Friday, March 29, 2024
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अध्याय – 16 : बहमनी राज्य

बहमनी राज्य की स्थापना

मुहम्मद बिन तुगलक के शासन काल के अन्तिम भाग में दिल्ली साम्राज्य का विशृंखलन आरम्भ हो गया और प्रान्तीय गवर्नर स्वतंत्र होने लगे। इसी अशान्ति के बीच, दक्षिण भारत में ‘सादा अमीरों’ (विदेशी अमीरों) ने हसन कांगू के नेतृत्व में विद्रोह का झण्डा खड़ा कर दिया और दौलताबाद में अपना स्वतंत्र राज्य स्थापित कर लिया। हसन कांगू ने ‘अबुल मुजफ्फर अलाउद्दीन बहमनशाह’ की उपाधि धारण की तथा अपने राज्य का नाम बहमनी राज्य रखा। 1347 ई. से 1527 ई. तक इस वंश में 14 शासक हुए जिनमें अलाउद्दीन हसन बहमनशाह (1347 से 1358 ई.), मुहम्मद शाह प्रथम (1358 से 1375 ई.), मुहम्मद द्वितीय (1378 से 1397 ई.) ताजुद्दीन फिरोजशाह (1397 से 1422 ई.), अहमदशाह प्रथम (1422 से 1435 ई.) और अलाउद्दीन द्वितीय (1435-1457 ई.) अधिक प्रसिद्ध हुए। इनमें से मुहम्मद (द्वितीय) को छोड़कर समस्त सुल्तान क्रूर और धर्मान्ध थे। इस कारण उनका अपने पड़ौसी विजयनगर के हिन्दू राज्य से निरन्तर संघर्ष चलता रहा। फलस्वरूप राज्य की आन्तरिक स्थिति बिगड़ती चली गई। अन्त में सम्पूर्ण राज्य पाँच राज्यों- बीजापुर, गोलकुण्डा, बरार, बीदर और अहमदनगर में विभाजित हो गया। ये पाँचों राज्य भी पारस्परिक द्वेष एवं संघर्ष के कारण कमजोर होते चले गए। बाबर के आक्रमण के समय इन राज्यों में अव्यवस्था फैली हुई थी।

बहमनी नाम क्यों पड़ा ?

ब्राह्मणी राज्य की अवधारणा: हसन कांगू ने अपने राज्य को बहमनी नाम क्यों दिया, इस सम्बन्ध में अलग-अलग मान्यतायें हैं। फरिश्ता का कहना है कि हसन पहले दिल्ली के गंगा नामक एक ब्राह्मण ज्योतिषी के यहाँ नौकर था। एक दिन अपने स्वामी का खेत जोतते समय हसन को स्वर्ण-मुद्राओं से भरा हुआ एक पात्र मिला। हसन ने वह पात्र अपने स्वामी को दे दिया। ब्राह्मण हसन की ईमानदारी तथा स्वामि-भक्ति से बहुत प्रसन्न हुआ। उस ब्राह्मण का सुल्तान मुहम्मद बिन तुगलक से परिचय था। ब्राह्मण ने सुल्तान से हसन की प्रशंसा की। सुल्तान ने हसन की ईमानदारी से प्रभावित होकर उसे राज्य में नौकरी दे दी। ज्योतिषी ने हसन के राजा बनने की भविष्यवाणी की और उससे वचन लिया कि जब उसकी भविष्यवाणी सत्य हो जाय तब हसन उसे अपना प्रधानमंत्री बना ले। हसन ने ब्राह्मण की इस प्रार्थना को स्वीकार कर लिया। हितैषी ब्राह्मण के प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकट करने के लिये राजपद प्राप्त करने पर उसने अपना नाम ‘ब्राह्मणी’ अथवा बहमनी रखा और उसका राज्य ‘बहमनी’ के नाम से प्रसिद्ध हुआ। इस मत को स्वीकार करने में सबसे बड़ी कठिनाई यह है कि हसन कांगू एक धर्मांध सुल्तान था, हिन्दुओं के प्रति उसका व्यवहार असहिष्णुतापूर्ण था इसलिये यह संभव नहीं है कि उसने अपने राज्य का नाम ब्राह्मणी राज्य रखा हो।

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ईरानी बहमन वंश की अवधारणा: मेजर हेग ने फरिश्ता के इस मत को अस्वीकार करते हुए लिखा है कि हसन ने कभी अपना नाम ब्राह्मणी नहीं रखा। उसकी मुद्राओं, मस्जिद के शिलालेखों तथा ग्रन्थों में भी उसका राजकीय नाम बहमनशाह मिलता है। आधुनिक इतिहासकारों की धारणा है कि हसन फारस के बादशाह बहमन बिन असफन्द यार का वंशज था। इस कारण उसका वंश बहमनी कहलाया। यह अवधारणा ही अधिक सही प्रतीत होती है।

बहमनी वंश के शासक

अलाउद्दीन हसन बहमनशाह: बहमनी राज्य के संस्थापक अलाउद्दीन हसन बहमनशाह अर्थात् हसन कांगू ने गुलबर्गा को अपनी राजधानी बनाया। उसने अपने पड़ौसी राज्यों पर आक्रमण कर उत्तर में बाणगंगा से लेकर दक्षिण में कृष्णा नदी तक अपने राज्य का विस्तार कर लिया। उसने अपने राज्य को प्रशासन की दृष्टि से चार भागों- गुलबर्गा, दौलताबाद, बरार और बीदर में विभाजित किया जिन्हें अतरफ कहा जाता था। प्रत्येक अतरफ में एक प्रांतपति की नियुक्ति की गई। 1358 ई. में हसन कांगू की मृत्यु हो गई। वह एक कट्टर मुस्लिम एवं धर्मान्ध शासक सिद्ध हुआ।

मुहम्मदशाह (प्रथम): हसन कांगू के बाद उसका पुत्र मुहम्मदशाह (प्रथम) बहमनी राज्य का शासक हुआ। उसने अपने पिता के विजय अभियान को जारी रखा तथा विजयनगर एवं तेलंगाना (वारंगल) के राजाओं के साथ सफलतापूर्वक युद्ध किया। वारंगल के शासक कापय नायक और विजयनगर के शासक बफुका ने मुहम्मदशाह के विरुद्ध संयुक्त मोर्चा लिया। मुहम्मदशाह ने कापय नायक से गोलकुण्डा का किला छीन लिया। तब से गोलकुण्डा दुर्ग को बहमनी राज्य तथा तेलंगाना राज्य की सीमा मान लिया गया। मुहम्मदशाह का शासन कठोर था। वह दुराचारियों का कठोरता से दमन करता था। उसने अपने राज्य में मद्यपान का निषेध कर दिया।

मुजाहिद शाह बहमनी: मुहम्मदशाह (प्रथम) की मृत्यु के उपरान्त उसका पुत्र अलाउद्दीन 1373 ई. में बहमनी के तख्त पर बैठा। उसे मुजाहिद शाह बहमनी (प्रथम) भी कहा जाता है। मुजाहिद का अपने सेनापतियों के साथ अच्छा व्यवहार नहीं था। इससे सेनापतियों में उसके विरुद्ध असंतोष फैल गया। उसने दो बार विजयनगर पर आक्रमण किया जिसमें उसे बड़ी क्षति उठानी पड़ी। 1378 ई. में मुजाहिद के चचेरे भाई दाऊद ने उसकी हत्या कर दी परन्तु एक वर्ष के उपरान्त दाऊद का भी वध कर दिया गया।

मुहम्मदशाह (द्वितीय): दाऊद की मृत्यु के बाद मुहम्मदशाह (द्वितीय) बहमनी के तख्त पर बैठा। इसे मुजाहिद (द्वितीय) भी कहा जाता है। वह शान्ति प्रिय सुल्तान था। उसने अपने पूर्वजों की युद्ध नीति को त्याग दिया। वह धार्मिक प्रवृत्ति का सुल्तान था। उसने अपने राज्य में कई मस्जिदें बनवाईं और मदरसे तथा मकतब स्थापित किये। वह अपनी प्रजा के सुख का ध्यान रखता था। उसने विजयनगर राज्य से अच्छे सम्बन्ध बनाये। 1397 ई. में उसका निधन हुआ।

ताजुद्दीन फीरोजशाह: मुहम्मदशाह (द्वितीय) के बाद ताजुद्दीन फीरोजशाह गुलबर्गा के सिंहासन पर बैठा। वह बड़ा ही धर्मान्ध सुल्तान था। उसके समय में विजयनगर राज्य के साथ पुनः संघर्ष उठ खड़ा हुआ। विजयनगर पर उसने तीन बार चढ़ाई की जिनमें से दो बार वह विजयी हुआ। तीसरी बार में उसे विजयनगर के राजा देवराय (द्वितीय) ने बुरी तरह परास्त किया तथा उसके राज्य के बहुत बड़े भूभाग पर अधिकार कर लिया। बहमनी राज्य को जन-धन की बड़ी हानि उठानी पड़ी। इस कारण ताजुद्दीन फीरोजशाह राज्य कार्य से उदासीन रहने लगा। अपने अंतिम दिनों में वह बीमार रहता था। 1422 ई. में उसके भाई अहमदशाह ने उसे अपदस्थ कर दिया।

अहमदशाह: ताजुद्दीन फीरोजशाह के बाद उसका भाई शिहाबुद्दीन अहमद (प्रथम) बहमनी राज्य के तख्त पर बैठा। उसे अहमदशाह भी कहते हैं। उसने गुलबर्गा के स्थान पर बीदर को अपनी राजधानी बनाया। उसने भी विजयनगर राज्य पर आक्रमण करके सहस्रों हिन्दुओं को मार दिया। 1424 ई. में अहमदशाह ने वारंगल के राजा पर आक्रमण करके उसके राज्य का बहुत बड़ा भाग अपने राज्य में मिला लिया। उसने मालवा पर आक्रमण करके वहाँ के शासक हुसैनशाह को परास्त किया। उसने गुजरात पर भी आक्रमण किया किंतु परास्त होकर लौट आया। 1435 ई. में अहमदशाह की मृत्यु हो गई।

अलाउद्दीन अहमद (द्वितीय): अहमदशाह के बाद उसका पुत्र जफर खाँ 1435 ई. में अलाउद्दीन अहमद के नाम से बहमनी राज्य के तख्त पर बैठा। उसने कोंकण के राजा को परास्त किया। अलाउद्दीन ने विजयनगर पर आक्रमण करके देवराय (द्वितीय) को परास्त किया तथा उससे भारी धन वसूल किया। अलाउद्दीन ने संगमेश्वर के हिन्दू राजा की पुत्री से बलपूर्वक विवाह किया। 1457 ई. में अलाउद्दीन की मृत्यु हो गई।

हुमायूँशाह (जालिम): अलाउद्दीन के बाद उसका ज्येष्ठ पुत्र हुमायूँशाह 1457 ई. में तख्त पर बैठा। वह बड़ा ही क्रूर तथा निर्दयी शासक था। उसके अत्याचारों के कारण लोग उसे जालिम कहते थे। इस निर्दयी सुल्तान को महमूद गवां नामक बड़े ही राजभक्त मंत्री की सेवाएँ प्राप्त थीं जिसने राज्य को नष्ट होने से बचाया। 1461 ई. में हुमायूँशाह की मृत्यु हो गयी।

निजामशाह: जालिम हुमायूँशाह के बाद उसका आठ साल का पुत्र निजामशाह गद्दी पर बैठा। उसकी माँ मखदूमजहाँ उसकी संरक्षिका नियुक्त हुई। बहमनी राज्य के लिये यह बड़े संकट का काल था। उड़ीसा तथा तेलंगाना के हिन्दू राजाओं ने बहमनी राज्य पर आक्रमण कर दिया परन्तु बहमनी राज्य की सेना ने उन्हें पीछे धकेल दिया। इसी संकटकाल में मालवा के शासक महमूद खिलजी ने बहमनी राज्य पर आक्रमण करके बीदर पर अधिकार कर लिया परन्तु गुजरात के शासक महमूद बेगड़ा के हस्तक्षेप से उसे बहमनी राज्य से बाहर निकाल दिया गया। 1463 ई. में केवल दस साल की आयु में निजामशाह की अचानक मृत्यु हो गई।

मुहम्मद शाह (तृतीय): निजामशाह के बाद उसका चाचा मुहम्मदशाह (तृतीय) 1463 ई. में बहमनी राज्य का शासक हुआ। वह मदिरा तथा व्यभिचार में व्यस्त रहता था। इसलिये राज्य की वास्तिविक शक्ति सुल्तान के मन्त्री महमूद गवां के हाथों में चली गई।

महमूद गवां (प्रधानमंत्री): महमूद गवां ने योग्यतापूर्वक शासन किया। उसने पड़ौसी राज्यों को परास्त करके बहमनी राज्य का विस्तार किया। उसने कोंकण के सरदार से बीसलगढ़ जिले को छीना, उड़ीसा के राजा से कर वसूल किया, विजयनगर के राजा के साथ युद्ध करके गोआ का बंदरगाह छीन लिया तथा कांची पर भी अधिकार कर लिया। महमूद गवां ने राज्य के समस्त विभागों में सुधार किये। उसने राज्य की आर्थिक दशा तथा न्याय-व्यवस्था में कई सुधार किये। उसने मालगुजारी वसूलने की समुचित व्यवस्था की। उसने सेना में भी कई सुधार किये। रिश्वत तथा घूसखोरी का बुरी तरह दमन किया। शिक्षा की भी उत्तम व्यवस्था की। महमूद गवां एक विदेशी अमीर था इसलिये दक्षिण के अमीरों ने सुल्तान को महमूद गवां के विरुद्ध भड़काया। शराब के नशे में धुत्त सुल्तान ने महमूद गवां का वध करने के आदेश दे दिये। इस प्रकार इस योग्य मन्त्री गवां की हत्या करवा दी गई। बाद में सुल्तान को अपनी भूल का पता लगा। उसके मन में इतनी ग्लानि उत्पन्न हुई कि उसने आत्महत्या कर ली। महमूद गवां के मरते ही बहमनी राज्य का पतन आरम्भ हो गया।

महमूदशाह: 1482 ई. में सुल्तान महमूदशाह की मृत्यृ के उपरान्त उसका बारह वर्षीय पुत्र महमूदशाह तख्त पर बैठा। वह नाम मात्र का शासक था। उसने 26 वर्ष तक शासन किया परन्तु शासन की वास्तविक शक्ति उसके मन्त्री बरीद के हाथ में रही। महमूदशाह जीवन भर आमोद-प्रमोद में लगा रहा। वह राज्य के कार्यों में रुचि नहीं लेता था। इससे प्रान्तीय गवर्नर, केन्द्रीय शक्ति की उपेक्षा करने लगे और स्वतंत्र होने का प्रयत्न करने लगे।

कलीमुल्लाह: महमूदशाह के बाद उसका पुत्र कलीमुल्लाह तख्त पर बैठा। वह भी अपने पिता की तरह नाम मात्र का शासक था। 1526 ई. में अमीर बरीद ने कलीमुल्लाह को तख्त से उतार दिया और स्वयं सुल्तान बन गया। इस प्रकार बहमनी वंश का अन्त हो गया।

बहमनी राज्य की विच्छिन्नता

1527 ई. में बहमनी राज्य छिन्न-भिन्न होकर पांच राज्यों में विभक्त हो गया- (1.) बरार में इमादशाही राज्य, (2.) अहमदनगर में निजामशाही राज्य, (3.) बीजापुर में आदिलशाही राज्य, (4.) गोलकुण्डा में कुतुबशाही राज्य तथा (5.) बीदर में बरीदशाही राज्य।

बहमनी राज्य के पतन के कारण

बहमनी राज्य लगभग 180 साल तक चला। इसके 14 सुल्तानों में से 5 की हत्या हुई, 3 पदच्युत किये गये, 2 को अंधा किया गया और 2 अधिक मद्यपान के कारण मरे। बहमनी राज्य का पतन उसकी आन्तरकि दुर्बलताओं के कारण हुआ। इस राज्य के पतन के निम्नलिखित कारण थे-

(1.) राज्य के अमीरों का अन्तर्कलह: बहमनी राज्य के अमीरों में विभिन्न वर्ग तथा सम्प्रदाय उत्पन्न हो गये जो एक दूसरे को समाप्त करना चाहते थे। पूरे 180 साल तक बहमनी राज्य के विदेशी अमीरों तथा दक्षिणी अमीरों में घोर संघर्ष चला। तुर्क अमीर मंगोलों को घृणा की दृष्टि से देखते थे, अफगान अमीर तुर्कों से घृणा करते थे, अबीसीनिया के अमीर अरबों से नफरत करते थे और भारतीय मुसलमान, जो यहीं पैदा हुए थे, विदेशी मुसलमानों से घृणा करते थे। इस प्रकार भिन्न-भिन्न वर्गों तथा सम्प्रदायों में संघर्ष तथा कलह के कारण राज्य की शासन-व्यवस्था सदैव डांवाडोल रही और अंत में राज्य का पतन हो गया।

(2.) पड़ौसी राज्यों से निरंतर युद्ध: बहमनी राज्य अपनी स्थापना से लेकर अपने नष्ट होने तक साम्प्रदायिक कट्टरता का शिकार रहा। वह अपने पड़ौस में स्थित विजयनगर राज्य तथा वारांगल राज्य को समाप्त करने का प्रयास करता रहा। इस प्रयास में हर समय युद्ध चलता रहा तथा इन तीनों राज्यों की शक्ति क्षीण होती रही। परस्पर वैमनस्य के कारण तीनों ही राज्यों ने एक दूसरे को कंगाली और बदहाली में पहुँचा दिया।

(3.) प्रधानमंत्री महमूद गवां की हत्या: शराब के नशे में धुत्त मुहम्मदशाह (तृतीय) ने अमीरों के कहने पर प्रधानमंत्री मूहमद गवां का वध करवा दिया। उसने अपने बल से राज्य की विघटनकारी शक्तियों को नियंत्रित कर रखा था। इस योग्य मन्त्री के मरते ही राज्य का छिन्न-भिन्न होना आरम्भ हो गया। प्रान्तीय गवर्नरों ने विद्रोह का झण्डा खड़ा कर दिया और उन्हें दबाना संभव नहीं रहा।

(4.) महमूदशाह का दुराचारण: महमूदशाह का दुराचरण भी बहमनी साम्राज्य के पतन के लिए उत्तरदायी था। उसने 26 साल तक बहमनी राज्य पर शासन किया। वह मूर्ख तथा आचरण-भ्रष्ट सुल्तान था। वह अपना समय मूर्खों, गायकों तथा नर्तकों की संगति में व्यतीत करता था। इससे अमीर एवं सरकारी कर्मचारी कर्त्तव्य-भ्रष्ट हो गये। साम्राज्य छिन्न-भिन्न होने लगा और प्रान्तीय गवर्नर स्वतंत्र होने लगे।

(5.) शासन का अमीर बरीद के हाथों में चले जाना: 1578 ई. में अहमदशाह की मृत्यु के उपरान्त बहमनी राज्य के जितने भी शासक हुए, वे नाम मात्र के शासक थे और वास्तविक शक्ति अमीर बरीद के हाथों मंें थी। अमीर बरीद का अनियन्त्रित प्रभाव बहमनी राज्य के पतन का कारण सिद्ध हुआ। उसने अन्तिम सुल्तान कलीमुल्लाह का अन्त कर दिया और स्वयं सुल्तान बन गया। इस प्रकार बहमनी राज्य का अन्त हो गया।

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