बाबा जम्बूर और मुहम्मद अमीन दीवाना बादशाह की सेवा में उपस्थित हुए तो बादशाह ने प्रश्नों की झड़ी लगा दी। उतावलापन बादशाह के स्वभाव में न था किंतु आज वह बादशाह नहीं रह गया था, पितृहीन बालक हो गया था। यही कारण था कि उसने किसी भी प्रश्न का उत्तर पाये बिना लगातार ढेर सारे प्रश्न पूछ लिये। जब बादशाह ने अपने प्रश्नों पर विराम लगाया तो वह बुरी तरह हांफ रहा था। जम्बूर ने एक हाथ अपनी लम्बी दाढ़ी पर और दूसरा हाथ तस्बीह के दाने पर फेरते हुए कहा-
– ‘अय दुनिया भर के बादशाहों के बादशाह! खानाखाना इस दुनिया में जिस काम के लिये आया था वह पूरा हो चुका था और धरती पर उसकी मौजूदगी की कोई खास वज़ह नहीं रह गयी थी। इसलिये परवरदिगार! तूने उसे अपनी चाकरी में ले लिया।’ बाबा जम्बूर ने अदृश्य आस्मानी ताकत को सम्बोधित करके कहा।
– ‘अय पाक रूह अकब्बर! मेरे रहमदिल दोस्त बैरामखाँ ने अपने सारे फ़र्ज बखूबी पूरे किये। क़यामत के दिन जब खुदा उसके अच्छे-बुरे का हिसाब करेगा तो उसकी रूह शर्मसार नहीं होगी।’ फकीर मुहम्मद अमीन ने आस्मानी ताकत के सज़दे में सिर झुकाया।
– ‘वह तो ठीक है लेकिन हुआ क्या था?’ अकबर ने और भी बेचैन होकर पूछा। इन दोनों फकीरों के उत्तर में ऐसा कुछ नहीं था जो बादशाह को किंचित भी संतुष्ट कर सकता।
– ‘ऐ शाहों के शाह! बेचैन न हो। फकीर मुहम्मद अमीन तुझे सारी बातें तफ़सील से बतायेगा।’ बाबा जम्बूर ने तरुण बादशाह की बेचैनी ताड़ ली।
– ‘हम फकीरों का सियासी लोगों से कोई रिश्ता नहीं होता। न ही सियासी बातें हमारी समझ में आती हैं किंतु इतना मैं जरूर जानता हूँ कि खानाखाना जिस तरह पूरी जिन्दगी अपने दुश्मनों से लड़ता रहा था और उन्हें कदम-कदम पर शिकस्त देता रहा था, उसके कारण यह मुनासिब ही था कि हिन्दुस्तान की जमीन पर उसका कोई दोस्त नहीं रह गया था। जब तक वह तेरे साथ था, उसने अपनी तेग म्यान में नहीं रखी थी किंतु जब वह हज़ करने के लिये तुझसे रुखसत हुआ तो उसने अपनी तेग म्यान में रखकर हम फकीरों का साथ कर लिया। उसी समय मैंने जाना कि उसके दिल में फकीरों, कमजो़रों और यहाँ तक कि अपने दुश्मनों के लिये भी कितनी ज़गह थी! जिस शेरशाह के पुत्र सलीमशाह को बैरामखाँ ने जंग के मैदान में हलाक किया था, उसी सलीमशाह की बेटी जब पनाह मांगने आयी तो बैरामखाँ ने उसे पनाह भी दी और अपने साथ हज पर ले जाना भी मंजूर कर लिया लेकिन उसकी दरियादिली को किसी ने नहीं जाना।’ मुहम्मद अमीन का गला भर आया।
– ‘जब तक तलवार उसके हाथ में थी तब तक किसी दुश्मन का हौसला न हुआ कि वह बैरामखाँ की ओर आँख उठाकर देख सके लेकिन जैसे ही दुश्मनों का मालूम हुआ कि बैरामखाँ ने तलवार छोड़कर हज़ के लिये जाना मंजूर किया है तो दुश्मन चारों ओर से उस पर छा गये। फिर भी दुश्मनों में इतना साहस नहीं था कि सामने से बैरामखाँ पर वार करते। बैरामखाँ को भी उनकी कोई परवाह नहीं थी लेकिन एक दिन जब वह कुदरत की खूबसूरती को देखता हुआ पाटन के सहस्रलिंग तालाब में नहाने के लिये उतरा तो अफगान मुबारक लोहानी घात लगाकर बैठ गया ………..।’
– ‘मुबारक लोहानी कौन है?’ अकबर ने मुहम्मद अमीन को टोका।
– ‘मुबारक लोहानी एक अफगान नौजवान है। उसका बाप पाँच साल पहले मच्छीवाड़ा की लड़ाई में बैरामखाँ की तलवार से मारा गया था। इसलिये मुबारक लोहानी के दिल में नफरत की आग जल रही थी। वह तभी से बैरामखाँ के पीछे लगा हुआ था और एक बेहतर मौके की तलाश में था।’ मुहम्मद अमीन ने जवाब दिया।
– ‘आगे क्या हुआ?’ अकबर ने बालक की तरह मचलकर पूछा।
– ‘जैसे ही बैरामखाँ तालाब से बाहर निकला तो मुबारक लोहानी चीते की तरह उछलकर सामने आया और उसने बैरामखाँ की पीठ में खंजर भौंक दिया। बैरामखाँ वहीं गिर पड़ा। खंजर उसके सीने में आर-पार हो गया था। इसलिये कुछ ही पल में खानखान की रूह बदन से फ़ना हो गयी।’ बात पूरी करते करते बाबा जम्बूर की भी आँखें भीग आयीं।[1]
– ‘आखिरकार वही हुआ जिसका मुझे डर था। बैरामखाँ को उसकी नाफिक्री ने मार डाला। मैंने कई बार उसे आगाह किया था कि अपने दुश्मनों पर नज़र रखा कर। उनके इरादे नेक नहीं हैं।’ मुहम्मद अमीन ने आँखें मींचते हुए कहा। अकबर ने भी अपनी आँखों में छलछला आयीं पानी की बूंदों को छिपाने के लिये पलकें बंद कर लीं।
बादशाह यद्यपि तरुण था और उदास भी किंतु फिर भी उसकी आँखों में जाने कैसा रौब छाया हुआ था कि फकीर होने पर भी न तो मुहम्मद अमीन और न ही बाबा जम्बूर उसकी आँखों में सीधे-सीधे झांक सके थे। जैसे ही बाबा जम्बूर को अनुमान हुआ कि बादशाह ने पलकें बन्द कर ली हैं तो उसने बादशाह के चेहरे को ध्यान से देखा बादशाह के चेहरे पर बनने वाली लकीरों में अब्दुर्रहीम का भविष्य छिपा हुआ था। जम्बूर इन लकीरों से बनने वाले चित्रों को देखकर आश्वस्त होना चाहता था।
[1] बैरामखाँ के वध के बारे में अलग-अलग उल्लेख मिलता है। एक इतिहासकार ने लिखा है कि बैरामखाँ पाटन में नित्य प्रति पट्टन के बागों और मकानों को देखने जाया करता था। एक दिन वह नाव में बैठकर सहस्रलिंग तालाब का जलमहल देखने गया। वहाँ से आते समय जब नाव से उतरकर घोड़े पर सवार होने लगा तो मुबारकखाँ 30-40 पठानों के साथ तालाब के तट पर आया और ऐसा जाहिर किया कि मिलने को आया है। खानखाना ने उन सबको बुलवा लिया। मुबारकखाँ ने बैरामखाँ के पास पहुँचते ही छुरा निकालकर बैरामखाँ की पीठ में ऐसा मारा कि छाती के पार हो गया। फिर और एक पठान ने मस्तक पर तलवार मारकर काम पूरा कर दिया। बैरामखाँ के साथी भाग छूटे। फकीरों ने उसकी लोथ उठाकर शेख हिसाम की कब्र के पास गाड़ दी।