प्रतनु ने विशाल अमल-धवल प्रासाद में प्रवेश किया। मोहेन-जो-दड़ो के जिस विशाल और समृद्ध पशुपति महालय को देखकर प्रतनु ने दांतो तले अंगुलि दबा ली थी, वह महालय इस प्रासाद की भव्यता और विशालता के सामने कुछ भी नहीं था। प्रासाद के गगनोन्नत तोरण द्वार में प्रवेश करने के पश्चात् प्रतनु को विस्तृत प्रांगण दिखाई पड़ा। शीत-श्वेत-सुचिक्कण स्फटिक से निर्मित प्रांगण की धरती पर प्रतनु के पांव फिसले पड़ रहे हैं। बहुत संभल कर चलना पड़ रहा है प्रतनु को अन्यथा किसी भी क्षण गिर पड़ने का भय है।
प्रांगण को पार करके वह मण्डप सदृश भवन में पहुँचा। मण्डप का नयनाभिराम शिल्प अकल्पनीय, अवर्णनीय और अचिंतनीय है। इस गोलाकर भवन की भित्तियाँ एक विशाल वर्तुलाकार कक्ष का निर्माण कर रही हैं वहीं उसकी छत ऊपर से निरंतर संकीर्ण होते जाते स्फटिक वलयों से निर्मित है। प्रतनु ने अनुमान किया कि बाहर से दिखाई देने वाले शिखर का आधार यही मण्डप है। इस विशाल मण्डल की समाप्ति हुई एक और भव्य मण्डप में। इसकी भव्यता प्रथम मण्डप की अपेक्षा सहस्र गुणा अधिक है। मण्डप की वलयाकार भित्तियों के आधार भाग में विभिन्न पशु-पक्षियों की प्रतिमायें उत्कीर्ण हैं। कुछ प्रतिमाओं में उत्कीर्ण पशु-पक्षी प्रतनु ने पहले कभी नहीं देखे हैं, न ही उनके बारे में कुछ सुना है।
मण्डप की वलयाकार भित्तियों के मध्य भाग में निर्मित प्रतिमायें नाग प्रजा के भोग-विलास, समृद्धि और आनंद की परिचायक हैं। अनेक प्रतिमाओं में नाग स्त्री-पुरुष विभिन्न प्रकार के वाद्ययंत्र बजाते हुए दर्शाये गये हैं। हिन्तालिका और निर्ऋति ने इन वाद्ययंत्रों का परिचय प्रतनु को दिया। इनमें से कई वाद्ययंत्र ऐसे थे जिनके बारे में प्रतनु ने पहली बार जाना था। कई तरह के सुषिर वाद्य। जिन्हें प्रतनु ने सैंधवों के पास नहीं देखा था। तत् वाद्यों की तो भरमार ही थी। अवनद्ध वाद्यों की भी कोई गिनती नहीं थी। जाने
कौन-कौन से वाद्य! घनवाद्यों में भी कई विचित्र वाद्य उत्कीर्ण किये गये थे। इनका अंकन इतनी कुशलता से किया गया था मानो अभी रंगशाला जीवित हो उठेगी और समस्त वाद्य एक साथ बज उठेंगे।
प्रतनु ने देखा कि विभिन्न मुद्राओं में नृत्यरत नाग स्त्री-पुरुषों के अंग-प्रत्यंग नृत्य भंगिमओं से एकाकार हो गये प्रतीत होते हैं। कितनी ही तरह के नृत्य, कितनी ही तरह की मुद्रायें, कितनी ही तरह की भाव-भंगिमायें, कोई पार ही नहीं है। कुछ नाग युगल मिथुनावस्था में उत्कीर्ण हैं। मिथुन की भी शत-शत भंगिमायें। कहीं कोई नाग अपनी प्रेयसी को अंक में लिये बैठा है तो कहीं किसी नाग कन्या के अंगों से सौंदर्य का झरना ही फूटा पड़ रहा है। कुछ मिथुन मूर्तियों में उत्कीर्ण नाग युगलों का अधोभाग सर्प की पुच्छ के सदृश उत्कीर्ण किया गया है। कामक्रीड़ा और मनोविनोद में संलग्न इन प्रतिमाओं को देखकर नागों के जीवन में छाये उल्लास, उमंग और रंगों का अनुमान लगाना कितना सहज है। शताब्दियों से गरुड़ों से जूझते आ रहे नाग इतने प्रसन्न और उल्लसित कैसे रह लेते हैं! प्रतनु ने अपने आप से प्रश्न किया।
एक स्फटिक पट्टिका पर नागकन्याओं को सरोवर में स्नान करते हुए अंकित किया गया है। अनेक नागकन्याओं के मध्य घिरी हुई मदमत्त हस्तिनी सी उल्लसित और निर्भय दिखाई देने वाली एक नागकन्या अपनी सुवलयाकार गौरांग भुजाओं से जलराशि को आकाश में उछाल रही है। आकाश में उछले हुए जलबिन्दुओं को देखती हुई नागकन्या अपने मत्स्याकार नेत्रों को इस प्रकार आकाश की ओर उठाये हुए है मानो कोई मीन युगल आकाश से टपकने वाले स्वाति-जल की अभिलाषा में मुख खोले खड़ा हो। नागकन्याओं की केशराशि में अटके हुए जलबिंदु ऐसे जान पड़ते हैं मानो अब टपके, अब टपके। जलराशि को आकाश में उछालने के क्रम में आकाश में ऊपर को उठी गौरांग भुजाओं के मध्य दो सुविस्तृत सुचिक्कण वलयों पर आ बैठे जलबिन्दु ऐसे दिखाई देते हैं मानो उनमें गौरांग देह के स्पर्श हेतु प्रतिस्पर्धा मची हो। नागकन्या के क्षीण कटि प्रदेश का कुछ भाग जल से बाहर निकला हुआ है। जलराशि के झीने आवरण में अंकित मनोहारी नाभि सृष्टि के सृजन केन्द्र की भांति प्रतीत होती है। नीचे का भाग नीलमणि जलराशि में डूबा हुआ है।
– ‘किसकी प्रतिमा है यह ?’ प्रतनु ने निकट खड़ी निऋति से प्रश्न किया।
– ‘नाग कन्याओं के जल विहार की।’ निर्ऋति ने मुस्कुराकर उत्तर दिया।
– ‘केन्द्र में उत्कीर्ण नागकन्या कौन है ?’
– ‘यह तो मैं हूँ। इतना भी नहीं पहचान सकते!’ हिन्तालिका बोली।
– ‘नहीं-नहीं यह तो मैं हूँ। शिल्पी ने मेरा ही अंकन किया है।’ निर्ऋति ने कहा। दोनों नागकन्यायें एक दूसरे को भेदभरी मुस्कान से देख रही हैं, यह देखकर प्रतनु ने अनुमान किया कि यह प्रतिमा इन दोनों में से किसी की नहीं है। यह सही है कि निर्ऋति और हिन्तालिका अनुपम सुंदरियाँ हैं किंतु इनकी तुलना प्रतिमा में अंकित सौंदर्य से नहीं हो सकती। किंतु मुखाकृति ? विस्मय में पड़ गया प्रतनु। प्रतिमा की मुखाकृति कुछ-कुछ निर्ऋति से और कुछ-कुछ हिन्तालिका से मिल रही है। सचमुच ही यह तो इन दोनों में से ही किसी की प्रतिमा है किंतु किसकी ? नहीं-नहीं यह प्रतिमा इन दोनों में किसी से मेल नहीं खाती। हो न हो यह रानी मृगमंदा की प्रतिमा हो किंतु इसे ये दोनों अपनी क्यों बता रही हैं। कोई न कोई रहस्य अवश्य है किंतु क्या ? समझ नहीं सका प्रतनु।
– ‘किस संशय में पड़ गये पथिक ?’
– ‘सोच रहा हूँ कि क्या दो युवतियों की एक ही प्रतिमा बन सकती है।’ प्रतनु का संशय सुनकर दोनों नागकन्यायें खिलखलाकर हँस पड़ी।
– ‘केवल दो युवतियों की ही नहीं, एक युवती और भी है जो इस प्रतिमा को अपनी बताती है।’ निऋति ने भेदभरी मुस्कान अपनी बड़ी-बड़ी आंखों में छिपा कर कहा।
– ‘तीसरी युवती कौन सी है ?’
– ‘वह स्वयं ही आपसे कहेगी कि यह प्रतिमा उसकी है।’ निऋति ने प्रतनु को आगे बढ़ने का संकेत किया।
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