Saturday, July 27, 2024
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अध्याय – 33 – मध्य-कालीन भारतीय समाज (सामाजिक संस्थाएं एवं रीति-रिवाज) (द)

मुसलमानों के प्रमुख त्यौहार

मुसलमानों के प्रमुख त्यौहारों में मुहर्रम, मीलाद उन-नबी, सबे-उल-फितर और ईद-उल-जुहा मुख्य थे। मध्य-कालीन मुस्लिम समाज इन त्यौहारों को बड़ी श्रद्धा से मनाता था। मुहर्रम के पहले दस दिनों में शिया मुसलमान शोक मनाते थे। शिया अनुश्रुतियों के अनुसार हज़रत अली और उनके दो पुत्र-हसन और इमाम हुसैन, दीन की खातिर शहीद हुए थे।

उनकी शहादत की याद में शिया हर वर्ष मुहर्रम के महीने की दसवीं तारीख को ताजिये निकाल कर शोक मानते हैं। इस दिन शिया मुसलमान पुरुष अपने शरीर को यातनाएं देते थे और अपने सिर पर धूल डालते थे। वे शोक की काली पोशाक पहनते थे। इब्नबतूता के अनुसार लोग उस दिन गरीबों को आटा, चावल और मांस बांटा करते थे।

मुगल बादशाह यद्यपि सुन्नी थे तथापि उन्होंने मुहर्रम मनाये जाने पर प्रतिबन्ध नहीं लगाया था किन्तु औरंगजेब ने अपने राज्य में मुहर्रम का जुलूस निकालने की मनाही कर दी थी। फिर भी मुहर्रम का जमाव तथा ताजिये का जुलूस कभी बन्द नहीं हुआ। इस कारण मुहर्रम के दिन शिया और सुन्नियों में खूनी-संघर्ष हो जाते थे जिनमें कई लोग मारे जाते थे।

हिजरी महीने ‘रबी-उल-अव्वल’ के बाहरवें दिन हजरत मुहम्मद के जन्मदिन को मीलाद उन-नबी के रूप में मनाया जाता था। इस दिन शाही-महल में सैयदों, विद्वानों और सन्तों की सभा होती थी और कुरान पढ़ी जाती थी। गुलाब-जल का छिड़काव करने के साथ गरीबों में मिठाई और हलुआ बांटा जाता था। शाहजहाँ इस अवसर पर एक बड़ी रकम खैरात के रूप में बांटता था। इसी दिन हजरत मुहम्मद का निधन भी हुआ था।

हिजरी माह ‘शाबान’ के चौदहवें दिन ‘सबे-बरात’ मनाया जाता था। इस दिन पैगम्बर मुहम्मद स्वर्ग में दाखिल हुए थे। इसलिए मुसलमान उस दिन खुशियां मनाते थे। शाबान के तेरहवें दिन लोग अपने परिवार के मृतक व्यक्तियों के नाम पर दही और मिठाइयों की थालियां सजाकर उन पर ‘फातिहा’ पढ़ते थे। आपस में मिठाई और उपहार का आदान-प्रदान होता था।

इस पर्व की दूसरी विशेषता घरों तथा मस्जिदों में दीपक जलाना तथा आतिशबाजी का खेल था। फीरोज तुगलक इस पर्व पर तीन दिनों तक आतिशबाजी करता था। शाही परिवार के साथ ही दिल्ली की जनता भी रोशनी तथा सजावट देखने के लिए सड़कों पर निकलती थी। राजमहलों, सरकारी इमारतों, बाग-बगीचों तथा बावलियों पर रोशनी की जाती थी और बादशाह एवं अमीर लोग गरीबों में पैसे बांटते थे।

रमजान महीने में मुसलमान दिन में निराहार रहकर ‘रोजे’ रखते थे। इस दौरान वे पानी की एक बूंद भी नहीं पीते थे। रमज़ान महीने का आखरी जुमा (शुक्रवार) जुमातुल विदा के रूप में मानाया जाता था।  ईद-उल-फितर तथा ईद-उल-जुहा मुसलमानों के महत्त्वपूर्ण त्यौहार थे। ईद-उल-फितर रमजान के महीने के अंत में आता था। ईद की घोषणा तोप दाग कर तथा बिगुल बजाकर की जाती थी।

ईद के दिन तथा उसके अगले दिन मुसलमान अपने मित्रों तथा सम्बन्धियों के गले लगकर उन्हें मुबारक देते थे। इस अवसर पर घरों में मिठाइयां बनाकर गरीबों में बांटी जाती थी एवं घर पर ईद की बधाई देने के लिए आने वालों को परोसी जाती थीं। अपने रिश्तेदारों एवं मित्रों के घर भी मिठाइयाँ भेजी जाती थीं। परिवार के बड़े सदस्य अपने से छोटों को ‘ईदी’ (कुछ रुपये एवं उपहार) दिया करते थे।

फिरोज तुगलक इस अवसर पर अपने दरबारियों, कर्मचारियों तथा गुलामों को कपड़े एवं मिठाई देता था। सुल्तन हाथी-घोड़ों के जुलूस के साथ मस्जिद में नमाज पढ़ने जाता था। सिकन्दर लोदी ने इस अवसर पर कुछ कैदियों को जेल से रिहा करने की प्रथा शुरू की थी। जहाँगीर और शाहजंहा ने ईद के दिन जरूरतमंदों और गरीबों में बांटने के लिए खैरात की बड़ी राशि निश्चित की थी। औरंगजेब भी इस पर्व को धूमधाम से मनाता था।

हिजरी कलैण्डर के शव्वाल मास की पह्ली तारीख को ईद उल-फ़ित्र मनाई जाती थी। हिजरी कलैण्डर के बारहवें महीने ‘जई-उल-हज्जा’ के दसवें दिन ईद-उल-अज़हा या बकरा ईद मनाई जाती थी। इसकी तैयारियां कई दिन पहले से होती थीं। बादशाह जुलूस एवं लाव-लश्कर के साथ ईदगाह जाकर ईद की नमाज पढ़ता था।

इसके बाद बादशाह की उपस्थिति में ऊँट की बलि दी जाती थी। तुर्की सुल्तान मुहम्मद बिन तुगलक और मुगल बादशाह जाहंगीर अपनी तलवार से बकरे की बलि किया करते थे। सम्पन्न लोग भी अपने घरों में बकरे या भेड़ की बलि देते थे। घरों में मिठाइयां, पूडियां आदि तैयार करते थे तथा अपने पूर्वजों के नाम का फातिहा पढ़ते थे।

समकालीन ग्रंथों से पता चलता है कि मध्य-कालीन मुस्लिम समाज में बड़ा-वफात’, आखिर-चहर और शंबा नामक पर्व भी प्रचलित थे। इन के अलावा योम अल जुमा अर्थात् प्रत्येक साधारण शुक्रवार भी ईद उल मोमिनीन अर्थात् इस्लाम के विश्वासियों का पर्व कह्लाता है। मुगल बादशाह अकबर के शासनकाल में नौरोज, मीना बाजार और आबे-पशम भी मनाए जाने लगे थे।

‘नौरोज’ फारसी वर्ष के पहले महीने ‘फरवारदीस’ के प्रथम दिवस को (20 या 21 मार्च) को मनाया जाता था। इस समारोह को मुख्यतः उच्च वर्गीय मुसलमान और अमीर मनाते थे। इसका समारोह उन्नीस दिनों तक चलता था। यही समय भारत में बंसत के जाने का और गर्मी के आने का होता था। इस पर्व की तैयारियां महीने पहले शुरू हो जाती थीं।

शाही राजधानी में बाजार, दीवान-ए-खास और दीवान-ए-आम जैसे स्थानों को किनखाब, मखमल, जरी के सुनहले कपड़ों से सजाया जाता था। मुख्य समारोह का आयोजन दीवान-ए-आम में होता था जहाँ बड़ी वैभवपूर्ण सजावट की जाती थी। अमीर लोग भी अपने महलों को सजाते थे। साधारण-जन अपने मकानों की सफाई करके बंदनवार आदि लटकाते थे।

बहुत से स्थानों पर नौरोज का मेला लगता था। इस त्यौहार पर जुआ खेलने पर से प्रतिबंध हट जाता था। सप्ताह में एक दिन समस्त प्रजा के लिए बादशाह का दरबार खोल दिया जाता था। मुगल बादशाहों ने ऐसे अवसर पर ‘निसार’ के नाम से नए सिक्के चलाने की प्रथा प्रारम्भ की जो उस अवसर पर गरीबों को बांटने तथा लोगों को नजराने के लिए काम आते थे। राज्याभिषेक के अवसर पर भी ऐसे सिक्के चलाये जाते थे।

इन उन्नीस दिनों में शराब भी खूब पी जाती थी और चारों ओर आनन्द एवं उत्साह रहता था। फारस के कई गायक, वादक और नर्तक बादशाह के दरबार में पहुँचते थे। बादशाह का चंदोबा बीच में लगाया जाता था जो हीरे-मोती और कीमती जवाहरात से सुसज्जित होता था। इसके चारों ओर अमीरों के चंदोबे होते थे। बादशाह तथा उसके अमीर एक दूसरे को मूल्यवान भेंट देते थे।

बादशाह का जन्मदिन भी बड़े उत्साह और आनन्द से मनाया जाता था। अकबर ने यह प्रथा प्रारम्भ की कि उसका जन्मदिन सूर्य-वर्ष और चन्द्र-वर्ष दोनों के अनुसार मनाया जाए। इस दिन नौरोज की तरह ही शाही महल और दरबार को सजाया जाता था। हाथी-घोड़ों को सजाकर बादशाह के समक्ष पेश किया जाता था। बादशाह अपने दरबारियों को साथ लेकर अपनी माता से आशीर्वाद लेने जाता था।

हुमायूँ ने इस अवसर पर बादशाह को मूल्यवान धातुओं तथा उपयोगी वस्तुओं से तौलने की प्रथा आरम्भ की। अकबर यह रस्म वर्ष में दो बार- सूर्य वर्ष तथा चन्द्र वर्ष के अनुसार करता था। यह प्रथा जहाँगीर तक तथा कुछ परिवर्तनों के साथ शाहजहाँ के समय तक चलती रही किन्तु औरंगजेब ने वर्ष में एक बार तौले जाने की पुरानी पद्धति अपनाई तथा 51 वर्ष की उम्र में इस प्रथा को समाप्त कर दिया।

औरंगजेब ने यह प्रथा अपने पुत्रों के लिए बीमारी के उपरान्त स्वस्थ होने पर, इस शर्त पर कायम रखी कि इसमें प्राप्त धन और वस्तुएं गरीबों में बांट दी जाएं। तौलने की रस्म शहजादे के दो वर्ष के होने पर शुरू होती थी, जबकि उसे केवल एक वस्तु से तौला जाता था। फिर वस्तुओं की संख्या प्रतिवर्ष बढ़ाई जाती थी, जो धीरे-धीरे सात-आठ तक पहुँच जाती थी किन्तु किसी भी स्थिति में यह बारह से अधिक नहीं होती थी।

ये वस्तुएं बाद में फकीरों तथा जरूरतमंद लोगों को बांट दी जाती थीं। इस समारोह के बाद बादशाह तख्त पर बैठकर लोगों से उपहार ग्रहण करता था। बादशाह इस अवसर पर कुछ लोगों के लिए मनसबदारी घोषित करता था तथा कुछ लोगों को महंगे उपहार तथा जागीरें देता था।

मीना बाजार की शुरूआत सर्वप्रथम हुमांयू ने की थी। अकबर इन दिनों को ‘खुशरोज’ कहता था। शाहजहाँ प्रत्येक समारोह के बाद इस प्रकार का बाजार लगवाया करता था, नौरोज के बाद इस बाजार का लगना अनिवार्य हो गया था। अकबर के समय इस बाजार की सबसे अधिक उन्नति हुई। पहले माह बाजार बादशाह के महल के अन्दर नावों पर लगाया जाता था किंतु बाद में हरम की बारादरी में लगने लगा।

इसमें अमीरों की स्त्रियां और पुत्रियां दुकानें लगाकर बैठती थीं। राजपूत स्त्रियां भी इसमें भाग लेती थीं। अधिकांश दुकानें बहुमूल्य कपड़ों और जेवरातों की होती थीं। बादशाह शहजादियों तथा हरम की बेगमों के साथ बाजार में आता था और दुकानों से दुगने-तिगुने दाम देकर सौदा खरीद लेता था। बादशाह जिस स्त्री से प्रसन्न हो जाता, उससे अधिक वस्तुएं खरीदकर आवश्यकता से अधिक धन प्रदान कर देता था।

 शाहजहाँ ने मुमताज महल को पहली बार मीना बाजार में ही देखा और पसंद किया था। औरतों के इस बाजार के बाद मर्दों का बाजार लगता था, जहाँ संसार के कई देशों के व्यापारी सामान बेचने आते थे।

वर्षा के आरम्भ में मुगल दरबार में होली की तरह एक पर्व मनाया जाता था। जहाँगीर इस पर्व को ‘आब-ए-पशम’ कहता था किन्तु इतिहासकार लाहोरी ने ‘पडशनामा’ में इसे ‘ईद-ए-गुलाबी’ कहा है। इस अवसर पर शाहजादे, प्रमुख अमीर एवं दरबारी एक-दूसरे पर गुलाब-जल छिड़कते थे। बादशाह को भेंट तथा उपहार प्रदान किए जाते थे।

उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि मध्ययुगीन भारतीय समाज में हिन्दू और मुसलमान अपने-अपने त्यौहार मनाते थे। मुस्लिम बादशाहों ने कुछ हिन्दू त्यौहारों को अपना लिया था तथा हिन्दू भी मुसलमानों के कुछ त्यौहारों में भाग लेते थे।

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