अकबर के शासन की विशेषताएँ उसके सम्पूर्ण शासनकाल में दिखाई देती हैं। उसने निरकुंश एवं एकच्छत्र शासक होते हुए भी प्रजा के विभिन्न वर्गों के हित के लिए कार्य किए।
महान साम्राज्य निर्माता
भारत में जिस प्रकार दो अफगान साम्राज्यों की स्थापना हुई थी। ठीक उसी प्रकार तीन मुगल साम्राज्यों की स्थापना हुई थी। पहले मुगल साम्राज्य की स्थापना बाबर ने की थी जिसे हुमायूँ ने चौसा तथा बिलग्राम की लड़ाई में खो दिया। दूसरे साम्राज्य की स्थापना हुमायूँ ने की थी किंतु उसकी स्थापना का काम अधूरा छोड़कर ही वह मृत्यु को प्राप्त हुआ।
तीसरे साम्राज्य की स्थापना अकबर के संरक्षक बैरमखाँ ने की थी। अकबर ने युवा होते ही बैरमखाँ से पीछा छुड़कार तीसरे मुगल साम्राज्य को काबुल और कश्मीर से लेकर खानदेश तक और बंगाल से लेकर गुजरात तक विस्तृत कर लिया था। इस विस्तृत राज्य के समक्ष बाबर तथा हुमायूँ द्वारा स्थापित राज्य कुछ भी नहीं थे। अतः अकबर एक महान् साम्राज्य निर्माता था।
अकबर के शासन की विशेषताएँ
प्राचीन भारतीय शासन पद्धति में शासक प्रजा के भौतिक एवं आध्यात्मिक कल्याण को सर्वोपरि रखकर शासन करते थे किंतु मुस्लिम बादशाहों के शासन काल में केवल मुस्लिम प्रजा के कल्याण को ही ध्यान में रखा जाता था। अकबर ने मध्यकाल के अन्य बादशाहों से उलट, अपनी समस्त प्रजा को एक समान समझा और सबके लिये एक जैसी शासन व्यवस्था स्थापित की। अकबर के शासन की विशेषताएँ इस प्रकार से थीं-
(1.) कुशल प्रशासक
अकबर अपने युग का कुशल प्रशासक था। उसने शासन व्यवस्था को उच्च आदर्शों पर स्थापित किया। वह भारत का पहला मुस्लिम शासक था, जिसने वास्तव में लौकिक शासन की स्थापना की। उसने राजनीति को धर्म से अलग कर दिया। इस कारण शासन में मुल्ला-मौलवियों तथा उलेमाओं का प्रभाव नहीं रहा।
स्मिथ ने उसकी प्रशासकीय प्र्रतिभा तथा शासन सम्बन्धी सिद्धान्तों की प्रशंसा करते हुए लिखा है- ‘अकबर में संगठन की अलौकिक प्रतिभा थी। प्रशासकीय क्षेत्र में उसकी मौलिकता इस बात में पाई जाती है कि उसने इस सिद्धान्त को स्वीकार कर लिया कि हिन्दुओं तथा मुसलमानों के साथ समान व्यवहार होना चाहिए।’
(2.) धार्मिक सहिष्णुता को प्रमुखता
अकबर ने अपने शासन को धार्मिक सहिष्णुता तथा धार्मिक स्वतन्त्रता के सिद्धान्त पर आधारित किया था। वह ऐसे देश का बादशाह था जिसमें विभिन्न जातियों तथा धर्मों के लोग निवास करते थे। अकबर ने अपनी समस्त प्रजा को धार्मिक स्वतन्त्रता दे दी। जो हिन्दू दरबारी एवं मनसबदार उसके दरबार में रहते थे, उन्हें भी अपने धार्मिक आचारों तथा अनुष्ठानों को करने की पूरी स्वतन्त्रता थी।
अकबर के हरम में अनेक हिन्दू स्त्रियाँ थीं जिन्हें हिन्दू धर्म के अनुसार तीज त्यौहार मनाने तथा पूजा पाठ करने की पूरी छूट थी। अकबर स्वयं भी हिन्दुओं के त्यौहारों में सम्मिलित होता था। अकबर ने अपनी समस्त प्रजा को समान कानूनी अधिकार दिये।
(3.) धर्म अथवा जाति के स्थान पर प्रतिभा को प्रमुखता
अकबर ने सरकारी नौकरियों के द्वार समस्त लोगों के लिए खोल दिये। जाति अथवा धर्म के स्थान पर प्रतिभा तथा योग्यता के आधार पर नौकरियां दी जाने लगीं। राज्य को योग्यतम व्यक्तियों की सेवाएँ प्राप्त होने लगीं और राज्य की नींव सुदृढ़ हो गई।]
(4.) प्रजा के कल्याण को प्रमुखता
अकबर का शासन सैन्य बल पर आधारित न होकर प्रजा के कल्याण की भावना पर आधारित था तथा पूर्ववर्ती समस्त मुस्लिम शासकों की अपेक्षा उदार तथा लोक मंगलकारी था। उसका मानना था कि जब उसकी प्रजा सुखी तथा सम्पन्न होगी, तभी राज्य में शान्ति तथा स्थायित्व रहेगा और उसका राजकोष धन से परिपूर्ण रहेगा जिसके फलस्वरूप मुगल साम्राज्य की नींव सुदृढ़ हो जायेगी। इसलिये अकबर ने प्रजा के भौतिक, बौद्धिक तथा आध्यात्मिक विकास के प्रयास किये।
(5.) योग्य सेनापतियों की नियुक्ति
अकबर ने प्रत्येक अभियान के लिये योग्य सेनापतियों का चुनाव किया। उसने परम्परागत सेनापतियों के साथ-साथ प्रशासनिक काम करने वाले मंत्रियों को भी सैनिक अभियानों पर भेजा। वह सदैव दो सेनापतियों को एक साथ भेजता था ताकि विश्वासघात की संभावना न रहे। उसने राजा टोडरमल तथा बीरबल जैसे असैनिक मंत्रियों को भी सैनिक अभियानों पर भेजा।
अकबर के अन्तिम दिन
अकबर ने विशाल साम्राज्य की स्थापना की थी। उसका राज्य कश्मीर से असीरगढ़ तक विस्तृत हो गया था परन्तु उसके अन्तिम दिन सुख से नहीं बीते। उसके दो पुत्र मुराद तथा दानियाल अधिक शराब पीने से अकबर के जीवन काल में ही मर गये थे। सबसे बड़ा पुत्र सलीम भी शराबी तथा विद्रोही प्रकृति का था। वह अकबर के आदेशों की पालना नहीं करता था।
इस कारण अकबर बहुत निराशा तथा दुःखी रहता था। इसी चिंता में अकबर बीमार रहने लगा। अकबर ने सलीम को सुधारने का बहुत प्रयास किया किंतु सलीम में कोई सुधार नहीं हुआ। वह अकबर के आदेशों तथा अपने कर्त्तव्यों की उपेक्षा करता रहा।
अकबर को बीमार जानकार सलीम ने राजधानी के निकट बने रहने का निश्चय कर लिया ताकि अकबर के मरने के बाद सलीम को मुगलों का तख्त प्राप्त करने में कोई कठिनाई न हो। अकबर जब भी सलीम को पश्चिमोत्तर प्रदेश अथवा दक्षिण भारत में जाने का आदेश देता तो सलीम वहाँ जाने से मना कर देता।
इस कारण अकबर स्वयं दक्षिण के युद्धों का संचालन करने के लिए गया। अकबर की अनुपस्थिति से लाभ उठाकर सलीम इलाहाबाद को अपना निवास स्थान बनाकर स्वतन्त्र रूप से शासन करने लगा। उसके इस आचरण से अकबर को बड़ी चिन्ता हुई। 21 अप्रैल 1601 को अकबर ने बुरहानपुर से आगरा के लिए प्रस्थान किया।
इस पर सलीम ने प्रकट विद्रोह कर दिया परन्तु अकबर ने धैर्य से काम लेते हुए, शाहजादे के विरुद्ध कोई कार्यवाही नहीं की। अकबर ने सलीम की समस्या सुलझाने के लिये अबुल फजल को दक्षिण से आगरा बुलवाया परन्तु सलीम ने मार्ग में ही ओरछा के सरदार वीरसिंह देव बुन्देला के द्वारा अबुल फजल की हत्या करवा दी।
जब अकबर को इसकी सूचना मिली तो वह बेहोश हो गया। होश में आने पर वह कई दिनों तक रोता और छाती पीटता रहा। अबुल फजल की हत्या से अकबर के स्वास्थ्य पर और भी बुरा प्रभाव पड़ा। वह इस कार्य के कारण सलीम से और अधिक अप्रसन्न हो गया परन्तु हरम की स्त्रियों के प्रयास से पिता-पुत्र में समझौता हो गया।
सलीम फतेहपुर में अकबर के पास आया और उसके चरणों का चुम्बन किया। अकबर ने अपनी पगड़ी सलीम के सिर पर रख दी और उसे अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया। इस समझौते के बाद भी सलीम की आदतों तथा व्यवहार में कोई परिवर्तन नहीं हुआ और अकबर का दुःख समाप्त नहीं हुआ। वह पेट की पीड़ा से ग्रस्त हो गया। यह रोग असाध्य संग्रहणी रोग बन गया। तेईस दिन की बीमारी के उपरान्त 16 अक्टूबर 1605 को अकबर की मृत्यु हो गई।
मूल आलेख – मुगल सल्तनत की पुनर्स्थापना – जलालुद्दीन मुहम्मद अकबर
अकबर के शासन सम्बन्धी उद्देश्य
अकबर के शासन की विशेषताएँ



