Monday, December 1, 2025
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विजयनगर राज्य

विजयनगर राज्य मध्यकालीन भारतीय इतिहास का सर्वाधिक महत्वपूर्ण हिन्दू राज्य था। उस काल में विजयनगर राज्य जैसा कोई अन्य विशाल हिन्दू राज्य अस्तित्व में नहीं था।

विजयनगर राज्य की स्थापना

विजयनगर राज्य की उत्पत्ति के सम्बन्ध में सेवेल ने सात मतों का उल्लेख किया है जिनमें से सर्वाधिक विश्वसनीय मत यह है कि इस राज्य की स्थापना हरिहर तथा बुक्का नामक दो भाइयों ने की। ये दोनों भाई वारंगल के काकतीय राजा प्रताप रुद्रदेव की सेवा में थे।

जब मुसलमानों ने दक्षिण भारत पर विजय प्राप्त की तब इन दोनों भाइयों को कैद करके दिल्ली ले जाया गया। जब दक्षिण भारत पर दिल्ली सल्तनत शान्ति तथा सुव्यवस्था स्थापित नहीं कर सकी तब मुहम्मद बिन तुगलक ने हरिहर तथा बुक्का को मुक्त करके उन्हें रायचूर दोआब का सामन्त बनाकर दक्षिण भेज दिया।

इन दोनों भाइयों का परम सहायक तथा नेता उस समय का प्रकाण्ड पण्डित माधव विद्यारण्य था जिसने इस वंश की उसी प्रकार सहायता की जिस प्रकार आचार्य कौटिल्य ने चन्द्रगुप्त मौर्य की की थी। माधव विद्यारण्य के अनुज वेदों के टीकाकार सायणाचार्य ने भी इन दोनों भाइयों का पथ प्रदर्शन किया।

अपने गुरु तथा सहायक के प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकट करने के लिए इन दोनों भाइयों ने तुंगभद्रा नदी के किनारे विद्यानगर अथवा विजयनगर नामक नगर की नींव डाली। मुहम्मद बिन तुगलक के शासन के अन्तिम भाग में हरिहर ने स्वयं को विजयनगर का स्वतन्त्र शासक घोषित कर दिया।

विजयनगर के राजवंश

विजयनगर में 1336 ई. से 1416 ई. तक चार राजवंशों ने शासन किया। इनमें से प्रथम दो राजवंश बहमनी राज्य के शासकों के समकालीन थे। जिस समय तृतीय राजवंश विजयनगर के तख्त पर बैठा उस समय बहमनी राज्य छिन्न-भिन्न होकर पाँच राज्यों में विभक्त हो चुका था। अतः तीसरें एवं चौथे राजवंशों को मुसलमानों के साथ वैसा भीषण संघर्ष नहीं करना पड़ा, जैसा प्रथम दो राजवंशों को करना पड़ा था।

(1) प्रथम राजवंश: संगम वंश (1436-1486 ई.)

इस वंश के प्रथम दो शासक हरिहर तथा बुक्का के पिता का नाम संगम था। इसलिये इस वंश को संगम वंश भी कहते हैं। हरिहर तथा बुक्का ने स्वतन्त्र शासक की उपाधियां धारण नहीं कीं परन्तु इस वंश के तीसरे शासक हरिहर (द्वितीय) ने महाराजाधिराज की उपाधि धारण करके अपनी स्वतंत्र सत्ता की घोषणा की।

इस वंश के राजाओं को बहमनी वंश के राजाओं के साथ निरन्तर संघर्ष करना पड़ा और प्रायः पराजय का ही आलिंगन करना पड़ा। बहमनी राज्य के शासक इतने प्रबल नहीं थे कि वे विजयनगर राज्य की स्वतंत्र सत्ता को उन्मूलित कर सकते, अथवा उसके बहुत बड़े भाग पर अपना अधिकार स्थापित कर सकते।

बहमनी राज्य की सेनायें प्रायः रायचूर दोआब में घुसकर लूटपाट मचाती थीं। विजयनगर की सेनायें, उन्हें वहाँ से मार भगाती थीं और फिर से रायचूर दोआब पर अपना प्रभुत्व स्थापित कर लेती थीं। इस वंश के राजाओं ने दक्षिण के हिन्दू राजाओं के विरुद्ध भी युद्ध किया जिनके फलस्वरूप उनका राज्य सुदूर दक्षिण तक फैल गया था।

इस वंश का अन्तिम शक्तिशाली शासक देवराय (द्वितीय) था जिस पर बहमनी सुल्तानों ने कई आक्रमण किये। इनमें से कई युद्धों में देवराय विजयी रहा तो कुछ युद्धों में वह परास्त भी हुआ। इन युद्धों से विजयनगर राज्य को जन-धन की बड़ी हानि उठानी पड़ी।

(2) द्वितीय राजवंश: सलुव वंश (1486-1505 ई.)

देवराय (द्वितीय) के बाद उसके दो अयोग्य पुत्रों ने क्रम से शासन किया। इस वंश के अन्तिम शासक विरुपाक्ष को 1486 ई. में गद्दी से उतार कर तेलगांना के सामन्त नरसिंह सलुव ने स्वयं को विजयनगर का शासक घोषित कर दिया। इस प्रकार विजयनगर में संगम वंश का अंत हो गया तथा सलुव-वंश की स्थापना हुई।

नरसिंह ने छः वर्ष तक शासन किया। वह योग्य तथा लोकप्रिय शासक सिद्ध हुआ। इस वंश के शासन काल में शासन में बड़ी प्रगति हुई। इस वंश के राजाओं को भी बहमनी राज्य के शासकों से युद्ध करने पड़े जिनमें विजयनगर को प्रायः असफलता ही प्राप्त हुई किंतु उनका राज्य चलता रहा।

उन्होंने तामिल प्रदेश के हिन्दू राजाओं को कई युद्धों में परास्त किया। इस वंश का शासन चिरस्थायी सिद्ध नहीं हुआ। इस वंश के अन्तिम शासक को उसके सेनापति वीर नरसिंह नायक ने तख्त से उतारकर उसकी हत्या कर दी और स्वयं विजयनगर का शासक बन गया। इस प्रकार विजयनगर में तीसरे राजवंश की स्थापना हुई।

(3) तृतीय राजवंश: तुलुव वंश (1505-1570 ई.)

1505 ई. में वीर नरसिंह नायक ने विजयनगर में नये राजवंश की नींव डाली जो तुलुव-वंश के नाम से प्रसिद्ध हुआ। इस राजवंश का सर्वाधिक योग्य तथा प्रतिभाशाली शासक कृष्णदेव राय था जो वीरनरसिंह नायक का छोटा भाई था। कृष्ण देव राय ने 1509 से 1530 ई. तक शासन किया।

वह वीर, साहसी, महान् विजेता, न्याय प्रिय तथा सफल शासक था। उसने अनेक युद्ध किये तथा समस्त में सफलता प्राप्त की। 1513 ई. में उसने उड़ीसा के राजा गजपति प्रतापरुद्र को युद्ध में परास्त कर वहाँ की राजकुमारी से विवाह किया। 1520 ई. में उसने बीजापुर के सुल्तान आदिलशाह पर विजय प्राप्त की और उसके राज्य को लूटा।

पश्चिमी समुद्र तट पर बसे हुए पुर्तगालियों के साथ उसकी मैत्री थी। इस प्रकार कृष्णदेव राय ने अपने बाहुबल से अपने राज्य की सीमा में बड़ी वृद्धि की। इससे पड़ौसी मुसलमान शासकों को ईर्ष्या उत्पन्न हुई और वे विजयनगर के विरुद्ध संगठित होने लगे। कृष्णदेव राय की मृत्यु के उपरान्त उसका उत्तराधिकारी सदाशिव विजयनगर के तख्त पर बैठा।

उसके मन्त्री रामराय ने पड़ौसी मुसलमान राज्यों के साथ युद्ध किया और मुसलमानों पर बड़ा अत्याचार किया। मुसलमान राज्यों के लिए यह असह्य हो गया। बीजापुर, अहमदनगर, गोलकुण्डा तथा बीदर के सुल्तानों ने अपने मतभेद भुलाकर विजयनगर के विरुद्ध एक संघ बनाया। बरार का सुल्तान इस संघ से अलग रहा।

1564 ई. के अन्तिम सप्ताह में मुसलमानों ने विजयनगर राज्य पर आक्रमण किया। कृष्णा नदी के किनारे तालीकोट नामक स्थान पर दोनों सेनाओं में घमासान युद्ध हुआ। इस युद्ध में रामराय परास्त हो गया और उसका वध कर दिया गया। हिन्दू सैनिकों की भी बड़ी नृशंसतापूर्वक हत्या की गई।

इसके बाद विजयी सेनाओं ने विजयनगर की ओर कूच किया और नगर को नष्ट कर डाला। हजारों हिन्दू मौत के घाट उतार दिये गये। नगर की समस्त सम्पदा लूट ली गई तथा विजयनगर का यथा शक्ति विनाश किया गया। तालीकोट के युद्ध के बाद विजयनगर का पतन आरम्भ हो गया। इस वंश ने 1570 ई. तक विजयनगर पर शासन किया।

(4) चतुर्थ राजवंश: अरविंदु वंश (1570-1614 ई.)

तालीकोट के युद्ध के उपरान्त रामराय के भाई तिरूमल्ल ने सदाशिव के नाम पर शासन करना आरम्भ किया परन्तु 1570 ई. में उसने सदाशिव को अपदस्थ कर दिया और स्वयं विजयनगर का सम्राट बन गया। इस प्रकार एक नये राजवंश की स्थापना हुई जो अरविन्दु वंश के नाम से प्रसिद्ध है।

उसका उत्तराधिकारी उसका पुत्र रंग द्वितीय हुआ। वह योग्य शासक था। उसके बाद उसका भाई बैंकट द्वितीय सिंहासन पर बैठा। उसने 1586 ई. से 1614 ई. तक शासन किया। उसके काल में राज्य छिन्न-भिन्न होने लगा। उसने मैसूर के पृथक राज्य को मान्यता देकर बहुत बड़ी भूल की। इस वंश में कई निर्बल राजा हुए जो साम्राज्य को ध्वस्त होने से नहीं बचा सके। इस वंश का अंतिम स्वतन्त्र शासक रंग (तृतीय) अयोग्य राजा था। उसके बाद विजयनगर राज्य ध्वस्त हो गया।

विजयनगर राज्य का शासन प्रबंध

विजयनगर राज्य का शासन प्रबन्ध उस काल में अच्छे शासन प्रबन्ध का द्योतक है। अध्ययन की दृष्टि से विजयनगर राज्य के शासन प्रबंधन को तीन भागों में विभक्त किया जा सकता है- (1.) केन्द्रीय शासन, (2.) प्रांतीय शासन तथा (3.) स्थानीय शासन। विजयनगर के शासन की निम्नलिखित विशेषतायें थीं-

केन्द्रीय शासन

(1.) सम्राट ही शासन का केन्द्र बिंदु था

विजयनगर साम्राज्य का शासन सैनिक शक्ति पर आधारित था। सम्राट ही समस्त शासन की धुरी था जिसके पास असीमित अधिकार थे। वह स्वेच्छाचारी तथा निरंकुश शासन करता था। सम्राट की सहायता तथा परामर्श के लिए मन्त्रिपरिषद् होती थी परन्तु सम्राट उनके परामर्श को मानने के लिये बाध्य नहीं था।

मंत्रिपरिषद् के सदस्य सम्राट द्वारा नियुक्त किये जाते थे। शासन, सेना तथा न्याय सम्बन्धी समस्त अधिकार सम्राट में निहित थे। सम्राट स्वयं शासकीय आज्ञायें देने से लेकर सेनापति तथा न्यायाधीश का कार्य करता था। उसके कार्यों में राजकीय पदाधिकारी सहायता किया करते थे। इन पदाधिकारियों में प्रधानमन्त्री, कोषाध्यक्ष तथा सेनापति प्रमुख थे।

(2.) राजदरबार में राजाज्ञाओं का लेखन

शासन सम्बन्धी आज्ञाएँ देने का कार्य राजदरबार में होता था। सम्राट लिखित आज्ञाएँ नहीं देता था। जब सम्राट कोई आज्ञा देता था तो राज्याधिकारी उसे पंजिका में लिखते थे। वही सम्राट की आज्ञा का प्रमाण होता था। जब सम्राट किसी पर दया दिखाता था तो सम्राट उसे मोम लगी मुहरें देता था जिससे यह प्रमाणित हो जाता था कि सम्राट ने उसके ऊपर कृपा की है।

(3.) सामन्ती पद्धति से सेना का संगठन

विजयनगर राज्य का दक्षिण के मुसलमान राज्यों के साथ निरन्तर संघर्ष चलता रहा। इसलिये राज्य को सेना की ओर विशेष रूप से ध्यान देना पड़ता था। सेना का संगठन सामन्तीय था। सेना दो प्रकार की होती थी। एक सम्राट की सेना जिसकी संख्या कम थी और दूसरी प्रांतपतियों की सेना जिसकी संख्या अधिक थी।

युद्ध के समय प्रांतपति अपनी सेना लेकर सम्राट की सहायता करते थे। सारी सेना तीन अंगों- हाथी, घोड़े तथा पैदल में विभक्त थी। सेना में सर्वाधिक संख्या पैदल सैनिकों की थी। राज्य की अधिकांश सेना प्रजापतियों तथा स्थानीय अधिकारियों के अधीन रहती थी, इसलिये उसमें सामन्तशाही सेना के समस्त दोष पाये जाते थे।

विजयनगर के राजाओं ने अश्वारोहियों की संख्या में वृद्धि तथा सैनिकों के प्रशिक्षण की ओर विशेष ध्यान नहीं दिया। प्रांतपतियों की सेनाओं में भर्ती किये जाने वाले सैनिकों में सम्राट के प्रति वैसी स्वामिभक्ति नहीं होती थी, जैसी स्थानीय सेना के सैनिकों में होती थी। यही कारण था कि संख्या में अधिक होते हुए भी वे मुसलमान सेनाओं के विरुद्ध असफल हो जाती थीं।

(4.) विधर्मियों से अच्छा व्यवहार

विजयनगर राज्य की स्थापना का उद्देश्य हिन्दू संस्कृति, हिन्दू धर्म तथा हिन्दू जनता की रक्षा करना था। अतः राज्य के शासन में ब्राह्मणों का वर्चस्व था। वे राज्य के उच्च पदों पर आसीन थे। हिन्दू धर्म संसार का सबसे उदार और सहिष्णु धर्म है। इस कारण विजयनगर राज्य में धर्मान्धता तथा धार्मिक असहिष्णुता नहीं थी।

जैन और बौद्ध भी वैष्णवों की तरह सुख से रहते थे। मुसलमानों पर किसी भी प्रकार का अत्याचार नहीं होता था। विजयनगर के कुछ राजाओं ने मुस्लिम सैनिकों को अपनी सेना में भर्ती किया और उनके लिए मस्जिदें बनवाईं।

(5.) कर नीति

राज्य की आय का प्रधान साधन भूमिकर था। सारी भूमि सम्राट की थी। सम्राट अपनी भूमि अपने प्रांतपतियों में बाँट देता था। ये प्रांतपति अपनी भूमि किसानों को दे देते थे जिन्हें भूमि की उपज का निश्चित अंश कर के रूप में प्रांतपति को देना पड़ता था। भूमिकर के साथ-साथ किसानों को चारागाह तथा विवाह कर भी देना पड़ता था। बाहर से आने वाली समस्त आवश्यक वस्तुओं पर, जिनके अन्तर्गत पशु भी थे, चुुंगी देनी पड़ती थी। वेश्याओं को भी कर देना पड़ता था। देश धन-धान्य से पूर्ण था और बस्ती बड़ी घनी थी।

(6.) दरबार की शोभा

विजयनगर के शासक प्राचीन हिन्दू राजाओं की तरह अपने राजदरबार की शोभा का बड़ा ध्यान रखते थे। होली, दीपावली, महानवमी आदि पर्वों के अवसर पर राज्य में आनंद एवं उत्सव मनाया जाता था। उस समय दरबार को विभिन्न प्रकार से अलंकृत किया जाता था जिसकी शोभा देखने योग्य होती थी।

प्रान्तीय शासन

शासन की सुविधा के लिए विजयनगर का राज्य लगभग दो सौ प्रान्तों में विभक्त किया गया था। प्रत्येक प्रान्त का शासन एक प्रांतपति को सौंपा गया। प्रांतपति की नियुक्त सम्राट करता था। ये प्रांतपति या तो राजवंश के होते थे, या शक्तिशाली सामंत। प्रांतपति अपने प्रांत के आंतरिक मामलों में स्वेच्छाचारी तथा निंरकुश शासक होते थे।

उनकी अपनी सेनाएँ होती थीं। प्रांतपति भी दरबार का आयोजन करते थे। उन्हें केन्द्रीय सरकार के नियंत्रण में कार्य करना पड़ता था और अपने प्रान्त के सुशासन तथा सुव्यवस्था के लिये सम्राट के प्रति उत्तरदायी रहना पड़ता था। प्रान्त की आय का आधा भाग केन्द्रीय राजकोष में भेजा जाता था।

आय का शेष भाग प्रांतपति अपने कुटुम्ब, अपनी सेना तथा प्रान्त के शासन पर व्यय करता था। जो प्रांतपति क्रूरता से शासन करते थे, अथवा राजद्रोही हो जाते थे, या लगान देना बन्द कर देते थे, उन्हें सम्राट द्वारा कठोर दण्ड दिया जाता था और वे अपने पद से हटा दिये जाते थे।

स्थानीय शासन

शासन की सुविधा के लिए प्रत्येक प्रान्त को कई जिलों में विभक्त किया गया था जिसे नाडू अथवा कोट्टम कहते थे। प्रत्येक जिला कई परगनों में विभक्त रहता था और शासन की सबके छोटी इकाई गाँव होती थी। गाँव का प्रबन्ध गाँव की पंचायतों द्वारा होता था। ये सब स्थानीय संस्थाएँ थीं जिनके प्रधान अयगर कहलाते थे।

अयगरों को या तो जागीरें दी जाती थीं या खेतों की उपज का कुछ भाग वेतन के रूप में दिया जाता था। इनका पद वंशानुगत होता था। अयगर गाँव के झगड़ों का निर्णय करते थे, राजकीय कर वसूल करते थे और शान्ति तथा सुव्यवस्था बनाये रखते थे। ग्राम सभा की सहायता के लिये चौधरी, लेखक, चौकीदार, तौला इत्यादि होते थे। ये पद वंशानुगत होते थे। उन्हें कृषि उपज का एक भाग वेतन के रूप में मिलता था।

न्याय व्यवस्था

सम्राट न्याय व्यवस्था का सर्वोच्च अधिकारी था। वह स्वयं अंतिम अपील सुनता था तथा महत्त्वपूर्ण अभियोगों का निर्णय करता था। मन्त्रीगण न्याय कार्य में सम्राट की सहायता करते थे। राज्य में बहुत से राजकीय न्यायालय थे जिनमें न्यायाधीशों की नियुक्ति सम्राट के द्वारा की जाती थी। गांव वाले गांव सभाओं अथवा पंचायतों के माध्यम से न्याय प्राप्त करते थे। ग्राम पंचायतों के निर्णय के विरुद्ध राजा से अपील की जा सकती थी।

राज्य की न्याय व्यवस्था परम्परागत नियमों, रीति रिवाजों तथा राज्य के संवैधानिक व्यवहारों पर आधारित थी। दण्ड विधान कठोर था। चोरी, व्यभिचार तथा राजद्रोह के मामलों में अंग-भंग तथा मृत्यु दण्ड दिया जाता था। मामूली अपराध के लिये आर्थिक दण्ड दिया जाता था। ब्राह्मण प्राणदण्ड से मुक्त थे।

निष्कर्ष

उपरोक्त विवरण से स्पष्ट है कि विजयनगर राज्य की आन्तरिक शासन व्यवस्था में अनेक विशेषताएँ थीं। धार्मिक सहिष्णुता के साथ-साथ इस व्यवस्था में लोकहित की रक्षा का समुचित प्रबन्ध था। केन्द्रीय शक्ति दृढ़ता से प्रांतपतियों, स्थानीय शासकों एवं प्रजा पर शासन करती थी। अपराधियों एवं विद्रोही प्रांतपतियों को कठोर दण्ड दिये जाते थे।

सामन्तीय व्यवस्था होने के कारण प्रजा पर कर अधिक थे फिर भी प्रजा सुखी एवं समृद्ध थी। इस शासन-व्यवस्था का सबसे बड़ा दोष इसका सामन्तीय स्वरूप था। सम्राट सैन्य शक्ति के लिये सामंतों पर निर्भर था। सामंती सैनिक सम्राट के प्रति स्वामिभक्त नहीं थे इसी कारण विजयनगर का राज्य अपने पड़ौसी मुस्लिम राज्यों से प्रायः हार जाता था।

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता

मूल आलेख – विजयनगर राज्य

विजयनगर राज्य

विजयनगर की सामाजिक दशा

विजयनगर राज्य का पतन

यह भी देखें-

विजयनगर साम्राज्य का इतिहास

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