ई.1310 में अल्लाउद्दीन खिलजी ने मलिक काफूर को वारांगल पर आक्रमण करने भेजा। अल्लाउद्दीन ने मलिक काफूर को आदेश दिया कि यदि प्रताप रुद्रदेव सुल्तान की अधीनता स्वीकार कर ले और अपना कोष, घोड़े तथा हाथी समर्पित करे तो उससे सन्धि कर ली जाये और उसका राज्य न छीना जाये। मलिक काफूर ने एक विशाल सेना के साथ दक्षिण के लिए प्रस्थान किया।
सबसे पहले वह देवगिरि गया। देवगिरि के यादव राजा रामचन्द्र ने मलिक काफूर की बड़ी सहायता की। देवगिरि से काफूर ने वारगंल के लिए प्रस्थान किया और वारगंल के दुर्ग पर घेरा डाल दिया। यह घेरा कई महीने चला। वारांगल नगर के चारों ओर दोहरा प्राकार अर्थात् परकोटा बना हुआ था। इसमें से बाहर की दीवार मिट्टी की और भीतर की दीवार पत्थर की बनी हुई थी। वारांगल के सैनिक नगर की प्राचीर पर खड़े होकर मलिक काफूर की सेना पर तीर एवं पत्थर बरसाते थे। इस कारण मलिक काफूर नगर में प्रवेश नहीं कर सका।
इस पर मलिक काफूर ने वारांगल राज्य के अन्य नगरों की प्रजा को नष्ट करना आरम्भ किया। मलिक काफूर के सैनिक हजारों स्त्री-पुरुषों को पकड़कर वारांगल नगर के बाहर ले आए तथा उनका सिर काटने लगे। तुर्की सेना ने बड़ी संख्या में हिन्दुओं को मार डाला तथा उनके घरों में आग लगाकर उनकी सम्पत्ति का विनाश किया। जब वारांगल के राजा प्रताप रुद्रदेव को यह ज्ञात हुआ कि तुर्क केवल धन प्राप्त करने के लिए ऐसा विध्वंस मचा रहे हैं तब वह मलिक काफूर को धन देकर राज्य में शांति स्थापित करने के लिए तैयार हो गया।
जियाउद्दीन बरनी के कथनानुसार प्रताप रुद्रदेव ने तुर्कों को 300 हाथी, 7000 घोड़े, बहुत सा सोना-चाँदी तथा अनेक अमूल्य रत्न दिए। कुछ इतिहासकारों के अनुसार कोहीनूर हीरा भी मलिक काफूर को यहीं से मिला था। राजा प्रताप रुद्रदेव ने सुल्तान अल्लाउद्दीन खिलजी को वार्षिक कर देना भी स्वीकार कर लिया। ई.1310 में मलिक काफूर पुनः देवगिरि तथा धारा होते हुए दिल्ली लौट गया। वारांगल विजय के बाद अल्लाउद्दीन ने द्वारसमुद्र पर आक्रमण की योजना बनाई।
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इन दिनों द्वारसमुद्र में होयसल राजा वीर वल्लभ (तृतीय) शासन कर रहा था उसे बल्लाल (तृतीय) भी कहते हैं। वह योग्य तथा प्रतापी शासक था। दुर्भाग्य से इन दिनों होयसल तथा यादव राजाओं में घातक प्रतिद्वन्द्विता चल रही थी और दोनों एक दूसरे को उन्मूलित करने का प्रयत्न कर रहे थे।
अल्लाउद्दीन ने इस स्थिति से लाभ उठाने के लिए ई.1311 में मलिक काफूर को द्वारसमुद्र पर आक्रमण करने भेजा। मलिक काफूर एक बार फिर से दिल्ली से रवाना होकर देवगिरि पहुंचा। इस समय तक राजा रामचंद्र का निधन हो चुका था और उसका पुत्र शंकरदेव देवगिरि का राजा था। मलिक काफूर ने शंकरदेव से कहा कि वह द्वारसमुद्र के अभियान में दिल्ली की सेना की सहायता करे। शंकरदेव ने ऐसा करने से मना कर दिया।
इसलिए मलिक काफूर को शंकरदेव पर विश्वास नहीं रहा। अब वह आगे बढ़ने से घबराने लगा। न तो वह द्वारसमुद्र का अभियान किए बिना दिल्ली लौटकर जा सकता था और न शंकरदेव की ओर से निश्चिंत हुए बिना द्वारसमुद्र जा सकता था। इसलिए मलिक काफूर ने एक योजना बनाई। उसने गोदावरी के तट पर एक रक्षक-सेना स्थापित की ताकि जब मलिक काफूर द्वारसमुद्र में लड़ रहा हो तब शंकरदेव पीछे से आकर उस पर हमला न कर दे।
मलिक काफूर ने गोदावरी नदी पर काफी समय व्यय किया ताकि आसपास के राजा निश्चिंत हो जाएं फिर अचानक ही तेजी से चलता हुआ द्वारसमुद्र पहुंच गया। द्वारसमुद्र के राजा बल्लाल होयसल को यह अनुमान नहीं था कि मलिक काफूर की विशाल सेना इतनी शीघ्रता से उसके राज्य में आ धमकेगी। इसलिए वह अचानक ही घेर लिया गया और तुर्की सेना के समक्ष नहीं टिक सका। उसने विवश होकर तुर्कों की अधीनता स्वीकार कर ली। मलिक काफूर ने द्वारसमुद्र के मन्दिरों की अपार सम्पत्ति को जी भर कर लूटा और इस अपार सम्पत्ति के साथ दिल्ली लौट गया।
द्वारसमुद्र विजय के उपरान्त अल्लाउद्दीन खिलजी ने दक्षिण भारत में स्थित मदुरा राज्य पर आक्रमण की योजना बनाई जो दक्षिण प्रायद्वीप के अंतिम छोर पर स्थित था। इन दिनों मदुरा में पांड्य-वंश शासन कर रहा था। दुर्भाग्यवश इन दिनों सुन्दर पांड्य तथा वीर पांड्य नामक दो राजकुमारों में घोर संघर्ष चल रहा था। इस संघर्ष में वीर पांड्य ने सुन्दर पांड्य को मार भगाया और स्वयं मदुरा का शासक बन गया।
निराश होकर सुन्दर पांड्य ने दिल्ली के सुल्तान अल्लाउद्दीन खिलजी से सहायता मांगी। अल्लाउद्दीन खिलजी ऐसे ही अवसर की खोज में था। उसने मलिक काफूर को विशाल सेना देकर मदुरा पर आक्रमण करने के लिए भेजा। मलिक काफूर ई.1311 में मदुरा पहुँच गया। काफूर के आने की सूचना पाकर वीर पांड्य राजधानी छोड़कर भाग गया। काफूर ने मदुरा के मन्दिरों को खूब लूटा और मूर्तियों को तोड़ डाला। ई.1311 में वह अपार सम्पत्ति लेकर दिल्ली लौट गया।
ई.1311 के बाद देवगिरि के राजा शंकरदेव ने दिल्ली के सुल्तान को कर देना बन्द कर दिया। शंकरदेव ने होयसल राजा के विरुद्ध भी मुसलमानों की सहायता करने से इन्कार कर दिया था। इसलिए अल्लाउद्दीन ने मलिक काफूर की अध्यक्षता में एक सेना शंकरदेव के विरुद्ध भेजी। दोनों पक्षों में रक्तरंजित युद्ध हुआ जिसमें राजा शंकरदेव पराजित हो गया और वीरगति को प्राप्त हुआ। ई.1315 में हरपालदेव को देवगिरि का शासन सौंपकर मलिक काफूर दिल्ली लौट गया।
इस प्रकार अल्लाउद्दीन ने केवल पांच साल की अवधि में दक्षिण भारत की सम्पूर्ण शक्तियों को अपने अधीन कर लिया। उसका यह कार्य किसी आश्चर्य से कम नहीं था। इस सफलता के कई कारण थे। हालांकि आधुनिक काल के अधिकांश इतिहासकारों ने अल्लाउद्दीन के दक्षिण भारत के अभियानों को पूर्णतः असफल घोषित किया है। इसके कारणों की चर्चा हम आगे करेंगे।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता