लड़की से बात की। हमारे सौभाग्य से वह अंग्रेजी जानती थी। उसने भानु को बताया कि यहाँ कोई पब्लिक टॉयलेट नहीं होता। आप किसी रेस्टोरेंट में जाइए, वहाँ से कुछ खरीदिए या खाइए, वहाँ आपको टॉयलेट की फैसिलिटी मिल जाएगी।

भानु द्वारा लाई गई यह सूचना किसी बड़े ताले को खोलने के लिए चाबी से कम नहीं थी। मैंने तुरंत ही एक रेस्टोरेंट वाले से टॉयलेट के लिए रिक्वेस्ट की क्योंकि यहाँ के रेस्टोरेंटों में हम कुछ खरीदने की तो सोच ही नहीं सकते थे। मांस-मछली और अण्डों की तरफ देखते ही हमें मतली आती थी।

रेस्टोरेंट का मालिक कुछ मजाकिया किस्म का आदमी था। उसे रोज मेरे जैसे पर्यटकों से पाला पड़ता होगा। इसलिए उसने हंसकर कहा- फिफ्टीन यूरो!’ उसकी बात सुकनकर मेरा मुंह उतर गया। यह तो बहुत बड़ी राशि थी। भारत के हिसाब से 1200 रुपए। फिर भी मैंने किसी तरह हिम्मत बटोर कर उससे कहा- ‘दिस इज वैरी हाई!’

दुकानदार फिर हंसकर बोला- ‘आ’म जोकिंग, प्लीज गो इनसाइड।’ उसने एक कौने में बने टॉयलेट की तरफ संकेत कर दिया। मेरी जान में जान आई। यहाँ से हम अपने घर की तरफ चल दिए। यह रास्ता ठीक उसी नदी की तरफ होकर जाता था जिसके किनारे-किनारे हम पहले दिन एक घण्टा टहले थे।

सोना सस्ता और टमाटर महंगा!

मार्ग में एक ज्यूलरी मार्केट था। इस बाजार को देखकर आंखें चौंधिया जाती हैं। सोने-चांदी, प्लेटिनम, हीरे, जवाहरात एवं सेमी-प्रीशियस स्टोन से बनी ज्यूलरी की इतनी सारी दुकानें एक साथ देखकर हैरानी हुई। दुकानों के शोकेस आभूषणों से ठसाठस भरे हुए हैं और गलियां दुनिया भर से आए पर्यटकों से भरी हैं।

इतनी सारी दुकानें, इतनी सारी ज्यूलरी और इतने सारे पर्यटकों की उपस्थिति देखकर ही अनुमान लगाया जा सकता है कि यहाँ प्रतिदिन कई सौ करोड़ रुपयों के आभूषणों की बिक्री होती होगी। यहाँ सोने का भाव 350 यूरो अर्थात् 28 हजार भारतीय रुपए रुपए प्रति 10 ग्राम है। जबकि इन दिनों भारत में सोने का भाव 32000 रुपए प्रति 10 ग्राम है।

दूसरी ओर यदि इटली में भारतीय मुद्रा में 32 हजार रुपए का टमाटर खरीदा जाए तो केवल 100 किलो टमाटर आएंगे किंतु भारत में इतने ही रुपए में 1,000 किलो टमाटर खरीदे जा सकते हैं। यह मेरी समझ से बाहर की बात थी कि यदि इटली में टमाटर का भाव भारत की तुलना में 10 गुना महंगा है तो सोना भारत से भी सस्ता क्यों है? हम भारत में सस्ता टमाटर खा रहे हैं या इटली के लोग सस्ता सोना खरीद रहे हैं?

मैं और विजय इन ज्यूलरी शॉप को देखते हुए आगे बढ़ गए। आगे वही नदी थी जिसके किनारे हम पहले ही दिन एक घण्टे तक घूमते रहे थे। नदी के किनारे पहुँचकर हमने देखा कि मधु, भानु और दीपा हमारे साथ नहीं हैं। हम दोनों वापस बाजर की तरफ लौटे। वे तीनों ठीक उसी स्थान पर खड़ी हुई थीं

जहाँ से बाजार समाप्त होता था और नदी का तट आरम्भ होता था। नदी के किनारे आधे घण्टे चलने के बाद हम अपने सर्विस अपार्टमेंट पहुँचे। अब तक दोपहर के डेढ़ बज गए थे। हम पूरे तीन घण्टे तक या तो चलते रहे थे या खड़े रहे थे। शहर में बैठने की बेंच इक्का-दुक्का स्थानों पर थीं और उन पर पर्यटक पहले से ही जमे हुए थे।

इस कारण हमें बैठने का अवसर कहीं नहीं मिला था। सायं सवा पाँच बजे मैं और विजय पिताजी के साथ घूमने निकले। हमने ट्राम के टिकट खरीदे। इन्हीं टिकटों से किसी भी सिटी बस में भी यात्रा की जा सकती थी। हमारा विचार पूरे डेढ़ घण्टे में ट्राम या बस में बैठे रहकर शहर घूमने का था ताकि पिताजी को पैदल नहीं चलना पड़े।

हम ट्राम से शहर के अंतिम छोर तक गए। इस स्थान पर हमें पहली बार इटली की मिट्टी और घास दिखाई दी। हम दूसरी ट्राम पकड़ कर वापस लौटे और इस बार शहर के दूसरे छोर पर उतरे।

रोमांचक अनुभव है रोम और फ्लोरेंस की मैट्रो रेल में यात्रा

इटली के नगरों में ट्राम सेवा को चलते हुए देखना और उसमें यात्रा करना एक आनंद दायक अनुभव है। रोम संसार के प्राचीन नगरों में से एक है किंतु जिस तरह से उसका आधुनिकीकरण हुआ है, उसे देखकर लगता है कि रोम हाल ही में कुछ वर्षों में बनकर तैयार हुआ है। ट्राम सेवा उसकी सुंदरता में चार-चांद लगा देती है।

इसके लिए न तो ऊंचे प्लेट फार्म बनाने पड़ते हैं और न पटरियों के किनारे गिट्टी बिछानी पड़ती है। इसलिए बच्चे, बूढ़े, स्त्रियां सभी इसकी सवारी पसंद करते हैं। यह नगर के आवागमन को तो सुगम बनाती ही है, साथ ही सिटी बस की सेवा से भी अधिक सुगम है। यह बहुत कम समय में शहर के एक हिस्से से दूसरे हिस्से में पहुँचा देती है।

बसों, कारों तथा अन्य साधनों की अपेक्षा यह अधिक सुरक्षित एवं आराम देह सेवा है। फ्लोरेंस संसार के सबसे सुंदर शहरों में से एक है। इस नगर की ट्राम सेवा दर्शकों को लुभाती है। फ्लोरेंस आने वाले पर्यटक ट्राम का आनंद उठाना कभी नहीं भूलते।

जिस स्थान पर हम ट्राम से उतरे, वहाँ से वह चौक निकट ही था जहाँ आज प्रातः हमने विशाल बैपिस्ट्री देखी थी। हमें एक मिनी बस दिखाई दी। हम उसी बस से बैपिस्ट्री तक पहुँचे। इस समय भी यहाँ सुबह जैसी ही भीड़ थी। लोग विक्टोरिया गाड़ियों का आनंद ले रहे थे। इस चौक को देखने के बाद हम बस में बैठकर सर्विस अपार्टमेंट लौट आए।

दिन अब भी काफी बाकी था। इसलिए इस बार पिताजी घर पर रहे और बाकी के सदस्य दूध, फल और तरकारी खरीदने के लिए निकल गए। इन्हें आंख मींचकर खरीदना पड़ा था। भारत में दूध और सब्जियां 60 रुपए किलो तथा फल 100-125 रुपए किलो मिल जाते हैं किंतु यहाँ दूध से लेकर आलू-प्याज, टमाटर, सेब, केला, और आड़ू 300-350 रुपए किलो मिलते हैं।

रात को नौ बजे जब हम सर्विस अपार्टमेंट पर लौटे, तब भी दिन का पर्याप्त उजाला मौजूद था। आज दिन भर हमें बहुत पैदल चलना पड़ा था इस कारण बुरी तरह थक गए। खाना खाकर लेटते ही नींद आ गई।

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