औरंगजेब को राजा रूपसिंह राठौड़ का भय सता रहा था! इस समय किशनगढ़ का राजा रूपसिंह ही शाहजहाँ और दारा शिकोह के चारों ओर एक अभेद्य दीवार बनकर खड़ा था।
औरंगजेब द्वारा गुपचुप चम्बल पार करके आगरा तक आ पहुंचने के कारण रणक्षेत्र का नक्शा पूरी तरह अप्रत्याशित हो गया था। आगरा के दरवाजों के बाहर की तरफ दारा शिकोह को होना चाहिए था किंतु वहाँ औरंगजेब की सेनाएं खड़ी थीं और जहाँ औरंगजेब को होना चाहिए था, वहाँ दारा की सेनाएं खड़ी थीं।
इस समय यदि आगरा में सेना की एक अतिरिक्त टुकड़ी होती तो वह शहर के दरवाजे खोलकर पीछे से औरंगजेब पर हमला बोल सकती थी और सामने से दारा की सेनाएं औरंगजेब को कुचल सकती थीं किंतु दुर्भाग्य से दारा के पास इस समय आगरा में कोई बड़ी सैनिक टुकड़ी नहीं थी। शहर के भीतर तो महाराजा रूपसिंह के मुट्ठी भर सैनिक ही थे जो बादशाह की सुरक्षा में नियुक्त थे।
बादशाह ने राजा रूपसिंह राठौड़ को दारा शिकोह का सरंक्षक नियुक्त किया था। इसलिए सेना का संचालन मुख्य रूप से महाराजा रूपसिंह के ही हाथों में था। उसने दारा को सलाह दी कि दारा का सैन्य शिविर, औरंगज़ेब के शिविर के इतनी पास लगना चाहिए कि यदि औरंगज़ेब चकमा देकर आगरा में घुसने का प्रयास करे तो हमारी सेनाएं बिना कोई समय गंवाए, उसका पीछा कर सकें। हालांकि ऐसा करने में कई खतरे थे किंतु दारा के पास महाराजा की सलाह मानने के अतिरिक्त और कोई चारा नहीं था।
औरंगज़ेब ने भी घनघोर आश्चर्य से देखा कि राजा रूपसिंह राठौड़ अपनी सेनाओं को औरंगज़ेब के सैन्य शिविर के इतनी निकट ले आया था कि जहाँ से वह तोप के गोलों की सीमा से कुछ ही दूर रह गया था। औरंगज़ेब राठौड़ राजाओं से बहुत डरता था।
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हालांकि वह जोधपुर के राजा जसवंतसिंह की पूरी सेना को नष्ट करके युद्ध के मैदान से भगा चुका था फिर भी किशनगढ़ नरेश रूपसिंह राठौड़ का भय अब भी उसके मस्तिष्क में बना हुआ था। वह जानता था कि रूपसिंह राठौड़ तलवार का जादूगर है। जाने कब वह कौनसा चमत्कार कर बैठे! बलख और बदखशां की पहाड़ियों पर बिखरा हुआ उजबेकों का खून आज भी रूपसिंह राठौड़ के नाम को याद करके सिहर उठता था।
30 मई 1658 को सूरज निकलते ही महाराजा रूपसिंह ने दारा के पक्ष की विशाल सेनाओं को योजनाबद्ध तरीके से सजाया। महाराजा रूपसिंह राठौड़ तथा महाराजा छत्रसाल के राजपूत सिपाही इस योजना का मुख्य आधार थे किंतु कठिनाई यह थी कि औरंगज़ेब और मुराद के पास मुगलों का सधा हुआ तोपखाना था।
जबकि राजपूत सिपाही अब भी हाथों में बर्छियां और तलवारें लेकर लड़ते थे तथा राजपूत घुड़सवार अब भी धनुषों पर तीर रखकर फैंकते थे। उनके पास मुगलों जैसी बंदूकें और तोपें नहीं थीं।
इसलिए महाराजा ने योजना बनाई कि दारा का तोपाखाना और शाही सेना की बंदूकें आगे की ओर रहें तथा राजपूत सेनाएं युद्ध के मैदान में तब तक दुश्मन के सामने न पड़ें, जब तक कि औरंगज़ेब की तोपों का बारूद खत्म न हो जाए।
महाराजा ने सबसे आगे ऊंटों पर बंधी हुई तोपों वाली सेना को तैनात किया, जिन्हें सबसे पहले आगे बढ़कर धावा बोलना था। ऊँटों की तोप-सेना के ठीक पीछे दारा की शाही सेना नियुक्त की गई जिसका नेतृत्व स्वयं वली-ए-अहद दारा कर रहा था।
दारा की पीठ पर स्वयं महाराजा रूपसिंह राठौड़ और छत्रसाल अपनी-अपनी सेनाएं लेकर सन्नद्ध हुए। राजपूतों की सेना के एक ओर खलीलुल्ला खाँ को तैनात किया गया जिसके अधीन तीन हजार घुड़सवार थे तथा बायीं ओर रुस्तम खाँ को उसकी विशाल सेना के साथ रखा गया।
इस समय दारा शिकोह का सबसे बड़ा सहयोगी महाराजा रूपसिंह राठौड़ ही था। उसे बादशाह ने दारा शिकोह का संरक्षक नियुक्त किया था तो स्वयं दारा ने उसे अपनी सेना का प्रधान सेनापति नियुक्त कर रखा था। इसलिए रणभूमि में जो कुछ भी हो रहा था, उसकी सारी योजना महाराजा रूपसिंह ने स्वयं तैयार की थी।
रूपसिंह नहीं चाहता था कि युद्ध के मैदान में दारा शिकोह पल भर के लिए भी महाराजा रूपसिंह की आँखों से ओझल हो। इसलिए वह अपने घोड़े पर सवार होकर दारा की हथिनी के ठीक पीछे तलवार सूंतकर खड़ा हुआ।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता