Thursday, October 30, 2025
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शाहजहाँ का शासन प्रबन्ध

शाहजहाँ का शासन प्रबन्ध मुस्लिम इतिहासकारों की दृष्टि में शाहजहाँ का शासन प्रबन्ध मध्यकालीन इतिहास का स्वर्णयुग था जबकि हिन्दू इतिहासकार उसके शासन प्रबन्ध को मजहबी कट्टरता से परिपूर्ण मानते हैं।

शाहजहाँ का शासन प्रबन्ध

शाहजहाँ ने बादशाह बनने के पहले से ही अपनी योग्यता का परिचय देकर ख्याति अर्जित कर ली थी। वह अपने आचरण तथा व्यवहार में अपनी प्रतिष्ठा का ध्यान रखता था। वह सोच-समझकर बोलता था तथा कर्त्तव्य को नहीं भूलता था। जब तक उसका स्वास्थय अच्छा रहा, तब तक वह राज्य के समस्त कार्यों को स्वयं देखता रहा।

किसी भी अधिकारी या शाहजादे का साहस नहीं था कि वह बादशाह की आज्ञा की अवहेलना करे। जब उसका स्वास्थ्य बिगड़ गया तब उसने शासन का कार्य अपने योग्यतम पुत्र दारा के हाथों में सौंप दिया। इस प्रकार उसके शासन काल को दो हिस्सों में बांटा जा सकता है- (1) जब तक शाहजहाँ का स्वास्थ्य अच्छा था, तब तक वह स्वयं शासन करता रहा, (2) जब शाहजहाँ बीमार पड़ गया, केन्द्रीय शासन पूर्णतः दारा के हाथों में चला गया।

शासन का मूल ढांचा

शाहजहाँ की शासन व्यवस्था का ढाँचा मूलतः वही था जो अकबर के शासन काल में स्थापित हुआ था। मनसबदारी प्रथा पूर्ववत् बनी रही परन्तु अकबर द्वारा हटाई गई जागीर प्रथा को शाहजहाँ ने फिर से लागू कर दिया था। शाहजहाँ का दण्ड विधान बड़ा कठोर था। अपराधियों को प्रायः अंग-भंग का दण्ड दिया जाता था।

शाहजहाँ के शासन प्रबन्ध के सम्बन्ध में खाफीखाँ ने लिखा है- ‘तैमूर के वंशजों में कोई भी ऐसा शासक नहीं हुआ जो संगठन के कार्य में, कोष की वृद्धि करने में, देश की व्यवस्था करने में, अफसरों तथा सैनिकों की योग्यता को मान्यता देने में शाहजहाँ की बराबरी कर सके।’

उसके शासन काल में सल्तनत में शान्ति बनी रही। किसानों की भलाई का ध्यान रखा जाता था। अत्याचारी सूबेदारों को जनता द्वारा शिकायत करने पर हटा दिया जाता था। यदि कर वसूल करने वाले प्रजा के साथ क्रूरता का व्यवहार करते थे तो उन्हें कठोर दण्ड दिया जाता था।

जन साधारण की दशा

शाहजहाँ के शासन काल में बनवाई गई इमारतों से अनुमान होता है कि सल्तनत की प्रजा धन-सम्पन्न तथा सुखी रही होगी परन्तु प्रजा की स्थिति सन्तोषजनक नहीं थी। विदेशी यात्रियों के विवरण के अनुसार प्रान्तीय गवर्नर प्रजा के साथ बड़ी क्रूरता का व्यवहार करते थे।

किसानों की दशा

अकबर के शासन काल में उपज का केवल एक तिहाई भाग लगान के रूप में वसूल किया जाता था किंतु शाहजहाँ के काल में उपज का आधा हिस्सा सरकारी लगान के रूप में लिया जाने लगा। इसके साथ ही कृषि की उन्नति तथा उपज बढ़ाने का प्रयत्न किया गया।

कृषि कार्य से विमुख रहने वाले तथा काम से बचने वाले किसानों को कोड़े लगाये जाते थे। यदि अकाल पड़ने से कृषि नष्ट हो जाती थी तो सरकार की ओर से किसानों की सहायता की जाती थी। शाहजहाँ के शासन काल में किसानों की दशा उतनी अच्छी नहीं थी जितनी अकबर के शासन काल में थी।

शासन कार्य का बंटवारा

सैद्धांतिक रूप से शाहजहाँ का शासन स्वेच्छाचारी तथा निरंकुश था तथा शासन की समस्त शक्तियाँ बादशाह के नियंत्रण में थी परन्तु व्यावहारिक रूप में अधिकारियों की एक लम्बी चौड़ी फौज सल्तनत के विभिन्न भागों का शासन चलाती थी। शाहजहाँ ने सल्तनत के विभिन्न भागों का प्रबन्ध अपने पुत्रों को सौंप दिया था, ताकि वहाँ शान्ति एवं व्यवस्था बनी रहे।

उसने शुजा को बंगाल तथा बिहार का, औरंगजेब को दक्षिण का और मुराद को मालवा तथा गुजरात का गवर्नर बनाया। दारा को वह अपने पास रखता था जो केन्द्रीय शासन चलाने में बादशाह की सहायता करता था। तख्त की कामना रखने वाले शहजादों को दूरस्थ प्रान्तों का सूबेदार बनाना शाहजहाँ की बहुत बड़ी भूल थी।

राजधानी से दूर तथा बादशाह के नियंत्रण से परे रहकर शहजादों को अपनी शक्ति तथा महत्वाकांक्षाएं विस्तारित करने का अवसर मिल गया। अन्त में इन शहजादों ने शाहजहाँ के जीते जी ही उसकी सल्तनत पर कब्जा कर लिया।

धार्मिक असहिष्णुता की नीति

शाहजहाँ ने अपने पितामह अकबर की उदार तथा धार्मिक सहिष्णुता की नीति को त्याग दिया। जहाँगीर के शासन काल में जो धार्मिक कट्टरता आरम्भ हुई थी वह शाहजहाँ के काल में और आगे बढ़ी। उसने कई ऐसे कार्य किये जो धर्मान्धता की श्रेणी में आते थे।

1614 ई. में उसने आदेश दिया कि जहाँगीर के शासन काल में जिन मन्दिरों का निर्माण आरम्भ किया गया था, उन्हें गिरा दिया जाये। इस आदेश पर केवल बनारस में ही 76 मन्दिरों को तोड़ा गया। शाहजहाँ की आज्ञा से बुन्देलखण्ड के हिन्दू मन्दिर तुड़वाये गये और जुझारसिंह के पुत्रों को मुसलमान बनाया गया।

शाहजहाँ की धार्मिक कट्टरता के और भी बहुत से उदारहण हैं किंतु बाद में शाहजहाँ के धार्मिक विचार बदल गये और उसमें उदारता आ गई। उसने मन्दिरों को तोड़ने और हिन्दुओं को मुसलमान बनाने की नीति का त्याग कर दिया। शाहजहाँ के राज्य में कई हिन्दू बड़े पदों पर आसीन थे और उन्हें दरबार में सम्मान प्राप्त था।

यदि शाहजहाँ इस नीति का अनुसरण नहीं करता तो उसे हिन्दू राजाओं का समर्थन प्राप्त नहीं हुआ होता। अनेक हिन्दू राजाओं ने सल्तनत की सुरक्षा में विपुल योग दिया और अपने प्राणों की बाजी लगा दी। शाहजहाँ के पुत्र दारा में धार्मिक सहिष्णुता का जो भाव था उससे भी अनुमान लगाया जा सकता है कि शाहजहाँ ने अपने शासन काल की धार्मिक कट्टरता को बाद में त्याग दिया था।

यही कारण है कि शाहजहाँ के शासन में संस्कृत साहित्य की उन्नति हुई। आसफखाँ तथा दारा, संस्कृत साहित्य एवं ग्रन्थों के आश्रयदाता थे। राजदरबार में हिन्दी तथा संस्कृत के कवियों का भी आदर होता था। ग्वालियर के रहने वाले एवं ब्रजभाषा के कवि सुन्दरदास, शाहजहाँ के दरबार में रहते थे।

हिन्दी के कवि चिन्तामणि को भी शाहजहाँ का संरक्षण प्राप्त था। निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि शाहजहाँ में धार्मिक सहिष्णुता एवं धार्मिक कट्टरता दोनों के बीज विद्यमान थे जिनमें से धार्मिक सहिष्णुता का गुण दारा ने अपना लिया और धार्मिक कट्टरता का गुण औरंगजेब ने अपना लिया।

भवन निर्माण

शाहजहाँ के काल में बने भवनों में अलंकरण की प्रचुरता है। इनमें मूल्यवान् रत्नों और पत्थरों का प्रचुर उपयोग हुआ है। आगरा के दुर्ग में बलुवा पत्थर के जो राजभवन बने हुए थे उन्हें शाहजहाँ ने गिरवाकर पुनः संगमरमर से बनवाया। शाहजहाँ की सबसे अधिक शानदार इमारत ताजमहल है जो वास्तव में एक मकबरा है।

इसमें शाहजहाँ तथा मुमताज महल की कब्रें स्थित हैं। ताजमहल आगरा में यमुना नदी के तट पर स्थित है। इसका निर्माण शाहजहाँ ने मुमताज महल की स्मृति में, उसके मरने के बाद 1632 ई. में आरम्भ किया था। ताजमहल 1654 ई. में बनकर पूरा हुआ। इसे बनवाने में बाईस वर्ष का समय और तीस करोड़ रुपये लगे। यह श्वेत संगमरमर से निर्मित है। इसकी गणना विश्व के सुंदरतम भवनों में होती है।

ताज महल की प्रशंसा करते हुए एल्फिन्स्टन ने लिखा है- ‘सामग्री की सम्पन्नता, चित्र के वैचित्र्य तथा प्रभाव में इसकी समता करने वाला यूरोप अथवा एशिया में दूसरा मकबरा नहीं है। आगरा में शाहजहाँ की बनवाई इमारतों में दीवाने-आम, दीवाने-खास, समन-बुर्ज, मोती मस्जिद आदि मुख्य हैं।

मोती मस्जिद की प्रशंसा करते हुए सन्त निहालसिंह ने लिखा है- ‘इसकी डिजाइन ऐसी कारीगरी द्वारा बनाई गई थी जिसमें यह कौशल था कि यह आत्मा के भौतिक बन्धनों से निकल जाने के संघर्ष को प्रस्तर में प्रदर्शित कर दे।’

दिल्ली की इमारतों में दीवाने-खास सर्वाधिक अलंकृत है। शाहजहाँ की बनवाई हुई दिल्ली की इमारतों में जामा-मस्जिद सबसे विशाल है।

दिल्ली के दुर्ग के भीतर की इमारतें की प्रशंसा करते हुए डॉ. ईश्वरी प्रसाद ने लिखा है- ‘दिल्ली दुर्ग के भीतर की इमारतें अत्यधिक अलंकृत थीं और चीन की कला के लिए स्पर्धा की चीज बन गई थीं।’

शाहजहानाबाद की अली मस्जिद तथा शाहजहानाबाद का दुर्ग भी शाहजहाँ की श्रेष्ठ कृतियों में से है। शाहजहाँ का तख्ते ताऊस अर्थात् मयूर सिंहासन अपने समय की अद्भुत रचना है। यह सिंहासन सात वर्षों में लगभग चार करोड़ रुपयों से बना था। यह सिंहासन मयूरों के ऊपर खड़़ा था और रत्नों से जगमगाता रहता था।

शाहजहाँ की इस अमूल्य कृति को नादिरशाह फारस उठा ले गया था। शाहजहाँ के दलबादल नामक शिविर से भी उसकी शान का पता लगता है। उसे खड़ा करने में कई हजार आदमी और हाथियों की आवश्यकता पड़ती थी और लगभग दो महिने का समय लगता था। शाहजहाँ ने दिल्ली, लाहौर तथा कश्मीर में उपवन बनवाये थे जो उसके काल के मुगलिया वैभव को प्रदर्शित करते थे।

अनेक इतिहासकारों ने शाहजहाँ के शासन काल को स्वर्णयुग की संज्ञा दी है परन्तु अन्य कई विद्वान शाहजहाँ के शासन काल को स्वर्णयुग नहीं मानते। उनके अनुसार शाहजहाँ के काल का न तो आरम्भ अच्छा था, न मध्य अच्छा था और न अन्त ही अच्छा था।

क्या शाहजहाँ का शासन स्वर्णकाल था?

जो विद्वान शाहजहाँ के शासन काल को स्वर्ण युग मानते हैं वे अपने मत के समर्थन में निम्नलिखित तर्क देते हैं-

(1.) शाहजहाँ का शासन काल मुगल साम्राज्य के चूड़ान्त विकास का काल था जिसके अंतर्गत विभिन्न क्षेत्रों में उन्नति हुई।

(2.) शाहजहाँ ने अपने पूर्वजों से प्राप्त सल्तनत को न केवल सुरक्षित रखा अपितु उसमें वृद्धि भी की।

(3.) शाहजहाँ का शासन काल पूर्ण शान्ति तथा सुव्यवस्था का काल था। उसके शासन काल में दो-चार विद्रोह हुए परन्तु ये विद्रोह बादशाह के अत्याचार अथवा कुशासन के विरुद्ध नहीं होकर महत्त्वाकांक्षी व्यक्तियों की स्वार्थ सिद्धि के उद्देश्य से किये गये थे। बादशाह इन विद्रोहों के दमन करने में रूप से सफल रहा।

(4.) शाहजहाँ अपने शासन को सुचारू रूप से चलाने में इतना सक्रिय तथा संलग्न रहता था कि उत्तराधिकार के युद्ध के पूर्व किसी को भी उसकी शक्ति को चुनौती देने का साहस नहीं हुआ। उसकी रुग्णावस्था के कारण ही उसके शासन काल के अन्तिम भाग में विशृंखलता आरम्भ हुई।

(5.) शाहजहाँ का दण्ड विधान कठोर था परन्तु उस काल में अमीरों, सरकारी कर्मचारियों तथा प्रांतपतियों के षड्यन्त्रों, विद्रोहों तथा अत्याचारों को रोकने के लिए कठोर दण्ड विधान की ही आवश्यकता थी।

(6.) शाहजहाँ न्यायप्रिय बादशाह था। अपराधियों को दण्ड देने में संकोच नहीं करता था। कर्त्तव्य भ्रष्ट तथा अत्याचारी अधिकारियों को वह दण्ड दिया करता था, ताकि प्रजा के साथ किसी प्रकार का अन्याय न हो।

(7.) शाहजहाँ का शासन काल समृद्धि का काल था। यही कारण है कि इस अवधि में अनेक भव्य भवनों का निर्माण हो सका। उसके द्वारा निर्मित ताजमहल विश्व के सात आश्चर्यों में गिना जाता है। मोती मस्जिद, अली मस्जिद तथा शाजहानाबाद का दुर्ग आज भी शाहजहाँ के काल की गौरव गाथा कह रहे हैं। ये रचनाएं शाहजहाँ के शासन काल को स्वर्ण युग सिद्ध करने के लिए पर्याप्त हैं।

(8.) दिल्ली, लाहौर तथा काश्मीर में इस काल में जो मनोरम उपवन बनाये गये वे भी उस काल के गौरव के द्योतक हैं।

(9.) शाहजहाँ का दरबार शानो-शौकत का जीता जागता नमूना था। वह अपने दरबार की भव्यता को बनाये रखने के लिये सदैव प्रयत्न करता रहता था। शाहजहाँ के काल में निर्मित तख्ते-ताऊस अद्भुत सिंहासन था जिसमें जड़े हुए रत्नों की ज्योति से विदेशी यात्रियों की आँखे चौंधिया जाती थीं।

(10.) उसके काल में कृषि तथा व्यापार की उन्नति से देश धन-धान्य से पूर्ण हो गया था। उसकी प्रजा ने सल्तनत की प्रतिष्ठा तथा गौरव को बढ़ाने में पूरा सहयोग दिया। भव्य-भवनों के निर्माण से हजारों श्रमिकों एवं कारीगरों को रोजगार मिल सका।

(11.) शाहजहाँ के शासन काल में साहित्य तथा कला की विशेष उन्नति हुई। डॉ. बनारसी प्रसाद सक्सेना ने लिखा है- ‘देश में शान्ति स्थापित हो जाने और बादशाह की व्यक्तिगत दिलचस्पी के फलस्वरूप साहित्य तथा कला के विकास को प्रोत्साहन मिला। दूर-दूर से कवि, दार्शनिक, विद्वान तथा कलाकार उसके दरबार में आश्रय पाने आते थे और प्रतिभा को बहुत कम निराश होना पड़ा था।’

(12.) शाहजहाँ के शासनकाल में फारसी, संस्कृत तथा हिन्दी आदि भाषाओं में उच्च कोटि के गद्य तथा पद्य ग्रन्थों की रचना हुई। डॉ. सक्सेना के अनुसार शाहजहाँ के शासनकाल में ही वह काल आता है जो हिन्दी साहित्य तथा भाषा का सबसे अधिक गौरवपूर्ण काल माना जाता है।

(13.) इस काल में संगीत तथा नृत्यकला की बड़ी उन्नति हुई। शाहजहाँ स्वयं अच्छा गवैया था। जे. एन. सरकार ने उसके संगीत की प्रशंसा करते हुए लिखा है- ‘बहुत से शुद्ध आत्मा की सूफी और सन्त, जो संध्याकाल की गोष्ठियों में आते थे, अपने हृदयों को सांसारिकता से हटाकर शाहजहाँ के संगीत को सुनकर आनन्द विभोर हो जाते थे और अपने को भूल जाते थे।’

(14.) इस काल में चित्रकला की बड़ी उन्नति हुई। स्मिथ ने लिखा है- ‘शाहजहाँ के शासन काल में चित्रकला चरमोन्नति को प्राप्त हो गई।’

उपर्युक्त विवरण से यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि शाहजहाँ का काल शान्ति तथा सुव्यवस्था और मुगल सल्तनत की चरमोन्नति का काल था। अतः शाहजहाँ के काल को स्वर्णयुग मानने में कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिये।

क्या शाहजहाँ का शासन स्वर्ण काल नहीं था?

जो इतिहासकार शाहजहाँ के शासन काल को स्वर्ण युग नहीं मानते हैं वे अपने मत के समर्थन में निम्नलिखित तर्क देते हैं-

(1.) शाहजहाँ ने अपने पिता से विद्रोह करके तथा अपने भाई-भतीजों एवं अन्य निकट सम्बन्धियों की हत्या करके तख्त प्राप्त किया था। उसके इस घृणित कार्य से मुगलों की प्रतिष्ठा को भारी आघात लगा तथा मुगल राजनीति में ऐसी घृणित तथा विनाशकारी परम्परा का सूत्रपात हुआ जो आगे चलकर मुगल सल्तनत के लिए प्राण घातक सिद्ध हुई।

(2.) शाहजहाँ ने अपने शासन के प्रारम्भ में जिस अनुदारता तथा असहिष्णुता की नीति का अनुसरण किया, उसके परिणाम मुगल सल्तनत के लिए बड़े घातक सिद्ध हुए। अकबर की उदार नीति को त्याग देने से हिन्दू जनता, राज्य एवं बादशाह से उदासीन होने लगी। औरंगजेब के शासन काल में जब धार्मिक असहिष्णुता, चरम पर पहुँच गई तब मुगल सल्तनत पतनोन्मुख हो गई।

(3.) शाहजहाँ के शासन काल का मध्य भी अच्छा नहीं था। उसके शासन काल में मुगल सल्तनत अपने चूड़ान्त विकास को पहुँच गई। इस चरमोन्नति में ही उसके विनाश का बीजारोपण हो गया था।

(4.) आरम्भ में शाहजहाँ ने बड़ी सतर्कता तथा सावधानी से शासन किया परन्तु शासन काल के मध्य भाग में उसमें विलासिता तथा अकर्मण्यता आ गई। मुमताज महल के मरने के बाद उसकी विलासिता और वासनाएँ अनियंत्रित हो गईं। इस कारण सल्तनत को भारी आघात लगा। प्रान्तीय गवर्नरों को अपनी शक्ति बढ़ाने और षड्यन्त्र रचने का अवसर मिल गया और मुगल सल्तनत का बिखराव होने लगा।

(5.) शाहजहाँ की सीमा नीति के परिणाम अच्छे नहीं हुए। उसकी मध्य एशिया विजय की नीति पूरी तरह अव्यावहारिक तथा असफल सिद्ध हुई। इस कारण मुगल राज्य को जन तथा धन की बड़ी क्षति हुई।

(6.) शाहजहाँ कन्दहार को मुगल सल्तनत के अधीन नहीं रख सका। इस कारण मुगल सल्तनत की प्रतिष्ठा को धक्का लगा।

(7.) यद्यपि शाहजहाँ दक्षिण भारत में अपनी सल्तनत का विस्तार करने में सफल हुआ परन्तु दक्षिण नीति के अन्तिम परिणाम घातक सिद्ध हुए। विद्वानों की राय है कि मुगल सल्तनत की समाधि दक्षिण भारत के युद्धों में तैयार हुई।

(8.) शाहजहाँ के शासन काल का सम्पूर्ण गौरव उसके द्वारा निर्माण कराये गये भव्य भवनों पर आधारित है। इन भव्य भवनों के निर्माण में अपार सम्पत्ति व्यय की गई थी। यह सम्पत्ति अमीरों के धन को छीनकर, लूटमार करके, प्रजा पर अत्यधिक कर लगाकर संग्रहीत की गई थी। मजदूरों से प्रायः जबरदस्ती काम लिया जाता था।

(9.) बादशाह का राजसी वैभव चरम पर था किंतु प्रजा की दशा खराब थी। शाहजहाँ के शासन में दण्ड विधान कठोर था। विदेशी यात्रियों के विवरण से पता लगता है कि सड़कें सुरक्षित नहीं थीं। किसानों से उनकी उपज का आधा भाग ले लिया जाता था। लगान बड़ी कठोरता से वसूल किया जाता था। 

(10.) शाहजहाँ के शासन काल का अन्त भी अच्छा नहीं था। उसकी बीमारी के कारण सल्तनत में बिखराव आने लगा था। बादशाह की शक्ति के क्षय के साथ-साथ उसका नियंत्रण तथा अनुशासन भी ढीला पड़ने लगा। वह स्वयं शासन कार्य की उपेक्षा करने लगा जिससे शासन की वास्तविक शक्तियाँ दूसरे व्यक्तियों के हाथों में खिसकने लगी। जहाँआरा

(11.) शाहजहाँ अपने परिवार को संगठित तथा नियंत्रित नहीं रख सका। दारा तथा जहाँआरा पर उसका विशेष स्नेह होनेे से उसके अन्य पुत्र तथा पुत्रियाँ उससे अप्रसन्न थे। जहाँआरा दारा का और अन्य शहजादियाँ अपने अन्य भाइयों का समर्थन करने लगीं जिससे शाहजहाँ के परिवार में नित्य नये षड्यन्त्र तथा कुचक्र रचे जाने लगे। अंत में ये षड्यंत्र बादशाह तथा सल्तनत के लिएघातक सिद्ध हुए। शाहजहाँ के जीवन काल में ही शहजादों में उत्तराधिकार के लिए युद्ध आरम्भ हो गया इसका उत्तरदायित्व शाहजहाँ पर ही था। शाहजहाँ को अपने जीवन के अंतिम चार वर्ष बंदी के रूप में बिताने पड़े। उसे अनेक यातनाएँ तथा अपमान सहन करने पड़े।

(12.) उत्तराधिकार के युद्ध के कारण शाहजहाँ के जीवनकाल में ही उसके पुत्रों तथा पौत्रों की नृशंसतापूर्वक हत्याएँ हुईं। इस युद्ध के कारण औरंगजेब जैसा धर्मान्ध व्यक्ति मुगल सल्तनत का बादशाह बन गया, जिसकी दुर्नीति के फलस्वरूप जनता त्राहि-त्राहि करने लगी और मुगल सल्तनत पतनोन्मुख हो गई।

उपर्युक्त विवरण के आधार पर कहा जा सकता है कि शाहजहाँ के शासन काल का आदि, मध्य तथा अन्त कोई भी भाग सराहना के योग्य नहीं हैं। अतः उसके काल को स्वर्ण युग की संज्ञा देना ठीक नहीं हैं। शाहजहाँ के शासन काल के आलोचकों के कुछ विचार निम्नांकित हैं-

शाहजहाँ पर लगने वाले आरोपों का खण्डन

शाहजहाँ पर लगने वाले विभिन्न आरोपों का खण्डन करने के लिये विभिन्न विद्वान शाहजहाँ के समर्थन में निम्नलिखित तर्क प्रस्तुत करते हैं-

(1.) यह सत्य है कि शाहजहाँ ने अपने पिता के विरुद्ध विद्रोह करके और अपने भाई-भतीजों की हत्या करके तख्त प्राप्त किया था परन्तु उन दिनों की राजनीति में यह कोई नई बात नहीं थी। जहाँगीर पहले ही इस परम्परा की नींव रख चुका था।

(2.) शाहजहाँ अपने भाइयों में सर्वाधिक योग्य तथा महात्वाकंाक्षी था। उसके विरुद्ध निरंतर षड्यन्त्र चल रहे थे और उसके विरुद्ध बादशाह के कान भरे जा रहे थे इसलिये शाहजहाँ का विद्रोह करना स्वाभाविक था।

(3.) अपने समस्त प्रतिद्वन्द्वियों को सदैव के लिए अपने मार्ग से हटा देना शाहजहाँ की व्यावहारिक बुद्धि का परिचायक है। नैतिक दृष्टि से उसका यह कार्य भले ही निन्दनीय था परन्तु राजनीतिक दृष्टि से ठीक था।

(4.) शाहजहाँ स्वभाव से क्रूर अथवा रक्त पिपासु नहीं था। उसने केवल अपने मार्ग की बाधाएं हटाने तथा तख्त को निरापद बनाने के लिए ऐसा किया। नूरजहाँ के साथ उसने जो अच्छा व्यवहार किया वह सराहनीय है। उसने कभी भी निरर्थक हत्याकाण्ड नहीं कराया।

(5.) शाहजहाँ को अपने परिवार के सदस्यों से बड़ा स्नेह था। उसने अपने समस्त पुत्रों को समान रूप से योग्यता प्रदर्शित करने का अवसर दिया।

(6.) मुस्लिम राजनीति में उत्तराधिकार के नियम के अभाव के कारण शाहजहाँ के समस्त पुत्रों का तख्त प्राप्त करने के लिए प्रयत्न करना स्वाभाविक तथा अनिवार्य था। इसका उत्तरदायित्व शाहजहाँ पर नहीं डाला जा सकता।

(7.) शाहजहाँ ने उत्तराधिकार के युद्ध को रोकने के लिये हर संभव प्रयत्न किया। दारा तथा जहाँआरा पर शाहजहाँ का विशेष स्नेह हो जाना स्वाभाविक था क्योंकि वे दोनों उसकी सेवा करते थे और उसकी आज्ञा का पालन करते थे।

(8.) शाहजहाँ की मध्य एशिया नीति सफल नहीं रही परन्तु इस अभियान से मध्य एशिया में मुगलों का आतंक छा गया।

(9.) यद्यपि कन्दहार शाहजहाँ के हाथ से निकल गया परन्तु इससे मुगल साम्राज्य को विशेष क्षति नहीं हुई। इसकी पूर्ति दक्षिण विजय से हो गई थी।

(10.) शाहजहाँ पर धर्मान्धता का आरोप लगाना गलत है क्योंकि समस्त हिन्दू राजा अंत तक शाहजहाँ के पक्ष में बने रहे और सल्तनत की सुरक्षा करते रहे। शाहजहाँ का सबसे प्रिय शहजादा दारा, अत्यंत उदार तथा धर्म सहिष्णु था। ऐसी स्थिति में शाहजहाँ धर्मान्ध कैसे हो सकता था!

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता

मुख्य आलेख – शाहजहाँ

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शाहजहाँ का शासन प्रबन्ध

उत्तराधिकार का युद्ध

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