उड़ीसा का स्थापत्य प्राचीनकाल में विकसित कलिंग वास्तुकला शैली में निर्मित है। उड़ीसा के मंदिर कलिंग मंदिर शैली के सबसे अच्छे उदाहरण हैं।
कोणार्क का सूर्य मंदिर
कोणार्क का सूर्य मंदिर 13वीं शताब्दी ईस्वी में गंगा राजवंश के राजा नरसिंघेव (प्रथम) ने बनवाया था। यह कलिंग शैली में बना है तथा भगवान बिरंचि-नारायण (सूर्य) को समर्पित है। कोणार्क शब्द, कोण और अर्क शब्दों के मेल से बना है। अर्क का अर्थ होता है सूर्य, जबकि कोण से अभिप्राय कोने या किनारे से रहा होगा।
प्रस्तुत कोणार्क सूर्य-मन्दिर का निर्माण लाल रंग के बलुआ पत्थरों तथा काले ग्रेनाइट के पत्थरों से हुआ है। इसे ई.1236-54 में गंग वंश के राजा नृसिंहदेव द्वारा बनवाया गया। यह मन्दिर, भारत के सबसे प्रसिद्ध स्थलों में से एक है। कलिंग शैली में निर्मित इस मन्दिर में सूर्य देव को रथ में विराजमान किया गया है तथा पत्थरों को उत्कृष्ट नक्काशी के साथ उकेरा गया है।
मन्दिर को बारह जोड़ी चक्रों के साथ सात घोड़ों से खींचते हुए निर्मित किया गया है, जिसमें सूर्य देव को विराजमान दिखाया गया है। वर्तमान में केवल एक घोड़ा बचा है। मन्दिर के आधार को सुन्दरता प्रदान करते ये बारह चक्र साल के बारह महीनों को व्यक्त करते हैं तथा प्रत्येक चक्र आठ अरों से मिल कर बना है, जो दिन के आठ पहरों को दर्शाते हैं। मुख्य मन्दिर तीन मंडपों में बना है।
इनमें से दो मण्डप ढह चुके हैं। तीसरे मण्डप में जहाँ मूर्ति थी, अंग्रेज़ों ने सभी द्वारों को रेत एवं पत्थर भरवा कर बंद करवा दिया था ताकि मन्दिर और क्षतिग्रस्त नहीं हो। मन्दिर में सूर्य भगवान की तीन प्रतिमाएं हैं- (1.) बाल्यावस्था-उदित सूर्य – 8 फुट, (2.) युवावस्था-मध्याह्न सूर्य – 9.5 फुट, (3.) प्रौढ़ावस्था-अपराह्न सूर्य- 3.5 फुट।
प्रवेश-द्वार पर दो सिंह हाथियों पर आक्रमण के लिए तत्पर दिखाये गए हैं। दोनों हाथी, एक-एक मानव के ऊपर स्थापित हैं। ये प्रतिमाएं एक ही पत्थर की बनीं हैं। ये 28 टन की 8.4 फुट लम्बी, 4.9 फुट चौड़ी तथा 9.2 फुट ऊंची हैं। मंदिर के दक्षिणी भाग में दो सुसज्जित घोड़े बने हैं, जिन्हें उड़ीसा सरकार ने अपने राजचिह्न के रूप में अंगीकार किया है।
ये 10 फुट लम्बे एवं 7 फुट चौड़े हैं। मंदिर सूर्य देव की भव्य यात्रा को दिखाता है। इसके प्रवेश द्वार पर नट मंदिर है। यहाँ मंदिर की नर्तकियां, सूर्यदेव को प्रसन्न करने के लिये नृत्य करतीं थीं। मंदिर में फूल, बेल और ज्यामितीय आकृतियों की नक्काशी की गई है। इनके साथ ही मानव, देव, गंधर्व, किन्नर आदि की प्रतिमाएं भी एन्द्रिक मुद्राओं में प्रदर्शित की गई हैं। इनकी मुद्राएं कामुक हैं और कामसूत्र से लीं गई हैं।
मंदिर लगभग खंडहर हो चुका है। यहाँ की शिल्प कलाकृतियों का एक संग्रह, भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के सूर्य मंदिर संग्रहालय में सुरक्षित है। रवीन्द्रनाथ टैगोर ने इस मन्दिर के बारे में लिखा है-‘कोणार्क जहाँ पत्थरों की भाषा मनुष्य की भाषा से श्रेष्ठतर है।’
यह सूर्य मन्दिर भारतीय मन्दिरों की कलिंग शैली का है, जिसमें कोणीय अट्टालिका (मीनार रूपी संरचना) के ऊपर मण्डप की तरह छतरी होती है। आकृति में, यह मंदिर उड़ीसा के अन्य शिखर मंदिरों से भिन्न नहीं लगता है। 229 फुट ऊंचा मुख्य गर्भगृह 128 फुट ऊंची नाट्यशाला के साथ बना है।
इसमें बाहर को निकली हुई अनेक प्रतिमाएं हैं। मुख्य गर्भ में प्रधान देवता का वास था, किंतु वह अब ध्वस्त हो चुका है। नाट्यशाला अभी पूरी बची है। नट मंदिर एवं भोग मण्डप के कुछ ही भाग ध्वस्त हुए हैं। मंदिर का मुख्य प्रांगण 857 फुट गुणा 540 फुट आकार का है। मंदिर पूर्व-पश्चिम दिशा में बना है।
जगन्नाथ मंदिर: पुरी के जगन्नाथ मंदिर की वास्तुकला प्राचीन काल की है। मंदिर के गर्भगृह में मुख्य देव की प्रतिमा स्थापित है तथा गर्भगृह के ऊपर ऊंचा शिखर बना हुआ है। उसके चारों ओर सहायक शिखर हैं। मंदिर परिसर एक दीवार से घिरा हुआ है, जिसमें से प्रत्येक तरफ एक द्वार है, जिसके ऊपर एक पिरामिड-आकार की छत है। राज्य में सबसे बड़ा मंदिर होने के कारण, इसमें रसोईघर सहित दर्जनों सहायक भवन स्थित हैं। मंदिर के शीर्ष पर अष्टधातुओं के मिश्रण से बना एक पहिया है।
कलिंग मंदिर शैली का मुक्तेश्वर मंदिर
यह छोटा मंदिर 10.5 मीटर ऊंचा है। इसके बाहरी हिस्सों पर मूर्तियों का अंकन किया गया है जिनमें देवी-देवताओं के साथ पौराणिक दृश्य भी दर्शाए गए हैं। मंदिर का तोरण द्वारा नक्काशीदार युक्त है। सभा भवन की छत में प्रत्येक पंखुड़ी पर मूर्ति के साथ एक अष्ट-दल कमल की सुंदर चंदवा बनाई गई है।
कलिंग मंदिर शैली का लिंगराज मंदिर
भुवनेश्वर का लिंगराज मंदिर 12वीं सदी में बना। यह मंदिर उड़ीसा की स्थापत्य कला का चरम माना जाता है। इसकी ऊँचाई 150 फुट है। इसकी वास्तुकला कलिंग शैली की सर्वोच्च उपलब्धियों में से एक है।
राजारानी मंदिर
भुवनेश्वर के राजारानी मंदिर का निर्माण ई.1000 के आसपास हुआ। इस मंदिर ने मध्य भारत के अन्य मंदिरों के वास्तुकला के विकास के लिए विशेष रूप से खजुराहो के मंदिरों का मार्गदर्शन किया। अप्सराओं और मिथुन मूर्तियों की कामुक नक्काशी के कारण प्रेम मंदिर के रूप में भी जाना जाता है।
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कलिंग मंदिर शैली