Friday, April 19, 2024
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96. हुमायूँ की ठोकर से ताश के पत्तों की तरह ढह गई सूर सल्तनत!

हुमायूँ ने कालानूर, दीपालपुर तथा लाहौर सहित पंजाब के अनेक नगरों एवं गांवों पर कब्जा कर लिया। हुमायूँ ने अपनी एक सेना बैराम खाँ के नेतृत्व में हरियाणा की तरफ भेजी थी। उस काल में हरियाणा पंजाब प्रांत का ही एक हिस्सा था। जब बैराम खाँ अपनी सेना लेकर हरियाणा पहुंचा तो नसीब खाँ अफगान ने बैराम खाँ का मार्ग रोका किंतु कुछ देर की लड़ाई के बाद नसीब खाँ पराजित होकर भाग गया।

नसीब खाँ का बहुत सा माल शाही सेना ने लूट लिया और उसके कुटुम्ब को भी पकड़ लिया। बैराम खाँ ने नसीब खाँ के परिवार की स्त्रियों एवं बच्चों को नसीब खाँ के पास भिजवा दिया और लूट का माल बादशाह के पास भेज दिया। यहाँ से बैराम खाँ जालंधर आया और नगर पर अधिकार करके बैठ गया। उसने जलंधर के परगने अपने अधिकारियों को दे दिए।

इसी बीच हुमायूँ के अमीर इस्कंदर खाँ उजबेक ने सरहिंद पर कब्जा कर लिया। इस पर सिकंदरशाह सूरी ने आगरा से एक सेना तातार खाँ नामक सेनापति के नेतृत्व में भेजी। तातार खाँ ने इस्कंदर खाँ उजबेक में कसकर मार लगाई। इस कारण इस्कंदर खाँ उजबेक को सरहिंद खाली करना पड़ा। बैराम खाँ ने इस्कंदर खाँ उजबेक की इस कायरता को पसंद नहीं किया तथा खुलेआम इस्कंदर खाँ उजबेक की भर्त्सना की।

कुछ दिनों बाद हुमायूँ भी लाहौर से चलकर जलंधर आ गया और बैरामखां से मिला। यहाँ से हुमायूँ मच्छीवाड़ा की तरफ बढ़ा। जब वह मच्छीवाड़ा के निकट पहुंचा तब तक उस क्षेत्र में बरसात आरम्भ हो चुकी थी तथा सतलुज नदी में बाढ़ आने की आशंका थी। इसलिए अमीरों ने हुमायूँ को सलाह दी कि इस समय नावों पर कब्जा कर लेना चाहिए किंतु नदी पार करने में जल्दबाजी नहीं करनी चाहिए।

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बैराम खाँ को ज्ञात था कि अफगानों की एक बड़ी सेना नदी के दूसरी तरफ आ रही है। इस समय विलम्ब करने से अफगानों को तैयारी करने का समय मिल जाना निश्चित था। यदि अफगानों की सेना नदी के उस पार पहुंच जाती तो बादशाह की सेना उस पार नहीं जा पाती। इसलिए बैराम खाँ ने अमीरों से कहा कि मैं नदी पार करके आगे जाता हूँ। आप लोग पीछे आ जाना।

जब बैराम खाँ ने नदी पार कर ली तब अन्य अमीरों को भी उसका अनुसरण करना पड़ा और बादशाह भी नदी पार करके दूसरी ओर आ गया। कुछ ही समय बाद अफगानों की सेना भी आ पहुंची। दोनों पक्षों में उसी समय युद्ध आरम्भ हो गया। निश्चित रूप से अफगानों की सेना हुमायूँ पर भारी पड़ने वाली थी किंतु थोड़ी ही देर में अंधेरा होने से विलम्ब हो गया।

जिस स्थान पर अफगान सेना ने पड़ाव डाला, उसके पास ही एक गांव था जिसमें कच्चे फूस की झौंपड़ियां बनी हुई थीं। पता नहीं मुगलों अथवा अफगानों, किसकी दुष्टता से उन झौंपड़ियों में आग लग गई और चारों ओर उजाला हो गया। इस उजाले में अफगानों की सेना साफ दिखाई देने लगी। इस पर हुमायूँ के पक्ष के अमीरों ने अफगानों पर हमला बोल दिया।

इधर भारत के निर्धन किसानों की झौंपड़ियां धू-धू कर जल रहीं थी और उधर मुगलों एवं अफगानों में हिंदुस्तान के ताज को लेकर फैसला हो रहा था। पी. एन. ओक ने लिखा है कि इन झौंपड़ियों में आग जानबूझ कर लगाई गई थी।

मुगलों द्वारा किए गए हमले के समय अफगान सेना असावधान थी। उसने सोचा भी नहीं था कि हुमायूँ की सेना रात में उन पर हमला कर देगी। इसलिए इस बार हुमायूँ की सेना भारी पड़ी और रात के तीसरे पहर में हुमायूँ की सेना को विजय प्राप्त हो गई। बहुत से अफगान मारे गए और बहुत से प्राण बचाकर भाग गए।

मच्छीवाड़ा से हुमायूँ की सेना सरहिंद की तरफ बढ़ी। बैरामखां ने एक प्रबल धावा बोलकर सरहिंद पर अधिकार कर लिया। सिकंदरशाह सूरी का सेनापति तातार खाँ सरहिंद खाली करके मच्छीवाड़ा की तरफ चला गया। जब सरहिंद के क्षेत्र में अफगानों की हलचल बंद हो गई तो हुमायूँ लाहौर चला गया। कुछ ही दिनों में सिकंरदशाह सूरी ने 40 हजार घुड़सवारों के साथ सरहिंद को घेर लिया। तातार खाँ तथा नसीब खाँ भी अपनी सेनाएं लेकर सिकंदरशाह सूरी की सहायता के लिए आ पहुंचे।

बैराम खाँ ने सरहिंद के दुर्ग में मोर्चाबंदी की किंतु उसके पास इतने सैनिक नहीं थे जो सरहिंद की रक्षा कर पाते। इसलिए बैराम खाँ ने बादशाह हुमायूँ को संदेश भिजवाया कि वह तुरंत लाहौर से प्रस्थान करके सरहिंद आए किंतु उस समय हुमायूँ उदरशूल से पीड़ित था। अतः वह लाहौर से रवाना नहीं हो सका।

बैराम खाँ जी-जान से सरहिंद की रक्षा कर रहा था। वह नहीं चाहता था कि सरहिंद को खाली करके भागने का कलंक इस्कंदर खाँ उजबेग की तरह बैराम खाँ के माथे पर भी लगे। अतः वह संघर्ष करता रहा। कुछ ही दिनों में स्थिति यह हो गई कि न तो बैराम खाँ सरहिंद खाली करता था, न हुमायूँ लाहौर से सेना लेकर आता था और न सिकंदरशाह सूरी सरहिंद को छोड़कर जाता था।

जब बैराम खाँ के पास सरहिंद की रक्षा का अन्य कोई उपाय नहीं बचा तो उसने बादशाह को सरहिंद आने के लिए अंतिम संदेश भिजवाया। इस संदेश को पाकर हुमायूँ विचलित हो गया। वह बीमार था और युद्ध करने की स्थिति में नहीं था। इसलिए उसने तेरह वर्ष के अकबर को ही सेना का नेतृत्व सौंपकर सरहिंद के लिए रवाना कर दिया।

जब यह सेना सरहिंद पहुंची तो बैराम खाँ को सहारा मिल गया किंतु अब भी सिकंदरशाह की सेना भारी पड़ रही थी। अतः कुछ दिनों बाद हुमायूँ भी अपनी बची-खुची सेना लेकर सरहिंद के लिए चल पड़ा। इस समय तक बैराम खाँ तथा सिकंदरशाह के बीच युद्ध चलते हुए 25 दिन हो चुके थे।

सुल्तान सिकंदरशाह सूरी तथा बादशाह हुमायूँ के सरहिंद के युद्ध में उपस्थित होने के कारण यह लड़ाई आर-पार की हो गई। दोनों ओर से सर्वस्व दांव पर लगा था। हुमायूँ के आने के बाद 15 दिवस तक दोनों ओर से भीषण संघर्ष किया गया। हुमायूँ ने अपनी सेना के चार भाग किए जिनका नेतृत्व अकबर, अतगा खां, ख्वाजा मोअज्जम तथा इस्कंदर खाँ उजबेक ने किया। बैराम खाँ सरहिंद के भीतर से मोर्चा संभाल रहा था।

अंत में मुगलों की विजय हुई और अफगान पीठ दिखाकर भाग गए। सिकंदरशाह सूरी भी उन्हीं के साथ भाग छूटा। इस समय तेज आंधी चल रही थी। इसलिए हुमायूँ की सेना भागते हुए अफगानों का पीछा नहीं कर सकी। हुमायूँ के सैनिकों ने सिकंदरशाह का खेमा लूट लिया जहाँ से अपार धन प्राप्त हुआ। यह धन बादशाह को समर्पित कर दिया गया।

अब हुमायूँ के लिए दिल्ली दूर नहीं थी। इस्कंदर खाँ उजबेक को उसी दिन दिल्ली पर अधिकार करने के लिए रवाना कर दिया गया। हुमायूँ की ठोकर से सूर सल्तनत ताश के पत्तों की तरह ढह चुकी थी!

– डॉ. मोहनलाल गुप्ता

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