पानीपत का प्रथम युद्ध दिल्ली के सुल्तान इब्राहीम लोदी तथा जहीरुद्दीन मुहम्मद बाबर के बीच हुआ। यह भारत के इतिहास के निर्णायक युद्धों में से एक था। इस युद्ध ने भारत में एक नवीन मुस्लिम राज्य की स्थापना का मार्ग खोल दिया।
पानीपत का प्रथम युद्ध – पूर्व तैयारियाँ
बाबर की सेना
अप्रेल 1526 में बाबर अपनी सेना के साथ पानीपत के मैदान में आ डटा। वह अपने साथ 12 हजार सैनिक लाया था किंतु मार्ग में बहुत से भारतीय सैनिक भी उसके साथ हो लिये। इस प्रकार जब बाबर पानीपत के मैदान में पहुँचा तो उसके सैनिकों की संख्या 25 हजार हो चुकी थी।
बाबर की तैयारी
बाबर कुशल तथा अनुभवी सेनानायक था। वह मंगोलों, उजबेगों तथा पारसीकों की रणपद्धतियों से परिचित था। चूँकि बाबर की सेना इब्राहीम लोदी की सेना की अपेक्षा संख्या में केवल एक-चौथाई थी इसलिये बाबर ने इब्राहीम लोदी के विरुद्ध अश्वारोहियों तथा तोपखाने के संयुक्त प्रयोग का निश्चय किया।
उसने सबसे पहले अपनी सेना की चारों ओर से सुरक्षा की व्यवस्था की ताकि शत्रु अचानक उसकी सेना में न आ घुसे। बाबर ने अपनी सेना के एक पक्ष की सुरक्षा के लिये पानीपत नगर को ढाल के रूप में प्रयुक्त किया। अपनी सेना के दूसरे पक्ष की सुरक्षा के लिये खाइयां खुदवाकर उनके दोनों तरफ कटे हुए पेड़ तथा कँटीली झाड़ियां डलवा दीं।
बाबर ने सेना के सामने 700 गाड़ियाँ खड़ी करके उन्हें कच्चे चमड़े की रस्सियों द्वारा एक-दूसरे से बँधवा दिया। इन गाड़ियों के पीछे उसने अपनी सेना को सजाया।
लोदी की सेना
इब्राहीम लोदी अपनी विशाल सेना के साथ पानीपत के मैदान में आ डटा। उसके पास लगभग दो हजार हाथी थे। इन हाथियों को तोपखाने का सामना करने की शिक्षा नहीं दी गई थी। इसलिये यह सम्भावना अधिक थी कि तोपेखाने की आग तथा गोलों की आवाज से बिगड़कर हाथी उलटे लौट पड़ेंगे तथा अपने ही सैनिकों को रौंद डालेंगे किंतु इब्राहीम लोदी को, हाथियों को प्रयुक्त करने के अतिरिक्त और कोई उपाय नहीं सूझा।
लोदी की तैयारी
इब्राहीम लोदी अदूरदर्शी सुल्तान था। उसने बाबर के आक्रमण की कोई गंभीर तैयारी नहीं की। उसे अपनी सेना की विशालता पर पूरा विश्वास था। इसलिये जब बाबर ने पंजाब पर अधिकार कर लिया तब इब्राहीम लोदी अपनी विशाल सेना लेकर दिल्ली से पंजाब की ओर चल पड़ा तथा पानीपत के मैदान में आ डटा।
पानीपत का प्रथम युद्ध
बाबर की विजय
12 अप्रेल 1526 को दोनों सेनाएं एक दूसरे के समक्ष आ खड़ी हुईं। नौ दिन तक दोनों सेनाएँ एक दूसरे के समक्ष डटी रहीं। अन्त में 21 अप्रेल को इब्राहीम लोदी ने अपनी सेना को आक्रमण करने की आज्ञा दी। इब्राहीम की सेना इतनी विशाल थी कि उसका सुचारू रीति से संचालन नहीं हो सका।
बाबर की सेना ने इब्राहीम लोदी की सेना को चारों ओर से घेरकर उस पर तोपेखाने तथा बाणों की वर्षा आरम्भ कर दी। यह युद्ध प्रातः 9 से 10 बजे के बीच आरम्भ हुआ तथा दोपहर बाद तक भयंकर रूप से होता रहा। अंत में इब्राहीम की सेना परास्त हो गई। उसके 15 हजार सैनिक मारे गये और शेष सेना लड़ाई के मैदान से भाग खड़ी हुई। इब्राहीम लोदी स्वयं लड़ता हुआ मारा गया। इस प्रकार बाबर को पानीपत के प्रथम युद्ध में विजय प्राप्त हो गई।
दिल्ली तथा आगरा पर अधिकार
जिस दिन बाबर को पानीपत युद्ध में विजय प्राप्त हुई उसी दिन बाबर ने अपने पुत्र हुमायूँ को आगरा पर और अपने दामाद मेंहदी ख्वाजा को दिल्ली पर अधिकार करने के लिए भेज दिया। इन दोनों ने अपना कार्य सरलता से सम्पन्न कर लिया। इस प्रकर दिल्ली और आगरा पर बाबर का अधिकार हो गया। 27 अप्रैल 1526 को शुक्रवार के दिन दिल्ली की मस्जिद में बाबर के नाम खुतबा पढ़ा गया और गरीबों को दान-दक्षिणा दी गई। इस प्रकार बाबर दिल्ली का बादशाह बन गया।
पानीपत के युद्ध में बाबर की विजय के कारण
यद्यपि इब्राहीम लोदी की सेना बाबर की सेना की तुलना में अधिक विशाल थी परन्तु बाबर ने छोटी सेना की सहायता से ही उस पर विजय प्राप्त कर ली। इस विजय के निम्नलिखित कारण थे-
(1.) बाबर का कुशल सेनापतित्त्व
बाबर कुशल तथा अनुभवी सेनापति था। उसे युद्ध लड़ने का व्यापक अनुभव था। वह मंगोलों, उजबेगों तथा पारसीकों की रणपद्धतियों से परिचित था। वह अनेक युद्धों में सेना का संचालन करके युद्ध कला की व्यवहारिक बारीकियों का ज्ञान प्राप्त कर चुका था। इसके विपरीत इब्राहीम लोदी युद्ध के अनुभव से शून्य था। उसने इससे पहले एक भी बड़े युद्ध में भाग नहीं लिया था। न ही वह विदेशी रणपद्धतियों से परिचित था। ऐसी स्थिति में वह बाबर की सेना का सामना करने की क्षमता नहीं रखता था।
(2.) बाबर को योग्य सेनापतियों की सेवाएँ
बाबर यद्यपि स्वयं प्रधान सेनापति था परन्तु अपनी सेना के विभिन्न अंगों का संचालन उसने बड़े ही योग्य तथा कुशल सेनापतियों को सौंप रखा था। उसे दो तुर्की सेनापतियों की सेवाएँ प्राप्त थीं जो नवीन रण-पद्धतियों का उपयोग करने में दक्ष थे। बाबर का पुत्र हुमायूँ भी कुशल योद्धा तथा दक्ष सेनापति था। इब्राहीम लोदी को इस प्रकार के योग्य सेनापतियों की सेवाएँ प्राप्त नहीं थीं। उसे अपने अमीरों तथा प्रांतपतियों का सहयोग प्राप्त नहीं था। दौलत खाँ तथा पंजाब के अन्य अमीर उसके विरुद्ध थे तथा बाबर का साथ दे रहे थे।
(3.) बाबर के सैनिकों में जीत के प्रति उत्साह
बाबर के सैनिक बड़े लड़का तथा रणकुशल थे। उन्हें शत्रु की धरती पर खड़े रहकर युद्ध करने का व्यापक अनुभव था। वे कई तरह की पेंतरेबाजी में कुशल थे और स्वयं को परिस्थितियों के अनुकूल ढालने और उसमें लड़ने की क्षमता रखते थे। अफगानिस्तान जैसे निर्धन देश से होने के कारण वे धन प्राप्ति के लिए अपने प्राणों की बाजी लगा देते थे। उनमें जीत के प्रति अदम्य उत्साह था जबकि इब्राहीम लोदी के सैनिक उतने रणकुशल नहीं थे, जितने बाबर के। उन्हें न तो युद्धों का उतना अनुभव था और न उनमें उतना उत्साह तथा साहस ही था जितना बाबर के सैनिकों में था।
(4.) बाबर की कुशल व्यूह-रचना
बाबर शत्रु सैन्य के बल के अनुसार सैन्य-व्यूह रचने में दक्ष था। उसने पानीपत के मैदान में पहुंॅचते ही सैन्य-व्यूह की रचना का कार्य आरम्भ कर दिया था। उसने अपनी सेना की चारों ओर से सुरक्षा का प्रबंध किया और फिर केन्द्र में तोपों और दोनों पक्षों में तेजी से आक्रमण करने वाले अश्वारोहियों की व्यवस्था की।
ये अश्वारोही, मुख्य सेना की गति भंग हो जाने पर उसे चारों ओर से सहायता पहुँचा सकते थे। यह बड़ी ही वैज्ञानिक व्यूह-रचना थी जिसमें रक्षात्मक तथा आक्रमणात्मक दोनों प्रकार की व्यवस्था थी। इसके विपरीत इब्राहीम लोदी की व्यूह-रचना परिस्थितियों के अनुकूल नहीं थी। उसने अपनी सेना की सुरक्षा की कोई व्यवस्था नहीं की।
उसने हाथियों को अपनी सेना के हरावल में रखकर अपनी पराजय का प्रबंध स्वयं ही कर लिया था। जब तोपों से गोले बरसने आरम्भ हुए तो हाथी पीलवानों के नियंत्रण से बाहर हो गये और उन्होंने अपने ही सैनिकों को रौंद डाला। इससे उनमें भगदड़ मच गयी।
(5.) बाबर का कुशल सैन्य संचालन
बाबर ने अपनी सेना का संचालन कुशलता से किया था। छोटी होने के कारण उसकी सेना में गति थी। वह तेजी से आक्रमण कर सकती थी और संकट आने पर भाग सकती थी। उसकी सेना के बाईं तथा दाहिनी ओर के सैनिक बड़ी तेजी से शत्रु पर आक्रमण करते थे और उसे चारों ओर से घेर लेने का प्रयत्न करते थे।
वह अपने तोपखाने तथा अपने अश्वारोहियों द्वारा ऐसा संयुक्त आक्रमण करता था कि शत्रु को उसके सामने ठहरना कठिन हो जाता था। इसके विपरीत इब्राहीम लोदी में सैन्य संचालन की कुशलता नहीं थी। उसकी सेना इतनी विशाल थी कि उसका सुचारू रीति से संचालन करना कठिन था। उसमें न गति थी और न पैंतरेबाजी।
बाबर की तोप गाड़ियों के कारण इब्राहीम की सेना के अग्रिम भाग का आगे बढ़ना रुक गया किंतु पीछे की सेना इस बात को नहीं जान सकी और वह निरंतर आगे बढ़ने का प्रयत्न करती रही इससे सेना में धकापेल आरम्भ हो गई। वह मनुष्यों का एक ढेर बन गई और बाबर की सेना ने भीषण नरसंहार आरम्भ कर दिया।
(6.) बाबर द्वारा तोपखाने का प्रयोग
अभी तक उत्तर-पश्चिम के मार्ग से भारत पर जितने आक्रमण हुए थे उनमें से किसी ने भी तोपेखने का प्रयोग नहीं किया था। इसलिये भारत के सैनिक इस तोपखाने के समक्ष युद्ध करने के अभ्यस्त नहीं थे। परिणाम यह हुआ कि जब तोपों ने गोले और आग बरसाना आरम्भ किया तब उसी समय बाबर के अश्वारोहियों ने भी पार्श्वों से निकलकर इब्राहीम की सेना पर तेजी से आक्रमण किया।
इससे इब्राहीम लोदी की सेना में अफरा-तफरी मच गई। तोपखाने के साथ-साथ बाबर के सैनिक इब्राहीम लोदी के सैनिकों से अधिक अच्छे अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित थे। इससे वे अधिक सफलतापूर्वक प्रहार कर सकते थे।
पानीपत के प्रथम युद्ध के परिणाम
पानीपत का प्रथम युद्ध भारत के निर्णयात्मक युद्धों में से है। इसने भारत की राजनीति से एक युग का अंत करके दूसरे युग का आरम्भ कर दिया। उत्तर भारत की राजनीति में इस युद्ध ने भारी फेर बदल कर दिया।
(1.) लोदी वंश का अंत
इस युद्ध ने लोदी वंश के भाग्य का उसी प्रकार निर्णय कर दिया जिस प्रकार तैमूर के आक्रमण ने तुगलक वंश के भाग्य का निर्णय कर दिया था। लोदी वंश सदा के लिये अस्ताचल में चला गया।
(2.) दिल्ली सल्तनत का अंत
लोदी वंश के पराभव के साथ ही दिल्ली सल्तनत का युग भी समाप्त हो गया। उत्तर भारत में एक नया वंश शासन करने के लिये आ गया।
(3.) भारत में मुगल सम्राज्य की स्थापना
पानीपत की पहली लड़ाई का सबसे बड़ा परिणाम यह हुआ कि भारत में मुगल साम्राज्य की स्थापना हो गई जो अपनी शान-शौकत, सैनिक शक्ति तथा अपनी सभ्यता एवं संस्कृति में मुस्लिम जगत् के राज्यों में सबसे अधिक महान् था और जो रोमन साम्राज्य की बराबरी का दावा कर सकता था।
(4.) राजधानी दिल्ली के स्थान पर आगरा स्थानांतरित
बाबर दिल्ली में कुछ ही दिन रहा। वह दिल्ली से आगरा चला गया और वहीं पर सुल्तान इब्राहीम लोदी के महल में रहने लगा। अब आगरा ही उसकी राजधानी बन गया।
(5.) अफगानों के संगठन पर बुरा प्रभाव
लोदी वंश के उदय के साथ ही दिल्ली सल्तनत तथा उत्तरी पंजाब में अफगान अमीरों का दबदबा स्थापित हो गया था किंतु इस युद्ध ने अफगानों के संगठन को छिन्न-भिन्न कर दिया और उनका नैतिक बल कमजोर हो गया।
(6.) जन साधारण में भय
पानीपत की पराजय के बाद न केवल लोदी सेना के सैनिक वरन् जन साधारण भी आक्रमणकारियों से भयभीत होकर इधर-उधर भाग खड़ा हुआ। किलेबंदी वाले नगरों के फाटक बन्द कर दिये और लोग अपनी सुरक्षा का प्रबंध करने लगे।
(7.) बाबर के गौरव में वृद्धि
पानीपत की विजय से बाबर के गौरव तथा प्रतिष्ठा में बड़ी वृद्धि हुई और उसकी गणना एशिया के महान् विजेताओं में होने लगी।
(8.) बाबर को अपार धन की प्राप्ति
बाबर को दिल्ली तथा आगरा से अपार धन की प्राप्ति हुई। इससे पहले उसकी आर्थिक स्थिति अत्यंत खराब थी। भारत से मिले धन को बाबर ने मुक्त हस्त से अपने सैनिकों में बंटवाया। उसने समरकंद, ईराक, खुरासान व काशनगर में स्थित अपने सम्बन्धियों को भी उपहार भेजे। मक्का एवं मदीना में पवित्र आदमियों को भी उसने भेंट भिजवाई। उसकी इस उदारता के लिये उसे कलंदर नाम दिया गया।
(9.) राजपूतों में निराशा
इस युद्ध से राजपूतों की बड़ी निराशा हुई क्योंकि लोदी साम्राज्य के बाद दिल्ली में राजपूत राज्य स्थापित करने का उनका स्वप्न समाप्त हो गया ।
पानीपत के युद्ध के उपरान्त बाबर की समस्याएँ
पानीपत की लड़ाई में विजय प्राप्त करने के उपरान्त बाबर ने दिल्ली तथा आगरा पर अधिकार स्थापित कर लिया परन्तु उसे अनेक समस्याओं का सामना करना था। उसकी प्रमुख समस्याएँ इस प्रकार से थीं-
(1.) जन साधारण में अविश्वास की समस्या
बाबर की पहली समस्या जन साधारण में विश्वास उत्पन्न करने की थी जो या तो अपने नगरों को छोड़कर भागे जा रहे थे या नगरों के फाटकों को बन्द करके अपनी सुरक्षा करने में लगे हुए थे। लोग तैमूर लंग के आक्रमण को भूले नहीं थे इसलिये मंगोल भारत में घृणा की दृष्टि से देखे जाते थे।
(2.) अराजकता की समस्या
शासन के प्रति जन साधारण में अविश्वास के कारण सरकारी कर्मचारी भी अपना काम छोड़कर बैठ गये। इस कारण चारों ओर अराजकता फैल गई। बाजारों में खाद्य सामग्री की कमी हो गई। अवसर पाकर चोर तथा डकैत जन साधारण को लूटने लगे।
(3.) अफगान सरदारों की समस्या
पानीपत के युद्ध में इब्राहीम लोदी की मृत्यु हो जाने से अफगानों का संगठन बिखर गया। इस कारण अफगान सरदार अपनी सेनाओं के साथ इधर-उधर घूम रहे थे। उनकी समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करें। इनमें से अनेक सरदार छोटे-छोटे भू-भागों पर स्वतन्त्र राज्य स्थापित करने के लिये अपनी सैन्य शक्ति बढ़ाने का प्रयास करने लगे।
(4.) बाबर के सैनिकों में घर लौटने की इच्छा
दिल्ली तथा आगरा विजय करने के पश्चात् बाबर के सैनिक तथा सरदार अपने घरों को लौट जाने के लिए आतुर हो रहे थे। यद्यपि बाबर ने दिल्ली तथा आगरा से प्राप्त विपुल धन अपने सैनिकों तथा सरदारों में मुक्त हस्त से बाँट दिया था परन्तु अब वे भारत में ठहरने के लिए तैयार नहीं थे।
ये सैनिक पहाड़ियों तथा घाटियों के निवासी होने के कारण भारत की गर्मी को सहन नहीं कर पा रहे थे। चूंकि अधिकतर किसान अपनी खेतीबाड़ी छोड़कर भाग खड़े हुए थे इसलिये उत्तर भारत में खाने-पीने की सामग्री का बड़ा अभाव हो गया था।
जब इन सैनिकों एवं सरदारों को यह ज्ञात हुआ कि बाबर ने भारत में रहने का निश्चय कर लिया है तब वे समझ गये कि उन्हें भी बहुत दिनों तक भारत में रहना पडे़गा और निरन्तर युद्ध तथा संघर्ष करना पडे़गा। चूंकि अब उनके पास पर्याप्त धन था इसलिये वे अपना शेष जीवन युद्धों में बिताने की बजाय आराम से अपने घरों में बिताना चाहते थे।
(5.) राणा सांगा की समस्या
इन दिनों राजपूतों का नेता मेवाड़ का शासक राणा संग्रामसिंह था जिसे राणा सांगा भी कहते हैं। वह अट्ठारह युद्धों में विजय प्राप्त कर चुका। युद्धों में ही उसने अपनी एक आँख, एक भुजा तथा एक पैर खो दिये थे। उसके शरीर पर अस्सी घावों के चिह्न थे।
वह अत्यंत महत्त्वाकांक्षी शासक था और लोदी साम्राज्य के ध्वंसावशेष पर अपने राज्य का विस्तार करना चाहता था। पानीपत के युद्ध में वह भाग नहीं ले सका था क्योंकि उसे गुजरात के शासक मुजफ्फरशाह की ओर से आक्रमण की आशंका थी परन्तु अब मुजफ्फरशाह की मृत्यु हो चुकी थी और राणा का ध्यान दिल्ली तथा आगरा पर केन्द्रित था जहाँ पर बाबर ने अधिकार कर लिया था।
राणा सांगा का अनुमान था कि बाबर अपने पूर्वज तैमूर की भांति दिल्ली को लूट-पाट कर काबुल लौट जाएगा परन्तु बाबर ने भारत में रहने का निश्चय कर लिया था। ऐसी स्थिति में राणा तथा बाबर में संघर्ष होना अनिवार्य था क्योंकि बाबर के निश्चय ने राणा सांगा की कामनाओं पर पानी फेर दिया था।
समस्याओं का समाधान
बाबर ने उपरोक्त समस्याओं का बड़ी सावधानी तथा चतुराई के साथ सामना किया।
(1.) जन साधारण में विश्वास की उत्पत्ति
बाबर ने जन साधारण में मंगोलों के शासन के प्रति विश्वास जागृत करने के लिये उदारता तथा सहानुभूति की नीति का अनुसरण किया और अपने व्यवहार से स्पष्ट कर दिया कि जो लोग उसकी शरण में आकर उसकी अधीनता स्वीकार कर लेंगे, उनके साथ अच्छा व्यवहार किया जायेगा तथा उन्हें नौकरी में समुचित पद भी दिये जायेंगे।
(3.) अफगान सरदारों को जागीरें
बाबर ने अफगान सरदारों को शांत करने तथा अपने पक्ष में करने के लिये उन्हें वचन दिया कि जो अफगान सरदार उसके स्वामित्व को स्वीकार कर लेंगे उनकी रक्षा की जायेगी और उन्हें बड़ी-बड़ी जागीरें दी जायेंगी। इस घोषणा का अफगान सरदारों पर अच्छा असर हुआ।
बहुत से अफगान सरदार बाबर के समक्ष उपस्थित हो गये। बाबर ने उनकी योग्यता के अनुसार उन्हें बड़ी-बड़ी जागीरें दे दीं। शेष अफगान सरदारों की समस्या को सुलझाने के लिए उसने अविजित भू-भागों को अपने सरदारों में बाँट दिया और उन्हें आदेश दिया कि वे विद्रोही अफगानों पर विजय प्राप्त करें और राज्य में शान्ति तथा सुव्यवस्था स्थापित करें।
जो अफगान सरदार बड़े ही शक्तिशाली थे और सरलता से नियन्त्रण में नहीं लाये जा सकते थे उनका दमन बाद में करने का निर्णय लिया गया।
(4.) बाबर के सैनिकों में घर लौटने की इच्छा
बाबर ने अपने सैनिकों को अपने घरों को लौटने से रोकने के लिये अपने सैनिकों की एक सभा आयोजित की और उसमें ओजपूर्ण भाषण दिया। उसने अपने सैनिकों को समझाया कि अनेक वर्षों के परिश्रम से, कठिनाइयों का सामना करके, लम्बी यात्रा करके, अपनी सेना को युद्धों में झौंककर और भीषण हत्याएं करके हमने अल्लाह की कृपा से शत्रुओं के झुण्ड को परास्त किया है जिससे हम उनकी विशाल भूमि को प्राप्त कर सकें।
अब वह कौनसी शक्ति है जो हमें विवश कर रही है, कौनसी ऐसी आवश्यकता उत्पन्न हो गई है कि हम ‘अकारण ही उन प्रदेशों को छोड़ दें जिन्हें हमने अपने जीवन को संकट में डालकर प्राप्त किया है!’ बाबर के इस ओजपूर्ण भाषण का उसके सैनिकों एवं सेनापतियों पर इतना प्रभाव पड़ा कि कुछ को छोड़कर शेष ने भारत में रहने और बाबर के उद्देश्य को पूरा करने का निश्चय कर लिया।
(5.) राणा सांगा से युद्ध का निश्चय
महत्वाकांक्षी राणा सांगा रूपी समस्या का समाधान एक ही तरह से हो सकता था कि बाबर सांगा को युद्ध में परास्त करे। अतः बाबर ने राणा सांगा पर आक्रमण करने का निश्चय किया। राणा सांगा से लोहा लेने के पूर्व बाबर ने उसके मार्ग में आने वाले धौलपुर, बयाना तथा ग्वालियर के छोटे-छोटे अफगान शासकों को भी नतमस्तक करने का निश्चय किया।
मुख्य आलेख – मुगलों का राज्य विस्तार
पानीपत का प्रथम युद्ध