सरहिंद में मुगलों एवं अफगानों के बीच चालीस दिन तक लड़ाई चलती रही। हालांकि सरहिंद के युद्ध में अफगान सेना का नेतृत्व नसीब खाँ और तातार खाँ कर रहे थे किंतु अबुल फजल ने लिखा है कि इस लड़ाई में सिकंदरशाह की तरफ से काला पहाड़ नामक योद्धा ने अतुल शौर्य का प्रदर्शन किया।
इस युद्ध में काला पहाड़ के नाम से लड़ने वाला योद्धा वास्तव में कौन था, इसके बारे में अधिक जानकारी नहीं मिलती है किंतु उस काल में बंगाल एवं उड़ीसा में कालाचंद राय नामक एक ब्राह्मण युवक ने इस्लाम ग्रहण करके अपना नाम काला पहाड़ रख लिया था। उसने पूर्वी भारत केे बहुत सारे मंदिरों को क्षति पहुंचाई थी।
काला पहाड़ अफगान सेना में उच्च पद पा गया था। संभवतः यही काला पहाड़ सरहिंद के युद्ध में मौजूद था और उसने अफगानों की तरफ से हुमायूँ के विरुद्ध युद्ध लड़ा था। इस कारण हुमायूँ के सेनापतियों को यह लड़ाई जीतने में चालीस दिन लग गए। सरहिंद की लड़ाई के कई साल बाद ई.1583 में हुमायूँ के पुत्र अकबर ने काला पहाड़ को एक युद्ध में मरवाया था।
इस युद्ध की समाप्ति के बाद हुमायूँ के सेनापति शाह अबुल मआली तथा बैराम खाँ बेग में विजय के श्रेय को लेकर होड़ हो गई। दोनों ही शाही फरमान में इस विजय का श्रेय अपने नाम लिखवाना चाहते थे किंतु हुमायूँ ने उन दोनों को ही इस विजय का श्रेय न देकर अपने पुत्र अकबर को इस विजय का श्रेय दिया जिससे यह होड़ समाप्त हो गई।
सरहिंद के युद्ध में हुमायूँ को विजय भले ही प्राप्त हो गई थी किंतु सिकंदरशाह सूरी अभी जीवित था और कभी भी वापस लौट सकता था। अतः हुमायूँ ने अपनी एक सेना सरहिंद दुर्ग की रक्षा पर नियुक्त की तथा शेष सम्पूर्ण सेना एवं अपने अमीरों तथा बेगों के साथ समाना के लिए चल दिया।
समाना पहुंच कर हुमायूँ ने शाह अबुल मआली, मुहम्मद कुली खाँ बरलास, इस्माइल बेग दुलदाई तथा कुछ अन्य अमीरों को उनकी सेनाओं के साथ लाहौर भेज दिया। उन्हें आदेश दिया गया कि वे सिकंदरशाह सूरी की तरफ से सावधान रहें, वह कभी भी सरहिंद अथवा लाहौर पहुंचकर गड़बड़ी कर सकता है।
हुमायूँ ने शाह अबुल मआली की सेवाओं का सम्मान करते हुए उसे पंजाब का सूबेदार बना दिया। इन दिनों बरसात जोरों से हो रही थी, इसलिए हुमायूँ को समाना में एक दिन और विश्राम करना पड़ा। अगले दिन वह दिल्ली के लिए रवाना हुआ। 20 जुलाई 1555 को हुमायूँ दिल्ली पहुंच गया।
हुमायूँ ने दिल्ली के उत्तरी भाग में यमुनाजी के तट पर स्थित सलीमगढ़ दुर्ग में डेरा जमाया। जब हुमायूँ भारत का बादशाह था तब उसने दिल्ली में एक प्राचीन हिन्दू किले के चारों ओर एक परकोटा बनवाया था जिसे हुमायूँ दीनपनाह कहा करता था। शेरशाह के पुत्र इस्लामशाह अथवा सलीमशाह ने इसी दीनपनाह का जीर्णोद्धार करके उसे सलीमगढ़ नाम दिया था।
जब हुमायूँ दुबारा लौट कर आया तो उसने फिर से इसी दीनपनाह में डेरा जमाया। हुुमायूँ ने इस दीनपनाह के भीतर एक पुस्तकालय का भी निर्माण करवाया था जिसका बाद में शेरशाह ने जीर्णोद्धार करके शेरमण्डल नाम रखा था। हुमायूँ इस पुस्तकालय से बहुत प्रेम करता था। इस पुस्तकालय के फिर से हाथ आ जाने से हुमायूँ बड़ा प्रसन्न हुआ। आज भी इस पुस्तकालय को दिल्ली के पुराने किले में घुसते ही देखा जा सकता है और दूर से पहचाना जा सकता है। आगे चलकर हुमायूँ की मृत्यु भी इसी पुस्तकालय की सीढ़ियों से फिसल जाने से हुई थी।
कुछ दिन बाद हुमायूँ ने दिल्ली नगर में प्रवेश किया तथा दिल्ली के तख्त पर बैठ गया। जिस दिन हुमायूँ तख्तासीन हुआ, उसी दिन उसने अपने अधिकारियों में हिंदुस्तान के वे क्षेत्र वितरित किए जो अब तक हुमायूँ द्वारा अपने अधीन कर लिए गए थे। हिसार तथा उसका निकटवर्ती परगना अकबर को दिया गया।
हुमायूँ ने बैराम खाँ को सरहिंद तथा अन्य परगने दिए गए। तार्दी खाँ बेग को मेवात, इस्कंदर खाँ उजबेग को आगरा, अली कुली खाँ को सम्भल और हैदर मुहम्मद खाँ अखता बेगी को बयाना दिए गए। बादशाह दिल्ली के सलीमगढ़ में रहने लगा। कुछ दिनों बाद शाह वली अतका काबुल से दिल्ली आया। उसने हुमायूँ के हरम की औरतों की कुशलता का समाचार सुनाया। उसने हुमायूँ को सूचित किया कि चूचक बेगम ने एक और पुत्र को जन्म दिया है। हुमायूँ ने उस पुत्र का नाम फर्रूख फाल रखा। इस शुभ समाचार को लाने वाले शाह वली अतका को हुमायूँ ने सुल्तान की उपाधि से सम्मानित किया।
हुमायूँ को सूचना मिली कि कुछ अफगान सरदार हिसार में एकत्रित हो रहे हैं। इस पर हुमायूँ ने अतका खाँ को एक सेना देकर हिसार की तरफ भेजा। जब अतका खाँ हिसार से केवल दो कोस की दूरी पर रह गया तब हिसार की तरफ से रुस्तम खाँ और तातार खाँ आदि अफगान अमीर अपनी सेनाएं लेकर आए।
अबुल फजल ने लिखा है कि अफगानों की संख्या 2 हजार तथा मुगलों की संख्या केवल 400 थी परन्तु जब लड़ाई आरम्भ हुई तो मुगलों की जीत हुई। शत्रु के सत्तर आदमी मारे गए। रुस्तम खाँ भागकर हिसार के दुर्ग में चला गया। इस कारण मुगलों ने हिसार का दुर्ग घेर लिया। 23 दिन की घेरेबंदी के बाद रुस्तम खाँ ने समर्पण कर दिया। 700 अफगानों को उनके नेताओं सहित बंदी बनाकर बादशाह के पास भेज दिया गया।
बादशाह ने रुस्तम खाँ के समक्ष प्रस्ताव रखा कि यदि वह हुमायूँ की सेवा में आए तो उसे एक जागीर दे दी जाएगी किंतु उसके पुत्रों को पेशावर के किले में शाही निगरानी में रखा जाएगा। रुस्तम खाँ ने बादशाह का यह प्रस्ताव मानने से मना कर दिया। इस पर हुमायूँ ने रुस्तम खाँ को बंदी बना लिया।
अबुल फजल ने यहाँ भी जमकर झूठ बोला है कि अफगानों की संख्या 2 हजार थी जिन्हें केवल 400 मुगल सैनिकों ने परास्त कर दिया तथा 700 अफगान सैनिकों को बंदी बनाकर बादशाह के पास भेज दिया। यह अनुमान लगाना कठिन नहीं है कि मुगल सैनिकों की संख्या अफगान सैनिकों की संख्या के आसपास अथवा उनसे अधिक रही होगी।
संभवतः अबुल फजल को झूठा इतिहास लिखने की प्रेरणा बाबरनामा से मिली होगी। बाबर ने भी हर स्थान पर अपनी सेना की संख्या बहुत कम तथा शत्रु के सैनिकों की संख्या बहुत अधिक बताई है।
संभवतः ऐसा करके बाबर यह सिद्ध करना चाहता था कि बाबर को युद्ध में विजय सैनिकों के बल पर नहीं मिली थी अपितु अपनी स्वयं की चमत्कारी शक्ति के बल पर मिली थी। यही प्रवृत्ति अबुल फजल में भी प्रवेश कर गई थी जो कि पूरे मुगल इतिहास लेखन के दौरान अन्य लेखकों में भी विद्यमान रही।
– डॉ. मोहनलाल गुप्ता
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