Wednesday, October 9, 2024
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राजपूताने पर कहर

ब्रजभूमि पर कहर ढाने के बाद औरंगजेब ने राजपूताने पर कहर ढाना आरम्भ कर दिया। जिस राजपूताने ने मुगलों का राज्य भारत में जमाने एवं उसे हिमालय से लेकर समुद्र तक पहुंचाने में खून की नदियां बहा दी थीं, आज वही राजपूताना औरंगजेब की क्रूर नीति का शिकार होने जा रहा था।

औरंगजेब के भय से मथुरा एवं वृंदावन के मंदिरों से देव-विग्रह निकल कर राजपूत राज्यों में पहुंचा दिए गए थे तथा उन्हें मंदिरों की बजाय हवेलियों में रखा जा रहा था, यह बात अधिक दिनों तक औरंगजेब से छिपी नहीं रह सकती थी। इसलिए उसने राजपूत राज्यों पर कहर ढाना शुरु कर दिया।

ई.1679 में औरंगजेब ने मीर आतिश दाराब खाँ को शेखावाटी क्षेत्र के खण्डेला गांव में स्थित मोहनजी का विशाल मंदिर तोड़ने के लिए भेजा। 8 मार्च 1679 को आतिश दाराब खाँ ने मंदिर पर हमला किया तो 300 हिन्दू युवक, मंदिर की रक्षा के लिए आगे आए। आतिश खाँ ने उनकी हत्या कर दी। इनमें मारवाड़ से विवाह करके लौटा सुजानसिंह नामक एक राजपूत भी था जिसकी प्रशंसा में आज भी शेखावाटी क्षेत्र में लोकगीत गाए जाते हैं।

मुगल सेना ने खण्डेला स्थित मोहनजी का मंदिर, खाटू श्यामजी स्थित सांवलजी का मंदिर एवं निकटवर्ती अन्य मंदिर तोड़ दिए। खण्डेला का राजा बहादुरसिंह अपनी प्रजा एवं सैनिकों के साथ कोट सकराय के पहाड़ी दुर्ग में चला गया तथा वहीं से उसने मुगलों से भारी मोर्चा लिया।

25 मई 1679 को खानजहाँ बहादुर मारवाड़ राज्य के मंदिरों को ढहाकर दिल्ली लौटा। वह अपने साथ जोधपुर, फलोदी, मेड़ता, सिवाना, पोकरण, सांचोर, जालोर, भीनमाल तथा मारोठ आदि कस्बों में स्थित प्रसिद्ध मंदिरों की कीमती मूर्तियों को कई बैलगाड़ियों में भर कर लाया था। इन मूर्तियों में बहुत सी मूर्तियों पर हीरे-जवाहर लगे हुए थे। बहुत सी मूर्तियों पर सोने-चांदी के आभूषण एवं मुकुट आदि थे।

पूरे आलेख के लिए देखें यह वी-ब्लॉग-

औरंगजेब ने इन देव-विग्रहों को जिलाउखाना तथा जामा मस्जिद के रास्ते में लगवा दिया ताकि नमाज पढ़ने के लिए जाने वाले मुसलमान इन्हें रोज ठोकरों से मार सकें। खानजहाँ ने अपनी इस विध्वंस यात्रा में मण्डोर के 8वीं शताब्दी ईस्वी के प्राचीन मंदिर सहित ओसियां के हरिहर मंदिर, महिषासुर मर्दिनी मंदिर, त्रिविक्रम मंदिर सहित अनेक प्राचीन मंदिरों का विनाश किया जिनके ध्वंसावशेष आज भी बिखरे पड़े हैं। मुसलमान सैनिकों ने उन सैंकड़ों प्रतिमाओं के चेहरे विकृत कर दिए जिन्हें पूरी तरह तोड़ना संभव नहीं था।

अगस्त 1679 में औरंगजेब ने मुगल फौजदार तहव्वर खाँ को पुष्कर का वाराह मंदिर तोड़ने के लिए भेजा। मेड़तिया राठौड़ों ने मंदिर की रक्षार्थ अपना बलिदान करने का निर्णय लिया और 19 अगस्त को पुष्कर पहुंचकर मुगल फौजदार पर आक्रमण किया। तीन दिनों तक दोनों पक्षों में भयानक लड़ाई चलती रही जब तक कि उस समूह का अंतिम राठौड़ कटकर नहीं गिर गया।

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फरवरी 1679 में औरंगजेब ने हसनअली खाँ को मेवाड़ क्षेत्र में सेना लेकर पहुंचने के आदेश दिए तथा औरंगजेब स्वयं भी 30 नवम्बर 1679 को अजमेर से मेवाड़ के लिए रवाना हुआ ताकि उदयपुर के मंदिरों को गिराया जा सके।

महाराणा राजसिंह उदयपुर नगर को छोड़कर गहन पहाड़ों में चला गया ताकि औरंगजेब को पहाड़ों में खींचकर मारा जा सके किंतु औरंगजेब महाराणा के पीछे जाने का साहस नहीं कर सका। 24 जनवरी 1680 को औरंगजेब उदयसागर झील के किनारे पहुंचा तथा वहाँ स्थित तीनों मंदिर ढहा दिए।

वहीं पर औरंगजेब को सूचना मिली कि 5 कोस की दूरी पर एक और झील है जिसके किनारे भी कई मंदिर बने हुए हैं। औरंगजेब ने यक्का ताज खाँ, हीरा खाँ, हसन अली खाँ तथा रोहिल्ला खाँ को उन्हें भी गिराने के आदेश दिए।

औरंगजेब की सेनाओं ने उदयपुर नगर में स्थित विख्यात एवं भव्य जगदीश मंदिर पर भी आक्रमण किया। इस मंदिर को महाराजा जगतसिंह ने कुछ साल पहले ही कई लाख रुपयों की लागत से बनवाया था। इसे जगन्नाथराय का मंदिर भी कहते थे।

इस मंदिर के सामने 20 माचातोड़ सैनिकों को सुलाया गया। राजस्थान में खटिया को माचा कहा जाता है। प्रत्येक राजपूत राजा के पास कुछ माचातोड़ सैनिक होते थे जो दिन रात-खाते-पीते और माचे पर पड़े रहते थे। जब शत्रु सेना आती थी तो एक-एक माचा तोड़ सैनिक उठ कर खड़ा होता था तथा कई-कई सैनिकों को मारकर वीरगति को प्राप्त होता था। जब मुगलों की सेना जगन्नाथराय मंदिर को तोड़ने आई तो माचातोड़ सैनिक एक-एक करके उठे तथा शत्रुओं के सिर काटते हुए स्वयं भी वीरगति को प्राप्त हुए।

29 जनवरी 1680 को हसन अली खाँ ने औरंगजेब को सूचित किया कि अब तक उदयपुर में 172 मंदिरों को ढहाया जा चुका है। इनमें से उस काल के प्रसिद्ध अनेक मंदिर सदा के लिए नष्ट हो गए और हिन्दू उन्हें पूरी तरह भूल गए। केवल वही मंदिर याद रहे जिनका कुछ अंश टूट जाने से शेष रहा था।

ई.1680 में औरंगजेब की आज्ञा से आम्बेर के प्रमुख हिन्दू मन्दिरों को गिरवा दिया गया। आम्बेर के कच्छवाहों ने अकबर के शासन काल से ही मुगलों की बड़ी सेवा की थी। इस कारण कच्छवाहों को औरंगजेब के इस कुकृत्य से बहुत ठेस लगी।

20 अप्रेल 1680 को मेरठ के दारोगा ने सूचित किया कि बादशाह के आदेश से मेरठ के मंदिरों के दरवाजों को तोड़ दिया गया है तथा अब वह चित्तौड़ के काफिरों को दण्ड देने जा रहा है। जून 1680 में अबू तुराब ने औरंगजेब को सूचित किया कि आम्बेर में 66 हिन्दू मन्दिरों को तोड़ दिया गया है।

22 फरवरी 1681 को औरंगजेब चित्तौड़ पहुंचा। उसने चित्तौड़ में स्थित 63 प्राचीन मंदिरों को ढहा दिया। इनमें आठवीं शताब्दी के सूर्य मंदिर को भी ढहा दिया गया जिसे अब कालिका माता मंदिर कहा जाता है। इसके साथ ही आठवीं से दसवीं शताब्दी के अनेक प्राचीन मंदिर भी बेरहमी से ढहाए गए। इन मंदिरों के साथ शिल्प एवं स्थापत्य का एक सुंदर संसार सदा के लिए मानव सभ्यता की आंखों से ओझल हो गया।

राजपूताने पर कहर ढाने के अभियान में जून 1681 तक औरंगजेब की सेनाओं ने मेवाड़ राज्य में ताण्डव किया। चित्तौड़ दुर्ग के भीतर स्थित 63 मंदिरों के अतिरिक्त चित्तौड़ क्षेत्र के अन्य सैंकड़ों मंदिर भी तोड़े गए। इनमें परिहारों द्वारा 10वीं शताब्दी ईस्वी में निर्मित कूकड़ेश्वर महादेव, समिद्धेश्वर महादेव, अन्नपूर्णा एवं बाणमाता मंदिर भी सम्मिलित थे।

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता

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