Saturday, July 27, 2024
spot_img

112. अल्लाउद्दीन खिलजी ने सिद्ध कर दिया कि अनपढ़ ही शासन कर सकते हैं!

अल्लाउद्दीन खिलजी के सेनापति मलिक काफूर ने देवगिरि, वारांगल, द्वारसमुद्र तथा मदुरा को जीतकर उन्हें खिलजी सल्तनत के अधीन कर लिया तथा खिलजी का साम्राज्य उत्तर में मुल्तान, लाहौर तथा दिल्ली से लेकर दक्षिण में द्वारसमुद्र तथा मदुरा तक, पूर्व में लखनौती तथा सौनार गाँव से लेकर पश्चिम में थट्टा तथा गुजरात तक विस्तृत हो गया था।

अल्लाउद्दीन की सफलता के कई कारण थे। वह जानता था कि भारतीय राजाओं में राष्ट्रीय गौरव एवं धार्मिक गौरव की बजाय निजी गौरव, कुलीय गौरव एवं जातीय गौरव की भावनाएं अधिक हैं। भारतीय राजा परस्पर संगठित होकर शत्रु का सामना करने के स्थान पर, अपने पड़ोसियों के विरुद्ध विदेशी शत्रु की सहायता करते थे।

अल्लाउद्दीन ने उत्तर भारत की तुलना में दक्षिण भारत में भिन्न नीति का अनुसरण किया। उत्तर भारत के विजित राज्यों में उसने मुस्लिम गवर्नरों की नियुक्तियां कीं जबकि विन्ध्य-पर्वत के उस पार के राज्यों को उसने अपने राज्य में नहीं मिलाया अपितु वहाँ के राजाओं की औरतों और धन को लूटकर राज्य उन्हीं के पास बने रहने दिए। दक्षिण भारत में अलाउदद्ीन का एकमात्र लक्ष्य दक्षिण की विपुल सम्पत्ति को लूटना था। ताकि वह अपनी विशाल सेना का व्यय चला सके और अपने शासन को सुव्यवस्थित रख सके।

अल्लाउद्दीन जानता था कि सुदूर दक्षिण पर दिल्ली से शासन करना असंभव था। अतः उसने देवगिरि, तेलंगाना, द्वारसमुद्र तथा मदुरा पर विजय तो प्राप्त की परन्तु उन्हें अपने साम्राज्य में मिलाने का प्रयत्न नहीं किया। 

अल्लाउद्दीन खिलजी दिल्ली से अनुपस्थित रहने के दुष्परिणामों से परिचित था। उसे तुर्की अमीरों के विद्रोहों तथा मंगोलों के आक्रमण का सदैव भय लगा रहता था। इसलिए उसने राजधानी को कभी असुरक्षित नहीं छोड़ा तथा दक्षिण-विजय का कार्य अपने सेनापतियों को दिया।

इस रोचक इतिहास का वीडियो देखें-

यद्यपि सुल्तान अल्लाउद्दीन, मलिक काफूर पर विश्वास करता था और उसी को प्रत्येक बार प्रधान सेनापति बना कर भेजा करता था तथापि वह मलिक काफूर पर अपना पूरा नियन्त्रण रखने का प्रयास करता था। वह उसके साथ जूना खाँ एवं अल्प खाँ आदि अन्य अमीरों को भी भेजता था जिससे काफूर को विश्वासघात करने का अवसर न मिल सके। सुल्तान जब काफूर को दक्षिण भारत के अभियान पर भेजता था, तब वह उसे विस्तृत आदेश देता था। काफूर के लिए उन आदेशों की पालना करना अनिवार्य था।

दक्षिण में मिली अपार सफलताओं के उपरांत भी कुछ इतिहासकारों ने अल्लाउद्दीन के दक्षिण अभियानों को विफल माना है। उनके अनुसार वह दक्षिण भारत को अपने अधीन बनाए रखने में विफल रहा। केवल होयसल राज्य ने पराजय स्वीकार करके अल्लाउद्दीन से सहयोग किया किंतु देवगिरि तथा तेलंगाना ने कभी सहयोग तो कभी विरोध किया। पाण्ड्य राज्य ने तो अधीनता ही स्वीकार नहीं की। देवगिरि के राजा रामचंद्र देव के पुत्र शंकर देव ने दिल्ली को अनेक बार कर देने से मना किया। इस कारण मलिक काफूर को पुनः दक्षिण राज्यों के विरुद्ध अभियान पर भेजना पड़ा।

To purchase this book, please click on photo.

कुछ इतिहासकारों के अनुसार अल्लाउद्दीन की दक्षिण नीति सफल रही क्योंकि वह दक्षिण भारत को अपने प्रत्यक्ष शासन में नहीं रखना चाहता था, वह उन राज्यों से धन लूटने तथा उन्हें करद राज्य बनाकर उनसे कर वसूलना चाहता था। अपने इस उद्देश्य में वह पूरी तरह सफल रहा।

अल्लाउद्दीन ने अपने राज्य की सुरक्षा एवं शासन दोनों की मजबूती के लिए सेना को प्रमुख आधार बनाया। उसने सेना को पूर्ववर्ती सुल्तानों की तुलना में अधिक वेतन दिया। सेना के सम्बन्ध में प्रत्येक निर्णय वह स्वयं लेता था तथा इस कार्य में सहायता के लिए उसने ‘आरिज-ए-मुमालिक’ नामक नवीन पद का सृजन किया। सेना में वही लोग भर्ती किये जाते थे जो घोड़े पर चढ़ना, अस्त्र-शस्त्र चलाना तथा युद्ध करना जानते थे।

अल्लाउद्दीन ने सेना को व्यस्त एवं सक्रिय रखने के लिए हर समय किसी न किसी युद्ध में नियोजित करे रखा। शांतिकाल में वह सैनिकों को उनके शिविरों में नहीं रहने देता था अपितु उन्हें शिकार खेलने के लिए जंगलों में भेज देता था।

अल्लाउद्दीन खिलजी की सेना में घुड़सवार सैनिकों की प्रधानता थी। अतः सुल्तान ने अश्व-विभाग के सुधार पर विशेष रूप से ध्यान दिया। उसने बाहर से अच्छी नस्ल के घोड़ों को मंगवाया। मंगोलों के परास्त होने पर सुल्तान को लूट में अच्छे घोड़े प्राप्त हो जाते थे। दक्षिण भारत के राजाओं को परास्त करके भी कुछ अच्छे घोड़े प्राप्त किये गए। राज्य ने अच्छी नस्ल के घोड़े उत्पन्न करने की भी व्यवस्था की।

सुल्तान ने घुड़सवार सैनिकों को तीन श्रेणियों में विभक्त किया और प्रत्येक श्रेणी के सैनिकों का वेतन निश्चित कर दिया। पहली श्रेणी का सैनिक दो से अधिक घोड़े रखता था, दूसरी श्रेणी का सैनिक केवल दो घोड़े और तीसरी श्रेणी का सैनिक केवल एक घोड़ा रखता था। सैनिकों को जागीर देने की प्रथा हटा दी गई और उन्हें नकद वेतन दिया जाने लगा।

प्रायः लोग सैन्य-प्रदर्शन के समय अथवा रणक्षेत्र में घोड़े तथा सवार लाकर दिखा देते थे जबकि वे घोड़े तथा सवार वास्तव में युद्ध में भाग नहीं लेते थे। इस बेईमानी को रोकने के लिए सुल्तान ने सैनिकों का हुलिया लिखवाने की प्रथा चलाई। फलतः प्रत्येक सैनिक को एक रजिस्टर में अपना हुलिया लिखवाना पड़ता था। सैनिक सदैव अच्छे घोड़े नहीं रखते थे। सुल्तान ने घोड़ों को दागने की प्रथा चलाई जिससे सैनिक झूठे घोड़े दिखाकर सुल्तान को धोखा न दें।

अल्लाउद्दीन खिलजी दिल्ली का पहला सुल्तान था जिसने स्थायी सेना की व्यवस्था की। यह सेना राज्य की सेवा के लिए सदैव राजधानी में उपस्थित रहती थी। इस स्थायी सेना में चार लाख पचहत्तर हजार सैनिक होते थे। सुल्तान ने उन समस्त किलों की मरम्मत कराई जो मंगोलों के मार्गों में पड़ते थे। उसने बहुत से नये दुर्ग भी बनवाये। इन किलों में उसने योग्य तथा अनुभवी सेनापतियों की अध्यक्षता में सुसज्जित सेनायें रखीं।

इस प्रकार अल्लाउद्दीन खिलजी ने परम्परागत सैनिक शासन की अनेक पुरानी व्यवस्थाएं छोड़कर नई व्यवस्थाएं अपनाईं। सेना को अत्यंत विशाल बना दिया तथा उसे हर समय व्यस्त रखा। अल्लाउद्दीन ने इस विशाल सेना को उच्च वेतन दिया तथा उसके लिए धन की नियमित आवक सुनिश्चित की। सेना में पैदलों की बजाय घुड़सवारों तथा अनियमित सैनिकों की बजाय नियमित सैनिकों की व्यवस्था की।

अल्लाउद्दीन खिलजी ने तुर्की अमीरों पर अपनी निर्भरता कम कर दी तथा उसके स्थान पर भारतीय मूल के ख्वाजासरा को राज्य का नायब एवं सेनापति बनाकर उसे विजय प्राप्त करने का अवसर दिया ताकि तुर्की अमीरों का घमण्ड तोड़ा जा सके। इस प्रकार अल्लाउद्दीन खिलजी ने यह सिद्ध कर दिया कि उच्च वंशीय पढ़े-लिखे तुर्की अमीरों की बजाय अनपढ़ लोग बेहतर शासन कर सकते हैं।

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता

Related Articles

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

Stay Connected

21,585FansLike
2,651FollowersFollow
0SubscribersSubscribe
- Advertisement -spot_img

Latest Articles

// disable viewing page source