इस प्रश्न पर संसार के प्रत्येक देश में, जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में तथा काल प्रवाह के प्रत्येक युग में निरंतर चिंतन किया जाता है कि मृत्यु क्या है? ऋषि, मुनि, दार्शनिक, चिंतक एवं उपदेशकों से लगाकर वैज्ञानिकों तक ने इस विषय पर कार्य किया है।
बहुत से लोगों ने मृत्यु की परिभाषाऐं दी हैं, इसके लिये मानदण्ड निर्धारित किये हैं तथा नितांत भिन्न मान्यताएं स्थापित की हैं। सबसे पहले विज्ञान के स्तर पर मृत्यु पर विचार किया जाना उचित होगा।
विज्ञान मानता है मृत्यु एक ऐसी जैव रासायनिक क्रिया है जो प्राणी के शरीर में कुछ निश्चित परिवर्तनों को लाती है। इन परिवर्तनों के कारण प्राणी के शरीर में कुछ ऐसे जैविक परिवर्तन हो जाते हैं जिन्हें वापस उलटा नहीं जा सकता। ये परिवर्तन भौतिक लक्षणों के रूप में प्रकट होते हैं। इन लक्षणों को ही हम मृत्यु कहते हैं।
शरीर के जिन लक्षणों को देखकर प्राणी की मृत्यु होना मान लिया जाता है, उनमें प्रमुख हैं- शरीर का निश्चेष्ट हो जाना। आँख, नाक, कान, जीभ तथा त्वचा आदि इंद्रियांे का काम करना बंद कर देना, जिनके कारण आदमी न तो हिल-डुल सकता है, न देख सकता है, न सुन सकता है, न बोल सकता है, न सूंघ सकता है, न विचार कर सकता है।
चिकित्सा विज्ञान की दृष्टि से ऐसा प्रमुखतः तीन कारणों से होता है। पहला कारण है- हृदय का बंद हो जाना। इस स्थिति में हृदय धड़कना बंद कर देता है, फैंफड़ों, मस्तिष्क तथा शरीर के अन्य अवयवों को रक्त संचार बंद हो जाता है। दूसरा कारण है- फैंफड़ों का काम करना बंद कर देना। इस स्थिति में फैंफड़े रक्त कोशिकाओं को ऑक्सीजन की आपूर्ति करना तथा शरीर में उत्पन्न हुई कार्बन डाई ऑक्साइड को बाहर निकालना बंद कर देते हैं। तीसरा कारण है- मस्तिष्क का बंद हो जाना। इस स्थिति में शरीर के संवेदना तंत्र पर नियंत्रण हट जाता है। शरीर में संवेदना ग्रहण करने की तथा प्रतिक्रिया व्यक्त करने की शक्ति समाप्त हो जाती है।
यही कारण है कि चिकित्सक किसी भी व्यक्ति को मृत घोषित करने से पहले तीन चीजों की जांच करते हैं। पहली जांच श्वांस की होती है। यदि श्वांस रुकी हुई है तो दूसरी जांच नाड़ी की होती है। यदि नाड़ी में स्पंदन नहीं है तो तीसरी जांच हृदय की होती है। यदि वहाँ भी धड़कन नहीं है तो अंत में आँखों की जांच की जाती है।
यदि आँखों की पुतलियां फैल गयी हैं तो आँखों में टॉर्च से प्रकाश की बौछार की जाती है। आँख शरीर का अत्यंत संवेदनशील अंग है। इतना संवेदनशील कि वह प्रकाश की चोट को भी सहन नहीं कर सकता है। यदि प्राणी के शरीर में प्राण हैं और यदि उसकी आँखों में प्रकाश की बौछार की जाती है तो इस बात की काफी संभावना होती है कि उसकी आँखों की पुतलियों में हलचल हो।
यदि आँखों से भी जीवन के कोई चिह्न नहीं मिलते तो इसके बाद चिकित्सक प्राणी की मृत्यु हो जाने की घोषणा कर देते हैं।
ऊपर हमने जिन लक्षणों की चर्चा की है वस्तुतः वे मृत्यु के कारण नहीं हैं, लक्षण हैं। मृत्यु के कारणों पर चिकित्सा विज्ञान, रसायन विज्ञान, जीव विज्ञान, भौतिक विज्ञान अथवा विज्ञान की अन्य कोई शाखा यह नहीं बता पाई है कि आखिर मृत्यु के लक्षण प्रकट क्यों हुए।
यदि यह कहा जाये कि शरीर के वृद्ध हो जाने पर मनुष्य की स्वाभाविक मृत्यु हो जाती है तो भी मृत्यु की सही परिभाषा प्राप्त नहीं होती। वृद्धावस्था स्वयं भी एक लक्षण ही है, कारण नहीं है। वृद्धावस्था की भी कोई निश्चित परिभाषा नहीं है न ही इसकी कोई सीमा है। बहुत से लोग चालीस वर्ष की आयु में भी वृद्धों की तरह व्यवहार करने लगते हैं और बहुत से लोग सत्तर-अस्स्सी साल में भी पूरी तरह स्वस्थ एवं सक्रिय दिखायी पड़ते हैं।
यदि वृद्धावस्था मृत्यु का स्वाभाविक कारण है तो फिर कोई आदमी पचास-साठ साल की आयु में ही स्वाभाविक मृत्यु को क्यों प्राप्त हो जाता है? कोई आदमी एक सौ पैंतीस वर्ष या उससे अधिक आयु तक क्यों जा पहुँचता है?
-डॉ. मोहन लाल गुप्ता