Thursday, March 28, 2024
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41. मृत्यु निकट जानकर राजा परीक्षित गंगाजी के तट पर जा बैठा!

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इस धारावाहिक की पिछली कथा में हमने चर्चा की थी कि राजा परीक्षित ने शमीक ऋषि के गले में मरा हुआ सांप डाल दिया तथा शमीक ऋषि के पुत्र शृंगी ऋषि ने राजा परीक्षित को श्राप दिया कि- ‘हे अधर्मी राजा आज से सातवें दिन तुझे नागराज तक्षक विष से जलाएगा!’

जब शमीक ऋषि की समाधि टूटी तो उनके पुत्र ऋंगी ने उन्हें सारी घटना की जानकारी दी तथा बताया कि मैंने अधर्मी एवं अहंकारी राजा परीक्षित को तक्षक द्वारा विष से जलाए जाने का श्राप दिया है।

यह बात सुनकर शमीक ऋषि को बहुत दुःख हुआ और उन्होंने अपने पुत्र से कहा- ‘अरे मूर्ख! तूने घोर पाप कर डाला। अत्यंत अल्प अपराध के लिये तूने उस भगवत्भक्त राजा को घनघोर श्राप दे डाला! राजा ने अपनी इच्छा से मेरे गले में मृत सर्प नहीं डाला है, उससे यह कार्य कलियुग ने करवाया है। राजा परीक्षित के राज्य में प्रजा सुखी है और हम लोग निर्भीक होकर जप, तप एवं यज्ञ आदि करते हैं। अब राजा के न रहने पर प्रजा में अनाचार फैल जायेगा और अधर्म का साम्राज्य हो जायेगा। यह राजा श्राप देने योग्य नहीं था पर तूने उसे श्राप देकर घोर अपराध किया है। कहीं ऐसा न हो कि वह राजा स्वयं तुझे श्राप दे दे, किन्तु मैं जानता हूँ कि वह परम ज्ञानी है और ऐसा कदापि नहीं करेगा।’

पूरे आलेख के लिए देखें, यह वी-ब्लाॅग-

ऋषि शमीक ने उसी समय अपना एक शिष्य राजा परीक्षित के महल के लिए रवाना किया ताकि राजा को शृंगी ऋषि द्वारा दिए गए श्राप के बारे में सावधान किया जा सके।

उधर जब राजा परीक्षित ने राजमहल में पहुँच कर अपना मुकुट उतारा तो उसके मस्तिष्क से कलियुग का प्रभाव हट गया और राजा को चेतना हुई कि मैंने घोर पाप कर डाला है। जब वह अपने अपराध पर विचार कर ही रहा था कि ऋषि शमीक का भेजा हुआ शिष्य राजा के महल में उपस्थित हुआ।

ऋषि-शिष्य ने राजा को बताया- ‘ऋषिकुमार ने आपको श्राप दिया है कि आज से सातवें दिन तक्षक सर्प आपको विष से जलाएगा!’

राजा परीक्षित ने उसकी बात सुनकर कहा- ‘ऋषिकुमार ने श्राप देकर मुझ पर बहुत बड़ा उपकार किया है। मुझ जैसे पापी को इस जघन्य पाप के लिए उचित दण्ड मिलना ही चाहिये। आप ऋषिकुमार से कहना कि मैं उनकी इस कृपा के लिए उनका अत्यंत आभारी हूँ।’ राजा ने ऋषि-शिष्य का यथोचित सम्मान करके उसे विदा किया।

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राजा परीक्षित ने अपने जीवन के शेष सात दिन आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त करने एवं भगवत्भक्ति  करने में व्यतीत करने का संकल्प किया। उसने अपना राज्य अपने पुत्र जनमेजय को दे दिया। कलियुग के जाल में फंसे हुए राजा परीक्षित ने समस्त राजसी वस्त्राभूषणों का त्याग करके वल्कल धारण कर लिए और गंगा के तट पर जाकर बैठ गया। राजा ने अपनी समस्त आसक्तियों को त्याग दिया तथा भगवान श्रीकृष्णचन्द्र के चरणों का ध्यान करने लगा।

भगवान की प्रेरणा से अत्रि, वशिष्ठ, च्यवन, अरिष्टनेमि, शारद्वान, पराशर, अंगिरा, भृगु, परशुराम, विश्वामित्र, इन्द्रमद, उतथ्य, मेधातिथि, देवल, मैत्रेय, पिप्पलाद, गौतम, भारद्वाज, और्व, कण्डव, अगस्त्य, नारद, वेदव्यास आदि महर्षि एवं देवर्षि अपनी-अपनी शिष्य-मण्डलियों सहित राजा के पास आए।

राजा परीक्षित ने समस्त ऋषियों का सत्कार करके उन्हें आसन दिए तथा उनसे कहा- ‘यह मेरा परम सौभाग्य है कि जीवन के अंतिम भाग में मुझे आप जैस देवतुल्य ऋषियों के दर्शन प्राप्त हुए। मैंने राजत्व-मद में चूर होकर परम तेजस्वी ब्राह्मण के प्रति अपराध किया है फिर भी आप लोगों ने कृपा करके मुझे दर्शन दिए हैं। मेरी इच्छा है कि मैं अपने जीवन के शेष सात दिनों का उपयोग ज्ञानप्राप्ति और भगवत्भक्ति में करूँ। अतः आप सब मुझ पर कृपा कीजिए तथा मुझे वह सुगम मार्ग बताइये जिस पर चल कर मैं भगवान को प्राप्त कर सकूँ।’

उसी समय महर्षि वेदव्यास के पुत्र शुकदेवजी भी वहाँ आ गए। समस्त ऋषियों एवं राजा परीक्षित ने शुकदेवजी को सबसे उच्च आसन प्रदान करके उनका सम्मान किया। राजा परीक्षित ने उनसे कहा- ‘हे ब्रह्मरूप योगेश्वर! आप योगियों के भी गुरु हैं। अतः कृपा करके यह बताइये कि मरणासन्न प्राणी का क्या कर्तव्य है? उसे किस कथा का श्रवण, किस देवता का जप, अनुष्ठान, स्मरण तथा भजन करना चाहिये और किन-किन बातों को त्याग देना चाहिये?’

शुकदेवजी ने कहा- ‘हे राजा परीक्षित! मनुष्य, जन्म लेने के पश्चात् संसार के मायाजाल में फँस जाता है और उसे मनुष्य-योनि का वास्तविक लाभ प्राप्त नहीं हो पाता। उसका दिन काम धंधों में और रात नींद तथा स्त्री-प्रसंग में बीत जाते हैं। अज्ञानी मनुष्य स्त्री, पुत्र, शरीर, धन एवं सम्पत्ति को अपना सब कुछ समझ बैठता है। वह मूर्ख पागल की भाँति उनमें रम जाता है और उनके मोह में अपनी मृत्यु से भयभीत रहता है। अन्त में मृत्यु का ग्रास होकर चला जाता है। मनुष्य को मृत्यु के आने पर भयभीत तथा व्याकुल नहीं होना चाहिये। अपने ज्ञान से वैराग्य लेकर सम्पूर्ण मोह को दूर कर लेना चाहिये। अपनी इन्द्रियों को वश में करके उन्हें सांसारिक विषय वासनाओं से हटा लेना चाहिए तथा ऊँ का निरन्तर जाप करते रहना चाहिये जिससे मन इधर उधर न भटके। यदि मन रजोगुण और तमोगुण के कारण स्थिर न रहे तो साधक को व्याकुल न होकर धीरे-धीरे धैर्य के साथ उसे अपने वश में करना चाहिये। उसी योग धारणा से योगी को अपने हृदय में भगवान के दर्शन हो जाते हैं और भक्ति की प्राप्ति होती है।’

राजा परीक्षित ने पूछा- ‘हे महाभाग! वह कौन सी धारणा है जो अज्ञानरूपी मैल को शीघ्र दूर कर देती है और उस धारणा को कैसे किया जाता है?’

शुकदेवजी ने कहा- ‘योग की साधना करने वाले साधक को यथोचित आसन पर बैठकर प्राणायाम का साधन करना चाहिये। इसके बाद मन को चारों ओर से इस प्रकार समेट लेना चाहिये जैसे कछुआ अपने सिर एवं पैरों को समेट लेता है। भगवान के विराट स्वरूप का ध्यान करना चाहिये। उसे यह समझना चाहिये कि पथ्वी, जल, अग्नि, वायु एवं आकाश आदि पंचतत्व, अहंकार और प्रकृति इन सात पदों से आवृत्त यह सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड विराट भगवान का ही शरीर है, वही इन सबको धारण किये हुए हैं। पाताल विराट भगवान के तलवे हैं, रसातल उनके पंजे हैं, महातल उनकी एड़ी के ऊपर की गाँठें हैं, तलातल उनकी पिंडली हैं, सुतल उनके घुटने हैं, वितल और अतल उनकी जाँघें तथा भूतल उनका पेडू हैं।

हे परीक्षित! आकाश उनकी नाभि, स्वर्गलोक उनकी छाती, महालोक उनका कंठ, जनलोक उनका मुख, तपलोक उनका मस्तक और सत्यलोक उनके सहस्र सिर हैं। दिशाएँ उनके कान, दोनों अश्वनीकुमार उनकी नासिका, अग्नि उनका मुख, अन्तरिक्ष उनके नेत्र और सूर्य उनकी नेत्र-ज्योति है। दिवस और रात्रि उनकी पलकें हैं, ब्रह्मलोक उनका भ्रू-विलास है, जल उनका तालू और रस उनकी जिह्वा है। वेद उनकी मस्तक-रेखाएँ और यम उनकी दाढ़ें हैं। स्नेह उनके दाँत हैं और जगत को मोहित करने वाली माया उनकी मुस्कान है। लज्जा उनका ऊपरी होठ तथा लोभ निचला होठ है।

राजन्! धर्म भगवान के स्तन और अधर्म उनकी पीठ है। प्रजापति ब्रह्मा उनकी मूत्रेन्द्रिय, मित्रावरुण उनके अण्डकोष और समुद्र उनकी कोख है। पर्वत उनकी हड्डियाँ और नदियाँ उनकी नाड़ियाँ हैं। वृक्ष उनके रोम और वायु उनका श्वास है। बादल उनके केश हैं। सन्ध्या उनका वस्त्र है। मूल प्रकृति उनका हृदय है और चन्द्रमा उनका मन है। महातत्व उनका चित्त और रुद्रदेव उनका अहंकार हैं। वन्य-पशु उनकी कमर तथा हाथी, घोड़े, खच्चर आदि उनके नख हैं। आकश में उड़ते हुए करोड़ों पक्षी भगवान की विविध कलाएँ हैं। बुद्धि उनका मन है और मनुष्य उनका निवास स्थान है। अप्सरा, चारण, गन्धर्व आदि भगवान के स्वर हैं। देवताओं के निमित्त किये गए यज्ञ भगवान के कर्म हैं। बुद्धि और ज्ञान से अपने मन को वश में करके भगवान के इसी विराट रूप का ध्यान करना चाहिये।’

इस प्रकार आध्यात्मिक ज्ञान का अर्जन एवं ईश-भक्ति करते हुए छः दिन बीत गए तथा नागराज तक्षक के आने की तिथि आ गई।

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता

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