Tuesday, August 26, 2025
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मध्यकालीन सामाजिक व्यवहार एवं शिष्टाचार

वैदिक आर्यों के काल से ही भारत में सामाजिक व्यवहार एवं शिष्टाचार पर ध्यान दिया गया। मध्यकालीन सामाजिक व्यवहार एवं शिष्टाचार भी वैदिक काल की तरह उन्नत था।

वैदिक काल की तरह मध्यकालीन सामाजिक व्यवहार एवं शिष्टाचार में अब भी अतिथि सत्कार, बड़ों का अभिवादन, भूखे को भोजन, जीवदया, अहिंसा आदि कर्तव्य सम्मिलित थे। फिर भी वैदिक काल की अपेक्षा मध्यकालीन सामाजिक व्यवहार एवं शिष्टाचार में कुछ बड़े परिवर्तन भी आ गए थे। अब स्त्री घर में आए निकट सम्बन्ध वाले पुरुषों से तो प्रत्यक्ष संवाद करती थी किंतु अपरिचित पुरुष से सीधा संवाद नहीं करती थी। समाज पूरी तरह पुरुष-प्रधान था।

मध्य-कालीन भारतीय समाज में जाति-प्रथा बुरी तरह से हावी थी। इस कारण सामाजिक शिष्टाचार भी अपनी जाति तक सीमित होकर रह गया था। दूसरी जातियों के साथ सामाजिक व्यवहार प्रायः नहीं के बराबर था। घरों की स्त्रियां, घर में आए पुरुष अतिथियों से प्रायः बातचीत नहीं करती थीं।

गांव की चौपाल पर पुरुष तो परस्पर मिलते रहते थे, किंतु स्त्रियों को मित्र और सम्बन्धियों से मिलने की अनुमति नहीं थी। शहरों में भी पुरुष अपने कार्य के सिलसिले में एक-दूसरे से मिलते थे किंतु स्त्रियों को ऐसे अवसर बहुत कम उपलब्ध थे। स्त्रियों में पर्दा-प्रथा प्रचलित थी। जन्म, विवाह, शव-यात्रा आदि के समय या किसी की बीमारी पर स्त्रियों को घर में आए सगे-सम्बन्धियों से मिलने के अवसर प्राप्त होते थे।

मध्ययुग में अतिथियों के स्वागत के लिए अनेक औपचारिकताएं की जाती थीं। अतिथि के आगमन पर घर का मुखिया द्वार पर जाकर उसका स्वागत करता था। प्रवेश द्वार पर ही अतिथि अपने जूते उतार देता था। पुरुष-अतिथि एवं संत आदि के आगमन पर हिन्दुओं में चन्दन, पुष्प, चावल आदि युक्त जल से उसके पैर धोये जाते थे, फिर उसे बैठक में ले जाया जाता था।

अमीरों के घर में बैठक का कमरा सजाकर रखा जाता था जिसमें मूल्यवान दरियां और मखमल के गद्दे बिछे रहते थे। साधारण घरों में चटाई और चारपाई होती थी। शाही पुरुष अपने अतिथियों से दीवानखाने में मिलते थे, जहाँ प्रतिदिन दरबार लगता था। इस कक्ष को सुन्दर कालीन और बहुमूल्य पर्दों से सजाया जाता था। अतिथि अपनी सामाजिक स्थिति के अनुसार गृहस्थ के दाईं या बाईं ओर बैठता था। अपरिचितों को भी बैठक में आकर मिलने की अनुमति होती थी।

शाही लोगों से मिलने पर भेंट देने की परम्परा थी। किसी बड़े ओहदेदार व्यक्ति के पास छोटे आदमी का खाली हाथ जाना अशिष्टता मानी जाती थी। बादशाह एवं शहजादे के जन्मदिन, विजय अभियान एवं शिकार से सकुशल वापसी, नौरोज आदि अवसरों पर नजराना दिया जाता था, जिनमें से कुछ हिस्सा रखकर शेष लौटा दिया जाता था।

भारतीयों के आचार-व्यवहार की अनेक विदेशी यात्रियों ने प्रशंसा की है। परस्पर वार्तालाप में लोग मर्यादा का ध्यान रखते थे। अपने से बड़े या श्रेष्ठ व्यक्ति से बातचीत में सावधानी बरती जाती थी और उसके प्रति सम्मान के लिए अपना सिर ढका जाता था। बड़ों की उपस्थिति में लोग प्रायः खड़े ही रहते थे। शाही दरबार में उपस्थित होने के विस्तृत नियम थे। अमीर, उमराव एवं दरबारियों को प्रतिदिन सुल्तान के समक्ष उपस्थित होना पड़ता था।

 विशिष्ट दरबारियों तथा शहजादों के अतिरिक्त अन्य कोई व्यक्ति दरबार में नहीं बैठ सकता था। राज्य के उच्च अधिकारियों, विदेशों से आए राजदूतों तथा वित्तीय एवं सैन्य सहायता के लिए आए पदच्युत रजवाड़ों के शासकों को भी इस नियम से छूट नहीं दी गई थी। बादशाह के जाने से पूर्व किसी को दरबार छोड़़ने की अनुमति नहीं थी। बादशाह का नाम जो भी सुने, जहाँ भी सुने उससे अपेक्षा की जाती थी कि वह सम्मान के साथ अपना सिर झुकाए।

पत्रवाहक से शाही फरमान प्राप्त करने के लिए अमीरों, सेनापतियों और दरबारियों को थोड़ी दूर चलकर आना पड़ता था और फरमान लेते समय झुकना और उसे अपने सिर से लगाना पड़ता था। दरबार में भी उत्तम ढंग से शिष्टाचार का निर्वाह किया जाता था।

इस प्रकार मध्यकालीन सामाजिक व्यवहार एवं शिष्टाचार वैदिक काल की अपेक्षा अधिक जटिल हो गया था।

अभिावादन की परम्पराएं

मध्य-काल में अभिवादन की परम्पराएं बहुत कुछ आज की ही तरह थीं। हिन्दुओं में बराबरी वालों को राम-राम कहकर अभिवादन किया जाता था। उच्च पदस्थ व्यक्ति, सूबेदार, मंत्री या सेनापति का अभिवादन सिर से ऊपर हाथों को जोड़कर किया जाता था। छोटों के द्वारा बड़ों का अभिवादन उसके पैरों को छूकर किया जाता था। गुरु के अभिवादन में लेटकर दण्डवत् किया जाता था।

राजा का अभिवादन, ब्राह्मणों को छोड़़कर, शेष लोगों के द्वारा पैर छूकर या धरती को स्पर्श करके किया जाता था। ब्राह्मण राजा के अभिवादन में सिर से ऊपर अपने दोनों हाथ जोड़ लेते थे। विजयनगर दरबार में प्रत्येक व्यक्ति को नंगे पैर जाना होता था।

दरबार में जाने वाला व्यक्ति राजा के पांव चूमने के बाद हाथ बांधकर एक ओर खड़ा हो जाता था तथा तब तक धरती पर दृष्टि रखता था जब तक राजा उसे सम्बोधित नहीं करता था। गुरु नानक ने अपने अनुयाइयों को नमस्कार के उत्तर में ‘सत-कर्तार’ कहने की सलाह दी थी।

मुसलमान अभिवादन के लिए ‘सलाम’ अथवा ‘अस्सलाम वालेकुम’ कहते थे और प्रत्युत्तर में ‘वालेकुम अस्सलाम’ कहते थे। बराबरी के लोगों एवं मित्रों का अभिवादन करते समय दांये हाथ को मस्तक के सामने तक उठाते थे। एवं तीन बार गले लगाकर एक-दूसरे का हाथ पकड़ते थे।

वरिष्ठ एवं श्रेष्ठ जन के अभिवादन में आगे झुककर दायें हाथ को मस्तक के पास ले जाते हैं। सुल्तान के अभिवादन के लिए भी नियम बनाए गए थे। इसके लिए सामान्य तरीका ‘जमींबोसी’ (धरती चूमना) या ‘पांवबोसी’ (पैर चूमना) है। बलबन पांवबोसी का तरीका अधिक पसन्द करता था।

अबुल फजल ने बादशाह के प्रति सामूहिक अभिवादन के रूप में ‘कोर्निस’ और ‘तसलीम’ का उल्लेख किया है। कोर्निस में दायें हाथ की हथेली को ललाट पर रखकर आगे की ओर सिर झुकाया जाता था। तसलीम पेश करते समय दायें हाथ को जमीन पर रखना होता था, जिसमें हथेली ऊपर की ओर रहती थी। फिर हथेली को छाती एवं माथे से लगाया जाता था।

अकबर ने आदेश जारी किया कि तसलीम की यह क्रिया एक साथ तीन बार की जानी चाहिए। उसने अभिवादन का दूसरा तरीका सिजदा अर्थात् बादशाह के सामने दण्डवत लेटना भी शुरू कराया था किन्तु कट्टरपंथी मुसलमानों ने इसे व्यक्ति-पूजा मानकर इस तरीके पर आपत्ति की। अतः दीवान-ए-आम में इसकी मनाही हो गई फिर भी निजी कक्ष में इसकी अनुमति थी।

शाहजहाँ के शासन काल में इस तरीके को समाप्त कर दिया गया और इसकी जगह जमींबोसी का तरीका अपनाया गया। बाद में इसे भी स्थगित कर तसलीम के पुराने ढंग को संशोधित करके अपनाया गया। नए तरीके में कम से कम चार बार तसलीम करनी होती थी। औरंगजेब ने इस प्रकार के समस्त अभिवादनों को मूर्ति-पूजा का परिचायक मानते हुए इन्हें समाप्त कर दिया और अभिवादन के लिए केवल ‘अस्सलाम वालेकुम’ को मान्यता दी।

इस प्रकार मध्यकालीन सामाजिक व्यवहार एवं शिष्टाचार में अभिवादन का बड़ा महत्व था।

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता

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