प्रायः जिन नगरों में वैदिक धर्म एवं बौद्ध धर्म की शिक्षा दी जाती थी, उन्हीं नगरों में जैन उपासरों को ही प्राचीन जैन शिक्षा केन्द्र के रूप विकसित किया गया।
जैन धर्म भारत के अत्यंत प्राचीन धर्मों में से है। इसकी स्थापना ऋषभदेव के काल में हुई जिन्हें प्रथम तीर्थंकर तथा जैन धर्म का संस्थापक माना जाता है। उनके सहित अब तक जैन धर्म में 24 तीर्थंकर हो चुके हैं। जैन धर्म के प्रमुख शिक्षाएं अंतिम दो तीर्थंकरों के उपदेशों पर आधारित हैं। अंतिम तीर्थंकर महावीर स्वामी थे जिनका काल बौद्ध धर्म के संस्थापक गौतम बुद्ध के आसपास ही था। इस प्रकार जैन धर्म का जन्म बौद्ध धर्म से सैंकड़ों साल पुराना माना जाता है।
अनहिलपाटन (अन्हिलपाटन, अन्हिलवाड़ा)
चूंकि जैन दर्शन जन-सामान्य के समझने के लिए अत्यंत कठिन है तथा इस धर्म की साधनाएं भी अत्यंत कठिन हैं, इसलिए जैन धर्म को उतनी ख्याति नहीं मिली जितनी के बौद्ध धर्म को तथा सनातन धर्म को मिली। इस कारण भारत में प्राचीन जैन शिक्षा केन्द्र अधिक संख्या में विकसित नहीं हुए। गुजरात के चालुक्यवंशी शासकों की राजधानी अन्हिलपाटन पूर्व मध्य काल में शिक्षा-केन्द्र के रूप में विख्यात थी। अत्यंत प्राचीन काल में यह संस्कृत एवं वैदिक शिक्षा का विख्यात केन्द्र था किंतु बाद में यहाँ हिन्दू-धर्म-दर्शन के साथ-साथ जैन-धर्म और दर्शन की भी शिक्षा दी जाती थी। अनेक चालुक्यवंशी राजा ज्ञान और विद्या के उत्कर्ष में रुचि लेते थे। सोमप्रभाचार्य, हेमचन्द्र, रामचन्द्र, उदयचन्द्र, जयसिंह, यशपाल, वत्सराज एवं मेरूतुंग जैसे विद्वान् लेखकों ने अन्हिलपाटन के राज्याश्रय में संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश आदि विभिन्न भाषाओं में महत्वपूर्ण ग्रन्थों की रचना की। इनमें हेमचन्द्र सर्वाधिक प्रसिद्ध विद्वान् हुआ, जिसने व्याकरण, छन्द, शब्द-शास्त्र, साहित्य, कोश, इतिहास, दर्शन आदि विभिन्न विषयों पर विभिन्न ग्रन्थों की रचना की। जब मुसलमानों ने गुजरात पर आक्रमण किए तब अन्हिलपाटन का शैक्षणिक एवं धार्मिक महत्व समाप्त हो गया। अन्हिलवाड़ा में दी जाने वाली जैन शिक्षा के कारण ही इस पूरे क्षेत्र में जैन धर्म का व्यापक प्रचार हुआ। आगे चलकर सांचोर, भीनमाल तथा जालोर भी जैन शिक्षा के प्रमुख केन्द्र बन गए।
चीन जैन शिक्षा केन्द्र – जालोर
सातवीं-आठवीं शताब्दी ईस्वी में जालोर जैनों का बड़ा केन्द्र था। आठवीं शती में उद्योतन सूरी ने कुवलयमाला नामक प्रसिद्ध ग्रंथ की रचना की। प्रसिद्ध जैन विद्वान हेमचन्द्र की प्रेरणा से कुमारपाल चौलुक्य ने ई.1164 में जालोर में कुवर विहार जिनालय बनवाया। ई.1185 में राजा समरसिंह के मंत्री यशोवीर ने इस जिनालय का जीर्णोद्धार करवाया। इस कारण जालोर जैन-ग्रंथों के अध्ययन का प्रमुख केन्द्र बन गया। आजादी के बाद मुनि जिन विजय जालोर जिनालय के ग्रंथों को अहमदाबाद ले गए।
कांची
पहली शताब्दी ईस्वी में कांची में कुण्ड कुण्डाचार्य द्वारा जैन-धर्म का प्रसार किया गया। तीसरी शताब्दी ईस्वी में अकलंक द्वारा जैन-धर्म का प्रसार किया गया। पल्लवों के पूर्ववर्ती कल्भर राजाओं ने जैन-धर्म स्वीकार किया। इस प्रकार कांची में राजकीय संरक्षण मिल जाने के कारण जैन-धर्म का खूब प्रसार हुआ। पल्लव राजा सिंहविष्णु, महेन्द्र वर्मन तथा सिंहवर्मन (ई.550-560) ने भी जैन-धर्म का अनुसरण किया।