अहमदशाह अब्दाली से दिल्ली की रक्षा करने के लिए मराठों ने मोर्चा संभाला किंतु मराठा सेनापतियों की अदूरदर्शिता ने मराठों को संकट में डाल दिया तथा अब्दाली ने एक लाख मराठों का कत्ल कर दिया।!
अहमदशाह अब्दाली तेजी से दिल्ली की ओर बढ़ रहा था और दिल्ली की जनता उतनी ही तेजी से दिल्ली से दूर भाग रही थी। अहमदशाह अब्दाली राजनीति का शातिर खिलाड़ी था। उसे ज्ञात था कि इस बार उसका मुकाबला मराठों से है न कि भय से कांपती हुई कमजोर दिल्ली से।
इसलिए अब्दाली ने भारतीय मुस्लिम सेनापतियों का समर्थन प्राप्त करने के लिये घोषित किया कि हम दिल्ली के मुगल राज्य को मराठों की लूटमार से बचाने के लिए आए हैं। इसलिए भारत के समस्त मुसलमान शासकों, अमीरों एवं सैनिकों को चाहिए कि वे मराठों का साथ छोड़कर हमारे साथ आ जाएं ताकि भारत के दो सौ साल पुराने मुगल राज्य को समाप्त होने से बचाया जा सके।
अब्दाली द्वारा की गई इस घोषणा के बाद, उत्तर भारत के अधिकांश मुस्लिम शासक अहमदशाह अब्दाली के साथ हो गये। रूहेले तो इस घोषणा से पहले ही अहमदशाह अब्दाली के साथ हो गये थे। अवध का नवाब शुजाउद्दौला भी अब्दाली की तरफ हो गया। उन दिनों गंगा-यमुना के दो-आब में कुछ अफगान जागीरें थीं, जो मुगल बादशाह की कमजोरी का लाभ उठाकर स्वतंत्र राज्य बन बैठी थीं। उन जागीरों की मुस्लिम सेनाएं भी अहमदशाह अब्दाली की तरफ हो गईं।
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पाठकों को स्मरण होगा कि जब ई.1739 में नादिरशाह ईरान से भारत आया था तब अवध के नवाब सआदत खाँ ने नादिरशाह की सहायता की थी और जब ई.1748 में अहमदशाह अब्दाली पहली बार दिल्ली आया था तब रूहेला सरदार नजीब खाँ ने दिल्ली की मुगल सत्ता के विरुद्ध अब्दाली का साथ दिया था।
इस बार भी अवध के नवाब, रूहेले सरदार और अफगान अमीर भारत से गद्दारी करके आक्रांता की तरफ हो गए। और तो और मुगल बादशाह शाहआलम (द्वितीय) स्वयं भी अब्दाली के पक्ष में था, उसने तो स्वयं ही अब्दाली को भारत पर आक्रमण करने के लिए आमंत्रित किया था।
इस प्रकार जब भारत की मुस्लिम शक्तियां अहमदशाह अब्दाली के साथ हो गईं तो मराठा सरदार सदाशिवराव भाऊ ने घोषित किया कि वह विधर्मी विदेशियों को भारत से खदेड़ने के लिए यह लड़ाई लड़ रहा है; इसलिये समस्त भारतीय शक्तियाँ इस कार्य में सहयोग दें किंतु मराठों की लूटमार से संत्रस्त उत्तर भारत की किसी भी शक्ति ने मराठों का साथ नहीं दिया।
न तो पंजाब के सिक्ख मराठों की सहायता के लिए आगे आए क्योंकि अभी कुछ साल पहले ही मराठों ने पंजाब से भारी चौथ वसूली की थी, न बनारस का राजा बलवंतसिंह मराठों के पक्ष में लड़ने आया क्योंकि उसे भय था कि यदि मराठा जीत गए तो वे फिर से उसका देश उजाड़ने के लिए आ धमकेंगे।
इस काल में उत्तर भारत की बड़ी शक्तियों में से एक राजा सूरजमल को तो स्वयं सदाशिव राव भाऊ ने ही नाराज करके चले जाने पर विवश कर दिया था। मराठों ने दिल्ली के निकटवर्ती राजपूत राज्यों से सहायता मांगी किंतु राजपूत राज्य तो पहले से ही मराठों द्वारा जर्जर कर दिये गये थे। इसलिये राजपूत राज्य अपने प्रबल मराठा शत्रुओं का साथ देने को तैयार नहीं हुए। इस प्रकार मराठे अकेले पड़ गए। उस काल में उत्तर भारत की कोई शक्ति उन पर विश्वास नहीं करती थी। विगत पचास वर्षों में मराठा सेनापतियों ने अपनी छवि लुटेरों वाली बना ली थी।
फिर भी सदाशिव राव भाऊ ने हिम्मत नहीं हारी। उसने मराठा सेनाओं के बल पर ही यह युद्ध लड़ने का निर्णय लिया। अगस्त 1760 में सदाशिवराव ने दिल्ली के निकट अफगानों के प्रमुख केन्द्र कंुजपुरा पर आक्रमण किया। कुंजपुरा में 15 हजार अफगान सैनिकों का जमावड़ा था, मराठों ने उन्हें नष्ट करके उनकी रसद सामग्री को छीन लिया। यहाँ से मराठों को कुछ युद्ध सामग्री भी प्राप्त हुई। मराठों ने दिल्ली से लगभग 60 मील दूर स्थित पानीपत में अहमदशाह अब्दाली से लड़ने का निर्णय लिया और वे यमुना पार करके पानीपत की तरफ बढ़े।
इससे पहले कि मराठे पानीपत पहुंच पाते, अहमदशाह अब्दाली पानीपत पहुंच कर अपने डेरे गाढ़ने में सफल हो गया। अब्दाली ने यमुना पार करके मराठों पर पीछे से आक्रमण करने की योजना बनाई।
नवम्बर 1760 में दोनों सेनाएँ आमने-सामने हो गईं। पानीपत के मैदान ने इससे पहले भी दो बार हिन्दुओं का साथ नहीं दिया था। इस बार भी पानीपत की तीसरी लड़ाई में हिन्दुओं का दुर्भाग्य उनके आड़े आ गया।
इस युद्ध में दोनों तरफ के सैनिकों की संख्या अलग-अलग बताई जाती है किंतु सर्वमान्य धारणा के अनुसार अहमदशाह अब्दाली के पक्ष में 60 से 70 हजार तथा मराठों की सेना में 40 से 50 हजार सैनिक थे। मराठों की सेना के साथ लगभग 40 हजार तीर्थयात्री भी थे जो मराठा सेना के संरक्षण में उत्तर भारत में तीर्थ यात्रा के लिए आए थे।
मराठा सेना के साथ कई हजार मनुष्य ऐसे थे जो युद्ध नहीं लड़ते थे अपितु वे भोजन बनाने, भार ढोने, गाड़ियां हांकने, पशुओं को चारा-पानी देने आदि काम करते थे। मराठा स्त्रियां भी पानीपत के निकट बनाए गए शिविरों में ठहराई गई थीं।
यह एक विचित्र लड़ाई थी जिसमें दोनों पक्ष यह दावा कर रहे थे कि वे मुगल बादशाह आलमगीर (द्वितीय) के राज्य को बचाने के लिए युद्ध कर रहे हैं किंतु इन दोनों ही पक्षों में मुगल बादशाह का एक भी सिपाही शामिल नहीं था।
मराठों को युद्ध का इतना उत्साह था कि वे लगभग दो माह तक अब्दाली के शिविर के पास चारों तरफ चक्कर काटते रहे। जब कोई इक्का-दुक्का अफगान सैनिक मराठों को मिल जाता था तो मराठे उसे मारकर बड़ी खुशी मनाते थे। अब्दाली को हमला करने की कोई जल्दी नहीं थी। वह मराठों की सेना के बारे में पूरी जानकारी एकत्रित कर रहा था। दो माह की अवधि में उसने मराठों की कमजोरियों का पता लगा लिया।
इस दौरान अहमदशाह अब्दाली को रूहेलों की तरफ से रसद आपूर्ति की जा रही थी जबकि मराठों की रसद आपूर्ति का कोई प्रबंध नहीं था। इस कारण दो महीनों में मराठों के पास अनाज की कमी होने लगी। इसी प्रकार मराठों के साथ आए हुए परिवारों को उत्तर भारत में पड़ने वाली कड़ाके की ठण्ड का भी पूरा अनुमान नहीं था। इसलिए वे सर्दी में बीमार पड़ने लगे। इसलिए अब वे शीघ्र युद्ध चाहते थे।
अंततः 14 जनवरी 1761 को दोनों सेनाओं के बीच अन्तिम निर्णायक युद्ध लड़ा गया। उस दिन मकर संक्रांति थी तथा पानीपत में कड़ाके की ठण्ड पड़ रही थी। मराठे अपनी जीत के प्रति इतने आश्वस्त और इतने मदमत्त थे कि उन्होंने युद्ध के सामान्य नियमों का पालन भी नहीं किया। न ही उन्होंने शत्रु की गतिविधियों पर दृष्टि रखी।
वे सीधे ही युद्ध के मैदान में धंस गये जबकि अब्दाली ने उस मैदान के तीन तरफ अपनी सेनाएं छिपा रखी थीं। जब मराठे युद्ध के मैदान में उतरे तो तीन तरफ से आई मुसलमानों की सेनाओं ने उन्हें घेर लिया। पाँच घण्टे के भीषण युद्ध के बाद दिन में लगभग दो बजे नाना साहब पेशवा का पुत्र विश्वास राव, शत्रु की गोली से मारा गया।
यह सुनते ही सदाशिवराव भाऊ अपना संयम खो बैठा और अन्धाधुन्ध लड़ते हुए वह भी मारा गया। जसवंतराव पंवार, तुकोजी सिंधिया तथा मराठों के अनेक प्रसिद्ध सेनापति भी वीरगति को प्राप्त हुए। शाम होते-होते अब्दाली की सेना ने चालीस हजार मराठा सैनिक युद्ध के मैदान में काट डाले। नाना साहब फणनवीस युद्ध क्षेत्र से भाग खड़ा हुआ। जनकोजी सिंधिया युद्ध में घायल होकर भरतपुर राज्य की तरफ भागा। इसके बाद मराठों का कत्ल आरम्भ हो गया।
कुछ इतिहासकारों के अनुसार मल्हारराव होलकर इस युद्ध में दोहरी नीति अपनाए हुए था। वह युद्ध के मैदान में लड़ रहा था किंतु स्वयं को बचाए रखना चाहता था। इसलिए युद्ध की स्थिति के प्रतिकूल होते ही वह सेना सहित भाग खड़ा हुआ। इस कारण बड़ी संख्या में मराठों का कत्ल होने की संभावना बढ़ गई।
अहमदशाह अब्दाली, अपने शत्रुओं को युद्ध के मैदान से इस तरह बच कर नहीं जाने दे सकता था। भागते हुए मराठों का कत्ल करने के लिए अहमदशाह अब्दाली ने पहले से ही कई हजार सैनिक युद्ध क्षेत्र के निकट अलग खड़े कर रखे थे।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता