Saturday, December 7, 2024
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अध्याय – 27 : भारत में पाश्चात्य शिक्षा के विकास का तीसरा चरण (1882-1901 ई.)

1854 ई. के वुड घोषणा पत्र तथा 1858 ई. की महारानी विक्टोरिया की घोषणा में कहा गया था कि सरकार धार्मिक शिक्षा को बढ़ावा नहीं देगी। इस कारण भारत की मिशनरी संस्थाएँ, जिनमें धार्मिक शिक्षा दी जाती थी, सरकारी अनुदान प्राप्त करने से वंचित हो गईं। इस नीति के विरुद्ध इंग्लैण्ड में एक आन्दोलन चलाया गया। इस कारण सरकार को इस विषय पर ध्यान देना आवश्यक हो गया।

हण्टर आयोग की नियुक्ति

गवर्नर जनरल लॉर्ड रिपन ने फरवरी 1882 में सर विलियम हण्टर की अध्यक्षता में हण्टर आयोग नियुक्त किया। इसमें अध्यक्ष सहित 21 सदस्य थे जिनमें से 8 भारतीय थे। इस आयोग का उद्देश्य यह जानना था कि 1854 ई. के घोषणा पत्र में उल्लिखित नीति का किस सीमा तक पालन किया गया है। आयोग को निर्देश दिया गया कि वह यह भी बताये कि उक्त नीति को सुचारू रूप से कार्यान्वित करने के लिए सरकार को कौनसे कदम उठाने चाहिए। आयोग यह भी सुझाव दे कि प्राथमिक शिक्षा के विकास और प्रगति के लिए सरकार को क्या विशेष प्रयत्न करने चाहिये। आयोग बताये कि शिक्षा के क्षेत्र में निजी प्रयासों को प्रोत्साहन देने के लिए आर्थिक अनुदान की प्रथा कहाँ तक सफल हुई है तथा सरकार के दृष्टिकोण को अधिक उदार बनाने के लिए इस प्रथा में क्या परिवर्तन किये जायें?

योग मूलतः प्राथमिक शिक्षा की स्थिति पर रिपोर्ट प्रस्तुत करने के लिए नियुक्त किया गया था किन्तु आयोग ने माध्यमिक शिक्षा, उच्च शिक्षा, स्त्री-शिक्षा, मुसलमानों तथा अन्य पिछड़ी जातियों की शिक्षा, शिक्षक प्रशिक्षण, धार्मिक शिक्षा और शिक्षा विभाग में सुधार आदि विषयों के सम्बन्ध में भी महत्त्वपूर्ण सुझाव दिये। इस प्रकार 1882 ई. का वर्ष भारतीय शिक्षा के इतिहास में अत्यन्त महत्त्वपूर्ण रहा।

(1.) प्राथमिक शिक्षा: आयोग ने प्राथमिक शिक्षा की नीति, प्रबन्ध, देशी शिक्षा को प्रोत्साहन, प्राथमिक शिक्षा का माध्यम आदि विषयों पर कई सुझाव दिये। प्राथमिक शिक्षा से सम्बन्धित प्रमुख सुझाव इस प्रकार से थे-

(अ.) प्राथमिक शिक्षा मातृभाषा के माध्यम से दी जानी चाहिए।

(ब.) प्राथमिक शिक्षा में व्यापारिक गणित, हिसाब, जमीन की नाप-तौल, प्राकृतिक विज्ञान और कृषि, स्वास्थ्य और औद्योगिक कलाओं में उसका उपयोग आदि विषय सम्मिलित किये जाने चाहिये।

(स.) प्राथमिक शिक्षा के पाठ्यक्रम को अधिक कठोर नहीं बनाया जाना चाहिये।

(द.) प्रान्तों को स्वतन्त्रता दी जानी चाहिए कि वे अपनी आवश्यकताओं और परिस्थितियों के अनुसार पाठ्यक्रम का स्वरूप निर्धारित कर सकें।

(य.) प्राथमिक शिक्षा की व्यवस्था, विस्तार और सुधार के लिए पूरा प्रयत्न करना चाहिए।

(र.) स्थानीय निकायों के राजस्व से ही प्राथमिक शिक्षा का व्यय पूरा किया जाना चाहिये। 

(ल.) प्रान्तीय सरकारें अपने राजस्व में से प्राथमिक शिक्षा पर व्यय करें। प्राथमिक स्कूलों के निदेशन एवं निरीक्षण का सारा व्यय भी प्रान्तीय सरकारों को वहन करना चाहिए तथा प्रान्तीय सरकारों को प्रत्येक जिले में एक-एक नार्मल स्कूल खोलने का दायित्व अपने ऊपर लेना चाहिए।

आयोग ने भारतीयों द्वारा संचालित परम्परागत शिक्षण संस्थाओं की भी जाँच की तथा सुझाव दिया कि ये संस्थाएँ अत्यन्त लाभदायक हैं, अतः इनको संरक्षण दिया जाना चाहिये। इन संस्थाओं को विकसित कर उन्हें सामयिक आवश्यकताओं के अनुकूल बनाया जा सकता है। आयोग ने इन संस्थाओं का प्रबन्ध स्थानीय स्वशासित संस्थाओं द्वारा किये जाने का सुझाव दिया तथा कहा कि परम्परागत देशी प्राथमिक शिक्षण संस्थाओं के विकास के लिए सरकार को उन्हें अधिक अनुदान देकर उनका अधिक से अधिक उपयोग करना चाहिए। 

(2.) माध्यमिक शिक्षा: हण्टर आयोग ने माध्यमिक-शिक्षा के सम्बन्ध में भी कई महत्त्वपूर्ण सुझाव दिये-

(अ.) योग्य एवं कुशल भारतीयों के हाथों में माध्यमिक-शिक्षा का भार सौंप कर सरकार उससे अपना हाथ खींच ले।

(ब.) जहाँ स्थानीय सहयोग पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध हो वहाँ सरकार अधिक से अधिक अनुदान देकर माध्यमिक-शिक्षा को प्रोत्साहित करे किन्तु जहाँ स्थानीय सहयोग पर्याप्त मात्रा में उलब्ध न हो, वहाँ सरकार स्वयं माध्यमिक स्कूल खोले। किन्तु अन्ततोगत्वा इन स्कूलों को भी सरकार स्थानीय संस्थाओं को सौंप दे, बशर्ते कि ऐसा करने से इन स्कूलों का शिक्षण स्तर नहीं गिरे और उनके स्थायित्व में भी किसी प्रकार की बाधा नहीं पहुँचे।

(स.) जिस जिले में जनता समृद्ध न हो वहाँ सरकार एक-एक आदर्श हाई स्कूल स्थापित करे।

(द.) माध्यमिक-शिक्षा के क्षेत्र में निजी प्रयासों को पर्याप्त प्रोत्साहन देने के लिए सरकार द्वारा उदारतापूर्वक अनुदान राशि देने की अनुशंसा की गई।

(य.) माध्यमिक-शिक्षा के क्षेत्र में निजी प्रयासों को पर्याप्त प्रोत्साहन देने के लिए सरकार द्वारा उदारतापूर्वक अनुदान राशि देने की अनुशंसा की गई और सुझाव दिया गया कि ऐसी हाई स्कूलों में, सरकारी स्कूलों की अपेक्षा कम फीस ली जाये।

(र.) आयोग ने देशी भाषाओं की उपेक्षा करते हुए माध्यमिक स्कूलों में शिक्षा का माध्यम अँग्रेजी रखने पर जोर दिया गया।

(ल.) माध्यमिक स्कूलों के लिए दो प्रकार के पाठ्यक्रम रखे जायें। क्योंकि आयोग ने अनुभव किया कि हाई स्कूल के विद्यार्थियों का लक्ष्य विश्वविद्यालयों में प्रवेश लेना होता है, क्रियात्मक या व्यवसायिक शिक्षा की ओर उनका ध्यान कम ही होता है। फलस्वरूप उनकी शिक्षा केवल किताबी ज्ञान पर आधारित थी, जिसका जीवन की यथार्थता से कोई मेल नहीं था। इसलिए आयोग ने सुझाव दिया कि हाई स्कूल की उच्च कक्षाओं में दो प्रकार के पाठ्यक्रम रखे जायें ‘ए-कोर्स’ उन छात्रों के लिए जो विश्वविद्यालयों की कक्षाओं में प्रवेश लेने के लिए प्रवेश-परीक्षा देना चाहते हों तथा ‘बी-कोर्स’ उन छात्रों के लिए हो जो हाई स्कूल के बाद व्यवसायिक, औद्योगिक या किसी अन्य असाहित्यिक प्रवृत्तियों की ओर जाना चाहते हों।

(3.) उच्च-शिक्षा: यद्यपि हण्टर आयोग का मुख्य कार्य प्राथमिक शिक्षा की जाँच कर उसके उन्यन के लिए सुझाव देना था, फिर भी आयोग ने कॉलेज शिक्षा के सम्बन्ध में महत्त्वपूर्ण सुझाव दिये-

(अ.) सरकार को उच्च शिक्षा के क्षेत्र से हट जाना चाहिए तथा उनका प्रबन्ध निजी संस्थाओं द्वारा होना चाहिए।

(ब.) निजी संस्थाओं के प्रोत्साहन हेतु महाविद्यालयों को दी जाने वाली धनराशि निर्धारित करते समय अध्यापकों की संख्या, संस्था के संचालन का व्यय, संस्था की क्षमता और उस क्षेत्र की शैक्षणिक आवश्यकताओं को ध्यान में रखना चाहिए।

(स.) महाविद्यालयों में निःशुल्क पढ़ने वाले छात्रों की संख्या भी निश्चित की जानी चाहिए।

(द.) महाविद्यालयों के भवन के विस्तार, महाविद्यालयों हेतु फर्नीचर, पुस्तकालय, प्रयोगशाला तथा यन्त्र आदि खरीदने के लिए विशेष अनुदान दिया जाना चाहिए।

(य.) महाविद्यालयों में विद्यार्थियों की रुचि के अनुसार विभिन्न पाठ्यक्रमों की व्यवस्था होनी चाहिए ताकि शिक्षा पूर्ण करने पर उसे जीविकोपार्जन में कोई अड़चन नहीं आये।

(र.) केवल वे महाविद्यालय ही निजी व्यवस्थापकों को हस्तान्तरित किये जायें जिनके स्थायित्व और उत्तम प्रबन्धन के सम्बन्ध में पूर्ण आश्वासन प्राप्त हो जाये।

(ल.) महाविद्यालय में एक से अधिक वैकल्पिक विषयों की व्यवस्था होनी चाहिए ताकि विभिन्न प्रकार की शिक्षा को प्रोत्साहन मिल सके।

(4.) शिक्षा-अनुदान: आयोग ने अनुभव किया कि सरकारी अनुदानों का अधिकांश भाग सरकारी शिक्षण संस्थाएँ ही प्राप्त कर रही हैं तथा निजी संस्थाओं को जो थोड़ा-बहुत अनुदान मिलता भी है, वह समय पर नहीं मिलता। राजकीय शिक्षण संस्थाओं से निकलने वाले विद्यार्थियों को, निजी शिक्षण संस्थाओं के विद्यार्थियों की तुलना में नौकरियों के अधिक अवसर प्राप्त हो रहे हैं। अतः आयोग ने सुझाव दिया कि दोनों प्रकार की संस्थाओं से निकलने वाले विद्यार्थियों को सेवा में समान अवसर मिलने चाहिए। साथ ही, प्रान्तीय सरकारें निजी शिक्षण संस्थाओं के प्रबन्धकों के परामर्श से अनुदान नियमों में संशोधन करें। परीक्षा परिणामों के आधार पर अनुदान देने की प्रथा को कॉलेजों में लागू न किया जाये। इस प्रकार आयोग ने अनुदान नियमों को सरल बनाने, अनुदान की राशि में वृद्धि करने, निजी शिक्षण संस्थाओं के आन्तरिक प्रबन्ध में हस्तक्षेप न करने की नीति अपनाने तथा भारतीय निरीक्षकों की नियुक्ति करने के सुझाव देकर निजी संस्थाओं को उच्च शिक्षा के क्षेत्र में आने हेतु प्रोत्साहित किया।

(5.) स्त्री-शिक्षा: आयोग ने सुझाव दिया दिया कि सार्वजनिक कोष के उपयोग में लड़के और लड़कियों के स्कूलों में समान अनुपात होना चाहिए। कन्या पाठशालाओं के लिए अनुदान के नियम अधिक सरल और उदार होने चाहिए ताकि अधिक से अधिक कन्या पाठशालाएँ स्थापित हो सकें। बालक और बालिकाओं के पाठ्यक्रम में भिन्नता होनी चाहिए ताकि कन्याओं को गृहस्थी में सहायक विषयों का ज्ञान हो सके। लड़कियों को शिक्षा की ओर आकर्षित करने के लिए उनको अधिक छात्रवृत्तियाँ दी जानी चाहिए। कन्या पाठशालाओं को दिया जाने वाला अनुदान शिक्षा शुल्क पर आधारित नहीं रखा जाना चाहिए। छात्राओं के लिए छात्रावासों की स्थापना की जानी चाहिये ताकि वे अपने स्कूलों के निकट रह सकें। अधिकाधिक संख्या में महिला शिक्षिकाएँ नियुक्त की जानी चाहिये तथा कन्या पाठशालाओं के निरीक्षण के लिए महिला निरीक्षिकाओं की नियुक्ति की जानी चाहिए। भारतीय माता-पिता अपनी लड़कियों को घर से बाहर भेजना पसन्द नहीं करते थे, इसलिए आयोग ने सुझाव दिया कि लड़कियों को घरों पर जाकर पढ़ाने की प्रथा को प्रोत्साहन दिया जाये।

(6.) शिक्षक प्रशिक्षण: आयोग ने अनुशंसा की कि शिक्षा के स्तर को ऊँचा उठाने के लिए शिक्षकों को शिक्षा के सिद्धान्त तथा पाठ-विधि से पूर्व-परिचित होना चाहिये। इसलिए शिक्षा के सिद्धान्त का पूर्ण ज्ञान रखने वाले तथा शिक्षण-विधि की परीक्षा में उत्तीर्ण शिक्षकों को ही माध्यमिक विद्यालयों में स्थायी नियुक्ति दी जानी चाहिये। स्त्री अध्यापिकाओं की कमी को ध्यान में रखते हुए आयोग ने सुझाव दिया कि जब तक उचित संख्या में प्रशिक्षित अध्यापिकाएँ उपलब्ध न हो जायें, तब तक पुरुष अध्यापकों की नियुक्ति की जा सकती है।

(7.) मुसलमानों व पिछड़ी जातियों की शिक्षा: आयोग ने मुसलमानों व पिछड़ी जातियों की शिक्षा पर भी अनुशंसाएं दीं तथा कहा कि इन जातियों की शिक्षा के विशेष प्रयास किये जायें। उन्हें विशेष छात्रवृत्तियाँ दी जायें। उनके लिए ऐसे स्कूल खोले जायें जिनमें उन्हें प्रवेश देने में प्राथमिकता मिले। सरकारी स्कूलों एवं कॉलेजों में निःशुल्क शिक्षा ग्रहण करने वाले छात्रों में मुसलमान छात्रों की संख्या निश्चित कर दी जाये, मुस्लिम स्कूलों को उदारतापूर्वक अनुदान दिया जाये। मुसलमान शिक्षकों के प्रशिक्षण की उचित व्यवस्था की जाये। मुसलमानों की प्राथमिक स्कूलों के निरीक्षण के लिए मुसलमान निरीक्षक नियुक्त किये जायें और वार्षिक शिक्षा रिपोर्टों में एक अध्याय मुसलमानों की शिक्षा पर जोड़ा जाये।

(8.) धार्मिक शिक्षा: आयोग ने सुझाव दिया कि सरकारी स्कूलों में धार्मिक शिक्षा न दी जाये किन्तु गैर सरकारी स्कूलों के प्रबन्धक चाहें तो धार्मिक शिक्षा की व्यवस्था कर सकते हैं। ऐसे स्कूलों को वित्तीय सहायता देते समय उनकी शैक्षिक स्थिति का ध्यान रखा जाये।

(9.) शिक्षा विभाग में सुधार: शिक्षा विभाग के दोषों को दूर करने के लिए हण्टर आयोग ने सुझाव दिया कि विद्यालयों के निरीक्षण के लिए केन्द्रीय निरीक्षक नियुक्त न करके स्थानीय निरीक्षकों को नियुक्त किया जाये क्योंकि वे ही स्थानीय विद्यालयों की वास्तविक स्थिति का पता लगा सकते हैं। विद्यालयों की संख्या के अनुसार पर्याप्त संख्या में निरीक्षकों की नियुक्ति की जाये। निरीक्षकों के पद पर सामान्यतः भारतीयों की ही नियुक्ति की जाये।

हण्टर आयोग की रिपोर्ट के बाद भारत में शैक्षणिक प्रगति

लॉर्ड रिपन ने हण्टर आयोग की समस्त अनुशंसाएँ स्वीकार करके उन्हें तत्काल लागू कर दिया। इसके बाद बीस साल तक देश में शिक्षा के क्षेत्र में कुछ प्रगति हुई। इस प्रगति का विवरण इस प्रकार से है-

(1.) प्राथमिक शिक्षा: हण्टर आयोग ने प्राथमिक शिक्षा का दायित्व स्थानीय निकायों को देने की अनुशंसा कर यह आशा व्यक्त की थी कि इससे प्राथमिक शिक्षा की काफी प्रगति होगी किन्तु स्थानीय संस्थाओं को पर्याप्त सरकारी सहायता नहीं मिली, जिससे प्राथमिक शिक्षा के विस्तार के लिए उन्हें अपने सीमित साधनों पर ही निर्भर रहना पड़ा। फिर भी प्राथमिक विद्यालयों और उनमें पढ़ने वाले विद्यार्थियों की संख्या में वृद्धि हुई। 1898 ई. तक अनेक गाँवों में प्राथमिक विद्यालय स्थापित हो गये। इस अवधि में, परम्परागत पद्धति पर चले रहे देशी विद्यालयों का ह्रास हुआ। 1854 ई. के वुड्स घोषणा-पत्र तथा 1882 ई. के हण्टर आयोग की अनुशंसा के बाद भी देशी विद्यालयों की दशा गिरती चली गई और 20वीं सदी के प्रारम्भ तक वे अदृश्य-प्रायः हो गये।

(2.) माध्यमिक शिक्षा: हण्टर आयोग की अनुशंसा के उपरांत भी प्रान्तीय सरकारों के शिक्षा विभागों ने माध्यमिक शिक्षा से अपने हाथ नहीं खींचे। अपितु सरकार ने माध्यमिक शिक्षा के क्षेत्र में अपने प्रयत्न तेज कर दिये। इस अवधि में निजी प्रयासों में भी काफी वृद्धि हुई, क्योंकि देश में बढ़ती हुई राष्ट्रीय भावना ने जनता के शिक्षित वर्ग में शिक्षा के प्रति विशेष रुचि उत्पन्न कर दी तथा उन्हें माध्यमिक स्कूल खोलने के लिए प्रेरित किया। 1881-82 ई. में भारत में माध्यमिक स्कूलों की संख्या लगभग चार हजार थी जो 20वीं शताब्दी के प्रारम्भ में सवा पाँच हजार हो गई। इसी प्रकार माध्यमिक स्कूलों में पढ़ने वाले छात्रों की संख्या दो लाख चौदह हजार से बढ़कर पाँच लाख नब्बे हजार हो गई।

(3.) व्यावसायिक शिक्षा: हण्टर आयोग ने माध्यमिक स्कूलों में दो प्रकार के पाठ्यक्रम चालू करने की अनुशंसा की थी। पहला पाठ्यक्रम वह जिसे पढ़कर विद्यार्थी स्वयं को विश्वविद्यालयों में प्रवेश के लिए तैयार कर सकें। दूसरा पाठ्यक्रम वह जो विद्यार्थियों को व्यावसायिक शिक्षा दे सके। व्यावसायिक शिक्षा देने की अनुशंसा सफल नहीं हुई, क्योंकि अधिकांश विद्यार्थियों का उद्देश्य परीक्षा पास करके सरकारी नौकरी प्राप्त करना होता था। यद्यपि कुछ प्रान्तों में व्यावसायिक विद्यालयों की स्थापना की गई किन्तु उनमें प्रवेश लेने वाले छात्रों की संख्या अत्यल्प रही। 20वीं शताब्दी के प्रारम्भ में देश में केवल दो हजार विद्यार्थी ही व्यवसायिक शिक्षा प्राप्त कर रहे थे।

(4.) मातृ-भाषा की शिक्षा: वुड घोषणा-पत्र और हण्टर आयोग की रिपोर्ट, दोनों में मातृ-भाषा के अध्ययन की आवश्यकता पर बल दिया गया था किन्तु अगले बीस वर्षों में माध्यमिक स्कूलों में देशी भाषाओं के अध्यापन की पूर्ण उपेक्षा की गई तथा अँग्रेजी भाषा को ही शिक्षा का माध्यम बनाया गया जिससे अँग्रेजी भाषा का प्रसार हो गया। विद्यार्थियों का अधिकांश समय अँग्रेजी का ज्ञान प्राप्त करने में व्यय होता था। इस कारण वे अन्य विषयों को बहुत कम समय दे पाते थे। अँग्रेजी भाषा के विस्तृत ज्ञान के लिए छात्रों को अपने मस्तिष्क पर अधिक बोझ डालना पड़ता था जिससे शिक्षा के वास्तविक उद्देश्यों की प्राप्ति में बाधा पहुँचती थी।

(5.) शिक्षक-प्रशिक्षण: वुड घोषणा-पत्र में शिक्षकों के प्रशिक्षण पर विशेष जोर दिया गया था किन्तु 1854 से 1874 ई. तक की अवधि में शिक्षकों के प्रशिक्षण की दिशा में कोई विशेष प्रगति नहीं हुई। 1882 ई. तक सम्पूर्ण भारत में केवल दो शिक्षक प्रशिक्षण महाविद्यालय स्थापित हो सके- एक मद्रास में और दूसरा लाहौर में। इन दोनों में माध्यमिक स्कूलों के बहुत ही कम शिक्षक, प्रशिक्षण प्राप्त कर सके। 1882 ई. के शिक्षा आयोग (हण्टर आयोग) ने ऐसे ठोस सुझाव नहीं दिये थे जिनकी क्रियान्विति अनिवार्य की जा सके। 1902 ई. तक सम्पूर्ण भारत में केवल छः शिक्षक प्रशिक्षण महाविद्यालय खोले गये। केवल कुछ प्रान्तों में ट्रेनिंग स्कूल खोले गये जिनमें माध्यमिक स्कूलों के शिक्षकों को प्रशिक्षित किया जाता था।

(6.) विश्वविद्यालयी शिक्षा: माध्यमिक स्कूलों से निकले हुए अधिकांश छात्र कॉलेजों मे प्रवेश लेने का प्रयत्न करते थे, क्योंकि उस समय सरकारी नौकरी में उच्च पद प्राप्त करने के लिए विश्वविद्यालय की डिग्री अनिवार्य थी। अतः इस अवधि में भारतीयों द्वारा अनेक कॉलेज खोले गये। ईसाई मिशनरियों ने भी प्रयत्न जारी रखे। 1902 ई. तक भारतीयों द्वारा संचालित कॉलेजों की संख्या 42 और मिशनरी कॉलेजों की संख्या 37 हो गई थी। 20वीं शताब्दी के प्रारम्भ में भारत में 145 कला महाविद्यालय, 30 विधि महाविद्यालय, 4 मेडिकल कॉलेज व इन्जीनियरिंग कॉलेज, 5 शिक्षक प्रशिक्षण महाविद्यालय और 3 कृषि महाविद्यालय थे। इन कॉलेजों की स्थापना में राष्ट्रीय विचारधारा और राजनीतिक चेतना का भी प्रभाव रहा। 1875 ई. में आर्य समाज की स्थापना और 1885 ई. में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना ने भारतीयों में शिक्षा के प्रति विशेष रुचि उत्पन्न की। पाश्चात्य शिक्षा और राष्ट्रीय राजनीतिक विचारधारा ने भारतीयों में राष्ट्रीय-चेतना उत्पन्न की। इस कारण भारतीयों ने उच्च शिक्षा के क्षेत्र में अनेक महाविद्यालयों की स्थापना की। लाहौर का डी.ए.वी. कॉलेज, बनारस का सेन्ट्रल हिन्दू कॉलेज, पूना का फर्ग्यूसन कॉलेज और कलकत्ता का रिपन कॉलेज इसी भावना से खुले। कॉलेजों की बढ़ती हुई संख्या को देखते हुए दो नये विश्वविद्यालयों की स्थापना हुई- 1882 ई. में पंजाब विश्वविद्यालय (लाहौर) और 1887 ई. में इलाहाबाद विश्वविद्यालय।

इस प्रकार 20वीं शताब्दी के प्रारम्भ में देश में पाँच विश्वविद्यालय- कलकत्ता, बम्बई, मद्रास, पंजाब एवं इलाहबाद थे जो परीक्षाएँ लेकर डिग्रियाँ देने का काम करते थे। वे मौलिक चिन्तन और गहन अध्ययन के क्षेत्र उत्पन्न नहीं कर सके। यह कार्य महाविद्यालयों को सौंप दिया गया था जो आर्थिक कठिनाइयों, योग्य अध्यापकों के अभाव तथा उच्च अध्यापन सामग्री व वैज्ञानिक उपकरणों के अभाव के कारण पूर्ण रूप से सफल नहीं हो सके। इन महाविद्यालयों द्वारा ऐसा शिक्षित वर्ग तैयार हुआ जो पुस्तकों को रटने की कला में निपुण था किन्तु किसी व्यावहारिक या प्रायोगिक कार्य को करने में असमर्थ था। ऐसे शिक्षित लोगों का उद्देश्य किसी तरह परीक्षा उर्त्तीण करना था। इस स्थिति पर, 1902 ई. में लॉर्ड कर्जन द्वारा गठित भारतीय विश्वविद्यालय आयोग ने टिप्पणी की कि- ‘भारतीय विश्वविद्यालयों का सबसे बड़ा दोष यह है कि शिक्षण कार्य परीक्षा के अनुसार होता है, परीक्षा शिक्षण के अनुसार नहीं होती।’

(7.) स्त्री-शिक्षा: हण्टर आयोग की कड़ी अनुशंसा के उपरांत भी आगे के बीस वर्षों में भारत में स्त्री-शिक्षा में विशेष प्रगति नहीं हुई। स्कूल में लड़कों के साथ सह-शिक्षा से उत्पन्न आशंकाएं, बाल विवाह, पर्दा प्रथा आदि कारण स्त्री-शिक्षा में बाधक बने रहे। इस अवधि में कुछ कन्या विद्यालय स्थापित हुए किन्तु उनमें कन्याओं की संख्या काफी कम रही। राजा राममोहन राय, स्वामी दयानन्द सरस्वती, महादेव गोविन्द रानाडे, बैरामजी मलाबार, ईश्वरचन्द्र विद्यासागर आदि के प्रयासों से स्त्री शिक्षा का काम आगे बढ़ने लगा तथा भारत में स्त्रियों की शिक्षा के लिए सैकड़ों प्राथमिक एवं माध्यमिक स्कूल खुले। 1902 ई. तक भारत में कन्याओं के 5,628 प्राथमिक, 467 माध्यमिक और 12 महाविद्यालय थे। इन शिक्षण संस्थाओं में पढ़ने वाली लड़कियों की कुल संख्या बहुत कम थी। फिर भी स्त्री-शिक्षा के प्रति लोगों का विरोध कम होता जा रहा था। 1882 ई. में देश में केवल 6 लड़कियाँ महाविद्यालयों में पढ़ती थीं जबकि 1901 ई. में इनकी संख्या बढ़कर 264 हो गई।

(8.) व्यावसायिक-शिक्षा: हण्टर आयोग ने व्यावसायिक-शिक्षा के प्रसार के लिये अनेक सुझाव दिये थे। सरकार ने इस सुझावों को कार्यान्वित करने के प्रयत्न किये। इस कारण देश में विधि-शिक्षा, चिकित्सा-शिक्षा, इन्जीनियरिंग तथा कृषि एवं पशु चिकित्सा के लिये अगले बीस वर्षों में कई महाविद्यालय खुले। विधि-शिक्षा तीन प्रकार की संस्थाओं में दी जाती थी- (1.) कला और विज्ञान के कॉलेजों में चलाई जाने वाली विधि कक्षाएँ, (2.) विधि-कॉलेज, और (3.) विधि-स्कूल। बम्बई, मद्रास और पंजाब के कॉलेजों में कानून की शिक्षा दी जाती थी। तीनों ब्रिटिश प्रेसीडेन्सियों के मेडिकल कॉलेजों के अतिरिक्त लाहौर में भी एक मेडिकल कॉलेज था। इनमें पाश्चात्य चिकित्सा-पद्धति की शिक्षा दी जाती थी। 1901-02 ई. में इन चारों मेडिकल कॉलेजों में 1,466 विद्यार्थी पढ़ते थे। मेडिकल कॉलेजों में शिक्षा ग्रहण करने वाली लड़कियों की संख्या 76 थी। 1901-02 ई. में देश में चार इन्जीनियरिंग कॉलेज- रुड़की, शिवपुर, पूना और मद्रास में थे। कुछ इन्जीनियरिंग स्कूल भी थे जिनमें ओवरसियरी तथा ड्राफट्समैनशिप का प्रशिक्षण दिया जाता था। 1901 ई. में भारत में पाँच कृषि कॉलेज तथा तीन पशु चिकित्सा कॉलेज थे जिनमें क्रमशः 219 और 301 छात्र पढ़ते थे। वानिकी विज्ञान की शिक्षा के लिए दो स्कूल थे। सम्पूर्ण भारत में वाणिज्य की शिक्षा के लिए केवल एक संस्था थी जो बम्बई में स्थित थी। स्पष्ट है कि व्यवसायिक शिक्षा के क्षेत्र में प्रगति बहुत धीमी रही।

(9.) अल्पसंख्यकों की शिक्षा: शिक्षा आयोग ने मुसलमानों की शिक्षा के लिए महत्त्वपूर्ण सुझाव दिये थे। उन सुझावों को कार्यान्वित करने के लिये सरकार द्वारा किये गये प्रयासों के कारण मुसलमानों की शिक्षा में काफी प्रगति हुई। 1901 ई. में भारत में लगभग पौने सात लाख मुस्लिम छात्र पढ़ते थे। मुस्लिम जनसंख्या के अनुपात में छात्रों की संख्या कम थी किंतु अँग्रेजी शिक्षा के प्रति उनके विरोध को देखते हुए यह काफी अच्छी थी। मुसलमान भी अपने लड़कों को सरकारी या निजी स्कूलों में भेजने लगे थे किंतु कॉलेजों में मुसलमान छात्रों की संख्या काफी कम थी।

(10.) पिछड़ी जातियों की शिक्षा: हण्टर आयोग की रिपोर्ट के बाद सरकारी प्रयासों के साथ-साथ आर्य समाज, ब्रह्म समाज, प्रार्थना समाज, ईसाई मिशनरियों तथा ज्योति बा फूले द्वारा स्थापित संस्थाओं के प्रयासों से पिछड़ी जातियों व हरिजनों ने भी शिक्षा का महत्त्व समझा। मिशनरी स्कूलों में प्रारम्भ से ही हरिजनों को प्रवेश दिया जाता था। दक्षिण भारत के मद्रास, त्रावणकोर तथा बम्बई आदि प्रांतों के शिक्षा-विभागों ने हरिजन बालकों को स्कूलों में प्रवेश के लिये उदार नियम बनाये तथा हरिजन छात्रों को विशेष छात्रवृत्तियाँ दीं। 1901 ई. में मद्रास प्रान्त में 3,000 हरिजन विद्यालय थे जिनमें 45,000 हरिजन छात्र शिक्षा ग्रहण कर रहे थे। बम्बई सरकार ने भी हरिजन छात्रों की शिक्षा पर विशेष ध्यान दिया। वहाँ हरिजन बालकों को सामान्य स्कूलों में प्रवेश देने पर जोर दिया गया। अन्य प्रान्तों में प्रांतीय सरकारों ने हरिजनों को शिक्षा के विशेष प्रयास नहीं किये किन्तु ईसाई मिशनरियों ने इस कमी को पूरा किया। बिहार, उड़ीसा, पंजाब आदि प्रान्तों में मिशनरी स्कूलों ने हरिजनों की शिक्षा के लिए सराहनीय कार्य किया। इस अवधि में ईसाई मिशनरियों ने अपनी शिक्षा नीति में परिवर्तन करते हुए अपना ध्यान उच्च शिक्षा से हटाकर प्राथमिक शिक्षा पर केन्द्रित किया। फिर भी इस अवधि में कुछ अच्छे मिशनरी कॉलेजों की स्थापना हुई जिनमें क्रिश्चियन कॉलेज इन्दौर, मूरे कॉलेज स्यालकोट, क्राइस्ट चर्च कॉलेज कानपुर तथा गार्डन कॉलेज रावलपिण्डी प्रमुख थे।

हण्टर शिक्षा आयोग की अनुशंसाओं का मूल्यांकन

हण्टर आयोग ने शिक्षा के समस्त पक्षों पर विस्तार से जाँच करके महत्त्वपूर्ण सुझाव दिये। आयोग ने सरकार को शिक्षा के उत्तरदायित्व से मुक्त होने तथा भारतीयों को शिक्षा के क्षेत्र में आगे आने के लिये प्रोत्साहित करने तथा प्राथमिक शिक्षा से लेकर विश्वविद्यालय स्तर तक की शिक्षा में, निजी एवं सरकारी प्रयासों में सामंजस्य स्थापित करने की अनुशंसा की। आयोग की अनुशंसाओं ने भारतीयों में शिक्षा के प्रति रुचि और जागृति उत्पन्न की जिससे भारत में शिक्षा की उन्नति हुई। जन-साधारण में शिक्षा के प्रति चेतना बनाये रखने के लिए आयोग के सुझाव पर ही भारत सरकार ने भविष्य में प्रत्येक पाँच वर्ष बाद शिक्षा की प्रगति पर जाँच रिपोर्ट तैयार करने के निर्देश दिये। ये पंचवर्षीय रिपोर्टें, शिक्षाविदों एवं राजकीय अधिकारियों के लिए अत्यंत महत्त्वपूर्ण सिद्ध हुईं।

निष्कर्ष

वुड्स घोषणा पत्र तथा हण्टर की अध्यक्षता में गठित शिक्षा आयोग की रिपोर्ट के बाद 19वीं शताब्दी के अन्त तक भारतीय शिक्षा का तीसरा महत्त्वपूर्ण चरण पूरा हुआ। इस अवधि में भारतीय शिक्षा का दु्रतगति से पाश्चात्यकरण हुआ। भारत की परम्परागत देशी शिक्षा पद्धति तथा पाश्चात्य शिक्षा पद्धति में तीव्र प्रतिस्पर्द्धा हुई जिसमें पाश्चात्य शिक्षा पद्धति प्रबल होकर उभरी और देशी शिक्षा-पद्धति का लोप होने लगा। इसी अवधि में शिक्षा के क्षेत्र में निजी प्रयासों का प्रार्दुभाव भी हुआ, जिसने आगे चलकर शिक्षा के क्षेत्र में बहुत योगदान दिया। शिक्षा के क्षेत्र में किये गये समस्त प्रयत्न पर्याप्त नहीं थे। 1901 ई. की जनगणना के अनुसार प्रति एक हजार व्यक्तियों में केवल 98 पुरुष और 7 महिलाएँ साक्षर थीं। 20वीं शताब्दी के आरम्भ तक प्राथमिक शिक्षा के लिए स्कूल जाने वाले बच्चों की संख्या 15 प्रतिशत ही थी।

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