Sunday, August 17, 2025
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भारतीय परिवार की विशेषताएँ

संसार में प्रत्येक समाज एवं संस्कृति में परिवार को महत्व दिया गया है किंतु भारतीय परिवार की विशेषताएँ अन्य संस्कृतियों के परिवारों से अलग हैं।

भारतीय परिवार एक गतिशील संस्था है। समय-समय पर इसका स्वरूप बदलता रहा है। फिर भी भारतीय परिवार के संगठन का आधार ठोस है तथा इसकी मूलभूत विशेषताएँ आज भी देखी जा सकती हैं।

भारतीय परिवार की विशेषताएँ

भारतीय परिवार की मूलभूत विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-

(1.) विवाह संस्कार

भारतीय परिवार की विशेषताएँ विवाह संस्कार से ही दिखाई देने लगती हैं। भारत में विवाह के बिना परिवार की कल्पना नहीं की जा सकती। आदि काल से ही आर्यों ने विवाह के नियम  बनाए जिनमें समय के साथ वर्ण-व्यवस्था एवं बाद में जाति-प्रथा का अंकुश कठोर होता चला गया। कुल के साथ-साथ गौत्र सम्बन्धी नियम भी परम्परागत भारतीय परिवारों पर कड़ाई से लागू होते हैं जिनमें दादा के गौत्र के साथ-साथ नाना, नानी एवं दादी के गौत्रों को टालना अनिवार्य था।

(2.) जन्म-जन्म का बंधन

भारतीय परिवार के मजबूत गठन के पीछे विवाह-सम्बन्धों के जन्म-जन्मांतर अथवा सात जन्मों तक चलने की धारणा थी। एक बार विवाह होने के बाद स्त्री उस परिवार को छोड़ती नहीं थी। भारतीय परिवारों में यह सर्वप्रचलित धारणा रही है कि स्त्री डोली में बैठकर ससुराल आती है, उसके बाद उसकी अर्थी ही उस घर से उठती है क्योंकि इस परिवार से उसका सम्बन्ध केवल इस जन्म तक सीमित नहीं है, अपितु सात जन्मों के लिए है।

ऋग्वेद की एक ऋचा में पुरोहित विवाह के अवसर पर वधू को आशीर्वाद देता हुआ कहता है- ‘तुम यहीं इसी घर में रहो, वियुक्त मत होओ, अपने घर में पुत्रों और पौत्रों के साथ खेलते और आनन्द मनाते हुए समस्त आयु का उपभोग करो।’

(3.) संयुक्त परिवार प्रथा

भारतीय परिवार की विशेषताएँ संयुक्त परिवार की विशेषताओं से युक्त हैं। संयुक्त परिवार प्रथा की स्थापना वैदिक-काल में हुई। यह प्रथा भारतीय समाज की सबसे बड़ी विशेषता है। संयुक्त परिवार में माता-पिता और बच्चों के साथ-साथ तीन-चार पीढ़ियों के सदस्य एक ही आवास  या आवासीय परिसर में रहते थे। इस प्रथा का उद्देश्य परिवार के समस्त सदस्यों की सर्वतोन्मुखी उन्नति हेतु साधन एवं सुविधाएं उपलब्ध करना और सामाजिक सुरक्षा हेतु सहयोग प्रदान करना था।

(4.) प्रेम एवं सौहार्द

भारतीय परिवार की विशेषताएँ प्रेम एवं सौहार्द से युक्त परिवार का निर्माण करती हैं। भारतीय परिवार में प्रेम एवं सौहार्द का तत्व प्रमुखता से पाया जाता है। परिवार में विभिन्न आयु के सदस्य मिल-जुल कर रहते हैं और सुख-दुःख में एक दूसरे का हाथ बँटाते हैं। वैदिक साहित्य में प्रार्थना की गई है- ‘हम समस्त परिवार के सदस्य एक दूसरे के प्रति सहृदयता तथा शुद्ध विचार रखें और एक दूसरे से प्रेम करें जैसे गाय अपने बछड़े से प्रेम करती है। पुत्र माता-पिता के प्रति, पत्नी पति के प्रति, भाई भाई के प्रति और बहिन बहिन के प्रति मधुर एवं प्रेमपूर्ण व्यवहार करे। हम एकमति और सत्कर्म युक्त होकर परस्पर मधुर भाषण करें।’

इसी भावना के कारण विवाह के उपरान्त पुत्र अपने पिता के परिवार से अलग नहीं होता था अपितु अपने पिता अथवा पितामह के परिवार में रहता था।

(5.) पुत्रियों से प्रेम

विवाह के बाद पुत्री को अपने ससुराल में जाकर रहना होता है किंतु भारतीय परिवार पुत्रियों के विवाह के बाद उन्हें विस्मृत नहीं  करते हैं, अपितु विभिन्न तीज-त्यौहारों एवं पारिवारिक उत्सवों के आयोजनों में उन्हें प्रेम एवं सम्मान के साथ आमन्त्रित करते हैं। पुत्री को पुनः उसके ससुराल लौटते समय वस्त्र, मिठान्न एवं उपहार देते हैं। इसी प्रकार पुत्री के ससुराल में होने वाले पारिवारिक उत्सवों तथा तीज-त्यौहारों पर उपहार आदि भेजते हैं।

(6.) नारी का सम्मान

नारी को सम्मान देना, भारतीय परिवार की प्रमुख विशेषता है। वैदिक ग्रंथों में गृहस्थ-सुख एवं सन्तान प्राप्ति के लिए पत्नी की आवश्यकता बतायी गई है। ऋग्वेद में कहा गया है कि पत्नी के बिना गृहस्थी संभव नहीं है, पत्नी ही गृहस्थी है। जहाँ स्त्रियों का सम्मान नहीं होता, वहाँ सब काम निष्फल होते हैं।

केवल अपने परिवार की ही नहीं अपितु गांव के किसी भी परिवार की बहन-बेटी और बहू पूरे गांव की बहन-बेटी और बहू समझी जाती थी। इस भावना से भी परिवार रूपी संस्था को मजबूती मिलती थी। ऋग्वेद की एक ऋचा में पुरोहित वधू को आशीर्वाद देता हुआ कहता है- ‘तू सास, ससुर, ननद और देवर पर शासन करने वाली रानी बने।’

(7.) धर्माचरण और कर्त्तव्य-परायणता

धर्माचरण और कर्त्तव्य परायणता भारतीय परिवार की प्रमुख विशेषताओं में से एक है। परम्परागत रूप से परिवार के समस्त कार्य शास्त्रविहित विधि से निर्धारित हैं। परिवार के प्रत्येक सदस्य का राज्य, समाज, पड़ौसी तथा परिवार के प्रति कर्त्तव्य; माता-पिता तथा वयोवृद्धों के प्रति कर्त्तव्य; गुरु, ब्राह्मण, सन्यासी एवं कन्याओं के प्रति कर्त्तव्य; मृतक व्यक्तियों अर्थात् पितरों के प्रति कर्त्तव्य; गौ एवं पशु-पक्षियों के प्रति कर्त्तव्य, भिखारियों, कुष्ठ रोगियों एवं क्षुधाग्रस्त व्यक्तियों के प्रति कर्त्तव्य निर्धारित हैं।

विभिन्न धर्मग्रन्थों में इन कर्त्तव्यों का विस्तार से उल्लेख किया गया है। परिवार में अपने से बड़ों की आज्ञा का पालन करना भी धर्माचरण एवं कर्त्तव्य-परायणता माना जाता है। इस प्रकार भारतीय परिवार भौतिक सुख-साधनों की उपलब्ध करवाने वाली व्यवस्था मात्र नहीं है अपितु धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष, चारों पुरुषाथों को सिद्ध करने का साधन है।

(8.) सोलह संस्कार

भारतीय परिवार बालक के जन्म के पहले से लेकर मृत्यु के बाद तक सोलह प्रकार के संस्कार-कर्मों से बंधा हुआ है। गृहस्थों के लिए आत्म-कल्याण के निमित्त व्रत-उपवास और त्यौहारों का विशद विधान है। एक गृहस्थ के लिए आवश्यक संस्कार-कर्मों की विस्तृत रूपरेखा अनेक उत्तर-वैदिक ग्रन्थों में दी गई है।

 ‘मनु स्मृति’ और ‘याज्ञवल्क्य स्मृति’ में संस्कारों एवं विधि-विधानों का विस्तृत वर्णन किया गया है। परिवार के समस्त सदस्यों को इन संस्कारों की परिधि में रहकर धर्मानुकूल आचरण करना होता है।

(9.) अतिथि-सत्कार

भारतीय परिवारों में अतिथि-सत्कार ‘शिष्टाचार’ मात्र न मानकर ‘धर्म’ माना जाता है। अतिथि को देवता के समकक्ष आदर दिया जाता है। अतिथि का आदर-सत्कार करना तथा उसे भोजन एवं आवास देना प्रत्येक गृहस्थ का कर्त्तव्य माना जाता है।

मनुस्मृति के अनुसार- ‘जो गृहस्थ देवता, अतिथि, भृत्य, माता-पिता का संरक्षण नहीं करता, वह श्वांस लेते हुए भी निष्प्राण है।’ यदि कभी कोई शत्रु या विरोधी भी अतिथि बनकर घर आता है, परिवार के सभी सदस्य उसे आदर देते हैं। इसी कारण भारतीय समाज में ‘घर आया, माँ-जाया बराबर’ (अतिथि सहोदर के समान है) जैसी कहावतें प्रचलित हैं।

(10.) एक विवाह का आदर्श

यद्यपि भारत में बहु-विवाही परिवारों का अस्तित्त्व रहा है तथापि सामान्यतः एक-विवाही परिवार ही आदर्श माना जाता है जिसका आशय एक पुरुष एक ही स्त्री से और एक स्त्री एक ही पुरुष से विवाह करती है।

पश्चिमी समाजशास्त्री मेलिनोवस्की ने लिखा है- ‘एक-विवाह ही विवाह का सच्चा स्वरूप था, है और रहेगा।’ विवाह के सम्बन्ध में प्रचलित यह मान्यता परिवार के सदस्यों में अन्य सभी सम्बन्धों के प्रति सहयोग एवं उत्तरदायित्व की भावना को जन्म देती है।

इस प्रकार भारतीय परिवार परम्परागत रूप से प्रेम तथा सौहार्द्र पर आधारित होता था जिसमें एक दूसरे के लिए उत्सर्ग करने की भावना प्रमुख थी।

पारिवारिक सम्पत्ति एवं उत्तराधिकार

भारतीय आर्य-परिवारों में सम्पत्ति के अधिकार एवं विभाजन के सम्बन्ध में कुछ निश्चित नियम थे जिनका निर्वहन पीढ़ी दर पीढ़ी स्वतः होता था।

परिवार के मुखिया के अधिकार

परिवार की सम्पत्ति का स्वामी घर का मुखिया अर्थात् दादा या पिता होता था और सामान्यतः दादा या पिता की मृत्यु के बाद ही उसके पुत्र-पौत्रों में सम्पत्ति का बँटवारा होता था। मनुस्मृति में पुत्र, स्त्री और दास की सम्पत्ति का स्वामी परिवार के मुखिया को माना गया है। विद्वान पिता अपने पुत्रों की शिक्षा स्वयं करता था, इसलिए उस युग मे पिता को पोषक एवं शिक्षक दोनों माना जाता था।

पुत्र पर पिता का अधिकार अबाध होता था। पुत्र का वह जैसा चाहता था, उपयोग करता था। वह उसे बेच सकता था, दान कर सकता था और दण्डित कर सकता था। ऋग्वेद में आए एक उल्लेख के अनुसार ऋज्राश्व नामक एक पुत्र ने एक भेड़िये को 100 भेड़ें खिला दीं। इस अपराध के लिए ऋज्राश्व के पिता ने ऋज्राश्व की आंखें निकाल लीं। नचिकेता अपने पिता वाजश्रवा द्वारा यमराज को दान कर दिया गया।

परिवार में माता का स्थान

परिवार में माता को उच्च एवं प्रतिष्ठित स्थान प्राप्त था। वेदों में माता का अभिनन्दन किया गया है। भगवान् के पूजन में भगवान को पिता के साथ-साथ माता भी कहा गया है। जब ब्रह्मचारी शिक्षा समाप्त करता था तब आचार्य उसे शिक्षा देता था कि वह देवता की तरह माता का सम्मान करे। रामायण में कौशल्या तथा महाभारत में कुंती एवं गांधारी के रूप में उस काल की माताओं की गरिमा का अनुमान किया जा सकता है।

महाभारत में कहा गया है कि आचार्य दस श्रोत्रियों से बढ़कर है, पिता दस उपाध्यायों से बढ़कर है और माता की महत्ता दस पिताओं से भी अधिक है। वह अकेली ही अपने गौरव द्वारा सारी पृथ्वी को तिरस्कृत कर देती है। अतः माता के समान दूसरा गुरु नहीं है।

वसिष्ठ धर्मसूत्र के अनुसार- ‘दस उपाध्यायों से अधिक गौरव आचार्य का है, सौ आचार्यों से अधिक पिता का और एक हजार पिताओं से अधिक माता का।’

गौतम-धर्मसूत्र में माता को श्रेष्ठ-गुरु कहा गया है। अतः माता का भरण-पोषण करना पुत्र का परम कर्त्तव्य माना गया। कुछ स्मृतियों में माता को पिता से भी अधिक उच्च स्थान दिया गया है और वह पिता से एक सहस्र गुना श्रद्धेय बताई गयी है किन्तु व्यावहारिक रूप से मुखिया के बाद उसकी पत्नी का स्थान होता था।

सामूहिक सम्पत्ति

परिवार की सम्पत्ति, किसी भी सदस्य की व्यक्तिगत सम्पत्ति नहीं मानी जाती थी अपितु परिवार के समस्त सदस्यों की सामूहिक सम्पत्ति मानी जाती थी। उत्तरवैदिक-काल में सम्पत्ति के अन्तर्गत पशु, भूमि एवं आभूषणों को सम्मिलित किया जाता था।

स्त्री-धन

स्त्री को विवाह के समय दहेज या उपहार के रूप में प्राप्त धन, उस स्त्री की व्यक्तिगत सम्पत्ति होता था और उसे ‘स्त्री-धन’ कहा जाता था। सैद्धांतिक रूप से वह स्त्री इस धन का स्वतंत्रता पूर्वक उपयोग कर सकती थी किंतु व्यावहारिक रूप में वह धन भी पूरे परिवार के ही काम आता था।

परिवार की सम्पत्ति का बँटवारा

याज्ञवल्क्य स्मृति (ई.100 से ई.300 के बीच रचित) की टीका मिताक्षरा (ग्यारहवीं शताब्दी ईस्वी) की मान्यता है कि पिता के जीवित रहते हुए भी पुत्र सम्पत्ति का बँटवारा करा सकते हैं क्योंकि उनका पारिवारिक सम्पत्ति में अधिकार होता है।

यदि पिता के जीवित रहते सम्पत्ति का बँटवारा होता था, तब समस्त पुत्रों को सम्पत्ति में समान हिस्सा मिलता था किन्तु पिता की मृत्यु के बाद बँटवारा होने पर ज्येष्ठ पुत्र को सम्पत्ति का बीसवाँ भाग अतिरिक्त अंश के रूप में मिलता था जिसे ‘ज्येष्ठांश’ कहते थे। ऐसी स्थिति में ज्येष्ठ पुत्र को छोटे भाइयों के प्रति परिवार के सामूहिक कर्त्तव्यों का पालन करना होता था।

पैतृक सम्पत्ति पर बारह प्रकार के पुत्रों का अधिकार

भारतीय-शास्त्र उत्तराधिकारी के सम्बन्ध में बारह प्रकार के पुत्रों तथा सम्पत्ति पर उनके दावों का उल्लेख करते हैं। इन बारह प्रकार के पुत्रों में दत्तक पुत्र भी शामिल है। विवाहित पत्नी से उत्पन्न वयस्क पुत्र स्वाभाविक उत्तराधिकारी होते थे। चौथी पीढ़ी तक के रक्त-सम्बन्धी उत्तराधिकारी माने जाते थे।

परिवार की सम्पत्ति पर स्त्री एवं पुत्री का अधिकार

सामान्यतः स्त्री को उत्तराधिकार का अधिकार प्राप्त नहीं था किन्तु याज्ञवल्क्य स्मृति तथा उसके टीकाकार विज्ञानेश्वर ने उत्तराधिकारियों की सूची में पुत्र के बाद स्त्री और कन्या का भी उल्लेख किया है। पिता की मृत्यु के बाद अविवाहित कन्या अपने भाइयों की तरह सम्पत्ति में समान हिस्सा प्राप्त कर सकती थी।

पिता के पुत्रहीन होने पर वह अपनी पुत्री को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त कर सकता था। मनुस्मृति के अनुसार इस प्रकार की पुत्री के पुत्र को अपने नाना की सम्पत्ति में अधिकार प्राप्त है किन्तु यदि अविवाहित कन्या जीवित है तो पुत्री के पुत्र को अपने नाना की सम्पत्ति में अधिकार प्राप्त नहीं होगा।

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता

यह भी देखें

भारत में पारिवारिक जीवन

भारतीय परिवार की विशेषताएँ

भारतीय परिवार के कर्त्तव्य

संयुक्त परिवार प्रणाली

प्राचीन विवाह प्रणालियाँ

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