अलाउद्दीन खिलजी के शासन में 1312 ई. से 1316 ई. तक का काल प्रतिक्रिया का काल माना जाता है। 1312 ई. तक अलाउद्दीन के समस्त उद्देश्य पूरे हो चुके थे। साम्राज्य विस्तार का कार्य पूरा हो चुका था। मंगोलों को बुरी तरह परास्त किया जा चुका था। उत्तर भारत में स्थानीय शासन पर भी कब्जा कसा जा चुका था तथा दक्षिण भारत में राजाओं से वार्षिक कर लेना स्वीकार करवाकर उन्हें दिल्ली के अधीन बनाया जा चुका था।
1312 ई. के आते-आते सुल्तान वृद्ध होने लगा। उसके कई विश्वस्त अमीर एवं सेनापति भी मर गये। वृद्धावस्था के कारण सुल्तान की मानसिक स्थिति ठीक न रह गयी थी। राज्य की सैनिक शक्ति 1306 ई. से धीरे-धीरे मलिक काफूर के हाथों में चली गई। 1312 ई. के बाद काफूर का सेना पर पूरा नियंत्रण स्थापित हो गया। यद्यपि शाहजादा खिज्र खाँ सुल्तान का उत्तराधिकारी घोषित कर दिया गया था परन्तु उसमें इतने विशाल साम्राज्य को सँभालने की योग्यता नहीं थी।
दरबार में दो दल बन गये थे। एक दल शहजादे खिज्र खाँ का था जिसे शहजादे की माँ मलिका-ए-जहाँ संभाल रही थी। शहजादे का मामा अल्ला खाँ उसका सहयोग कर रहा था। दूसरा दल मलिक काफूर का था जिसका सेना के ऊपर प्रभाव था। मलिक काफूर की दृष्टि दिल्ली के तख्त पर थी। अतः वह ऐसी परिस्थितियाँ उत्पन्न करने लगा जिससे सम्पूर्ण राजनैतिक शक्ति उसके हाथ में आ जाये।
काफूर ने राजवंश में फूट पैदा करने के लिये सुल्तान को समझाया कि मलिका-ए-जहाँ, खिज्र खाँ तथा अल्प खाँ, सुल्तान की हत्या करवाने का प्रयत्न कर रहे हैं। अलाउद्दीन खिलजी, मलिक काफूर के कहने में आ गया और उसने अपने पुत्र खिज्र खाँ तथा मुबारक खाँ को ग्वालियर के कारागार में डलवा दिया।
सुल्तान ने मलिका-ए-जहाँ को पुरानी दिल्ली में कैद कर लिया। अल्प खाँ की हत्या करवा दी। इससे अमीरों एवं राजघराने में सुल्तान के विरुद्ध अंसतोष की अग्नि और अधिक भड़क गई। इन्हीं परिस्थितियों में 1 जनवरी 1316 को अलाउद्दीन की मृत्यु हो गयी। कुछ इतिहासकारों का मत है कि मलिक काफूर ने अलाउद्दीन खिलजी को विष देकर मार डाला।
अलाउद्दीन का चरित्र तथा उसके कार्यों का मूल्यांकन
(1.) निरक्षर होने पर भी बुद्धि की प्रचुरता: बरनी के अनुसार अलाउद्दीन खिलजी निरा अशिक्षित व्यक्ति था। यद्यपि सुल्तान निरक्षर था परन्तु उसमें बौद्धिक प्रतिभा पूरी थी। उसे योग्य व्यक्तियों की अद्भुत परख थी जिससे वह योग्य व्यक्तियों की सेवाएँ प्राप्त कर सका था। अलाउद्दीन खिलजी ने कवि टेनिसन के कथन को सिद्ध कर दिया कि ‘केवल वही शासन कर सकता है जो पढ़-लिख नहीं सकते।’
(2.) शुष्क व्यवहार एवं क्रूरता की प्रतिमूर्ति: अलाउद्दीन खिलजी शुष्क स्वभाव का व्यक्ति था। इस कारण वह पारिवारिक प्रेम से सदैव वंचित रहा। यद्यपि उसके हरम में अनेक स्त्रियाँ थीं परन्तु उसकी एक भी स्त्री उसके हृदय पर अधिकार नहीं जमा सकी। अलाउद्दीन खिलजी क्रूरता तथा निर्दयता का साक्षात् स्वरूप था। बरनी का कहना है कि उसने फैरोह से भी अधिक निर्दोष व्यक्तियों का रक्तपात किया। जलालुद्दीन का वध, अपने सम्बन्धियों का हत्याकाण्ड, नए मुसलमानों तथा उनके निर्दोष स्त्री-बच्चों की निर्मम हत्या सुल्तान की क्रूरता के परिचायक हैं।
(3.) बर्बर तथा अत्याचारी: वी. ए. स्मिथ का कथन है- ‘अलाउद्दीन वास्तव में बर्बर अत्याचारी था। उसके हृदय में न्याय के लिये तनिक भी स्थान नहीं था…….. उसका शासन लज्जापूर्ण था।’
(4.) प्रतिशोध की भावना: अलाउद्दीन सन्देहशील व्यक्ति था। उसमें प्रतिशोध की भावना कूट-कूट कर भरी थी। यदि उसे किसी की विश्वसनीयता पर सन्देह हो जाता तो उसके प्राण लिये बिना उसका पीछा नहीं छोड़ता था। वह इतना अकृतज्ञ था कि उसने उन्हीं अमीरों का दमन किया जिनके सहयोग से उसने तख्त प्राप्त किया था।
(5.) खेलों से लगाव: सुल्तान को शिकार करने एवं अन्य प्रकार के खेलों से बड़ा लगाव था। उसे कबूतरों तथा बाजों को उड़ाने का बड़ा चाव था जिन्हें पालने एवं उड़ाने के लिए उसने अपनी सेवा में कई बालकों को नियुक्त कर रखा था।
(6.) इस्लाम में दृढ़ विश्वास: अलाउद्दीन खिलजी निरक्षर होने के कारण कुरान का अध्ययन नहीं कर सकता था, न वह रमजान का व्रत रखता था, न नमाज पढ़ता था और न राज्य के शासन में धर्म का हस्तक्षेप ही होेने देता था परन्तु उसका इस्लाम में दृढ़ विश्वास था। वह कभी किसी को अधार्मिक बात नहीं करने देता था। उसकी कठोर नीतियों के कारण बहुसंख्यक हिन्दुओं पर भारी कुठाराघात हुआ।
(7.) सूफी सन्तों के प्रति श्रद्धा: अलाउद्दीन खिलजी की सूफी सन्त निजामुद्दीन औलिया के प्रति बड़ी श्रद्धा थी। राजवंश के लगभग समस्त सदस्य निजामुद्दीन औलिया के शिष्य बन गए थे।
(8.) महत्वाकांक्षी: अलाउद्दीन अत्यंत महत्वाकांक्षी व्यक्ति था। वह सिकन्दर की भांति विश्व विजय करने की कामना रखता था। वह एक नया धर्म भी चलाना चाहता था। काजी अलाउल्मुल्क के समझाने पर उसने उसने इन दोनों योजनाओं को छोड़ दिया तथा सम्पूर्ण भारत विजय की महत्वाकांक्षी योजना तैयार की।
(9.) व्यावहारिक बुद्धि: यद्यपि अलाउद्दीन अत्यंत महत्वाकांक्षी था तथापि उसमें व्यावहारिक बुद्धि थी। हठधर्मी होते हुए भी वह अपने शुभचिन्तकों के परामर्श को स्वीकार कर लेता था। वह वास्तविकता का सदैव ध्यान रखता था और कूटनीति से काम लेता था। किसी भी योजना को कार्यान्वित करने से पूर्व उसकी अच्छी तरह तैयारी करता था। अलाउद्दीन साम्राज्य विस्तार का इच्छुक था किंतु उसने दक्षिण भारत के राजाओें पर विजय प्राप्त करने के उपरान्त उन्हें मुस्लिम गवर्नरों को न सौंपकर उन्हीं राजाओं को करद बनाकर सौंप दिया था। इससे उसकी व्यावहारिक बुद्धि का परिचय मिलता है।
(10.) कुशल सेनापति: कुछ इतिहासकार अलाउद्दीन की सामरिक विजयों का श्रेय उसके सेनापतियों को देते हैं परन्तु यह निष्कर्ष उचित नहीं है। जलालुद्दीन खिलजी के शासन काल में अलाउद्दीन ने कई बड़ी विजयें प्राप्त कीं जिनसे वह सेना में लोकप्रिय हो गया। उसने मलिक छज्जू के विद्रोह का दमन किया और भिलसा तथा देवगिरि को जीतकर अपने सैनिक गुणों का परिचय दिया। तख्त पर बैठने के उपरान्त भी उसने चित्तौड़ युद्ध सहित कई युद्धों में स्वयं भाग लिया। सुल्तान ने विजय का कार्य अपने सेनापतियों को इसलिए सौंप दिया था कि मंगोलों के आक्रमण एवं अमीरों की षड़यंत्रकारी प्रवृत्ति के कारण वह राजधानी से दूर नहीं जाना चाहता था।
(11.) लक्ष्य पूर्ति के लिये अनैतिक साधनों का प्रयोग: अलाउद्दीन खिलजी अपने लक्ष्य को सदैव सर्वोपरि रखता था और उसकी पूर्ति के लिये वह नैतिक तथा अनैतिक समस्त प्रकार के साधनों का प्रयोग करने के लिये उद्यत रहता था।
(12.) स्वेच्छाचारिता: अलाउद्दीन अत्यंत स्वेच्छाचारी तथा निंरकुश शासक था फिर भी विश्वसनीय परामर्शदाताओं के सुझाव को स्वीकार कर लेता था। उसने काजी अलाउल्मुल्क के परामर्श पर विश्व विजय करने और नया धर्म चलाने का निश्चय त्याग दिया। मलिक काफूर के परामर्श पर उसने अपने पुत्रों को बंदी बना लिया परन्तु जब वह किसी कार्य को करने का निश्चय कर लेता था तब वह किसी की भी नहीं सुनता था। उसके द्वारा किया गया बाजार नियंत्रण उसकी स्वेच्छाचारिता का सबसे बड़ा उदाहरण है।
(13.) कुशल शासक: अलाउद्दीन न केवल एक महान् विजेता, वरन् एक कुशल शासक भी था। उसमें अपने लक्ष्य की पूर्ति के लिए भिन्न-भिन्न प्रकार की योजनाएं बनाने की शक्ति थी। सैनिकों की प्रत्यक्ष रूप से भर्ती करना, उन्हें नकद वेतन देने की व्यवस्था करना, सैनिकों को हुलिया लिखवाना तथा उनके घोड़ों को दाग लगवाने का विधान बनाना, बाजारों का नियंत्रण तथा वस्तुओं की मांग एवम् आपूर्ति की समुचित व्यवस्था करना, इस बात के द्योतक हैं कि वह एक कुशल शासक था।
(14.) पथ-प्रदर्शक: अलाउद्दीन में अपने अमीरों, सेनापतियों एवं राज्याधिकारियों का पथ प्रदर्शन करने एवं उन्हें नई दिशा देने की प्रतिभा थी। उसके द्वारा किये गये अधिकांश सेना सम्बन्धी सुधारों तथा भूमि-सम्बन्धी सुधारों का अनुसरण आगे चलकर शेरशाह सूरी तथा अकबर दोनों ने किया था।
(15.) इस्लामी विद्वानों का प्रश्रयदाता: यद्यपि अलाउद्दीन स्वयं शिक्षित नहीं था परन्तु वह इस्लामिक विद्वानों का आदर करता था और उन्हें प्रश्रय देता था। अमीर खुसरो तथा हसन उसके समय के बहुत बड़े विद्वान थे। अलाउद्दीन उन्हें बहुत आदर देता था। बहुसंख्य हिन्दू विद्वानों के प्रति उसे कोई लगाव नहीं था।
(16.) स्थापत्य एवं निर्माण से लगाव: आलाउद्दीन को स्थापत्य कला से प्रेम था। उसने बहुत से दुर्गों का निर्माण करवाया जिसमें अलाई का दुर्ग सबसे अधिक प्रसिद्ध था। उसने बहुत सी भग्न मस्जिदों का भी जीर्णोद्धार करवाया। 1311 ई. में उसने कुतुब मस्जिद को विस्तृत करने और सहन में एक नयी मीनार बनवाने का कार्य आरम्भ करवाया। उसने एक बड़े दरवाजे का भी निर्माण करवाया।
(17.) सुल्तान की सफलता: दिल्ली के सुल्तानों में अलाउद्दीन का नाम महत्वपूर्ण है। जिस समय वह तख्त पर बैठा था, उस समय दिल्ली सल्तनत की स्थिति बड़ी डावांडोल थी। मंगोलों के आक्रमण का सदैव भय लगा रहता था, आन्तरिक विद्रोह की सदैव सम्भावना बनी रहती थी, अमीर सदैव अवज्ञा करने को उद्यत रहते थे और अधिकांश जनता असन्तुष्ट थी। इस प्रकार तख्त पर बैठने के समय अलाउद्दीन की स्थिति संकटापन्न थी परन्तु उसने धैर्य तथा साहस से संकटों का सामना किया और 1296 ई. से लेकर 1320 ई. तक पूरे 24 वर्षों तक सफलतापूर्वक शासन किया।
दिल्ली सल्तनत के इतिहास में अलाउद्दीन खिलजी का स्थान
कई इतिहासकारों की दृष्टि में अलाउद्दीन खिलजी दिल्ली के सुल्तानों में सर्वश्रेष्ठ सुल्तान था किंतु कई अन्य इतिहासकार इस बात से सहमत नहीं हैं। स्मिथ ने उसके शासन को सर्वथा गौरवहीन बताते हुए लिखा है कि वह वास्तव में बड़ा ही बर्बर तथा क्रूर शासक था और न्याय का बहुत कम ध्यान रखता था। इसके विपरीत एल्फिन्स्टन के विचार में अलाउद्दीन का शासन बड़ा ही गौरवपूर्ण था।
अलाउद्दीन खिलजी: दिल्ली सल्तनत का सर्वश्रेष्ठ सुल्तान
जो विद्वान अलाउद्दीन को दिल्ली सल्तनत का सर्वश्रेष्ठ सुल्तान मानते हैं वे अपने मत के अनुमोदन में निम्नलिखित तर्क उपस्थित करते हैं-
(1.) उच्चकोटि का सेनानायक: अलाउद्दीन एक वीर सैनिक तथा कुशल सेनानायक था। वह महत्वाकांक्षी, साहसी, दृढ़प्रतिज्ञ तथा प्रतिभावान शासक था। दिल्ली के सुल्तानों में कोई भी ऐसा नहीं है जौ सैनिक दृष्टिकोण से उसकी समता कर सके। सुल्तान में ईश्वर प्रदत्त ऐसे गुण थे कि जो भी लोग उसकी अधीनता में कार्य करते थे, वे उसके अनुगामी हो जाते थे और सदैव सुल्तान के हित-साधन में संलग्न रहते थे।
(2.) भारत में तुर्क साम्राज्य का वास्तविक संस्थापक: यद्यपि अलाउद्दीन के पूर्ववर्ती तुर्क सुल्तानों ने भी भारत विजय का कार्य किया था परन्तु सम्पूर्ण भारत में तुर्क साम्राज्य का वास्तविक संस्थापक अलाउद्दीन खिलजी ही था। उसने अपनी महत्वाकांक्षाओं से प्रेरित होकर साम्राज्यवादी नीति का अनुसरण किया और एक अत्यन्त विशाल साम्राज्य की स्थापना की। साम्राज्य संस्थापक के रूप में अलाउद्दीन ने दो बड़े कार्य किये थे। पहला कार्य दक्षिण भारत की विजय और दूसरा कार्य पश्चिमोत्तर सीमा की सुरक्षा की समुचित व्यवस्था। अलाउद्दीन के केवल ये दो कार्य ही उसे दिल्ली के सुल्तानों में सर्वश्रेष्ठ स्थान प्रदान करने के लिए पर्याप्त हैं।
(3.) शान्ति तथा सुव्यवस्था का शासन काल: अलाउद्दीन ने लगभग बीस वर्ष तक अत्यन्त सफलतापूर्वक शासन किया था। उसके सम्पूर्ण शासन काल में शान्ति तथा सुव्यवस्था स्थापित रही। राज्य में चोरी, डकैती तथा लूटमार नहीं होती थी। उसका दण्ड विधान इतना कठोर था कि लोगों को अपराध करने तथा झगड़ा करने का साहस नहीं होता था।
(4.) मौलिक तथा रचनात्मक प्रतिभा: अलाउद्दीन में उच्च कोटि की मौलिकता थी। उसके पूर्ववर्ती सुल्तानों ने जो संस्थाएं स्थापित की थीं, अलाउद्दीन उनसे संन्तुष्ट नहीं रहा और उसने उनमें कई बड़े परिवर्तन किये। उसने अपने उद्देश्यों की पूर्ति एवं राज्य कल्याण के लिये नई संस्थाओं की भी स्थापना की। स्थायी सेना की व्यवस्था, भूमि सम्बधी नियमों का निर्माण, बाजारों का प्रबंधन, दक्षिण भारत की विजय आदि ऐसे कार्य थे जो तब तक केवल अलाउद्दीन ने ही किये थे।
(5.) राजनीतिक एकता की स्थापना: अलाउद्दीन दिल्ली का प्रथम सुल्तान था जिसने सम्पूर्ण उत्तरी भारत तथा दक्षिण पर अपनी सत्ता स्थापित करने में सफलता प्राप्त की। इस प्रकार दिल्ली के सुल्तानों में सर्वप्रथम उसी ने राजनीतिक एकता स्थापित की थी। उसने प्रान्तीय शासन को केन्द्रीय शासन के अनुशासन तथा नियंन्त्रण में लाकर शासन में भी एकरूपता स्थापित की।
(6.) लौकिक राज्य की स्थापना: बलबन के बाद अलाउद्दीन दिल्ली का पहला सुल्तान था जिसने राजनीति को धर्म से अलग करने का प्रयास किया। उसने उलेमाओं को राजनीतिक मामलों और राज्य के कार्यों में हस्तक्षेप करने से अलग कर दिया।
(7.) पथ-प्रदर्शन का कार्य: अलाउद्दीन की शासन-व्यवस्था का महत्व इस बात से प्रकट होता है कि शेरशाह सूरी तथा अकबर ने भी अपनी शासन व्यवस्था में उसके सिद्धांतों का समावेश किया।
(8.) साहित्य तथा स्थापत्य को प्रश्रय: अलाउद्दीन स्वयं शिक्षित नहीं था परन्तु वह साहित्य तथा स्थापत्य कला का आश्रयदाता था। उसके दरबार में कई उच्च कोटि के कवि तथा साहित्यकार रहते थे जिनमें अमीर खुसरो तथा अमीर हसन उल्लेखनीय हैं। अलाउद्दीन ने अलाई दरवाजे का निर्माण करवाया जो उस काल के भवनों में भव्य तथा सुन्दर है। उसने बहुत से दुर्गों, मस्जिदों तथा राज्य प्रासादों का भी निर्माण करवाया।
उपर्युक्त तथ्यों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि दिल्ली के सुल्तानों में अलाउद्दीन को सर्वोत्कृष्ट स्थान प्राप्त होना चाहिए।
अलाउद्दीन खिलजी: दिल्ली सल्तनत का सर्वश्रेष्ठ सुल्तान नहीं
जो इतिहासकार अलाउद्दीन खिलजी को दिल्ली के सुल्तानों में सर्वश्रेष्ठ नहीं मानते, वे अपने मत के अनुमोदन में निम्नलिखित तर्क प्रस्तुत करते हैं-
(1.) अस्थायी कार्य: अलाउद्दीन ने कोई ऐसा कार्य नहीं किया जो स्थायी हो सका। अलाउद्दीन के समकालीन शेख वशीर दीवाना ने लिखा है- ‘अलाउद्दीन के राज्य की कोई स्थायी नींव नहीं थी और खिलजी वंश के विनाश का कारण अलाउद्दीन के शासन की स्वाभाविक दुर्बलता थी।’
(2.) एक व्यक्ति का शासन: सर जदुनाथ सरकार ने लिखा है- ‘स्वेच्छाचारी शासन स्वभावतः अनिश्चित तथा अस्थायी होता है।’ अलाउद्दीन का शासन भी स्वेच्छाचारी तथा निरंकुश था। राज्य की सारी शक्तियां केवल सुल्तान में केन्द्रीभूत थीं। इसलिये अलाउद्दीन का शासन अच्छा नहीं माना जा सकता और न ही उसे दिल्ली सल्तनत का सबसे महान सुल्तान माना जा सकता है।
(3.) सैनिक शक्ति पर आधारित शासन: अलाउद्दीन ने अपनी सेना के बल पर एक विशाल साम्राज्य की स्थापना की थी और सेना के बल पर ही बीस साल तक उस पर शासन किया था। जिस सुल्तान का शासन जनता की इच्छा पर आधारित नहीं होकर सैनिक शक्ति द्वारा चलाया जाये, उसे महान सुल्तान नहीं माना जा सकता।
(4.) क्रूर तथा निर्दयी शासन: अलाउद्दीन का शासन बड़ा ही क्रूर तथा निर्दयी था। वह बर्बरता तथा नृशंसता के साथ लोगों को दण्ड देता था। साधारण अपराधों के लिये भी अंग-भंग तथा मृत्यु दण्ड दे दिया करता था।
(5.) स्वार्थी तथा दुश्चरित्र: सुल्तान का व्यक्तिगत जीवन बड़ा ही घृणित था। वह स्वाभाविक तथा अस्वाभाविक मैथुन का व्यसनी था। वह बड़ा ही स्वार्थी था और अपने हित के लिए अपने निकटतम सम्बन्धियों एवं राज्याधिकारियों की हत्या करने में लेशमात्र संकोच नहीं करता था।
(6.) हिन्दुओं के साथ घृणित व्यवहार: सुल्तान अपनी हिन्दू प्रजा को घृणा तथा सन्देह की दृष्टि से देखता था तथा उसे सब प्रकार से अपमानित तथा पददलित करने का प्रयत्न करता था। हिन्दुओं को दरिद्र तथा विपन्न बनाना उसकी नीति का एक अंग था ताकि वे कभी भी सुल्तान के विरुद्ध विद्रोह न कर सकें।
(7.) स्वार्थपूर्ण सुधार: अलाउद्दीन की समस्त सुधार योजनाएं सुल्तान तथा सल्तनत की स्वार्थपूर्ति के उद्देश्य से आरम्भ की गई थीं न कि लोक-कल्याण के लिये। उसकी आर्थिक योजनाओं से केवल उसके सैनिकों को लाभ हुआ, जनसाधारण को नहीं। उसकी योजनाओं से सब लोग असंतुष्ट थे। उसकी सारी योजनाएं युद्धकालीन थी जो शान्ति के शासन के समय के लिए सर्वथा अनुपयुक्त थीं। फलतः वे समस्त अस्थायी सिद्ध हुईं।
(8.) आवश्यकता से अधिक केन्द्रीभूत शासन: यद्यपि अलाउद्दीन ने ऐसे युग में शासन किया था जब केन्द्रीभूत शासन की आवश्यकता थी परन्तु केन्द्रीभूत शासन की भी कुछ सीमाएं होती हैं। अलाउद्दीन इन सीमाओं का उल्लंघन कर गया। उसने केवल थोड़े से व्यक्तियों की सहायता से शासन करने का प्रयत्न किया था, इसलिये उसका शासन लोकप्रिय न बन सका और जब इन सहायकों की मृत्यु हो गई, तब उसका साम्राज्य पतनोन्मुख हो गया।
(9.) सांस्कृतिक कार्यों की उपेक्षा: अलाउद्दीन में साहित्य तथा कला के संवर्द्धन की प्रवृत्ति नहीं थी। उसका सारा ध्यान सेना को प्रबल बनाने तथा राज्य जीतने की ओर रहा। इसलिये सांस्कृतिक दृष्टि से उसका शासन गौरवहीन था।
(10.) निम्नकोटि के लोगों को प्रोत्साहन: अलाउद्दीन अपने अमीरों को नीचा दिखाने के लिये प्रायः निम्न वर्ग के कम योग्य लोगों को प्रोत्साहन देकर उन्हें उच्च पद दिया करता था जिसका राज्य पर बुरा प्रभाव पड़ा और अन्त में साम्राज्य के लिए बड़ा घातक सिद्ध हुआ।
(11.) उत्तराधिकारियों की रक्षा की उपेक्षा: अलाउद्दीन ने अपने पुत्रों को उचित शिक्षा नहीं दिलवाई जो उसके केन्द्रीभूत शासन को चला सकते थे। इसलिये उसके मरते ही उसका साम्राज्य ध्वस्त हो गया। उसने अपने उत्तराधिकारियों की रक्षा करने की बजाय उन्हें कारागृह में बंद कर दिया।
उपर्युक्त तर्कांे आधार पर कहा जाता है कि अलाउद्दीन का शासन सर्वथा गौरवहीन था और दिल्ली के सुल्तानों में उसे सर्वश्रेष्ठ स्थान प्रदान नहीं किया जा सकता।
निष्कर्ष
अलाउद्दीन की दुर्बलताएं उस युगीन प्रभाव के कारण थीं। उसकी विफलताएं अक्षम्य नहीं हैं। जिस युग तथा जिन परिस्थतियों में उसे कार्य करना पड़ा, उसके अनुकूल उसने आचरण किया और जिस लक्ष्य को उसने सामने रखा, उसे पूर्ण कर दिखाया, चाहे वह उच्च स्तर का रहा हो अथवा निम्न स्तर का। इसलिये उसकी गिनती दिल्ली सल्तनत के सर्वश्रेष्ठ सुल्तानों में होनी चाहिए।
उसके पूर्ववर्ती सुल्तानों में केवल इल्तुतमिश तथा बलबन ही उसकी स्पर्धा कर सकते हैं परन्तु विजेता तथा शासक दोनों ही रूपों में वे न्यूनतर ठहरते हैं।
अलाउद्दीन के पश्चवर्ती सुल्तानों में मुहम्मद बिन तुगलक ही उसकी समानता का दावा कर सकता है परन्तु जहाँ अलाउद्दीन को अपने समस्त उद्देश्यों में सफलता मिली, वहीं मुहम्मद बिन तुगलक को अपने समस्त उद्देश्यों में असफलता मिली। यदि केवल एक बिंदु को छोड़ दिया जाये कि उसने बहुसंख्य हिन्दू प्रजा पर भयानक अत्याचार किये तो दिल्ली के सुल्तानों तथा मध्यकाल के इतिहास में अलाउद्दीन को सर्वश्रेष्ठ स्थान प्रदान किया जाना चाहिए।