Saturday, July 27, 2024
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18. विचित्र स्वप्न

 पर्ण शैय्या पर लेटते ही ऋषिश्रेष्ठ सौम्यश्रवा ने अपने नेत्र बंद कर लिये। जाने क्यों आज उन्हें निद्रा नहीं आ रही! आर्या स्वधा के प्रश्नों ने उन्हें विचलित कर दिया है। क्या सचमुच भविष्य इतना भयावह होगा! क्या भविष्य की उस भयावहता को आमंत्रित करने में उनकी भी कोई जिम्मेदारी निश्चित की जायेगी! यदि भविष्य बुरा है तो क्या उसके लिये वर्तमान उत्तरदायी नहीं है!

ऋषि श्रेष्ठ के मस्तिष्क पटल पर विभिन्न प्रकार के विचार दृश्यमान होकर आरोहित एवं तिरोहित होने लगे। एक द्वंद्व है जो भीषण झंझावात की तरह उनके मन-मस्तिष्क को मथे दे रहा है। काफी देर तक वे अपने भीतर के संघर्ष को जीतने का प्रयास करते रहे। इसी चेष्टा में जाने कब उनकी आँख लगी और विचारों की शृंखला चित्रित होकर स्वप्न में मूर्तिमान होने लगी। उन्होंने देखा कि वे स्वयं अंतरिक्ष में उड़े जा रहे हैं। उड़ते-उड़ते भविष्य लोक में जा पहुँचे हैं। यह कौनसा लोक है, वे विचार करते हैं। भविष्य के नाम से तो कोई लोक नहीं ! भविष्य तो काल का प्रवाह मात्र है। उसमें घटित होने वाली घटनायें किसी लोक में सुरक्षित नहीं रहतीं कि उन्हें जब चाहे काल की पर्त उखाड़ कर देख लिया जाये। निश्चित ही यह भविष्य लोक नहीं भूत लोक है। यहाँ तो वही सब-कुछ घटित हो रहा है जिसे वह पहले भी देख चुके हैं। थोड़ा और उड़ने पर उन्होंने देखा कि यह न तो भविष्य लोक है और न भूत लोक ही। वे तो वर्तमान में ही विचरण कर रहे हैं। कैसा भ्रम है यह! टूटता क्यों नहीं!

ऋषिश्रेष्ठ ने देखा कि तीनों लोकों में उन्होंने एक ही दृश्य को बार -बार घटित होते हुए देखा है। एक वृक्ष है जिसकी शाखा पर दो पक्षी बैठे हैं। पहला पक्षी फल खा रहा है और दूसरा पक्षी, पहले पक्षी से लिपटा हुआ है। हर काल खण्ड में पहला पक्षी ही फल खा रहा है। जबकि किसी भी काल खण्ड में दूसरा पक्षी कुछ नहीं खा रहा। ऋषिश्रेष्ठ को लगा कि वे इस दृश्य से अच्छी तरह परिचित हैं। बार-बार वे यही दृश्य देखते रहे हैं। नहीं-नहीं। बार-बार नहीं। वे तो आज तक केवल यही दृश्य देखते रहे हैं। यही तो वह दृश्य है जिससे उनकी आँखें कभी हटती नहीं। किंतु इस दृश्य का अर्थ क्या है ? विचलित हो उठते हैं ऋषिश्रेष्ठ।

मस्तिष्क से सम्मोहन की काई हटती है। ऋषिश्रेष्ठ के नेत्र खुलते हैं। वे किसी अन्य लोक में नहीं, वे तो अपनी पर्णशाला में, अपनी शैय्या पर हैं। अभी कुछ ही दिवस पूर्व तो प्रातःकालीन सभा में उन्होंने जीव और ब्रह्म का निरूपण दो कालजयी पक्षियों के रूपक में बांधकर किया था। जीव और ब्रह्म उन दो पक्षियों के समान हैं जो एक ही वृक्ष पर बैठे हैं किंतु उनमें भेद यह है कि जीव रूपी पक्षी कर्म रूपी वृक्ष पर उत्पन्न फल का भक्षण करता है जबकि ब्रह्म कर्म और उसके फल दोनों से निर्लिप्त रहता है।[1] रूपक पर मनन करते हुए सम्मोहन की काई पुनः मस्तिष्क पर छा जाती है।

ऋषिश्रेष्ठ पुनः अपने आप को उन्हीं तीनों लोकों में विचरण करता हुआ पाते हैं। पता नहीं वे भूत, भविष्य अथवा वर्तमान के किस कालखण्ड में हैं! इस बार ऋषि ने देखा कि सोम रहित यज्ञों की आहुतियों से समस्त देवगण क्षीण हो गये हैं। असुर से देव बने वरुण में पुनः आसुरि भाव प्रकट होने लगा है। ऋषि ने देखा कि ईक्ष्वाकु अंबरीष पुत्र प्राप्ति के लिये देवों की स्तुति कर रहा है किंतु देवगण उसे पुत्र देने में असमर्थ हैं। ऋषि वशिष्ठ अंबरीष को पुत्र प्राप्ति के लिये वरुण की उपासना करने के लिये कह रहे हैं। इक्ष्वाकु अंबरीष के आह्वान पर वरुण प्रकट हुआ है। अपने समक्ष प्रकट हुए वरुण से अंबरीष ने पुत्र प्रदान करने की प्रार्थना की है। वरुण ने ईक्ष्वाकु अंबरीष को पुत्र प्राप्ति का अनुष्ठान तो बताया है किंतु अनुष्ठान से उत्पन्न होने वाले पुत्र को ही बलिभाग के रूप में मांग लिया है।[2]

ऋषि सौम्यश्रवा ने देखा कि पुत्र का मुँह देखने के लोभ में अंबरीष ने वरुण की शर्त स्वीकार कर ली है। जब वरुण को ज्ञात हुआ कि अंबरीष की पत्नी ने एक पुत्र को जन्म दिया है तो वह बलिभाग लेने के लिये उपस्थित हो गया है। अंबरीष ने वरुण से प्रार्थना की है कि वह उसके पुत्र की बलि न ले किंतु वरुण अपने हठ पर दृढ़ है। वह बार-बार अंबरीष के पास आता है और बलिभाग की मांग करता है। अंबरीष किसी न किसी उपाय से वरुण को बार-बार लौटा रहा है।

ऋषि सौम्यश्रवा ने देखा कि अंबरीष का पुत्र रोहित सोलह वर्ष का हो गया है। वरुण फिर अंबरीष के समक्ष प्रकट होकर बलिभाग मांग रहा है। रोहित ने वरुण को अपने पिता अंबरीष से झगड़ते हुए सुन लिया है। रोहित ने अपने पिता से कहा है कि वह एक यज्ञ करना चाहता है जिसमें वरुण को यज्ञ पशु बनाकर विष्णु को बलिभाग देगा। इस पर तो वरुण और भी क्रुद्ध हो गया है।

ऋषि सौम्यश्रवा ने देखा कि वरुण के कोप से बचने के लिये अंबरीष ने रोहित को गहन वन प्रांतर में छिपा दिया है। वहां उसकी भेंट ऋषि अजीगर्त तथा उसके परिवार से हुई है। ऋषि परिवार को आश्चर्य हुआ है कि किस कारण से अल्पवयस् आर्य कुमार वन प्रांतर में आ छिपा है। रोहित आद्योपरांत समस्त विवरण ऋषि परिवार को सुनाता है जिसे सुनकर ऋषि परिवार को रोहित पर करुणा आई है। ऋषि अजीगर्त के तीन पुत्र हैं- शुनःपुच्छ, शुनःशेप और शुनोलांगूल। मध्यम पुत्र शुनःशेप रोहित की ही वयस् का है। उसने अपने पिता अजीगर्त से अनुरोध किया है कि क्यों नहीं मैं रोहित के स्थान पर यज्ञबलि बनकर वरुण को संतुष्ट करूं ! पिता ने जो कि ऋषि है, रोहित के प्राणों की रक्षा के लिये अपने पुत्र को यज्ञपशु बनने की अनुमति दे दी है।

अब ऋषि सौम्यश्रवा ने देखा कि शुनःशेप वरुण से प्रार्थना कर रहा है कि वह रोहित के स्थान पर मेरी बलि ले क्योंकि रोहित अपने पिता का एक ही पुत्र है जबकि मेरे दो भाई और भी हैं। वरुण ने शुनःशेप का अनुरोध स्वीकार कर लिया है।

रोहित शुनःशेप को लेकर अपने पिता अंबरीष के पास आता है और कहता है कि शुनःशेप रोहित के स्थान पर यज्ञपशु बनने के लिये तैयार है। आर्य श्रेष्ठ अंबरीष ने ऋषिकुमार शुनःशेप का प्रस्ताव यह कहकर अस्वीकार कर दिया है कि इससे कहीं अधिक श्रेयस्कर तो यह है कि मैं अपने ही पुत्र की बलि देकर वरुण को संतुष्ट करूं। इस पर ऋत्विज विश्वामित्र, जमदाग्नि, वसिष्ठ तथा अयास्य अंबरीष को समझा रहे हैं कि अग्नि की कृपा से कोई न कोई हल निकल आयेगा और बिना नरबलि के ही यज्ञ संपन्न होगा। अतः यज्ञ आरंभ किया जाये। ऋषि सौम्यश्रवा ने देखा कि ईक्ष्वाकुओं के पुरोहित वसिष्ठ यज्ञ के होता बने हैं। विश्वामित्र, जमदाग्नि और अयास्य आदि ऋत्विज मंत्रोच्चार के साथ आहुतियाँ दे रहे हैं। ईक्ष्वाकु अंबरीष ने सौ गौएं ऋषि अजीगर्त को अर्पित कीं हैं। शुनःशेप को बलियूप से बांध दिया गया है। यज्ञ की बढ़ती हुई अग्नि को देखकर लाल वस्त्रों से बंधा शुनःशेप कातर हो उठा है किंतु वरुण को करुणा नहीं आई है।

यज्ञ मण्डप में अग्नि की प्रबल लपटों के बीच ऋषि सौम्यश्रवा ने देखा कि अभिषेचनीय एकाह सोमयाग[3] में नरपशु[4] का आलंभन[5] करने के लिये कोई ऋषि तैयार नहीं हुआ है। रोहित के कल्याणार्थ ऋषि अजीगर्त स्वयं अपने हाथों से अपने पुत्र का आलंभन करने के लिये खड़े हुए हैं। अंबरीष ने ऋषि अजीगर्त को सौ गौएं और प्रदान कीं हैं। जन्मदाता पिता को ही पुत्र की मृत्यु का आह्वान करते देख शुनःशेप चीत्कार करने लगा है।

विश्वामित्र ने शुनःशेप के प्राणों को बचाने के लिये अपने पुत्र मधुच्छंदा को आज्ञा दी है कि वह यज्ञ पशु बन जाये। मधुच्छंदा के अस्वीकार कर देने पर ऋषिश्रेष्ठ ने अपने अन्य पुत्रों का आह्वान किया है किंतु कोई भी ऋषिपुत्र अपने प्राण देने पर सहमत नहीं हुआ है। इस पर क्रुद्ध विश्वामित्र ने अपने पुत्रों को श्राप दिया है कि वे भी वसिष्ठ के पुत्रों की तरह चाण्डाल बनकर एक सहस्र वर्ष तक पृथ्वी पर कुत्तों का मांस खायें।

विश्वामित्र, वसिष्ठ, जमदाग्नि तथा अयास्य आदि समस्त ऋत्विज करुणा से विगलित हो प्रजापति, अग्नि, सविता, वरुण तथा इंद्र से शुनःशेप के प्राणों की रक्षा के लिये प्रार्थना कर रहे हैं। ऋषि विश्वामित्र के आदेश से स्वयं शुनःशेप भी प्रजापति, अग्नि, सविता, वरुण, विश्वदेव, उषा, इंद्र तथा अश्विनीकुमारों की बार-बार स्तुति कर रहा है।

ऋषि सौम्यश्रवा ने देखा कि शुनःशेप के आह्वान पर अग्नि आदि नौ देव प्रकट हुए हैं। अग्नि ने शुनःशेप को ओज प्रदान किया है। इन्द्र ने शुनःशेप को हिरण्यमय रथ दिया है। समस्त देवों को द्रवित हुआ देखकर वरुण का आसुरि भाव स्वयं नष्ट हो गया है। उसने शुनःशेप को दीर्घायु होने का वरदान देकर बलियूप से मुक्त कर दिया है।

ऋषि सौम्यश्रवा ने देखा कि शुनःशेप तो बलियूप से मुक्त हो गया है, रोहित के भी प्राण बच गये हैं किंतु आर्यों के शांत जीवन में भयानक हलचल मच गयी है। एक अत्यंत वीभत्स प्रसंग आर्यों के समक्ष उत्पन्न हो गया है। एक ओर तो ऋषि विश्वामित्र के पुत्र स्वयं को वीभत्स श्राप से ग्रस्त हुआ जानकर पिता को घृणा और क्रोध से देख रहे हैं और दूसरी ओर शुनःशेप भी अपने पिता से विरक्त हो चुका है। पिता और पुत्रों के मध्य ऐसी घृणा, ऐसा वैमनस्य और ऐसा दृष्टि विनिमय आर्यों में पहले कभी नहीं देखा गया।

यज्ञ यूप से मुक्त हुए शुनःशेप को ऋषि अजीगर्त ने गले लगाना चाहा है तो शुनःशेप ने उन्हें अपना पिता मानने से अस्वीकार कर दिया है। उसने कहा है कि आपने मेरे बदले में दो सौ गौएं प्राप्त कर ली हैं अब आप मेरे पिता नहीं रहे। ऋषि अजीगर्त कहते हैं कि मैंने अंबरीष के पुत्र की प्राणरक्षा के लिये तेरी बलि देने का निश्चय किया न कि गौओं की प्राप्ति के लोभ से। इस पर शुनःशेप ऋत्विजों से ही प्रश्न कर रहा है कि आप ही बतायें कि मेरे पिता कौन हैं जबकि जनक ने अपने हाथों से मुझे बलियूप से बांध दिया हो और मेरे वध के लिये कुठार लेकर प्रस्तुत हुआ हो ?

शुनःशेप के प्रश्न पर ऋषियों में विवाद छिड़ गया है। ऋषियों का मानना है कि गौओं के बदले शुनःशेप को प्राप्त करने के कारण अंबरीष ही शुनःशेप का पिता है। शुनःशेप अंबरीष को यह कह कर पिता मानने से अस्वीकार कर देता है कि अंबरीष ने उसे पालन हेतु नहीं प्राप्त किया था अपितु बलि देने के लिये क्रय किया था।

ऋषि सौम्यश्रवा ने देखा कि शुनःशेप पुनः ऋिषियों से कह रहा है कि विश्वामित्र ने मंत्र देकर, अग्नि ने ओज देकर और इंद्र ने हिरण्यमय रथ देकर मेरे प्राणों की रक्षा की है। इनमें से किसी एक को वह अपना पिता स्वीकार कर सकता है किंतु इनमें से पिता होने का वास्तविक अधिकारी कौन है ? अंत में वसिष्ठ ने निर्णय दिया है कि मंत्र से ही शुनःशेप के प्राण बचे हैं इसलिये मंत्रदृष्टा विश्वामित्र ही शुनःशेप के पिता होने के अधिकारी हैं। शुनःशेप विश्वामित्र के अंक में जाकर बैठ गया है।

ऋषि सौम्यश्रवा के मानस पटल से सम्मोहन की काई पुनः तिरोहित होती है। वे छटपटा कर नेत्र खोल देते हैं। यह कैसा स्वप्न है! इसका क्या अर्थ है! यह भूत है कि भविष्य! उनके समस्त प्रश्न अनुत्तरित हैं। पर्णशाला के बाहर तरुशाखाओं पर पक्षी चहचहाने लगे हैं। पृथ्वी पर उषा का आगमन हो चुका है।


[1] मिश्र के एक पिरामिड से मिट्टी की एक मुद्रा प्राप्त हुई है। यह लगभग 5000 वर्ष प्राचीन है। इस मुद्रा पर किसी वृक्ष की एक शाखा अंकित है जिस पर दो पक्षी बैठे हैं। एक पक्षी फल खा रहा है और दूसरा पक्षी उसे देख रहा है। मुण्डकोपनिषद के तीसरे मुण्डक के प्रथम खण्ड में भी इसी तरह का एक वर्णन है जिसमें कहा गया है कि सुन्दर पंखों वाले, साथ रहने वाले दो सहचर पक्षी समान वृक्ष पर रहते हैं, उनमें से एक स्वादिष्ट फल खाता है और दूसरा बिना खाये देखता रहता है। इनमें से पहला पक्षी जीव है जो कर्मफल का भोग करता है तथा दूसरा पक्षी ब्रह्म है जो इस भोग का साक्षी है।

[2] यह आख्यान ऋग्वेद ;1. 24 . 12. 13, 1. 24 – 30, 2. 2. 4. 20, 5. 2. 7, 6. 15. 47, 9.3), ऐतरेय ब्राह्मण (5/13-18), बाल्मीकि रामायण (बालकाण्ड 61.1 – 24, 62.1-28), ब्रह्मपुराण (150।-, 104।-), महाभारत (दानधर्म पर्व, 93.21 – 145,94) आदि ग्रंथों में कुछ अंतर के साथ प्राप्त होता है।

[3] पशुबलि युक्त यज्ञ में पशुबलि देते समय किया जाने वाला कर्मकाण्ड।

[4] बलि-पशु रूपी नर।

[5] वध।

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