Thursday, April 25, 2024
spot_img

कांग्रेस और मुस्लिम लीग में अस्थाई सरकार के गठन के लिए समझौता

मई 1945 में केन्द्रीय विधान सभा में कांग्रेस के नेता भूलाभाई देसाई और मुस्लिम लीग के नेता लियाकत अली के बीच केन्द्र में अस्थाई सरकार बनाने के बारे में एक समझौता हुआ। इसमें निश्चित किया गया कि इस सरकार में 40 प्रतिशत कांग्रेस के, 40 प्रतिशत लीग के और शेष 20 प्रतिशत पद अन्य गुटों के लिए होंगे।

यह प्रस्ताव लॉर्ड वैवेल के समक्ष रखा गया। वह ब्रिटिश सरकार से सलाह करने के लिए लंदन गया। लम्बे विचार-विमर्श के बाद मई के अंत में ब्रिटिश सरकार ने इस समझौते को अपनी स्वीकृति दे दी। 14 जून 1945 को भारत सचिव एल. एस. एमरी ने हाउस ऑफ कॉमन्स में भारत के सम्बन्ध में नई नीति की घोषणा की। उन्होंने कहा कि ब्रिटिश सरकार भारत में कांग्रेस और मुस्लिम लीग की सरकार स्थापित करने के लिए तैयार है।

25 जून 1945 को लॉर्ड वैवेल ने शिमला में एक सम्मेलन आयोजित किया। वायसराय की घोषणा के अनुसार इसमें कांग्रेस और मुस्लिम लीग के अध्यक्षों, परिगणित जातियों और सिक्खों के प्रतिनिधियों, केन्दीय विधानसभा में कांग्रेस दल के नेता और मुस्लिम लीग के उपनेता, केन्द्रीय राज्यपरिषद में कांग्रेस दल और मुस्लिम लीग के नेता, विधान सभा में नेशनलिस्ट पार्टी और यूरोपीय ग्रुप के नेता एवं उस समय की प्रान्तीय सरकारों के मुख्यमंत्री निमंत्रित किए गए थे।

सम्मेलन में वायसराय की कार्यकारिणी के गठन को लेकर कांग्रेस और मुस्लिम लीग के बीच विवाद हो गया। वैवेल ने 14 सदस्यों की एक्जीक्यूटिव कौंसिल का प्रस्ताव रखा जिसमें कहा गया कि इसमें 5 नाम कांग्रेस द्वारा, 5 नाम मुस्लिम लीग द्वारा और 4 नाम वायसराय द्वारा दिए जाएंगे। कांग्रेस ने आजाद, नेहरू, पटेल, एक पारसी और एक भारतीय ईसाई का नाम दिया। वैवेल ने एक सिक्ख, दो परिगणित जातियों और पंजाब के मुख्यमंत्री खिजिर हयात का नाम दिया।

जिन्ना ने कांग्रेस के द्वारा दिए गए मौलाना अबुल कलाम आजाद के नाम पर आपत्ति कर दी। उसका कहना था कि कौंसिल में कोई भी मुस्लिम सदस्य केवल मुस्लिम लीग से हो सकता है। कांग्रेस मौलाना की बजाय कोई दूसरा नाम दे। इस मुद्दे पर इतनी टसल हुई कि यह सम्मेलन विफल हो गया।

मुस्लिम लीग की यह जिद्द पूरे देश को हैरान करने वाली थी। क्योंकि इस समय पश्चिमोत्तर सीमांत प्रदेश, पंजाब और सिंध में मुस्लिम जनसंख्या का बहुमत होते हुए भी वहाँ मुस्लिम लीग की सरकारें नहीं बन सकी थीं। पश्चिमोत्तर सीमांत प्रदेश में कांग्रेस की सरकार थी। पंजाब में यूनियनिस्ट पार्टी के नेता खिजिर हयात खाँ मुख्यमंत्री थे। सिंध में सर गुलाम हुसैन की कांग्रेस समर्थित सरकार थी। यही हालत असम की थी।

बंगाल में गवर्नर शासन था। ऐसी स्थिति में मुस्लिम लीग यह दावा कैसे कर सकती थी कि मुस्लिम लीग ही समूचे भारत के मुसलमानों का प्रतिनिधित्व करती हैै। जिन्ना का रवैया इसलिए भी हैरान करने वाला था क्योंकि यदि जिन्ना इस कौंसिल के गठन को स्वीकार कर लेता तो 14 सदस्यों की इस कौंसिल में मुसलमानों की संख्या 7 अर्थात् 50 प्रतिशत होती जो कि भारत की मुस्लिम जनंसख्या के अनुपात की तुलना में दो गुनी होती। यदि यह सरकार बनती तो जिन्ना और मुसलमान लाभ में रहते किंतु जिन्ना को ‘लाभ’ नहीं ‘पाकिस्तान‘ चाहिए था।

जिन्ना और गांधीजी का मतभेद केवल एक बिंदु पर रहता था। जिन्ना कहता था कि मुस्लिम लीग ही एकमात्र वह संस्था है जो मुसलमानों का प्रतिनिधित्व कर सकती है जबकि गांधीजी का कहना था कि कांग्रेस हिन्दू और मुसलमान दोनों का प्रतिनिधित्व करती है। केवल इसी विवाद के कारण कांग्रेस और मुस्लिम लीग में कभी कोई समझौता नहीं हो पाया, यदि हुआ भी तो शीघ्र ही इसी बिंदु पर आकर भंग हो गया। शिमला सम्मेलन में भी यही सब दोहराया गया। शिमला सम्मेलन विफल होने के बाद लॉर्ड वैवेल को भारतीय राजनीति में असफल माना जाने लगा।

21 नवम्बर 1945 को जिन्ना ने पेशावर में दिए एक भाषण में, मुस्लिम लीग द्वारा भारतीय प्रतिनिधियों की अस्थाई सरकार न बनने देने के सम्बन्ध में स्पष्टीकरण देते हुए कहा- ‘एक अच्छा सेना संचालक उस समय तक आक्रमण करने का आदेश नहीं देता जब तक उसे विजय का विश्वास न हो अथवा उसे सम्मानपूर्ण पराजय का विश्वास तो निश्चित तौर पर होना ही चाहिए।’ …… भारत में एक राज्य बने रहने के सुझाव को जिन्ना मुसलमानों की दासता का सुझाव कहता था।

भारत में साम्प्रदायिक दंगों की लहर

जब क्रिप्स मिशन असफल हो गया, राजगोपालाचारी फार्मूले की हवा निकल गई, भारतीयों की अस्थाई सरकार का गठन नहीं हो सका और पाकिस्तान की मांग एक इंच भी आगे नहीं बढ़ सकी तो मुस्लिम लीग हिंसा पर उतर आई। वर्ष 1946 का प्रारम्भ साम्प्रदायिक दंगों के साथ ही हुआ और वर्ष के अंत तक पूरा देश दंगामय हो गया। दंगों की शुरुआत अलीगढ़ से हुई और उसका विशाल रूप बंगाल, बिहार और पंजाब ने ले लिया।

जनवरी 1946 में देश में प्रांतीय विधानसभाओं के लिए चुनाव हुए जिनमें मिली विजय के बाद सिंध एवं बंगाल में मुस्लिम लीग ने सरकार बनाई। इसके बाद इन दोनों ही प्रांतों में हिन्दुओं को भगाने का काम आरम्भ हो गया। इन प्रांतों में हिन्दुओं के समक्ष तीन ही विकल्प थे या तो वे इस्लाम स्वीकार कर लें या मर जाएं या प्रांत छोड़कर भाग जाएं।

केन्दीय शासन से कोई मदद नहीं मिली, इस कारण हिन्दुओं का धर्मांतरण, इस्लाम स्वीकार न करने पर उनका कत्ल, उनकी स्त्रियों के साथ बलात्कार तथा उनकी सम्पत्ति को लूटने का कार्य बंगाल के प्रधानमंत्री सुहरावर्दी के शासन में चल रहा था। इन जघन्य हत्याओं के प्रति जिन्ना और सुहरावर्दी मूक बने रहे। इस कारण असहाय हिन्दू बिहार आदि प्रांतों में भाग आए। हिन्दुओं में इसकी प्रतिक्रिया होनी स्वाभाविक थी इसलिए हिन्दू महासभा की प्रेरणा से महाराष्ट्र में हिन्दू राष्ट्र सेना का गठन हुआ और महाराष्ट्र में ही रामसेना एवं बजरंग सेना आदि की भी स्थापना हुई।

Related Articles

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

Stay Connected

21,585FansLike
2,651FollowersFollow
0SubscribersSubscribe
- Advertisement -spot_img

Latest Articles

// disable viewing page source