Saturday, July 27, 2024
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अध्याय – 28 (ब) : शाहजहाँ (1628-1658 ई.)

शाहजहाँ के पुत्रों में उत्तराधिकार का युद्ध

सितम्बर 1657 में शाहजहाँ बीमार पड़ गया। वह 65 वर्ष का हो चुका था। वृद्धावस्था के कारण उसकी बीमारी में सुधार नहीं हुआ और उसकी दशा बिगड़ती चली गई। बीमारी के कारण शाहजहाँ ने दरबार में आना बंद कर दिया। इस कारण उसके बारे में तरह-तरह की अफवाहें फैलने लगीं और शाहजादों में तख्त प्राप्त करने की बेचैनी बढ़ गई। अमीरों का दल अपने-अपने उम्मीदवार को आगे बढ़ाने की जुगत करने लगा। हिन्दू चाहते थे कि कोई उदार एवं सहिष्णु प्रवृत्ति का शहजादा तख्त पर बैठे जबकि कट्टर पन्थी मुसलमान अमीर, कट्टर प्रवृत्ति के शहजादे को तख्त पर देखना चाहते थे। जनता की बेचैनी दूर करने के लिये बादशाह दिन में कई बार ‘झरोखा दर्शन’ देने लगा और दरबार का आयोजन करके दारा को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया। शाहजहाँ ने समस्त अमीरों को आज्ञा दी कि वे शहजादे दारा की आज्ञा का पालन करें। शाहजहाँ के इस कदम से शहजादों की बेचैनी और बढ़ गई।

शाहजहाँ के चार पुत्र थे- दारा, शुजा, औरंगजेब तथा मुराद। इनमें दारा सबसे बड़ा था। वह योग्य, उदार, विनम्र तथा दयालु स्वभाव का स्वामी था। शाहजहाँ उसे सर्वाधिक चाहता था तथा उसे अपने पास ही रखता था। राजधानी में रहने के कारण दारा, साम्राज्य के विभिन्न क्षेत्र की समस्याओं से भी परिचित था। उसे जितना अधिक प्रशासकीय अनुभव था, और किसी शहजादे को नहीं था। दारा प्रजा में भी लोकप्रिय था। हिन्दु प्रजा को दारा पर पूरा विश्वास था। दारा की कमजोरी यह थी कि उसे दूसरे शहजादों की भांति युद्ध लड़ने का व्यापक अनुभव नहीं था।

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शाहजहाँ का दूसरा पुत्र शाहशुजा बंगाल का शासक था। वह बुद्धिमान, साहसी तथा कुशल सैनिक था परन्तु विलासी तथा अयोग्य था। उसमें इतने विशाल मुगल साम्राज्य को सँभालने की योग्यता नहीं थी। शाहजहाँ का तीसरा पुत्र औरंगजेब कट्टर सुन्नी मुसलमान था। वह अत्यंत असहिष्णु तथा संकीर्ण विचारों का स्वामी था इस कारण उसे कट्टर मुसलमानों का समर्थन प्राप्त हो सकता था। औरंगजेब को प्रान्तीय शासन तथा युद्धों का अच्छा अनुभव था। धूर्त तथा कुटिल होने के कारण वह अपनी पराजय को विजय में बदलना जानता था। इस समय वह दक्षिण का सूबेदार था। शाहजहाँ का चौथा तथा सबसे छोटा पुत्र मुराद गुजरात तथा मालवा का शासक था। वह भावुक तथा जल्दबाज था। विलासी प्रवृत्ति का होने से उसमें दूरदृष्टि का अभाव था। वह जिद्दी तथा झगड़ालू प्रवृति का व्यक्ति था। उसमें प्रशासकीय प्रतिभा और सैनिक प्रतिभा की कमी होने पर भी बादशाह बनने की अत्यधिक इच्छा थी।

शाहजहाँ की लड़कियाँ भी उत्तराधिकार के इस युद्ध में भाग लेने लगीं। जहाँआरा दारा का, रोशनआरा औरंगजेब का और गौहरआरा मुराद का पक्ष ले रही थी। इस कारण राजधानी की समस्त खबरें गुप्त रूप से इन शहजादों के पास पहुँचती थीं। इनमें से कई खबरें अतिरंजित होती थीं। शाहजहाँ तथा दारा ने निराधार खबरों को रोकने का प्रयत्न किया परन्तु इस कार्य में सफलता नहीं मिली। तब बादशाह ने अपनी मुहर तथा अपने हस्ताक्षर से शाहजादों के पास पत्र भेजना आरम्भ किया और उन्हें विश्वास दिलाने का प्रयत्न किया कि वह जीवित तथा स्वस्थ है परन्तु कोई भी शाहजादा इन पत्रों पर विश्वास करने के लिये तैयार नहीं था। हर शहजादा बादशाह को अपनी आँखों से देखना चाहता था परन्तु कोई भी शाहजादा अकेले अथवा थोड़े से अनुचरों के साथ राजधानी आने को तैयार नहीं था, क्योंकि उन्हें दारा से भय था। किसी भी शहजादे को अपनी समस्त सेना के साथ राजधानी में आने की अनुमति नहीं थी। इस लिये विभिन्न पक्षों में संदेह और वैमनस्य बढ़ने लगा और उत्तराधिकार के लिये होने वाले युद्ध की भूमिका तैयार हो गई। सद्भावना, विश्वास तथा धैर्य से ही  उत्तराधिकार के संभावित युद्ध को रोका जा सकता था परन्तु दुर्भाग्यवश शाहजादों में इन गुणों का नितांत अभाव था। शुजा, औरंगजेब तथा मुराद पत्र-व्यवहार द्वारा एक दूसरे के सम्पर्क में थे। उनमें सल्तनत के विभाजन के लिये समझौता हो गया। इन तीनों शाहजादों ने दारा की शक्ति को छिन्न-भिन्न करने का निश्चय किया।

शुजा पर विजय

सबसे पहले शुजा ने स्वयं को बादशाह घोषित किया और दिल्ली की ओर कूच कर दिया। मार्ग में उसे किसी विरोध का सामना नहीं करना पड़ा। जनवरी 1658 में वह बनारस पहुँच गया। शुजा का मार्ग रोकने के लिये दारा ने अपने पुत्र सुलेमान शिकोह की अध्यक्षता में एक सेना भेजी। राजा जयसिंह तथा दिलेरखाँ रूहेला को उसकी सहायता के लिए भेजा गया। बनारस के निकट बहादुरपुर नामक स्थान पर दोनों सेनाओं में भीषण संग्राम हुआ जिसमें शुजा ने परास्त होकर सन्धि कर ली। इस सन्धि के अनुसार शुजा को उड़ीसा, बंगाल तथा मंगेर के पूर्व का बिहार प्रान्त दे दिये गये। शुजा ने राजमहल को अपनी राजधानी बनाने का वचन दिया।

धरमत की पराजय

मुराद ने गुजरात से और औरंगजेब ने दक्षिण से कूच किया। दिपालपुर में दोनों सेनाएँ एक दूसरे से मिल गईं। यहाँ से दोनों शाहजादों की संयुक्त सेनाएँ आगे बढ़ीं। दारा ने मारवाड़ के राजा जसवन्तसिंह तथा कासिमखाँ की अध्यक्षता में इस संयुक्त सेना का सामना करने के लिए शाही सेना भेजी। उज्जैन के उत्तर-पश्चिम में लगभग चौदह मील की दूरी पर धरमत नामक स्थान पर भीषण संग्राम हुआ। जसवन्तसिंह बड़ी वीरता के साथ लड़े परन्तु कासिम खाँ तथा कुछ राजपूत राजाओं के धोखा देने के कारण उन्हें घायल होकर मैदान छोड़ना पड़ा। वे अपनी राजधानी जोधपुर लौट गये। जसवंतसिंह द्वारा दारा का पक्ष लिये जाने के कारण औरंगजेब राठौड़ों से नाराज हो गया। वह जीवन भर राठौड़ों से बदला लेने की सोचता रहा किंतु जसवंतसिंह के जीतेजी वह राठौड़ों का बाल भी बांका नहीं कर सका।

सामूगढ़ की पराजय

मुराद और औरंगजेब की विजयी सेनाएँ आगे बढ़ीं। धरमत की पराजय होने पर शाही दरबार में खलबली मच गई। जहाँआरा ने शाही प्रतिष्ठा बचाने के लिये मुराद तथा औरंगजेब से समझौता करने का प्रयास किया परन्तु उसे सफलता नहीं मिली। इसलिये दारा एक विशाल सेना लेकर आगे बढ़ा। 29 मई 1658 को आगरा से आठ मील पूर्व में स्थित सामूगढ़ नामक स्थान पर दारा तथा उसके भाइयों की सेनाओं में निर्णयात्मक युद्ध हुआ जिसमें दारा परास्त हो गया। दारा भागकर आगरा पहुँचा। पराजय की शर्म के कारण वह बादशाह से मिले बिना अपनी स्त्री तथा बच्चों के साथ दिल्ली भाग गया।

शाहजहाँ का पतन

औरंगजेब की विजयी सेना ने आगे बढ़कर आगरा का किला घेर लिया तथा किले में यमुना नदी से होने वाली जलापूर्ति बंद कर दी। विवश होकर किले का द्वार खोल देना पड़ा। शाहजहाँ को कैद कर लिया गया और उसे जनाना महल में रखा गया। औरंगजेब ने शासन अपने हाथ में ले लिया। इस प्रकार मुगलिया तख्त पर औरंगजेब का अधिकार हो गया।

मुराद का पतन

अब औरंगजेब ने उन समस्त प्रतिद्वन्द्वियों को समाप्त करने का निश्चय किया जो तख्त के दावेदार हो सकते थे। उसने मुराद को साथ लेकर आगरा से दिल्ली के लिए प्रस्थान किया। मार्ग में मथुरा के पास एक दिन मुराद आखेट में थककर औरंगजेब के खेेमे में आ गया। औरंगजेब ने उसे दावत दी जिसमें उसे खूब शराब पिलाई गई। जब मुराद को नींद आई तो उसे वहीं सुलाया गया तथा नींद में ही बंदी बना लिया गया। औरंगजेब ने उसे दिल्ली भेज दिया और सलीमगढ़ के दुर्ग में बन्द कर दिया।

दारा का पतन

जब औरंगजेब मुराद को बंदी बनाकर दिल्ली की ओर बढ़ा तो दारा दिल्ली से लाहौर की तरफ भाग खड़ा हुआ। इस प्रकार बिना किसी विरोध के दिल्ली पर भी औरंगजेब का अधिकार हो गया। दिल्ली के शालीमार बाग में औरंगजेब ने अपना राज्याभिषेक कराया तथा दारा का पीछा करने के लिये अपनी सेना भेजी। दारा लाहौर से गुजरात आ गया। वहां के शासक ने दारा की सहायता की। जोधपुर नरेश जसवंतसिंह भी फिर से दारा की सहायता करने के लिये तैयार हो गये। दारा और उसके सहायकों की सेना अजमेर के निकट दौराई पहुंच गईं। इसी बीच औरंगजेब के दबाव में आकर महाराजा जसवंतसिंह औरंगजेब से मिल गया। जयपुर नरेश जयसिंह पहले से ही औरंगजेब की सहायता कर रहा था। दारा बहुत वीरता से लड़ा किंतु रणक्षेत्र का अधिक अनुभव न होने के कारण दारा की पराजय हो गई। दारा भागकर मुल्तान की ओर चला गया। औरंगजेब ने लाहौर पर अधिकार करके मुल्तान की ओर कूच किया। वहाँ उसे ज्ञात हुआ कि दारा भक्कर की ओर चला गया। औरंगजेब ने दारा का पीछा करने का काम अपने अनुभवी सेनापतियों शेख मीर तथा दिलेरखाँ को सौंप दिया और स्वयं दिल्ली लौट आया, जिससे वह शुजा का सामना कर सके, जो इलाहाबाद की ओर बढ़ रहा था।

शुजा का पतन

शुजा अपनी सेना लेकर बिहार से आगरा की ओर बढ़ा। दिसम्बर 1658 में वह इलाहाबाद होता हुआ खनवा नामक स्थान पर पहॅँुचा। औरंगजेब के बड़े पुत्र सुल्तान मुहम्मद ने खनवा में शुजा का मार्ग रोका। औरंगजेब तथा मीर जुमला भी, जो दक्षिण में थे, अपनी-अपनी सेनाएँ लेकर आ पहुँचे। शुजा, औरंगजेब की सेना पर टूट पड़ा परन्तु वह परास्त होकर मैदान से भाग खड़ा हुआ। औरंगजेब ने अपने पुत्र मुहम्मद तथा मीर जुमला को शुजा का पीछा करने के लिए भेजा। शुजा की सेना कई स्थानों पर परास्त हुई। अन्त में वह ढाका होता हुआ अराकान पहुँचा। शुजा ने अराकान के राजा की हत्या का षड्यन्त्र रचा परन्तु षड्यन्त्र खुल जाने पर शुजा वहीं मार डाला गया। यह भी कहा जाता है कि शुजा अराकान से बचकर मक्का भाग गया।

दारा की हत्या

मुल्तान से कूच करने के बाद दारा मारा-मारा फिर रहा था। शेख मीर तथा दिलेरखाँ उसका पीछा करते रहे। धीर-धीरे दारा के साथियों की संख्या घटने लगी और उसकी निराशा बढ़ने लगी। दादर नामक स्थान पर मलिक जीवन नामक बलूची सरदार ने गद्दारी करके दारा को औरंगजेब के आदमियों के हाथों सौंप दिया। 1659 ई. में दारा कैद करके दिल्ली लाया गया। उसे अनेक प्रकार से अपमानित किया गया और दिल्ली की सड़कों पर घुमाया गया। दारा ने औरंगजेब से क्षमा याचना की परन्तु औरंगजेब ने दारा की हत्या करने की आज्ञा दी। 30 अगस्त 1659 को दारा का सिर धड़ से अलग कर दिया गया। उसका सिर शाहजहाँ के पास भेजा गया किंतु शाहजहाँ ने दारा का सिर देखने से मना कर दिया। दारा के धड़ को दिल्ली की सड़कों तथा गलियों में घुमाया गया और अन्त में हुमायूँ के मकबरे में दफना दिया गया।

मुराद की हत्या

मुराद अब तक ग्वालियर के दुर्ग में बन्द था। दिसम्बर 1661 में उस पर आरोप लगाकर उसकी भी हत्या कर दी गई।

सुलेमान की हत्या

दारा का पुत्र सुलेमान भी ग्वालियर के दुर्ग में बंद था। उस पर भी आरोप लगाकर मई 1662 में ग्वालियर के दुर्ग में ही उसे विष देकर मार दिया गया। इस प्रकार चार वर्ष की अवधि में औरंगजेब ने अपने समस्त भाइयों तथा भतीजों की नृशंसतापूर्वक हत्या करवा दी। उसका यह काम ठीक वैसा ही था जैसा शाहजहाँ ने अपने भाइयों तथा भतीजों के साथ किया था।

शाहजहाँ की मृत्यु

शाहजहाँ के जीवन के अन्तिम दिन कारागार में व्यतीत हुए। उसके निवास पर कड़ा पहरा लगा दिया गया। वह केवल औरंगजेब के पुत्र मुहम्मद की उपस्थिति में किसी से बात कर सकता था। वह जो कुछ करता था अथवा कहता था उसकी सूचना तुरन्त औरंगजेब के पास पहुँचाई जाती थी। वह किसी के साथ पत्र व्यवहार नहीं कर सकता था तथा सूनी आँखों से ताजमहल की ओर ताकता रहता था। उसके प्रिय आभूषण तथा रत्न भी उससे छीन लिये गये। इस बुरे समय में शहजादी जहाँआरा, शाहजहाँ के साथ रही। 22 जनवरी 1666 को प्रातःकाल में ताजमहल पर दृष्टि लगाये, शाहजहाँ ने अंतिम श्वांस ली। उसे मुमताज महल बेगम की बगल में दफना दिया गया।

शाहजहाँ का शासन प्रबन्ध

शाहजहाँ ने बादशाह बनने के पहले से ही अपनी योग्यता का परिचय देकर ख्याति अर्जित कर ली थी। वह अपने आचरण तथा व्यवहार में अपनी प्रतिष्ठा का ध्यान रखता था। वह सोच-समझकर बोलता था तथा कर्त्तव्य को नहीं भूलता था। जब तक उसका स्वास्थय अच्छा रहा, तब तक वह राज्य के समस्त कार्यों को स्वयं देखता रहा। किसी भी अधिकारी या शाहजादे का साहस नहीं था कि वह बादशाह की आज्ञा की अवहेलना करे। जब उसका स्वास्थ्य बिगड़ गया तब उसने शासन का कार्य अपने योग्यतम पुत्र दारा के हाथों में सौंप दिया। इस प्रकार उसके शासन काल को दो हिस्सों में बांटा जा सकता है- (1) जब तक शाहजहाँ का स्वास्थ्य अच्छा था, तब तक वह स्वयं शासन करता रहा, (2) जब शाहजहाँ बीमार पड़ गया, केन्द्रीय शासन पूर्णतः दारा के हाथों में चला गया।

शासन का मूल ढांचा

शाहजहाँ की शासन व्यवस्था का ढाँचा मूलतः वही था जो अकबर के शासन काल में स्थापित हुआ था। मनसबदारी प्रथा पूर्ववत् बनी रही परन्तु अकबर द्वारा हटाई गई जागीर प्रथा को शाहजहाँ ने फिर से लागू कर दिया था। शाहजहाँ का दण्ड विधान बड़ा कठोर था। अपराधियों को प्रायः अंग-भंग का दण्ड दिया जाता था। शाहजहाँ के शासन प्रबन्ध के सम्बन्ध में खाफीखाँ ने लिखा है- ‘तैमूर के वंशजों में कोई भी ऐसा शासक नहीं हुआ जो संगठन के कार्य में, कोष की वृद्धि करने में, देश की व्यवस्था करने में, अफसरों तथा सैनिकों की योग्यता को मान्यता देने में शाहजहाँ की बराबरी कर सके।’ उसके शासन काल में सल्तनत में शान्ति बनी रही। किसानों की भलाई का ध्यान रखा जाता था। अत्याचारी सूबेदारों को जनता द्वारा शिकायत करने पर हटा दिया जाता था। यदि कर वसूल करने वाले प्रजा के साथ क्रूरता का व्यवहार करते थे तो उन्हें कठोर दण्ड दिया जाता था।

जन साधारण की दशा

शाहजहाँ के शासन काल में बनवाई गई इमारतों से अनुमान होता है कि सल्तनत की प्रजा धन-सम्पन्न तथा सुखी रही होगी परन्तु प्रजा की स्थिति सन्तोषजनक नहीं थी। विदेशी यात्रियों के विवरण के अनुसार प्रान्तीय गवर्नर प्रजा के साथ बड़ी क्रूरता का व्यवहार करते थे।

किसानों की दशा

अकबर के शासन काल में उपज का केवल एक तिहाई भाग लगान के रूप में वसूल किया जाता था किंतु शाहजहाँ के काल में उपज का आधा हिस्सा सरकारी लगान के रूप में लिया जाने लगा। इसके साथ ही कृषि की उन्नति तथा उपज बढ़ाने का प्रयत्न किया गया। कृषि कार्य से विमुख रहने वाले तथा काम से बचने वाले किसानों को कोड़े लगाये जाते थे। यदि अकाल पड़ने से कृषि नष्ट हो जाती थी तो सरकार की ओर से किसानों की सहायता की जाती थी। शाहजहाँ के शासन काल में किसानों की दशा उतनी अच्छी नहीं थी जितनी अकबर के शासन काल में थी।

शासन कार्य का बंटवारा

सैद्धांतिक रूप से शाहजहाँ का शासन स्वेच्छाचारी तथा निरंकुश था तथा शासन की समस्त शक्तियाँ बादशाह के नियंत्रण में थी परन्तु व्यावहारिक रूप में अधिकारियों की एक लम्बी चौड़ी फौज सल्तनत के विभिन्न भागों का शासन चलाती थी। शाहजहाँ ने सल्तनत के विभिन्न भागों का प्रबन्ध अपने पुत्रों को सौंप दिया था, ताकि वहाँ शान्ति एवं व्यवस्था बनी रहे। उसने शुजा को बंगाल तथा बिहार का, औरंगजेब को दक्षिण का और मुराद को मालवा तथा गुजरात का गवर्नर बनाया। दारा को वह अपने पास रखता था जो केन्द्रीय शासन चलाने में बादशाह की सहायता करता था। तख्त की कामना रखने वाले शहजादों को दूरस्थ प्रान्तों का सूबेदार बनाना शाहजहाँ की बहुत बड़ी भूल थी। राजधानी से दूर तथा बादशाह के नियंत्रण से परे रहकर शहजादों को अपनी शक्ति तथा महत्वाकांक्षाएं विस्तारित करने का अवसर मिल गया। अन्त में इन शहजादों ने शाहजहाँ के जीते जी ही उसकी सल्तनत पर कब्जा कर लिया।

धार्मिक असहिष्णुता की नीति

शाहजहाँ ने अपने पितामह अकबर की उदार तथा धार्मिक सहिष्णुता की नीति को त्याग दिया। जहाँगीर के शासन काल में जो धार्मिक कट्टरता आरम्भ हुई थी वह शाहजहाँ के काल में और आगे बढ़ी। उसने कई ऐसे कार्य किये जो धर्मान्धता की श्रेणी में आते थे। 1614 ई. में उसने आदेश दिया कि जहाँगीर के शासन काल में जिन मन्दिरों का निर्माण आरम्भ किया गया था, उन्हें गिरा दिया जाये। इस आदेश पर केवल बनारस में ही 76 मन्दिरों को तोड़ा गया। शाहजहाँ की आज्ञा से बुन्देलखण्ड के हिन्दू मन्दिर तुड़वाये गये और जुझारसिंह के पुत्रों को मुसलमान बनाया गया। शाहजहाँ की धार्मिक कट्टरता के और भी बहुत से उदारहण हैं किंतु बाद में शाहजहाँ के धार्मिक विचार बदल गये और उसमें उदारता आ गई। उसने मन्दिरों को तोड़ने और हिन्दुओं को मुसलमान बनाने की नीति का त्याग कर दिया। शाहजहाँ के राज्य में कई हिन्दू बड़े पदों पर आसीन थे और उन्हें दरबार में सम्मान प्राप्त था। यदि शाहजहाँ इस नीति का अनुसरण नहीं करता तो उसे हिन्दू राजाओं का समर्थन प्राप्त नहीं हुआ होता। अनेक हिन्दू राजाओं ने सल्तनत की सुरक्षा में विपुल योग दिया और अपने प्राणों की बाजी लगा दी। शाहजहाँ के पुत्र दारा में धार्मिक सहिष्णुता का जो भाव था उससे भी अनुमान लगाया जा सकता है कि शाहजहाँ ने अपने शासन काल की धार्मिक कट्टरता को बाद में त्याग दिया था। यही कारण है कि शाहजहाँ के शासन में संस्कृत साहित्य की उन्नति हुई। आसफखाँ तथा दारा, संस्कृत साहित्य एवं ग्रन्थों के आश्रयदाता थे। राजदरबार में हिन्दी तथा संस्कृत के कवियों का भी आदर होता था। ग्वालियर के रहने वाले एवं ब्रजभाषा के कवि सुन्दरदास, शाहजहाँ के दरबार में रहते थे। हिन्दी के कवि चिन्तामणि को भी शाहजहाँ का संरक्षण प्राप्त था। निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि शाहजहाँ में धार्मिक सहिष्णुता एवं धार्मिक कट्टरता दोनों के बीज विद्यमान थे जिनमें से धार्मिक सहिष्णुता का गुण दारा ने अपना लिया और धार्मिक कट्टरता का गुण औरंगजेब ने अपना लिया।

भवन निर्माण

शाहजहाँ के काल में बने भवनों में अलंकरण की प्रचुरता है। इनमें मूल्यवान् रत्नों और पत्थरों का प्रचुर उपयोग हुआ है। आगरा के दुर्ग में बलुवा पत्थर के जो राजभवन बने हुए थे उन्हें शाहजहाँ ने गिरवाकर पुनः संगमरमर से बनवाया। शाहजहाँ की सबसे अधिक शानदार इमारत ताजमहल है जो वास्तव में एक मकबरा है। इसमें शाहजहाँ तथा मुमताज महल की कब्रें स्थित हैं। ताजमहल आगरा में यमुना नदी के तट पर स्थित है। इसका निर्माण शाहजहाँ ने मुमताज महल की स्मृति में, उसके मरने के बाद 1632 ई. में आरम्भ किया था। ताजमहल 1654 ई. में बनकर पूरा हुआ। इसे बनवाने में बाईस वर्ष का समय और तीस करोड़ रुपये लगे। यह श्वेत संगमरमर से निर्मित है। इसकी गणना विश्व के सुंदरतम भवनों में होती है। ताज महल की प्रशंसा करते हुए एल्फिन्स्टन ने लिखा है- ‘सामग्री की सम्पन्नता, चित्र के वैचि×य तथा प्रभाव में इसकी समता करने वाला यूरोप अथवा एशिया में दूसरा मकबरा नहीं है। आगरा में शाहजहाँ की बनवाई इमारतों में दीवाने-आम, दीवाने-खास, समन-बुर्ज, मोती मस्जिद आदि मुख्य हैं। मोती मस्जिद की प्रशंसा करते हुए सन्त निहालसिंह ने लिखा है- ‘इसकी डिजाइन ऐसी कारीगरी द्वारा बनाई गई थी जिसमें यह कौशल था कि यह आत्मा के भौतिक बन्धनों से निकल जाने के संघर्ष को प्रस्तर में प्रदर्शित कर दे।’

दिल्ली की इमारतों में दीवाने-खास सर्वाधिक अलंकृत है। शाहजहाँ की बनवाई हुई दिल्ली की इमारतों में जामा-मस्जिद सबसे विशाल है। दिल्ली के दुर्ग के भीतर की इमारतें की प्रशंसा करते हुए डॉ. ईश्वरी प्रसाद ने लिखा है- ‘दिल्ली दुर्ग के भीतर की इमारतें अत्यधिक अलंकृत थीं और चीन की कला के लिए स्पर्धा की चीज बन गई थीं।’ शाहजहानाबाद की अली मस्जिद तथा शाहजहानाबाद का दुर्ग भी शाहजहाँ की श्रेष्ठ कृतियों में से है। शाहजहाँॅ का तख्ते ताऊस अर्थात् मयूर सिंहासन अपने समय की अद्भुत रचना है। यह सिंहासन सात वर्षों में लगभग चार करोड़ रुपयों से बना था। यह सिंहासन मयूरों के ऊपर खड़़ा था और रत्नों से जगमगाता रहता था। शाहजहाँ की इस अमूल्य कृति को नादिरशाह फारस उठा ले गया था। शाहजहाँ के दलबादल नामक शिविर से भी उसकी शान का पता लगता है। उसे खड़ा करने में कई हजार आदमी और हाथियों की आवश्यकता पड़ती थी और लगभग दो महिने का समय लगता था। शाहजहाँ ने दिल्ली, लाहौर तथा कश्मीर में उपवन बनवाये थे जो उसके काल के मुगलिया वैभव को प्रदर्शित करते थे।

शाहजहाँ का काल मध्यकालीन इतिहास का स्वर्णयुग

अनेक इतिहासकारों ने शाहजहाँ के शासन काल को स्वर्णयुग की संज्ञा दी है परन्तु अन्य कई विद्वान शाहजहाँ के शासन काल को स्वर्णयुग नहीं मानते। उनके अनुसार शाहजहाँ के काल का न तो आरम्भ अच्छा था, न मध्य अच्छा था और न अन्त ही अच्छा था।

शाहजहाँ का शासन स्वर्णकाल था

जो विद्वान शाहजहाँ के शासन काल को स्वर्ण युग मानते हैं वे अपने मत के समर्थन में निम्नलिखित तर्क देते हैं-

(1.) शाहजहाँ का शासन काल मुगल साम्राज्य के चूड़ान्त विकास का काल था जिसके अंतर्गत विभिन्न क्षेत्रों में उन्नति हुई।

(2.) शाहजहाँ ने अपने पूर्वजों से प्राप्त सल्तनत को न केवल सुरक्षित रखा अपितु उसमें वृद्धि भी की।

(3.) शाहजहाँ का शासन काल पूर्ण शान्ति तथा सुव्यवस्था का काल था। उसके शासन काल में दो-चार विद्रोह हुए परन्तु ये विद्रोह बादशाह के अत्याचार अथवा कुशासन के विरुद्ध नहीं होकर महत्त्वाकांक्षी व्यक्तियों की स्वार्थ सिद्धि के उद्देश्य से किये गये थे। बादशाह इन विद्रोहों के दमन करने में रूप से सफल रहा।

(4.) शाहजहाँ अपने शासन को सुचारू रूप से चलाने में इतना सक्रिय तथा संलग्न रहता था कि उत्तराधिकार के युद्ध के पूर्व किसी को भी उसकी शक्ति को चुनौती देने का साहस नहीं हुआ। उसकी रुग्णावस्था के कारण ही उसके शासन काल के अन्तिम भाग में विश्ृञलता आरम्भ हुई।

(5.) शाहजहाँ का दण्ड विधान कठोर था परन्तु उस काल में अमीरों, सरकारी कर्मचारियों तथा प्रांतपतियों के षड्यन्त्रों, विद्रोहों तथा अत्याचारों को रोकने के लिए कठोर दण्ड विधान की ही आवश्यकता थी।

(6.) शाहजहाँ न्यायप्रिय बादशाह था। अपराधियों को दण्ड देने में संकोच नहीं करता था। कर्त्तव्य भ्रष्ट तथा अत्याचारी अधिकारियों को वह दण्ड दिया करता था, ताकि प्रजा के साथ किसी प्रकार का अन्याय न हो।

(7.) शाहजहाँ का शासन काल समृद्धि का काल था। यही कारण है कि इस अवधि में अनेक भव्य भवनों का निर्माण हो सका। उसके द्वारा निर्मित ताजमहल विश्व के सात आश्चर्यों में गिना जाता है। मोती मस्जिद, अली मस्जिद तथा शाजहानाबाद का दुर्ग आज भी शाहजहाँ के काल की गौरव गाथा कह रहे हैं। ये रचनाएं शाहजहाँ के शासन काल को स्वर्ण युग सिद्ध करने के लिए पर्याप्त हैं।

(8.) दिल्ली, लाहौर तथा काश्मीर में इस काल में जो मनोरम उपवन बनाये गये वे भी उस काल के गौरव के द्योतक हैं।

(9.) शाहजहाँ का दरबार शानो-शौकत का जीता जागता नमूना था। वह अपने दरबार की भव्यता को बनाये रखने के लिये सदैव प्रयत्न करता रहता था। शाहजहाँ के काल में निर्मित तख्ते-ताऊस अद्भुत सिंहासन था जिसमें जड़े हुए रत्नों की ज्योति से विदेशी यात्रियों की आँखे चौंधिया जाती थीं।

(10.) उसके काल में कृषि तथा व्यापार की उन्नति से देश धन-धान्य से पूर्ण हो गया था। उसकी प्रजा ने सल्तनत की प्रतिष्ठा तथा गौरव को बढ़ाने में पूरा सहयोग दिया। भव्य-भवनों के निर्माण से हजारों श्रमिकों एवं कारीगरों को रोजगार मिल सका।

(11.) शाहजहाँ के शासन काल में साहित्य तथा कला की विशेष उन्नति हुई। डॉ. बनारसी प्रसाद सक्सेना ने लिखा है- ‘देश में शान्ति स्थापित हो जाने और बादशाह की व्यक्तिगत दिलचस्पी के फलस्वरूप साहित्य तथा कला के विकास को प्रोत्साहन मिला। दूर-दूर से कवि, दार्शनिक, विद्वान तथा कलाकार उसके दरबार में आश्रय पाने आते थे और प्रतिभा को बहुत कम निराश होना पड़ा था।’

(12.) शाहजहाँ के शासनकाल में फारसी, संस्कृत तथा हिन्दी आदि भाषाओं में उच्च कोटि के गद्य तथा पद्य ग्रन्थों की रचना हुई। डॉ. सक्सेना के अनुसार शाहजहाँ के शासनकाल में ही वह काल आता है जो हिन्दी साहित्य तथा भाषा का सबसे अधिक गौरवपूर्ण काल माना जाता है।

(13.) इस काल में संगीत तथा नृत्यकला की बड़ी उन्नति हुई। शाहजहाँ स्वयं अच्छा गवैया था। जे. एन. सरकार ने उसके संगीत की प्रशंसा करते हुए लिखा है- ‘बहुत से शुद्ध आत्मा की सूफी और सन्त, जो संध्याकाल की गोष्ठियों में आते थे, अपने हृदयों को सांसारिकता से हटाकर शाहजहाँ के संगीत को सुनकर आनन्द विभोर हो जाते थे और अपने को भूल जाते थे।’

(14.) इस काल में चित्रकला की बड़ी उन्नति हुई। स्मिथ ने लिखा है- ‘शाहजहाँ के शासन काल में चित्रकला चरमोन्नति को प्राप्त हो गई।’

उपर्युक्त विवरण से यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि शाहजहाँ का काल शान्ति तथा सुव्यवस्था और मुगल सल्तनत की चरमोन्नति का काल था। अतः शाहजहाँ के काल को स्वर्णयुग मानने में कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिये।

शाहजहाँ का शासन स्वर्ण काल नहीं था

जो इतिहासकार शाहजहाँ के शासन काल को स्वर्ण युग नहीं मानते हैं वे अपने मत के समर्थन में निम्नलिखित तर्क देते हैं-

(1.) शाहजहाँ ने अपने पिता से विद्रोह करके तथा अपने भाई-भतीजों एवं अन्य निकट सम्बन्धियों की हत्या करके तख्त प्राप्त किया था। उसके इस घृणित कार्य से मुगलों की प्रतिष्ठा को भारी आघात लगा तथा मुगल राजनीति में ऐसी घृणित तथा विनाशकारी परम्परा का सूत्रपात हुआ जो आगे चलकर मुगल सल्तनत के लिए प्राण घातक सिद्ध हुई।

(2.) शाहजहाँ ने अपने शासन के प्रारम्भ में जिस अनुदारता तथा असहिष्णुता की नीति का अनुसरण किया, उसके परिणाम मुगल सल्तनत के लिए बड़े घातक सिद्ध हुए। अकबर की उदार नीति को त्याग देने से हिन्दू जनता, राज्य एवं बादशाह से उदासीन होने लगी। औरंगजेब के शासन काल में जब धार्मिक असहिष्णुता, चरम पर पहुँच गई तब मुगल सल्तनत पतनोन्मुख हो गई।

(3.) शाहजहाँ के शासन काल का मध्य भी अच्छा नहीं था। उसके शासन काल में मुगल सल्तनत अपने चूड़ान्त विकास को पहुँच गई। इस चरमोन्नति में ही उसके विनाश का बीजारोपण हो गया था।

(4.) आरम्भ में शाहजहाँ ने बड़ी सतर्कता तथा सावधानी से शासन किया परन्तु शासन काल के मध्य भाग में उसमें विलासिता तथा अकर्मण्यता आ गई। मुमताज महल के मरने के बाद उसकी विलासिता और वासनाएँ अनियंत्रित हो गईं। इस कारण सल्तनत को भारी आघात लगा। प्रान्तीय गवर्नरों को अपनी शक्ति बढ़ाने और षड्यन्त्र रचने का अवसर मिल गया और मुगल सल्तनत का बिखराव होने लगा।

(5.) शाहजहाँ की सीमा नीति के परिणाम अच्छे नहीं हुए। उसकी मध्य एशिया विजय की नीति पूरी तरह अव्यावहारिक तथा असफल सिद्ध हुई। इस कारण मुगल राज्य को जन तथा धन की बड़ी क्षति हुई।

(6.) शाहजहाँ कन्दहार को मुगल सल्तनत के अधीन नहीं रख सका। इस कारण मुगल सल्तनत की प्रतिष्ठा को धक्का लगा।

(7.) यद्यपि शाहजहाँ दक्षिण भारत में अपनी सल्तनत का विस्तार करने में सफल हुआ परन्तु दक्षिण नीति के अन्तिम परिणाम घातक सिद्ध हुए। विद्वानों की राय है कि मुगल सल्तनत की समाधि दक्षिण भारत के युद्धों में तैयार हुई।

(8.) शाहजहाँ के शासन काल का सम्पूर्ण गौरव उसके द्वारा निर्माण कराये गये भव्य भवनों पर आधारित है। इन भव्य भवनों के निर्माण में अपार सम्पत्ति व्यय की गई थी। यह सम्पत्ति अमीरों के धन को छीनकर, लूटमार करके, प्रजा पर अत्यधिक कर लगाकर संग्रहीत की गई थी। मजदूरों से प्रायः जबरदस्ती काम लिया जाता था।

(9.) बादशाह का राजसी वैभव चरम पर था किंतु प्रजा की दशा खराब थी। शाहजहाँ के शासन में दण्ड विधान कठोर था। विदेशी यात्रियों के विवरण से पता लगता है कि सड़कें सुरक्षित नहीं थीं। किसानों से उनकी उपज का आधा भाग ले लिया जाता था। लगान बड़ी कठोरता से वसूल किया जाता था। 

(10.) शाहजहाँ के शासन काल का अन्त भी अच्छा नहीं था। उसकी बीमारी के कारण सल्तनत में बिखराव आने लगा था। बादशाह की शक्ति के क्षय के साथ-साथ उसका नियंत्रण तथा अनुशासन भी ढीला पड़ने लगा। वह स्वयं शासन कार्य की उपेक्षा करने लगा जिससे शासन की वास्तविक शक्तियाँ दूसरे व्यक्तियों के हाथों में खिसकने लगी। जहाँआरा

(11.) शाहजहाँ अपने परिवार को संगठित तथा नियंत्रित नहीं रख सका। दारा तथा जहाँआरा पर उसका विशेष स्नेह होनेे से उसके अन्य पुत्र तथा पुत्रियाँ उससे अप्रसन्न थे। जहाँआरा दारा का और अन्य शहजादियाँ अपने अन्य भाइयों का समर्थन करने लगीं जिससे शाहजहाँ के परिवार में नित्य नये षड्यन्त्र तथा कुचक्र रचे जाने लगे। अंत में ये षड्यंत्र बादशाह तथा सल्तनत के लिएघातक सिद्ध हुए। शाहजहाँ के जीवन काल में ही शहजादों में उत्तराधिकार के लिए युद्ध आरम्भ हो गया इसका उत्तरदायित्व शाहजहाँ पर ही था। शाहजहाँ को अपने जीवन के अंतिम चार वर्ष बंदी के रूप में बिताने पड़े। उसे अनेक यातनाएँ तथा अपमान सहन करने पड़े।

(12.) उत्तराधिकार के युद्ध के कारण शाहजहाँ के जीवनकाल में ही उसके पुत्रों तथा पौत्रों की नृशंसतापूर्वक हत्याएँ हुईं। इस युद्ध के कारण औरंगजेब जैसा धर्मान्ध व्यक्ति मुगल सल्तनत का बादशाह बन गया, जिसकी दुर्नीति के फलस्वरूप जनता त्राहि-त्राहि करने लगी और मुगल सल्तनत पतनोन्मुख हो गई।

उपर्युक्त विवरण के आधार पर कहा जा सकता है कि शाहजहाँ के शासन काल का आदि, मध्य तथा अन्त कोई भी भाग सराहना के योग्य नहीं हैं। अतः उसके काल को स्वर्ण युग की संज्ञा देना ठीक नहीं हैं। शाहजहाँ के शासन काल के आलोचकों के कुछ विचार निम्नांकित हैं-

शाहजहाँ पर लगने वाले आरोपों का खण्डन

शाहजहाँ पर लगने वाले विभिन्न आरोपों का खण्डन करने के लिये विभिन्न विद्वान शाहजहाँ के समर्थन में निम्नलिखित तर्क प्रस्तुत करते हैं-

(1.) यह सत्य है कि शाहजहाँ ने अपने पिता के विरुद्ध विद्रोह करके और अपने भाई-भतीजों की हत्या करके तख्त प्राप्त किया था परन्तु उन दिनों की राजनीति में यह कोई नई बात नहीं थी। जहाँगीर पहले ही इस परम्परा की नींव रख चुका था।

(2.) शाहजहाँ अपने भाइयों में सर्वाधिक योग्य तथा महात्वाकंाक्षी था। उसके विरुद्ध निरंतर षड्यन्त्र चल रहे थे और उसके विरुद्ध बादशाह के कान भरे जा रहे थे इसलिये शाहजहाँ का विद्रोह करना स्वाभाविक था।

(3.) अपने समस्त प्रतिद्वन्द्वियों को सदैव के लिए अपने मार्ग से हटा देना शाहजहाँ की व्यावहारिक बुद्धि का परिचायक है। नैतिक दृष्टि से उसका यह कार्य भले ही निन्दनीय था परन्तु राजनीतिक दृष्टि से ठीक था।

(4.) शाहजहाँ स्वभाव से क्रूर अथवा रक्त पिपासु नहीं था। उसने केवल अपने मार्ग की बाधाएं हटाने तथा तख्त को निरापद बनाने के लिए ऐसा किया। नूरजहाँ के साथ उसने जो अच्छा व्यवहार किया वह सराहनीय है। उसने कभी भी निरर्थक हत्याकाण्ड नहीं कराया।

(5.) शाहजहाँ को अपने परिवार के सदस्यों से बड़ा स्नेह था। उसने अपने समस्त पुत्रों को समान रूप से योग्यता प्रदर्शित करने का अवसर दिया।

(6.) मुस्लिम राजनीति में उत्तराधिकार के नियम के अभाव के कारण शाहजहाँ के समस्त पुत्रों का तख्त प्राप्त करने के लिए प्रयत्न करना स्वाभाविक तथा अनिवार्य था। इसका उत्तरदायित्व शाहजहाँ पर नहीं डाला जा सकता।

(7.) शाहजहाँ ने उत्तराधिकार के युद्ध को रोकने के लिये हर संभव प्रयत्न किया। दारा तथा जहाँआरा पर शाहजहाँ का विशेष स्नेह हो जाना स्वाभाविक था क्योंकि वे दोनों उसकी सेवा करते थे और उसकी आज्ञा का पालन करते थे।

(8.) शाहजहाँ की मध्य एशिया नीति सफल नहीं रही परन्तु इस अभियान से मध्य एशिया में मुगलों का आतंक छा गया।

(9.) यद्यपि कन्दहार शाहजहाँ के हाथ से निकल गया परन्तु इससे मुगल साम्राज्य को विशेष क्षति नहीं हुई। इसकी पूर्ति दक्षिण विजय से हो गई थी।

(10.) शाहजहाँ पर धर्मान्धता का आरोप लगाना गलत है क्योंकि समस्त हिन्दू राजा अंत तक शाहजहाँ के पक्ष में बने रहे और सल्तनत की सुरक्षा करते रहे। शाहजहाँ का सबसे प्रिय शहजादा दारा, अत्यंत उदार तथा धर्म सहिष्णु था। ऐसी स्थिति में शाहजहाँ धर्मान्ध कैसे हो सकता था!

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