खुर्रम का विद्रोह जहाँगीर की दरबारी गुटबंदी का परिणाम थी। यह गुटबंदी नूरजहाँ ने आरम्भ की थी। जब जहाँगीर के पुत्रों को लगा कि नूरजहाँ अपने पुत्र को अगला बादशाह बनाना चाहती है, तब खुर्रम ने बगावत का झण्डा बुलंद कर दिया।
जब जहाँगीर बीमार पड़ा तो खुर्रम में, तख्त प्राप्त करने की आतुरता बढ़ गई। नूरजहाँ, शहरियार के पक्ष में अपने प्रभाव का प्रयोग कर रही थी। 1622 ई. में फारस के शाह ने कन्दहार पर अधिकार कर लिया। जब जहाँगीर को इसकी सूचना मिली तो उसने खुर्रम को आज्ञा दी कि वह दक्षिण से सेनाओं के साथ कन्दहार के लिये प्रस्थान करे।
चूँकि राजधानी में खुर्रम के शत्रु षड्यन्त्र रच रहे थे, इसलिये खुर्रम ने राजधानी से बहुत दूर जाना हितकर नहीं समझा। वह माण्डू चला आया और वहीं से बादशाह को, कन्दहार जाने के लिये अपनी शर्तें लिख भेजीं।
शहजादे ने मांग की कि रणथम्भौर का दुर्ग उसे दे दिया जाय, जिसमें वह अपने परिवार को रख दे। पंजाब का प्रान्त उसे दे दिया जाय, जिसे वह अपना आधार बना ले और वर्षा ऋतु माण्डू में ही व्यतीत करने की अनुमति दी जाये। जहाँगीर को खुर्रम की तीनों शर्तें मान्य नहीं हुईं। इसलिये कन्दहार की सुरक्षा का काम शहरियार को सौंप दिया गया।
खुर्रम ने जहाँगीर से प्रार्थना की थी आगरा के निकट स्थित धौलपुर की जागीर उसे दे दी जाये परन्तु बादशाह ने यह जागीर पहले ही शहरियार को दे दी थी। शहरियार ने उस पर अपना अधिकार भी जमा लिया था। जब खुर्रम को इसकी सूचना मिली तो उसने अपने आदमियों को धौलपुर भेजकर वहाँ से शहरियार के आदमियों को मार भगाया और बलपूर्वक धौलपुर तथा नूरजहाँ की जागीर के कुछ भाग पर अधिकार कर लिया।
खुर्रम का विद्रोह खुर्रम का विद्रोह जहाँगीर के लिए बड़ी चेतावनी था। जब जहाँगीर को इसकी सूचना मिली तो उसने खुर्रम को दण्ड देने की धमकी दी और खुर्रम से दोआब तथा हिसार फिरोजा की जागीर छीनकर शहरियार को दे दी। इस प्रकार खुर्रम के प्रतिद्वन्द्वी शहरियार को प्रोत्साहन मिलने लगा। इससे खुर्रम का धैर्य भंग हो गया और उसने खुल्लमखुल्ला विरोध करने का निश्चय कर लिया।
उधर नूरजहाँ भी चुप नहीं बैठी थी। वह खुर्रम की गतिविधियों पर दृष्टि रख रही थी। उसने महाबतखाँ को अपनी ओर मिला लिया और शाही सेना का संचालन उसी को सौंप दिया। महाबतखाँ नूरजहाँ का सबसे बड़ा आलोचक था किंतु वही अब उसका सबसे बड़ा समर्थक बन गया। महाबत खाँ का झुकाव शहजादे परवेज की ओर था। इसलिये महाबत खाँ तथा परवेज को खुर्रम का सामना करने का कार्य सौंपा गया।
इस पर खुर्रम विद्रोह पर उतर आया और वह आगरा लूटने के लिये माण्डू से चलकर फतेहपुर सीकरी पहुँच गया परन्तु एतबारखाँ ने खुर्रम की सेना को आगरा में नहीं घुसने दिया। खुर्रम ने निराश होकर दिल्ली की ओर प्रस्थान किया। महाबतखाँ भी लाहोर से दिल्ली की ओर चल पड़ा।
बिलोचपुर नामक स्थान पर खुर्रम तथा महाबतखाँ की सेनाओं में युद्ध हुआ जिसमें खुर्रम परास्त होकर माण्डू भाग गया। महाबतखाँ ने उसका पीछा किया। शाहजादा परवेज भी उसके साथ था। एक सेना खुसरो के पुत्र दावरबख्श की अध्यक्षता में, जिसे बुलाकी भी कहते हैं, गुजरात की ओर भेजी गई।
जहाँगीर स्वयं भी एक सेना के साथ अजमेर पहुंच गया। खुर्रम घबराकर माण्डू से भाग खड़ा हुआ। उसने नर्मदा नदी को पार कर लिया। खुर्रम ने मलिक अम्बर तथा बीजापुर के सुल्तान से सहायता मांगी परन्तु किसी ने उसे शरण नहीं दी। दक्षिण में अब्दुर्रहीम खानखाना की सहानुभूति खुर्रम के साथ थी, अतः उसी के माध्यम से खुर्रम ने जहाँगीर के पास सन्धि का प्रस्ताव भेजा परन्तु खानखाना शाहजादा परवेज से मिल गया जिससे सन्धि वार्ता समाप्त हो गई। इस कारण खुर्रम का विद्रोह समाप्त नहीं हो सका।
महाबत खाँ तथा परवेज बड़ी तेजी से खुर्रम का पीछा कर रहे थे। गुजरात पर शाही सेना का अधिकार हो गया। वहाँ का हाकिम अब्दुल्ला खाँ भी खुर्रम के साथ शरण खोज रहा था। अब खुर्रम ने गोलकुण्डा के सुल्तान के यहाँ शरण ली। वहाँ से खुर्रम ने उड़ीसा के मार्ग से बंगाल में प्रवेश किया।
अब्दुल्ला खाँ ने बर्दवान जीत लिया परन्तु नूरजहाँ के भाई इब्राहीम खाँ ने, जो उन दिनों बंगाल का सूबेदार था, राजमहल के निकट खुर्रम की सेना का सामना किया। इब्राहीम खाँ युद्ध में परास्त हो गया और मारा गया। ढाका पर खुर्रम का अधिकार हो गया।
मेवाड़ का राणा कर्णसिंह खुर्रम की सहायता कर रहा था। उसने पटना पर अधिकार कर लिया। अब खुर्रम की सेना आगे बढ़ी और उसने रोहतास के दुर्ग पर अधिकार कर लिया। जौनपुर पर भी खुर्रम का अधिकार हो गया। यहाँ से एक सेना अब्दुल्ला खाँ की अध्यक्षता में इलाहाबाद के किले का घेरा डालने के लिये भेजी गई और दूसरी सेना खुर्रम के साथ बनारस होती हुई आगे बढ़ी।
इसी बीच महाबत खाँ तथा परवेज दक्षिण से आ पहुँचे। उन्होंने शाहजहाँ की प्रगति को रोक दिया। अब्दुल्ला इलाहाबाद के दुर्ग का घेरा उठा लेने के लिये विवश हो गया और राणा भीमसिंह जौनपुर के निकट मारा गया। खुर्रम की सेना भी इलाहाबाद जिले में दमदम नामक स्थान पर बुरी तरह परास्त हुई।
अब खुर्रम का महाबत खाँ तथा परवेज के सामने ठहरना कठिन हो गया। फलतः वह पीछे हटने लगा और अपनी स्त्री तथा लड़कों को रोहतास दुर्ग में छोड़कर दक्षिण की ओर चला गया। दक्षिण में मलिक अम्बर, खुर्रम की सहायता करने के लिए उद्यत हो गया क्योंकि उन दिनों उसका मुगल सल्तनत से संघर्ष चल रहा था।
खुर्रम ने बुरहानपुर का घेरा डाला परन्तु महाबत खाँ तथा परवेज अपनी सेनाओं के साथ पहुँच गये। खुर्रम को विवश होकर घेरा उठा लेना पड़ा। इस विपत्ति में अब्दुल्ला खाँ ने भी खुर्रम का साथ छोड़कर संन्यास ले लिया। अतः खुर्रम के पास जहाँगीर से क्षमा माँगने के अतिरिक्त कोई उपाय नहीं बचा। वह बादशाह को क्षमादान की अर्जी भेजकर बालाघाट चला गया।
जहाँगीर ने शहजादे की क्षमा याचना स्वीकार कर ली। नूरजहाँ ने भी क्षमादान में कोई बाधा उत्पन्न नहीं की, क्योंकि वह, महाबतखाँ तथा परवेज के बढ़ते हुए प्रभाव से आतंकित हो रही थी। जहाँगीर ने इस शर्त पर खुर्रम को क्षमा किया कि वह रोहतास तथा असीरगढ़ के दुर्ग समर्पित कर दे और अपने दो पुत्रों दारा तथा औरंगजेब को बन्धक स्वरूप में शाही दरबार में भेज दे। खुर्रम ने इन शर्तों को स्वीकार कर लिया। जहाँगीर ने खुर्रम को क्षमा करके उसे बालाघाट की जागीर दे दी।
मूल आलेख – नूरुद्दीन मुहम्मद जहाँगीर एवं नूरजहाँ
खुर्रम का विद्रोह