मध्यकालीन वेशभूषा एवं आभूषण लोगों की आर्थिक, सामाजिक एवं राजनीतिक हैसियत के अनुसार होते थे। विभिन्न समुदायों के लोग प्रायः सूती वस्त्र पहनते थे।
मध्यकालीन वेशभूषा एवं आभूषण वर्तमान काल की अपेक्षा काफी अलग थे। निर्धन लोगों के पास पूरा तन ढकने के लिए भी कपड़े नहीं होते थे। मध्यमवर्गीय परिवारों के वस्त्राभूषण भी अत्यंत साधारण होते थे। केवल सामंती परिवारों एवं श्रेष्ठि परिवारों के पास अच्छे वस्त्राभूषण उपलब्ध थे।
मध्यकालीन वेशभूषा
जन-सामान्य की वेशभूषा
मध्यकालीन वेशभूषा में हिन्दू पुरुषों में धोती, कुर्ता तथा पगड़ी अधिक प्रचलित थे और हिन्दू औरतों में कांचली, घाघरा ओढ़नी अधिक लोकप्रिय थी किंतु साड़ी-ब्लाउज और पेटीकोट भी समान रूप से प्रचलित थीं। औरतें घर से निकलते समय शरीर को चादर से लपेट लेती थीं। मजदूर और किसान वर्ग के लोग घुटनों से ऊपर तक छोटी सी धोती लपेटते थे।
सर्दियों में साधारण लोग सूती कोट पहना करते थे, जिसमें रुई भरी होती थी। उत्तर भारत में पगड़ी अथवा साफा प्रचलित था किंतु कश्मीर और पंजाब में रुई भरी हुई टोपी का चलन था। अत्यंत निर्धन लोग केवल लंगोट लगाकर जीवन बिताते थे। मुसलमानों के राज्य में ऐसे लोगों की संख्या निरंतर बढ़ती चली गई थी।
सरकारी कारिंदों की वेशभूषा
मुसलमान सैनिकों की कोई विशेष पोशाक नहीं थी फिर भी वे चुस्त कपड़े पहनते थे जिन पर तलवार, ढाल, गुप्ती आदि हथियार कसे हुए होते थे। शाही कारिंदे एवं गुलाम कमरबंद, लाल जूते और ‘कुला’ पहनते थे।
तुर्की सुल्तानों के काल की वेशभूषा
दिल्ली सुल्तानों के काल में लम्बी तातारी टोपी पहनने का प्रचलन था किंतु बाद में तातारी टोपी का स्थान पगड़ी ने ले लिया। पगड़ी दोनों समुदायों के लोग सामान्य रूप से धारण करते थे। मुस्लिम सफेद और गोल पगड़ी बांधते थे जबकि हिन्दुओं में रंगीन, ऊँची और नोकदार पगड़ी प्रचलित थी। गर्मी के कारण जुर्राबें बहुत कम पहनी जाती थी।
अधिकांश हिन्दू नंगे पैर रहते थे। बलबन ने अपने गुलामों को जुर्राब पहनने का आदेश दिया था। कट्टर धार्मिक प्रवृत्ति के मुसलमान नमाज आदि में सफाई बनाए रखने के लिए जुर्राबों का इस्तेमाल आवश्यक मानते थे। उस समय तुर्की जूते अधिक प्रचलित थे, जो सामने से नोकदार तथा ऊपर से खुले हुए होते थे। इनको पहनने और उतारने में अधिक सुविधा रहती थी।
अमीर अपने जूते रंगीन मखमल या जरी के बनवाते थे जिन पर रेशम और चमड़े के फीते लगाए जाते थे। कुछ जूतों पर हीरे-जवाहरात भी जड़वाये जाते थे। कालीकट के ब्राह्मण जाड़ों में भूरे चप्पल तथा गर्मियों में काठ की खड़ाऊ पहनते थे। मध्यम-वर्गीय परिवार लाल चमड़े के जूते पहनते थे, जिन पर फूलों की आकृतियां बनी रहती थीं।
साधु-सन्तों, फकीरों एवं दरवेशों को उनकी पोषाक से पहचाना जाता था। मुस्लिम फकीर लम्बी ‘दरवेश-टोपी’ तथा पैरों में ‘काठ की चट्टी’ पहनते थे और शरीर पर एक लम्बा चोगा डालते थे। मुस्लिम दार्शनिक पगड़ी, चोगा तथा पाजामा पहनते थे। हिन्दू संन्यासी एवं योगी केवल लंगोटी से काम चलाते थे। हिन्दू पंडित कमर में रेशमी चादर लपेट लेते थे, जिसका एक छोर पांव तक लटकता रहता था और लाल रंग की रेशमी चादर कन्धों पर डाल लेते थे।
मुगलकाल में शाही अमीरों की वेशभूषा
मध्यकालीन वेशभूषा में उच्च वर्ग के लोगों के वस्त्र महंगे होते थे। अमीर मुसलमान सलवार, सुतन्नी और पाजामा पहनते थे। शरीर के ऊपरी भाग पर कुर्ता, जैकेटनुमा कोट, काबा या लम्बा कोट पहना जाता था जो घुटनों तक लटकता था। यह मलमल या बारीक ऊन का बना होता था। मुगल बादशाह रोएंदार फर के कोट पहनते थे। धनी लोग कन्धे पर रंगीन ऊनी चादर रखते थे।
मध्य-युगीन सुल्तान, अमीर, खान आदि शाही पुरुष जरी वाले रेशमी और मखमली कपड़े पहनते थे। उनकी पोषाकों में दिबा-ए-हफ्तरंग (सप्तरंगी किमखाब), बीसात-ए-जमुरादी (मोतिया रंग की पोशाक), जामा-ए-जारबफ्त (जरी या सोने के तारों से बुना कपड़ा), कतान-ए-रूसी (रूस में बना कपड़ा), कतान-ए-बिरारी, बरकरमान (कई रंगों का ऊनी कपड़ा) आदि का भी प्रयोग होता था।
अकबर की वेशभूषा
अकबर ने अपनी पोशाकों के लिए कुशल दर्जी नियुक्त किए। आइन-ए-अकबरी में ग्यारह प्रकार के कोट का विवरण मिलता है। उनमें ‘टकन चिया पेशवाज’ सर्वाधिक महत्त्व का था। यह गोल-घेरदार कोट था, जो सामने से खुला रहता था और दांयी ओर से बंद होता था।
इसके साथ ही रोएंदार कोट ‘शाह आजीदाह’ का भी महत्त्व था। अकबर मुलायम रेशम की धोती भी पहनता था। मॉन्सेरट ने अकबर की पोशाक के बारे में लिखा है- ‘बादशाह सलामत की पोशाक रेशम की थी, जिस पर सोने का सुन्दर काम किया रहता था। उनकी पोशाक घुटनों तक झूलती थी तथा उसके नीचे पूरे गांव का जूता होता था। वे मोती और सोने के जेवर भी पहनते थे।’
मध्यकालीन महिलाओं की वेशभूषा
मध्यकालीन वेशभूषा में महिलाओं की पोशाक साधारण थी। गरीब स्त्रियां साड़ी पहनती थीं जिसके एक छोर से उनका सिर ढका रहता था। गरीब और अमीर दोनों वर्ग की स्त्रियां वक्ष पर अंगिया पहनती थीं। दक्षिण भारत में निम्न-वर्ग की स्त्रियां सिर नहीं ढकती थीं। गरीब उड़िया स्त्रियां कपड़ा प्राप्त न होने के कारण पत्तियों से शरीर को ढकती थीं। मुसलमान स्त्रियां सलवार-कमीज पहनती थीं, ऊपर से बुर्का डालती थीं।
मध्य-कालीन चित्रों में स्त्रियों को ओढ़नी के साथ पीठ पर बंधने वाली चोली पहने हुए चित्रित किया गया है। स्त्रियां घाघरा भी पहनती थीं, जिनमें किनारी एवं कसीदाकारी का काम होता था। बंगाली स्त्रियां कांचुली या चोली पहनती थीं। यह दो प्रकार की होती थी, एक छोटी होती थी, जिससे केवल स्तन ढकते थे, दूसरी लम्बी होती थी और कमर तक जाती थी।
धनी औरतें कश्मीरी ऊन का बना बारीक ‘कावा’ पहनती थीं। कुछ स्त्रियां उत्तम प्रकार के कश्मीरी शॉल ओढ़ती थीं। हिन्दू और मुसलमान महिलाएं सूती, रेशमी या ऊनी दुपट्टे से सिर ढकती थी। उस काल में पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियां जूतों का प्रयोग अधिक करती थीं।
मध्यकालीन समाज में सौन्दर्य प्रसाधन
मनुष्य में सुंदर एवं आकर्षक दिखने की ललक आदिकाल से है। इसलिए शरीर पर सुगंधित पदार्थों का लेप करने, अंगराग लगाने, उबटन मलने, बाल संवारने, काजल लगाने, वस्त्रों को रंगने, आभूषण पहनने आदि की परम्पराएं भी अत्यंत प्राचीन काल से चली आ रही हैं। मध्य-कालीन भारतीय समाज में भी ये परम्पराएं प्रचलन में थीं।
स्नान करने और कपड़ा धोने के लिए साबुन का उपयोग किया जाता था। शरीर एवं कपड़ों पर लगाने के लिए कई प्रकार की कीमती सुगंधियों का प्रयोग किया जाता था। केशों को काला करने के लिए ‘वस्मा’ और ‘खिजाब’ का प्रयोग होता था। कपड़ों को सफेद बनाए रखने के लिए नील का प्रयोग होता था। साबुन, पाउडर और क्रीम जैसी प्रसाधन सामग्रियों के रूप में ‘घासूल’, त्रिफला, उबटन और चन्दन का प्रयोग होता था।
अबुल फजल ने मुगल काल में स्त्रियों के सोलह शृंगारों का उल्लेख किया है जिनमें स्नान करना, केशों में तेल, लगाना, चोटी गूँथना, रत्नों से वेणी शृंगार करना, मोतियों से सजाकर बिन्दी लगाना, काजल लगाना, हाथ रंगना, पान खाना तथा स्वयं को फूलमालाओं तथा कर्णफूल, हार, करधनी आदि आभूषणों से सजाना आदि सम्मिलित हैं। हिन्दू महिलाएं अपने केश पीछे की ओर बांधती थीं।
धनी परिवारों की महिलाएं अपनी केशों को सिर के ऊपर शंक्वाकार गूँथकर उनमें सोने-चांदी के कांटे लगाती थीं। नकली केश लगाने का उल्लेख भी मिलता है। हिन्दू स्त्रियां सिन्दूर का टीका लगाने तथा उससे मांग भरने को शुभ मानती थीं। आंखों में काजल लगाती थीं तथा पलकों को रंगने के लिए सुरमे का प्रयोग करती थीं। भारतीय स्त्रियां अपने हाथों और पांवों में मेहन्दी लगाती थीं।
मुंह पर लगाने के लिए ‘गलगुना’ और ‘गाजा’ (लाल रंग) का प्रयोग किया जाता था। केश संवारने में लकड़ी, पीतल एवं हाथी दांत की कंघियों का प्रयोग होता था। अकबर ने शाही परिवार की सुगन्धित पदार्थों की आवश्यकताएं पूरी करने के लिए शेख मन्सूर की अध्यक्षता में ‘खुशबूखाना’ स्थापित किया था। जहाँगीर की बेगम नूरजहाँ की माँ ने गुलाब से एक नवीन इत्र का निर्माण किया था जिसका नाम ‘इत्र-ए-जहाँगीरी’ रखा गया। नूरजहाँ स्वयं भी फूलों से इत्र तैयार करती थी और वह विभिन्न डिजाइनों के सुंदर कपड़े डिजाइन करती थी। उन पर चित्र भी बनाती थी।
मध्यकालीन समाज में आभूषण
सभ्यता के विकास के साथ ही स्त्रियों में आभूषणों के प्रति बोध उत्पन्न हुआ। वे अपने शरीर के विभिन्न अंगों को फूल, कौड़ी, छोटे शंख, मिट्टी, ताम्बे एवं सोने के बने मनकों तथा सिक्कों आदि से सजाती थीं। अत्यंत प्राचीन काल से ही हार, ताबीज एवं मनके मिलने लगते हैं।
मुगलकालीन लेखक अबुल फजल ने सैंतीस आभूषणों का उल्लेख किया है। चौक, मांग, कतबिलादर (संभवतः आधुनिक चंद्रमान), सेकर और बिंदुली आदि आभूषण सिर और ललाट पर धारण किए जाते थे। कर्णफूल, पीपल पत्ती, मोर भांवर और बाली कानों में पहने जाते थे। नाक में पहनने के आभूषणों की शुरुआत संभवतः मुसलमानों ने की थी। इनमें ‘नथ’ और ‘बेसर’ अधिक प्रचलित थे।
हिन्दू स्त्रियां सिर के आगे के भाग में सोने-चांदी का टीका या बोर धारण करती थीं। टीका माथे पर झूलता रहता था जबकि बोर माथे के अगले भाग पर स्थिर रहता था। नाक के बाएं भाग में सोने-चांदी की लौंग पहनी जाती थी जिसके आगे के भाग में मोती, हीरा या अन्य कीमती पत्थर जड़ा जाता था। गले में सोने-चांदी के हार पहने जाते थे जिनमें हीरे, जवाहरात एवं मोती आदि से बने नग जड़े जाते थे।
हार एक लड़ी से लेकर कई लड़ी के भी होते थे। धनी स्त्रियों के हार में पांच-सात लड़ियां होती थीं। हाथ के ऊपरी भाग में बाजूबन्द या तोड़े पहने जाते थे और कलाई में कंगन, चूड़ी एवं गजरा पहने जाते थे। कमर में तगड़ी, क्षुद्र खंटिका, कटि मेखला एवं सोने की पेटी धारण की जाती थी। अंगुलियों में अंगूठियां पहनी जाती थीं। पैरों में जेहर, घुंघरू, पायल आदि पहनते थे। पैरों की अंगुलियों में झांक, बिछुआ तथा आंवट पहने जाते थे।
हिन्दू पुरुष कानों में कर्णफूल, गले में साने की चेन तथा अंगुलियों में अंगूठियाँ पहनते थे। राजपूत पुरुषों में ‘कर्णफूल’ धारण करना अनिवार्य था। मुसलमान पुरुष आभूषणों के विरोधी थे, फिर भी कुछ मुसलमान ‘ताबीज’ और ‘गण्डा’ आदि पहनते थे। सुल्तान और मुगल बादशाह सोने, चांदी, हीरे, माणिक आदि के आभूषण पहनते थे।
सर टॉमस रो ने उल्लेख किया है कि- ‘जहाँगीर अपने जन्मदिन पर कीमती वस्त्रों तथा हीरे-जवाहर के आभूषणों से सजकर प्रजा के समक्ष आता था। उसकी पगड़ी सुंदर पक्षी के पंखों से सजी रहती थी, जिसमें एक ओर काफी बड़े आकार का माणिक, दूसरी ओर बड़े आकार का हीरा तथा बीच में हृदय की आकृति का पन्ना सुशोभित होता था। कन्धों पर मोतियों और हीरों की लड़ियां झूलती थीं तथा गले में मोतियों के तीन जोड़े हार होते थे। बाजुओं में हीरे के बाजूबन्द तथा कलाई में हीरे के तीन कंगन होते थे। हाथ की प्रायः प्रत्येक अंगुली में अंगूठी होती थी।’
बहूमूल्य हीरों की बनी ‘मांग टीका’ की कीमत पांच लाख टका तक हो सकती थी। सोने और चांदी के काम में गुजराती हिन्दू स्वर्णकार अधिक विख्यात थे। एक चतुर कारीगर की फीस 64 दाम प्रति तोला थी।