Saturday, July 27, 2024
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अध्याय – 7 : खिलजी वंश का संस्थापक जलालुद्दीन खिलजी

खिलजी वंश

कैकूबाद के तुर्की अमीरों ने जलालुद्दीन खिलजी को मारने का षड़यंत्र इसलिये रचा था क्योंकि वह जलालुद्दीन खिलजी तुर्क नहीं था। तत्कालीन इतिहासकारों निजामुद्दीन अहमद, बदायूंनी तथा फरिश्ता ने खिलजियों के वंश की उत्पत्ति के बारे में अलग-अलग बातें लिखी हैं। तारीखे फखरुद्दीन मुबारकशाही के लेखक फखरुद्दीन ने 64 तुर्की कबीलों की एक सूची दी है जिसमें खिलजी कबीला भी सम्मिलित है। विन्सेट स्मिथ के विचार में खिलजी लोग अफगान अथवा पठान थे परन्तु यह धारणा सर्वथा अमान्य हो गई है। सर हेग के विचार में खिलजी मूलतः तुर्क थे परन्तु बहुत दिनों से अफगानिस्तान के गर्मसीर प्रदेश में रहने के कारण उन्होंने अफगान रीति-रिवाजों को ग्रहण कर लिया था। इसी से भारतीय तुर्क उन्हें तुर्क मानने के लिए तैयार नहीं थे। हिस्ट्री ऑफ खिलजीज के लेखक डॉ. के. एस. लाल ने इस्लामी इतिहासकारों की बातों का निष्कर्ष निकालते हुए यह मत प्रस्तुत किया है कि खिलजी भी तुर्की थे जो 10वीं शताब्दी के पहले, तुर्किस्तान से आकर अफगानिस्तान के खल्ज प्रदेश में बस गये थे। उन्होंने अफगानी रीति रिवाजों को अपना लिया था।

उपरोक्त तथ्यों को देखते हुए यही मानना उचित प्रतीत होता है कि खिलजी मूलतः तुर्क थे जो कालान्तर में तुर्किस्तान से चलकर अफगानिस्तान की हेलमन्द घाटी तथा लमगाम प्रदेश के गर्मसीर क्षेत्र में आकर बस गये थे। दो सौ साल तक अफगानिस्तान में रहने के कारण उनका रहन-सहन पठानों के जैसा हो गया। अफगानिस्तान में खल्ज नामक गाँव के नाम से से वे खिलजी कहलाये। अधिकांश भारतीय इतिहासकारों की भांति लगभग समस्त विदेशी इतिहासकारों ने भी खिलजियों को तुर्क माना है।

खिलजियों का भारत में प्रवेश

भारत में आने वाले अधिकांश खिलजी या तो तुर्क आक्रांताओं के साथ उनके सैनिकों के रूप में आये थे या फिर मंगोलों के आक्रमण से त्रस्त होकर उन्हें अफगानिस्तान छोड़कर भारत आना पड़ा था और उन्होंने तुर्की अमीरों तथा सुल्तानों की सेवा करना स्वीकार कर लिया था।

जलालुद्दीन फीरोज खिलजी

भारत में खिलजी राजवंश का संस्थापक जलालुद्दीन खिलजी 70 वर्ष की आयु में 1290 ई. में दिल्ली के तख्त पर बैठा। इससे पहले वह अनेक वर्षों तक बलबन तथा कैकुबाद के लिये कार्य करता रहा था। उसका राजगद्दी संभालना मामलुक राजवंश (गुलाम वंश) के अंत और तुर्क गुलाम अभिजात्य वर्ग के वर्चस्व का द्योतक था। जलालुद्दीन खिलजी एक कट्टर मुसलमान था जो मुजाहिद-ए-सबीलिल्लाह (अल्लाह की राह में संघर्षरत) के रूप में स्वीकारा जाना चाहता था। वह भारत में इस्लामिक नियम एवं कानून लागू करने में अपनी असमर्थता को लेकर दुखी रहता था। उसे इस बात का दुख था कि- ‘हम सुल्तान महमूद से अपनी तुलना नहीं कर सकते…… हिन्दू…… हर दिन मेरे महल के नीचे से गुजरते हैं, अपने ढोल और तुरही बजाते हुए और यमुना नदी में जाकर मूर्ति पूजा करते हैं।’

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जलालुद्दीन खिलजी का प्रारम्भिक जीवन

जलालुद्दीन खिलजी का वास्तविक नाम मलिक फीरोज खिलजी था। वह ‘खिलजी’ कबीले का तुर्क था। जलालुद्दीन का कुटुम्ब भारत चला आया और दिल्ली के सुल्तानों के यहाँ नौकरी करने लगा। जलालुद्दीन ने सर्वप्रथम नासिरूद्दीन महमूदशाह अथवा बलबन के शासन काल में सेना में प्रवेश किया था। बलबन के जिन सेनापतियों को सीमा प्रदेश की रक्षा के लिए नियुक्त किया गया था उनमें से जलालुद्दीन भी एक था। कैकुबाद के शासनकाल में जलालुद्दीन शाही अंगरक्षकों के अध्यक्ष के उच्च पद पर पहुँच गया। बाद में वह समाना का गवर्नर नियुक्त कर दिया गया। वह योग्य सेनापति था। सीमान्त प्रदेश में कई बार उसने मंगोलों के विरुद्ध युद्ध में सफलता प्राप्त की। इस प्रकार उसने सैनिक तथा शासक दोनों रूपों में ख्याति प्राप्त कर ली थी। इसलिये कैकुबाद ने उसे शाइस्ता खाँ की उपाधि दी। जब सेना-मंत्री मलिक तुजाकी की मृत्यु हो गई तो कैकुबाद ने उसे सेना-मंत्री के उच्च पद पर नियुक्त कर दिया। दिल्ली दरबार में मंत्री होने के साथ-साथ वह समस्त भारत में बिखरे हुए विशाल खलजी कबीले का प्रमुख भी था। इस कबीले के लोग इख्तियारुद्दीन-बिन-बख्तियार खिलजी के समय बंगाल में शासन कर चुके थे। जब कैकुबाद को लकवा हो गया तब तुर्की अमीरों ने जलालुद्दीन खिलजी की हत्या का षड़यंत्र रचा। इस पर जलालुद्दीन दिल्ली में घुसकर शिशु सुल्तान क्यूमर्स को उठा ले गया। जब तुर्की अमीरों ने उसका पीछा किया तो खिलजियों ने तुर्की अमीरों को मार डाला। कुछ दिन बाद जब खिलजियों ने कैकुबाद के महल में घुसकर उसे लातों से मार डाला तब जलालुद्दीन, क्यूमर्स को दिल्ली ले आया तथा उसका संरक्षक बनकर शासन करने लगा। कुछ ही दिन बाद जलालुद्दीन ने शिशु सुल्तान क्यूमर्स को कारागार में डाल दिया तथा स्वयं दिल्ली का स्वतंत्र सुल्तान बन गया।

जलालुद्दीन का राज्यारोहण

13 जून 1290 को जलालुद्दीन फीरोजशाह खिलजी की उपाधि धारण करके दिल्ली के तख्त पर बैठ गया। उस समय उसकी आयु 70 वर्ष की थी। तुर्की अमीरों के उत्पात से बचने के लिये वह दिल्ली की बजाय कीलूगढ़ी अथवा किलोखरी में तख्त पर बैठा और उसी को अपनी राजधानी बनाया। यहाँ पर उसने कैकुबाद के अपूर्ण भवन को पूर्ण करवाया और उसी में रहने लगा।

जलालुद्दीन की गृह-नीति

सुल्तान बनने के बाद जलालुद्दीन ने दिल्ली के उन अमीरों का विश्वास जीतने का प्रयास किया जिन्होंने खिलजियों का विरोध नहीं किया था। इसलिये उसने शासकीय पदों पर खिलजियों के साथ-साथ अन्य मुसलमानों को भी नियुक्त किया। इससे वह बहुत से तुर्की अमीरों का प्रिय विश्वासपात्र बन गया। दिल्ली के कोतवाल ने उसे किलोखरी से दिल्ली आने के लिए आमन्त्रित किया। सुल्तान ने उसके निमन्त्रण को स्वीकार कर लिया और दिल्ली आकर वहीं से शासन का संचालन आरम्भ किया। उसके समय दिल्ली में घटी प्रमुख घटनायें इस प्रकार से हैं-

(1) मलिक छज्जू का विद्रोह: मलिक छज्जू बलबन का भतीजा था। जलालुद्दीन ने उसे सन्तुष्ट करने के लिये कड़ा मानिकपुर का हाकिम बना दिया। मलिक छज्जू ने चुपचाप सुल्तान की अधीनता स्वीकार कर ली और राजभक्ति प्रदर्शित करने लगा किंतु असन्तुष्ट तुर्क सरदारों ने उसे विद्रोह करने के लिए उकसाया। दूसरी ओर युवा खिलजी भी सुल्तान की इस नीति से अंसतुष्ट थे कि सुल्तान अन्य मुसलमानों को भी शासन में ऊँचे पद दे रहा था। इन परिस्थितियों में मलिक छज्जू ने विद्रोह का झंडा खड़ा करके स्वयं को स्वतन्त्र सुल्तान घोषित कर दिया। उसने अपना राज्याभिषेक करवाया, अपने नाम की मुद्रायें अंकित करवाईं। उसने ‘मुगीसुद्दीन’ उपाधि धारण की तथा अपने नाम में खुतबा पढ़वाया। इसके बाद अपने पूर्वजों का सिहांसन प्राप्त करने के लिए एक विशाल सेना के साथ दिल्ली की ओर कूच कर दिया। जब जलालुद्दीन खिलजी को मलिक छज्जू के विद्रोह की सूचना मिली तब उसने भी एक विशाल सेना के लेकर उसका सामना किया। इस युद्ध में मलिक छज्जू परास्त हो गया। उसे तथा उसके साथियों को बन्दी बनाकर सुल्तान के समक्ष उपस्थित किया गया। जलालुद्दीन खिलजी ने विद्रोहियों को कठोर दण्ड देने के स्थान पर उसके साथ अतिथियों का सा व्यवहार किया। मलिक छज्जू तथा उसके साथियों को बन्धन-मुक्त करके उनके वस्त्र बदलवाये तथा उन्हें मदिरा-पान करवाया। इसके बाद उन्हें भविष्य में विद्रोह न करने का उपदेश देकर सुल्तान ने उन्हें क्षमा कर दिया तथा उन्हें कोई सजा नहीं दी। सुल्तान के निर्देश पर मलिक छज्जू को नजरबन्द करके दिल्ली में ही रखा गया और उस पर कड़ा पहरा बैठा दिया गया जबकि अन्य प्रमुख विद्रोहियों को दिल्ली से बाहर स्थानांतरित कर दिया गया। कड़ा मानिकपुर का शासन किसी अन्य अमीर को सौंप दिया गया। सुल्तान की इस उदारता की तीव्र आलोचना की गई।

(2) डाकुओं तथा ठगों के साथ उदार व्यवहार: जलालुद्दीन ने डाकुओं तथा ठगों के साथ भी वही व्यवहार किया जो उसने विद्रोहियों के साथ किया था। जब हजारों डाकू पकड़कर सुल्तान के सामने उपस्थित किये गये तो सुल्तान ने उन्हें कठोर दण्ड देने के स्थान पर उन्हें चोरी की बुराइयों पर उपदेश दिया। सुल्तान ने उन्हें चेतावनी दी कि फिर कभी ऐसा निकृष्ट कार्य न करें और उन्हें नावों में बैठाकर बंगाल भेज दिया।

(3) सुल्तान की उदार नीति का विरोध: सुल्तान की उदार नीति की सर्वत्र आलोचना होने लगी। उसकी उदारता को उसकी दुुर्बलता समझा गया। तुर्की अमीर तो पहिले से ही उससे असंतुष्ट थे, अब खिलजी अमीर भी उससे अप्रसन्न हो गये।

(4) सीदी मौला का षड़यंत्र: सीदी मूलतः फारस से आया हुआ एक दरवेश था जो 1291 ई. में दिल्ली चला आया और दिल्ली में ही स्थायी रूप से निवास कर रहा था। सीदी के गुरु ने उसे राजनीति से दूर रहने का उपदेश दिया था परन्तु भारत आने पर उसकी रुचि दिल्ली की राजनीति में उत्तरोत्तर बढ़ती ही गई। सीदी के धार्मिक उपदेशों के कारण सहस्रों व्यक्ति उसके शिष्य बन गये। बड़े-बड़े अमीर भी उसके यहाँ आने लगे। कहा जाता है कि उसने एक खानकाह बनवाई थी जिसमें सहस्रों व्यक्तियों को प्रति दिन मुफ्त भोजन मिलता था। लोगों में सीदी के आय के साधनों के बारे में तरह-तरह की बातें होती थीं। कुछ लोग उसे डाकुओं तथा लुटेरों का सरदार समझते थे। जब दिल्ली में उसके चाहने वालों की संख्या बढ़ गई तो सीदी ने राजनैतिक शक्ति प्राप्त करने के लिये षड्यन्त्र रचना आरम्भ किया। यह तय किया गया कि शुक्रवार की नमाज के बाद सुल्तान को खत्म कर दिया जाये तथा सीदी को खलीफा घोषित कर दिया जाये। सुल्तान को इस षड्यन्त्र का पता लग गया। उसने सीदी को पकड़वा कर दरबार में बुलवाया। जब सीदी को सुल्तान के सामने लाया गया तब सीदी ने किसी भी षड़यंत्र में शामिल होने की बात से इन्कार कर दिया तथा सुल्तान से विवाद करना आरम्भ कर दिया। इस पर जलालुद्दीन को क्रोध आ गया और चिल्लाकर बोला- ‘यहाँ कोई नहीं है जो इस दुष्ट को ठीक कर दे।’ इतना सुनते ही एक व्यक्ति ने सीदी को छुरा भोंक दिया। छुरा लगने पर भी उसके प्राण नहीं निकले। इस पर अर्कली खाँ ने उसे हाथी के पैर के नीचे कुचलवा दिया।

कहा जाता है कि जिस दिन सीदी को मारा गया, उस दिन दिल्ली में ऐसा भयानक तूफान आया कि दिन में ही रात्रि हो गई। उसके बाद आगामी ऋतु में वर्षा न होने से भयानक अकाल पड़ गया। कुछ समय उपरान्त सुल्तान की भी नृशंसता पूर्वक हत्या कर दी गई।

जलालुद्दीन के सैनिक अभियान

जलालुद्दीन खिलजी की युद्ध नीति भी उसकी गृहनीति की भाँति अत्यन्त दुर्बल थी। वह सैनिकों का रक्तपात नहीं करना चाहता था। वह मुसलमान सैनिकों का जीवन, हिन्दुओं के किलों से अधिक मूल्यवान समझता था। तख्त पर बैठने के बाद उसने एक-दो आक्रमण किये परन्तु उसे विशेष सफलता नहीं मिली। जलालुद्दीन के शासन काल में दिल्ली की सेनाओं ने निम्नलिखित अभियान किये-

(1) रणथम्भौर के विरुद्ध असफल अभियान: सुल्तान जलालुद्दीन का पहला आक्रमण 1291 ई. में रणथम्भौर पर हुआ। सुल्तान ने स्वयं इस युद्ध का संचालन किया। सबसे पहले उसने झाईं पर आक्रमण करके उस पर अधिकार स्थापित कर लिया। इसके बाद उसने अपनी सेना के एक हिससे को मालवा की ओर भेजा जिसने लूटमार करके पर्याप्त धन प्राप्त कर लिया। अब सुल्तान ने रणथम्भौर पर आक्रमण किया। राजपूत अपने दुर्ग की रक्षा के लिए दृढ़़ सकंल्प थे। उन्होंने बड़ी वीरता से तुर्कों का सामना किया। राजपूतों की दृढ़़ता तथा दुर्ग की अभेद्यता से हताश होकर सुल्तान ने रणथम्भौर विजय का विचार त्याग दिया और दिल्ली लौट आया। इस असफलता से सुल्तान की प्रतिष्ठा को धक्का लगा परन्तु सुल्तान ने अपनी असफलता को यह कह कर टाल दिया कि उसके मुसलमानों के सिर का प्रत्येक बाल, रणथम्भौर जैसे सौ दुर्गों से अधिक मूल्यवान था।

(2) मण्डोर पर आक्रमण: सुल्तान का दूसरा आक्रमण मण्डोर पर हुआ। मण्डोर का राज्य पहले दिल्ली की सल्तनत के अधीन था परन्तु बाद में राजपूतों ने उस पर अपना अधिकार कर लिया। 1292 ई. में जलालुद्दीन ने उसे फिर अपने अधिकार में कर लिया।

(3) मंगोलों का दमन: 1292 ई. में डेढ़ लाख मंगोलों ने हुलागू खाँ के पौत्र अब्दुल्ला के नेतृत्व में भारत पर आक्रमण किया। जलालुद्दीन ने भी एक विशाल सेना के साथ पश्चिमोत्तर सीमा की ओर प्रस्थान किया। मंगोल-सेना ने सिन्धु नदी के पश्चिमी तट पर पड़ाव डाल रखा था। सुल्तान की सेना नदी के पूर्वी तट पर आ डटी। मंगोलों की सेना ने नदी पार करके दिल्ली की सेना पर आक्रमण करने का प्रयास किया परन्तु सुल्तान जलालुद्दीन ने अत्यन्त दु्रतगति से उस पर आक्रमण करके उसे परास्त कर दिया। सहस्रों मंगोलों को बन्दी बना लिया गया।

मंगोलों को दिल्ली के निकट बसने की अनुमति

मंगोलांे का सरदार अब्दुल्ला अपने अधिकांश मंगोल सैनिकों के साथ अपने देश को लौट गया परन्तु चंगेज खाँ के पौत्र उलूग खाँ तथा कई अन्य मंगोल सरदारों ने जलालुद्दीन की नौकरी करना स्वीकार करके इस्लाम स्वीकार कर लिया तथा बहुत से मंगोल सैनिकों के साथ दिल्ली के निकट बस गये। यह स्थान मंगोलपुरा के नाम से प्रसिद्ध हुआ। ये लोग नव-मुस्लिम कहलाने लगे। सुल्तान ने अपनी कन्या का विवाह उलूग खाँ के साथ कर दिया। मंगोल सरदार के साथ अपनी कन्या का विवाह करके सुल्तान ने दिल्ली सल्तनत की प्रतिष्ठा को बहुत ठेस पहुँचाई। मंगोलों को राजधानी के निकट बसाना भी सल्तनत के लिये अत्यन्त घातक सिद्ध हुआ क्योंकि मंगोलपुरा षड्यन्त्रों तथा कुचक्रों का केन्द्र बन गया।

अलाउद्दीन को सैनिक अभियानों की कमान

1192 ई. में मंगोलो को परास्त करने के बाद जलालुद्दीन खिलजी ने किसी भी सैनिक अभियान का नेतृत्व नहीं किया। इसके बाद के सारे सैनिक अभियान उसके भतीजे एवं दामाद अलाउद्दीन के नेतृत्व में हुए।

(1) मालवा पर आक्रमण: 1292 ई. में सुल्तान की आज्ञा से अलाउद्दीन खिलजी ने मालवा पर आक्रमण किया। अलाउद्दीन ने भिलसा पर अधिकार कर लिया और वहाँ के मन्दिरों तथा सेठ-साहूकारों को लूटकर अपार धन एकत्रित कर लिया। इस धन को लेकर वह दिल्ली लौट आया और समस्त धन सुल्तान को भेंट कर दिया। सुल्तान ने प्रसन्न होकर कड़ा के साथ-साथ अवध की भी जागीर उसे दे दी और उसे आरिज-ए-मुमालिक के पद पर नियुक्त कर दिया।

(2) देवगिरी पर आक्रमण: मालवा में अलाउद्दीन को जो सफलता प्राप्त हुई, उससे उसका उत्साह बहुत बढ़ गया। भिलसा में ही उसने देवगिरी के यादव राज्य की अपार सम्पत्ति के विषय में सुना था। उसने इस राज्य की विशाल सम्पत्ति के लूटने का निश्चय किया परन्तु अपने ध्येय को किसी पर प्रकट नहीं होने दिया। उसने सुल्तान से चन्देरी पर आक्रमण करने की आज्ञा तथा सैनिकों को भर्ती करने की अनुमति प्राप्त कर ली। उसका वास्तविक उद्देश्य देवगिरी पर ही आक्रमण करना था। 1294 ई. में एक विशाल सेना के साथ अलाउद्दीन ने दक्षिण के लिए प्रस्थान कर दिया। वह अत्यन्त दु्रतगति से चलता हुआ एलिचपुर पहुँचा तथा उस पर आक्रमण कर दिया। इसके थोड़े ही दिन बाद उसने देवगिरी पर आक्रमण कर दिया। देवगिरि के राजा रामचन्द्र को अलाउद्दीन की गतिविधियों की कुछ भी जानकारी नहीं थी। इसलिये उसने अपने राज्य की सुरक्षा की कोई व्यवस्था नहीं की। अलाउद्दीन ने जब देवगिरि पर आक्रमण किया तब यह भी झूठी खबर चारों ओर फैला दी कि सुल्तान भी 20,000 सैनिकों की सेना के साथ आ रहा है। इससे रामचन्द्र और अधिक आतंकित हो उठा। उसने अपनी राजधानी से 12 मील दूर लसूरा नामक स्थान पर अलाउद्दीन का सामना किया। उसने स्वयं को लूूसरा के दुर्ग में बन्द कर लिया और अपने पुत्र शंकर देव, जो दक्षिण विजय अभियान पर था, के पास सूचना भेजी कि वह शीघ्रातिशीघ्र देवगिरि लौट आये। इधर उसने अलाउद्दीन से सन्धि की भी बातचीत आरम्भ कर दी। अन्त में यह निश्चित हुआ कि रामचन्द्र एक निश्चित धनराशि देगा और अलाउद्दीन कैदियों को मुक्त करके दिल्ली लौट जायेगा। जिस समय आलाउद्दीन लूट का माल लेकर दिल्ली के लिए प्रस्थान कर रहा था कि शंकरदेव अपनी सेना के साथ दक्षिण से आ गया। उसने अलाउद्दीन के पास कहला भेजा कि वह लूट का माल दे दे और दिल्ली लौट जाये। अलाउद्दीन ने शंकरदेव की इस चुनौती को स्वीकार कर लिया। उसने नसरत खाँ को दुर्ग पर घेरा डालने का आदेश दिया और स्वयं एक सेना लेकर शंकरदेव पर आक्रमण कर दिया। शंकरदेव परास्त हो गया। अब दुर्ग का घेरा जोरों के साथ आरम्भ हुआ। जब रामचन्द्र को यह ज्ञात हुआ कि दुर्ग के जिन बोरों में वह अन्न भरा हुआ समझ रहा था उनमें तो नमक भरा है, तब रामचंद्र का साहस भंग हो गया और उसने अलाउद्दीन से सन्धि कर ली। इस बार उसे पहले से अधिक कठोर शर्तें स्वीकार करनी पड़ीं। फरिश्ता के अनुसार, अलाउद्दीन को छः सौ मन सोना, सात मन मोती, दो मन हीरा, पन्ना, लाल, पुखराज, एक हजार मन चाँदी, चार हजार रेशम के थान तथा अन्य असंख्य बहुमूल्य वस्तुऐं दी गईं। बरार में एलिचपुर का प्रान्त भी अलाउद्दीन को मिल गया। राजा ने वार्षिक कर भी अलाउद्दीन के पास भेजने का वचन दिया।

अलाउद्दीन खिलजी की गद्दारी

जब अलाउद्दीन, सुल्तान को बताये बिना देवगिरि का अभियान कर रहा था, उस समय सुल्तान ग्वालियर में था। उसे अलाउद्दीन के इस गुप्त अभियान की सूचना मिल गई। इस पर सुल्तान के अमीरों ने सुल्तान को सलाह दी कि वह अलाउद्दीन का मार्ग रोककर उससे लूट का माल छीन ले किंतु सुल्तान ने ऐसा करने से मना कर दिया और दिल्ली चला गया। सुल्तान को आशा थी कि पहले की भाँति इस बार भी अलाउद्दीन लूट की सम्पूर्ण सम्पत्ति लेकर, सुल्तान की सेवा में उपस्थित होगा और उसे समर्पित कर देगा परन्तु इस बार अलाउद्दीन ने ऐसा न करके लूट की अपार सम्पत्ति लेकर कड़ा की ओर प्रस्थान किया। सुल्तान ने अमीरों की एक सभा की और उनसे परामर्श लिया। सुल्तान के शुभचिन्तकों ने उसे समझाया कि अलाउद्दीन बड़ा ही महत्वाकांक्षी व्यक्ति है। उसकी दृष्टि तख्त पर लगी है। अतः कठोर नीति का अनुसरण करने की आवश्यकता है। उसे एक विशाल सेना लेकर अलाउद्दीन के विरुद्ध अभियान करना चाहिये तथा उससे सारी सम्पत्ति छीन लेनी चाहिये। सुल्तान के चाटुकार अमीरों ने इसके विपरीत सलाह दी तथा सुल्तान को समझाया कि यदि उसने ऐसा किया तो अलाउद्दीन तथा उसके साथी आतंकित होकर इधर-उधर भाग जायेंगे जिससे सारा धन तितर-बितर हो जायेगा। सुल्तान को इन चाटुकारों की सलाह पसन्द आयी और उसने इसी को व्यवहार में लाने का निश्चय किया।

अलाउद्दीन, सुल्तान की दुर्बलताओं से भली-भांति परिचित था। उसने सुल्तान के पास एक पत्र भेजा जिसमें अपने अपराध को स्वीकार किया और प्रार्थना की कि यदि उसे अभयदान मिल जायगा तो लूट की सम्पत्ति के साथ वह सुल्तान की सेना में उपस्थित होगा। सुल्तान अपनी उदारता के वशीभूत था। उसने अलाउद्दीन के पास क्षमादान भेज दिया। अलाउद्दीन ने सूचना वाहकों को वापस दिल्ली नहीं लौटने दिया। इस पर भी सुल्तान की आँखें नहीं खुलीं। अब अलाउद्दीन ने अपने भाई असलम बेग के पास एक पत्र भेजा जिसमें उसने लिखा कि वह इतना आतंकित हो गया है कि दरबार में जाकर सुल्तान के समक्ष उपस्थित होने का साहस नहीं हो रहा है। उसका हृदय क्षोभ से इतना संतप्त है कि वह आत्महत्या करने के लिये उद्यत है। उसकी रक्षा का एकमात्र उपाय यही है कि सुल्तान स्वयं कड़ा आकर उसे क्षमा कर दे। जब असलम बेग ने सुल्तान को यह पत्र दिखाया तब सुल्तान ने उससे कहा कि वह तुरन्त कड़ा जाकर अलाउद्दीन को आश्वासन दे। सुल्तान ने स्वयं भी कड़ा जाने का निश्चय कर लिया।

जलालुद्दीन खिलजी की हत्या

जब अलाउद्दीन ने सुना कि सुल्तान सेना लेकर आ रहा है तो उसने लूट की सारी सम्पत्ति के साथ बंगाल भाग जाने की योजना बनाई परन्तु जब उसे यह ज्ञात हुआ कि सुल्तान केवल एक हजार सैनिकों के साथ आ रहा है तब उसने बंगाल जाने का विचार त्याग दिया। उसने गंगा नदी को पार किया और दूसरे तट पर अपनी सेना को एकत्रित कर लिया। इसके बाद उसने असलम बेग को सुल्तान का स्वागत करने के लिए भेजा। असलम बेग ने सुल्तान को सरलता से अलाउद्दीन के जाल में फँसा लिया। उसके कहने से सुल्तान ने अपने सैनिकों को पीछे छोड़ दिया और केवल थोड़े से अमीरों के साथ अलाउद्दीन से मिलने के लिए आगे बढ़ा। सुल्तान अपने भतीजे के  स्नेह में अंधा हो गया। उसने अलाउद्दीन को निःशंक बनाने के लिये अपने अमीरों के शस्त्र गंगा नदी में फिकवा दिये। अलाउद्दीन ने सुल्तान का स्वागत किया। सुल्तान ने उसे गले लगा लिया। जब सुल्तान जलालुद्दीन, अलाउद्दीन का आंलिगन करके अपनी नाव की ओर लौट रहा था, तब मुहम्मद सलीम नामक व्यक्ति ने सुल्तान को छुरा मार दिया। सुल्तान घायल होकर नाव की ओर भागा परन्तु एक दूसरे व्यक्ति ने उसे धरती पर गिराकर उसके सिर को धड़ से अलग कर दिया। इस प्रकार जलालुद्दीन खिलजी की जीवन-लीला समाप्त हो गई।

जलालुद्दीन खिलजी का चरित्र एवं मूल्यांकन

जियाउद्दीन बरनी का ग्रंथ तारीखे-फीरोजशाही एकमात्र उपलब्ध ऐतिहासिक स्रोत है जिसके माध्यम से जलालुद्दीन खिलजी के शासनकाल की घटनाओं की जानकारी मिलती है। जियाउद्दीन बरनी, जलालुद्दीन खिलजी का घनघोर आलोचक था क्योंकि जलालुद्दीन खिलजी एक उदार शासक था। उसने उन्हीं घटनाओं को अपने ग्रंथ में लिखने का प्रयास किया जो जलालुद्दीन की नीतियों को असफल घोषित करने के लिये लिये पर्याप्त हैं। जलालुद्दीन खिलजी दिल्ली का पहला सुल्तान था जिसने उदार निरकंुशवाद के आदर्श को अपनाया। वह सफल सेनानायक था और एक शक्तिशाली सेना उसके अधिकार में थी। फिर भी उसने सैनिकवादी नीति को त्याग दिया। इस पर भी उसने डेढ़ लाख मंगोलों की सेना को परास्त करके अपनी सामरिक क्षमता का परिचय दिया। वह अपनी उदार नीति के माध्यम से दरबार तथा राज्य के समस्त वर्गों के लोगों को संतुष्ट रखना चाहता था। उसने बलबन तथा उसके वंशजों के अनुयायी तुर्क अमीरों को महत्वपूर्ण पदों पर बने रहने दिया। उसने पूर्ववर्ती सुल्तानों के प्रति सम्मान का प्रदर्शन करते हुए बलबन के महल के चौक में घोड़े पर सवार होने से मना कर दिया। उसने सुल्तान के पुराने सिंहासन पर बैठने से भी इसलिये मना कर दिया क्योंकि वह अनेक बार सेवक के रूप में इस सिंहासन के सम्मुख खड़ा हो चुका था। जलालुद्दीन खिलजी ने जब विद्रोही मलिक छज्जू को बेड़ियों में बंधे हुए देखा तो जलालुद्दीन खिलजी रो पड़ा। मुसलमानों के प्रति वह अत्यंत उदार था किंतु हिन्दुओं के प्रति पूरी तरह अनुदार था। उसने झैन में मंदिरों को तोड़ा तथा अपवित्र किया और देव-मूर्तियों को नष्ट किया। जलालुद्दीन ने हिन्दू सामन्तों के विरुद्ध इसलिये कोई विशेष कार्यवाही नहीं की क्योंकि वह मुसलमान सैनिकों का रक्तपात होते हुए नहीं देखना चाहता था।

जलालुद्दीन खिलजी की उपलब्धियाँ

चार वर्ष के संक्षिप्त शासन काल में जलालुद्दीन खिलजी की सबसे बड़ी उपलब्धि यह है कि उसने जीर्ण हो चले इल्बरी तुर्कों के शासन को नष्ट करके दिल्ली सल्तनत में नये राजवंश की नींव रखी। उसकी दूसरी उपलब्धि यह कही जा सकती है कि उसने शासन में उदारवादी तत्वों का समावेश करके सबको राहत देने का प्रयास किया। उसकी तीसरी सबसे बड़ी उपलब्धि यह है कि उसने मंगालों के एक बड़े समूह को इस्लाम का अनुयायी बनाकर उन्हें अपनी सेवा में रख लिया था।

जलालुद्दीन खिलजी की भूलें

निःसंदेह जलालुद्दीन खिलजी विशाल साम्राज्य का संस्थापक था। उसने वृद्धावस्था में जिस अदम्य साहस का परिचय देकर खिलजी वंश की नींव रखी, वह उसकी सफलता का प्रमाण है किंतु विशाल साम्राज्य के शासक के रूप में उसने कई भलें कीं। उसकी सबसे बड़ी भूल यह थी कि वह उस विश्वासघाती युग में भी सबका विश्वास कर लेता था तथा समान धर्म के शत्रुओं के प्रति उदारता दिखाता था। उसने मंगालों को दिल्ली के निकट बसने की अनुमति प्रदान की। कालांतर में ये मंगोल, दिल्ली सल्तनत में षड़यंत्रों एवं कुचक्रों का केन्द्र बन गये। जलालुद्दीन की दूसरी सबसे बड़ी भूल अलाउद्दीन के विरुद्ध समय रहते कार्यवाही नहीं करना तथा उस पर विश्वास करके बिना सेना लिये ही उससे मिलने के लिये चले जाना था। यही भूल उसके पतन का कारण बन गई।

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