औरंगजेब की राजपूत नीति मजहबी संकीर्णता पर आधारित थी। वह राजपूत राजाओं से अपने साम्राज्य का विस्तार तो करवाना चाहता था किंतु साथ ही उन्हें मुसलमान भी बनाना चाहता था। औरंगजेब की हिन्दू विरोधी नीति के कारण राजपूत राज्यों के साथ उसका संघर्ष अनिवार्य हो गया।
औरंगजेब की राजपूत नीति
बुंदेलों से युद्ध
सबसे पहले बुन्देलों ने विद्रोह का झण्डा खड़ा किया। इन लोगों ने अपने राजा चम्पतराय के नेतृत्व में औरंगजेब के शासन काल के प्रारम्भ में ही मुगल सल्तनत के साथ युद्ध छेड़ दिया। चम्पतराय को अपने सीमित साधनों के कारण औरंगजेब के विरुद्ध सफलता प्राप्त नहीं हुई। उसने आत्मघात कर लिया और स्वयं को मुगलों के हाथों में पड़ने से बचाया।
चम्पतराय के बाद उसके पुत्र छत्रसाल ने मुगलों के विरुद्ध युद्ध जारी रखा। वह वीर तथा साहसी युवक था। उसने बुन्देलों के विद्रोह को बुंदेलों की स्वतंत्रता के लिये लड़े जा रहे संग्राम का रूप दे दिया। उसने कई बार शाही सेना को युद्धों में परास्त किया जिससे मुगल सल्तनत की प्रतिष्ठा को आघात पहुँचा।
छत्रसाल ने पूर्वी मालवा को जीतकर अपना स्वतन्त्र राज्य स्थापित कर लिया और पन्ना को अपनी राजधानी बनाकर स्वतन्त्रतापूर्वक शासन करने लगा। वह मुगल सल्तनत को आतंकित करने का कोई अवसर हाथ से नहीं जाने देता था।
राठौड़ों से युद्ध
मारवाड़ रियासत के राठौड़ राजा जसवंतसिंह, औरंगजेब की सेवा में थे। 1678 ई. में जमरूद के मोर्चे पर मुगलों की तरफ से लड़ते हुए उनकी मृत्यु हुई। जसवन्तसिंह की मृत्यु के बाद उनके पुत्र अजीतसिंह का जन्म हुआ। औरंगजेब ने मारवाड़ को खालसा घोषित करके मुगल सल्तनत में मिला लिया तथा शिशु राजा अजीतसिंह और उसकी माँ को दिल्ली बुलवाकर उन्हें बंदी बना लिया।
औरंगजेब ने शिशु अजीतसिंह का मुसलमानी तरीके से पालन-पोषण करने की आज्ञा दी। राठौड़ सरदार, अजीतसिंह को दिल्ली से निकालकर राजपूताने में ले आये और उसे सिरोही राज्य के कालंद्री गांव में छिपा दिया। अजीतसिंह के बड़े होने तक राठौड़ सरदारों ने वीर दुर्गादास के नेतृत्व में मुगलों के विरुद्ध युद्ध किया जो तीस वर्ष तक चला।
दुर्गादास को दण्डित करने के लिए औरंगजेब ने शाहजादा मुहम्मद अकबर की अध्यक्षता में एक सेना भेजी और स्वयं भी दिल्ली से अजमेर पहुँचा। दुर्गादास के लिए मुगल सेना का सामना करना अत्यंत दुष्कर कार्य था। मुगल सेना ने मारवाड़ के नगरों को बुरी तरह लूटा, मन्दिरों को तोड़ा और सारे प्रदेश को नष्ट-भ्रष्ट कर दिया।
राठौड़ों का धैर्य भंग नहीं हुआ। वे छापामार पद्धति से युद्ध करने लगे और अपनी रियासत प्राप्त करने का प्रयास करते रहे। 1707 ई. में औरंगजेब की मृत्यु होने पर अजीतसिंह ने मारवाड़ रियासत पर अधिकार कर लिया। मुगल बादशाह बहादुरशाह ने अजीतसिंह को मारवाड़ का राजा स्वीकार कर लिया। इस प्रकार मुगलों तथा राठौड़ों के बीच तीस वर्ष से चल रहा युद्ध समाप्त हो गया।
सिसोदियों के विरुद्ध संघर्ष
औरंगजेब ने किशनगढ़ की राठौड़ राजकुमारी चारुमति से विवाह करने के लिये डोला भेजा। किशनगढ़ का राजा मानसिंह अल्पवयस्क था तथा किशनगढ़ राज्य इतना छोटा था कि वह मुगल सेना का सामना नहीं कर सकता था। चारुमति भगवान कृष्ण की परमभक्त थी। वह किसी भी कीमत पर मुसलमान बादशाह से विवाह नहीं करना चाहती थी।
इसलिये चारुमति ने उदयुपर के महाराणा राजसिंह को संदेश भिजवाया कि उसने महाराणा को अपना पति स्वीकार कर लिया है, इसलिये वे उसे आकर ले जायें। शरण में आई हुई हिन्दू कन्या की प्रार्थना स्वीकर करके राजसिंह ने सेना लेकर किशनगढ़ को घेर लिया तथा राजकुमारी को अपने साथ मेवाड़ ले जाकर उससे विवाह कर लिया।
इससे औरंगजेब महाराणा राजसिंह से अप्रसन्न हो गया। जब औरंगजेब ने हिन्दुओं पर जजिया लगाया तब भी राजसिंह ने औरंगजेब को फटकार लगाते हुए पत्र लिखा कि हिम्मत है तो मुझसे या अपने गुलाम आम्बेर के राजा मानसिंह से जजिया लेकर दिखाये।
महाराणा राजसिंह ने मारवाड़ के शिशु राजा अजीतसिंह तथा उसके सरदारों को मेवाड़ में संरक्षण प्रदान किया था। इन समस्त कारणों से औरंगजेब ने मेवाड़ पर आक्रमण कर दिया। औरंगजेब ने स्वयं मुगल सेना का नेतृत्व किया। राणा राजसिंह अपने परिवार और सरदारों को लेकर अरावली की पहाड़ियों में चला गया।
इस कारण मुगल सेना ने बिना अधिक कठिनाई के उदयपुर तथा चित्तौड़ पर अधिकार कर लिया। इसके बाद औरंगजेब ने मेवाड़ अभियान की कमान शाहजादे अकबर को सौंप दी और स्वयं अजमेर लौट गया। महाराणा राजसिंह पहाड़ियों में छिपे रहकर, छापामार युद्ध करके मुगलों को तंग करता रहा।
महाराणा राजसिंह तथा वीर दुर्गादास राठौड़ ने कूटनीति से काम लेते हुए मुगलों को खूब छकाया। इन लोगों ने शाहजादे अकबर को औरंगजेब के स्थान पर बादशाह बनाने का प्रलोभन देकर तहव्वरखाँ के माध्यम से उसे अपनी ओर मिला लिया।
शहजादे को तीन बातें समझाई गईं- (1.) बादशाह औरंगजेब की कट्टर नीतियां ठीक नहीं हैं, जबकि अकबर से लेकर शाहजहाँ तक की नीतियां ठीक थीं। (2.) इसलिये अकबर को चाहिये कि वह अपने पिता औरंगजेब से राज्य छीनकर स्वयं बादशाह बन जाये। (3.) इस कार्य में उसे मेवाड़ तथा मारवाड़ राज्यों के साथ-साथ अन्य हिन्दू राज्यों तथा छत्रपति शिवाजी की भी पूरी सहायता मिलेगी।
अकबर को विश्वास हो गया कि उसके पिता औरंगजेब की नीतियां ठीक नहीं हैं, इसलिये उसे तख्त से हटाकर स्वयं बादशाह बन जाना चाहिये। राजपूतों ने अकबर को अपने साथ लेकर, औरंगजेब पर आक्रमण करने की योजना बनाई जो इस समय अजमेर में था।
दुर्भाग्यवश अचानक महाराणा राजसिंह की मृत्यु हो गई जिससे इस योजना को कार्यान्वित करने में विलम्ब हो गया। राजसिंह के पुत्र राणा जयसिंह ने इस योजना को आगे बढ़ाया। राजपूत सरदार लगातार शाहजादे अकबर को प्रोत्साहन तथा आश्वासन देते रहे। 1681 ई. में अकबर ने स्वयं को बादशाह घोषित कर दिया तथा वह राजपूतों के साथ सेना लेकर अजमेर के निकट दौराई आ गया।
औरंगजेब को अकबर के विद्रोह की सूचना मिली तो उसने कूटनीति से काम लेते हुए तहव्वरखाँ को संदेश भेजा कि यदि वह विद्रोहियों का साथ छोड़ दे तो उसे क्षमा मिल जायगी अन्यथा उसके पूरे परिवार को समाप्त कर दिया जायगा। तहव्वरखाँ ने तुरन्त शाही कैम्प के लिए प्रस्थान कर दिया परन्तु जब वह औरंगजेब के शिविर के पास पहुँचा तो बादशाह के सरंक्षकों ने उसकी हत्या कर दी।
औरंगजेब ने एक और चाल चली। उसने एक झूठी चिट्ठी लिखवाकर राठौड़ों के शिविर में डलवाई कि शाहजादे अकबर ने राजपूतों को धोखा देकर ठीक फँसाया है। यह पत्र दुर्गादास के हाथ में पड़ गया जिससे उसके मन में सन्देह पैदा हो गया। इस कारण राठौड़ रात्रि में ही युद्ध शिविर छोड़कर पीछे हट गये।
इस तरह औरंगजेब पर आक्रमण करने की योजना समाप्त हो गई और अकबर अकेला रह गया। उसने भी घबराकर युद्ध का मैदान छोड़ दिया और राजपूतों की तरफ चला। इस पर राजपूतों को उसकी ईमानदारी के बारे में विश्वास हो गया। उन्होंने अकबर की रक्षा करना अपना धर्म समझा तथा उसे सुरक्षित रूप से दक्षिण भारत में मरहठों के पास भेज दिया।
मेवाड़ के विरुद्ध औरंगजेब का संघर्ष बहुत दिनों तक चलता रहा। अंत में 1684 ई. में मेवाड़ के साथ सन्धि हो गई। राणा जयसिंह को मेवाड़ का राजा स्वीकार कर लिया गया। उसे पाँच हजार का मनसब दिया गया। मेवाड़ ने अपने तीन परगने मुगलों को दे दिये। मुगल सेनाएँ मेवाड़ से हटा ली गईं।
औरंगजेब की राजपूत नीति के परिणाम
राजपूत युद्धों का मुगल सल्तनत के भविष्य पर गहरा प्रभाव पड़ा। अकबर ने इस बात को अनुभव किया था कि उसके चगताई, मुगल, ईरानी, अफगानी तथा तुर्की उमराव किसी भी तरह विश्वसनीय नहीं थे। वे हर समय बगावत का झण्डा बुलंद करने के लिये तैयार रहते थे ताकि अपनी स्वतंत्र सत्ता स्थापित कर सकें जबकि राजपूत लड़ाके यदि एक बार वचन दे देते थे तो फिर गद्दारी नहीं करते थे। इसलिये उसने राजपूतों की लड़कियों से विवाह स्थापित कर सुलह-कुल की नीति अपनाई तथा उन्हें शासन में कनिष्ठ भागीदार बनाया।
इस कारण राजपूत लड़ाके और जागीरदार, अकबर से लेकर जहाँगीर तथा शाहजहाँ के समय तक मुगलों की अनन्य भक्ति भाव से सेवा करते रहे तथा राजपूत लड़ाकों ने मुगलों का राज्य लगभग पूरे भारत में विस्तारित कर दिया किंतु औरंगजेब ने धर्मान्धता के कारण राजपूतों को नष्ट करने के बड़े प्रयास किये। इससे राजपूत, मुगलों से विरक्त हो गये। बहुत से राजपूत मुगलों की सेवा छोड़कर अपने राज्यों के विस्तार में लग गये।
लेनपूल के अनुसार- ‘जब तक वह कट्टरपंथी औरंगजेब, अकबर के सिंहासन पर बैठा रहा, एक भी राजपूत उसे बचाने के लिए अपनी उँगली भी हिलाने को तैयार नहीं था। औरंगजेब को अपनी दाहिनी भुजा खोकर दक्षिण के शत्रुओं के साथ युद्ध करना पड़ा।’
मुगल सल्तनत रणप्रिय राजपूत जाति की सेवाओं से वंचित हो गई। राजपूतों की सहायता के बिना मुगल सल्तनत पतनोन्मुख हो गई।
मुख्य आलेख – औरंगजेब (आलमगीर)
औरंगजेब की राजपूत नीति