Saturday, December 7, 2024
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महाराजा जसवंतसिंह की रानियाँ

महाराजा जसवंतसिंह की रानियाँ सम्पूर्ण मानव जाति का गौरव थीं। उनमें हिन्दू धर्म, क्षात्रत्व और वात्सल्य के जो उच्च भाव देखने को मिलते हैं, वैसे भाव इस संसार के अन्य देशों की रानियों में देखने को नहीं मिलते! उनके तेज से भयभीत औरंगजेब ने महाराजा जसवंतसिंह की रानियाँ कैद में डाल दीं।

ई.1670 में महाराजा जसवंतसिंह अफगानिस्तान के मोर्चे पर पहुंच गया। उसकी राजपूत सेना ने बड़ी बहादुरी से अफगानियों का सफाया करना आरम्भ किया तथा खैबर दर्रे को अफगानियों के चंगुल से मुक्त करवा लिया। महाराजा जसवंतसिंह के रहते हुए किसी यूसुफजई की हिम्मत नहीं थी कि वह भारतीय प्रजा को पकड़कर मध्य एशिया के देशों में बेच सके।

हालांकि यह एक विडम्बना ही थी कि ई.712 से लेकर ई.1526 तक की अवधि में मध्य एशिया एवं अफगानिस्तान से आने वाले मुस्लिम आक्रांता सदैव यही घोषित करते आए थे कि वे जेहाद पर हैं तथा भारत से कुफ्र समाप्त करके इस्लाम का प्रसार करने आए हैं किंतु अब मध्य एशिया के बाजारों में वही भारतीय बिक रहे थे जिन्होंने मध्य एशिया से आए आक्रांताओं के भय से इस्लाम स्वीकार किया था! यह एक ऐसा जेहाद था जिसे किसी भी तरह परिभाषित नहीं किया जा सकता था!

महाराजा जसवंतसिंह की सफलताओं को देखते हुए औरंगजेब ने उसे अफगानिस्तान में ही नियुक्त किए रखा तथा इस प्रकार एक-एक करके छः साल बीत गए। ई.1676 में जमरूद में जसवंतसिंह के द्वितीय पुत्र जगतसिंह का देहान्त हो गया।

महाराजा जसवंतसिंह इस सदमे को झेलने की स्थिति में नहीं था। उसका बड़ा कुंअर पृथ्वीसिंह पहले ही ई.1667 में दिल्ली में औरंगजेब की सेवा में रहते हुए चेचक की बीमारी से मर चुका था।

कर्नल टॉड ने लिखा है कि ई.1670 में महाराजा जसवंतसिंह के बड़े पुत्र महाराजकुमार पृथ्वीसिंह को औरंगजेब ने एक जहरीली पोषाक उपहार में दी जिसे पहनने से राजकुमार की दर्दनाक मृत्यु हो गई। जबकि महामहोपाध्याय गौरीशंकर हीराचंद ओझा तथा पं. विश्वेश्वर नाथ रेउ ने कुंअर पृथ्वीसिंह की मृत्यु का कारण चेचक बताया है।

पूरे आलेख के लिए देखें यह वी-ब्लॉग-

जिस समय कुंअर पृथ्वीसिंह की मृत्यु हुई थी, उस समय महाराजा जसवंतसिंह ईरान के अभियान पर था तथा उसे अपने पुत्र की मौत पर शोक मनाने का अवसर भी नहीं मिला था किंतु अब जबकि दूसरे पुत्र जगतसिंह की मृत्यु हुई तो महाराजा उसी मोर्चे पर मौजूद था। अपने पुत्र का शव देखकर महाराजा टूट गया।

महाराजा का कोई और पुत्र या पौत्र जीवित नहीं था, जो महाराजा के बाद मारवाड़ राज्य का शासन संभाल सकता। इस कारण महाराजा को अपना जीवन अंधकारमय लगने लगा और वह बीमार पड़ गया। इसी बीमारी के चलते 28 नवम्बर 1678 को कुर्रम दर्रे के निकट जमरूद में महाराजा जसवंतसिंह का निधन हो गया। उस समय महाराजा की आयु केवल 52 वर्ष थी।

जब महाराजा की मृत्यु का समाचार दिल्ली पहुंचा तो औरंगजेब बड़ा प्रसन्न हुआ। तारीखे मोहम्मदशाही में लिखा है कि यह समाचार सुनकर औरंगजेब ने कहा- ‘दर्वाजा ए कुफ्र शिकस्त।’ अर्थात् आज अधर्म का दरवाजा टूट गया। इस पर औरंगजेब की बेगम ने कहा- ‘इमरोज जाये दिल गिरिफ्तगीस्त के ईं चुनी रुक्ने दौलत ब शिकस्त।’ अर्थात् आज शोक का दिन है क्योंकि सल्तनत का ऐसा स्तम्भ टूट गया!

औरंगजेब महाराजा जसवंतसिंह के जीते जी तो महाराजा का कुछ नहीं बिगाड़ सका किंतु अब उसने जोधपुर राज्य को समाप्त करने का निर्णय लिया तथा उसी समय अपनी सेना जोधपुर के लिए रवाना कर दी ताकि महाराजा के राज्य पर कब्जा किया जा सके। मुगल सेना ने जोधपुर पर अधिकार करके उसे ‘खालसा’ कर लिया अर्थात् बादशाह द्वारा प्रत्यक्षतः शासित क्षेत्र घोषित कर दिया। औरंगजेब स्वयं भी अजमेर के लिए रवाना हो गया ताकि जोधपुर अभियान को निष्कंटक सम्पादित करवाया जा सके।

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महाराजा जसवंतसिंह की रानियां कुल मिलाकर थीं जिनमें से ग्यारह रानियां महाराजा के साथ जमरूद में ही थीं। जब महाराजा जसवंतसिंह की रानियाँ महाराजा के साथ सती होने लगीं, उस समय जादव रानी जसकुंवरि और रानी नरूकी गर्भवती थीं। इसलिए उन्हें सती नहीं होने दिया गया। शेष 9 रानियां और 6 खवासनें महाराजा की देह के साथ सती हो गईं। जब यह समाचार जोधपुर पहुंचा तो वहाँ जसवंतसिंह की रानी चंद्रावतजी, बीस खवासनों के साथ मण्डोर में सती हो गई।

महाराजा के निधन के बाद राठौड़ सरदार, स्वर्गीय महाराजा की विधवा रानियों को लेकर जोधपुर के लिए रवाना हुए। जब इन लोगों ने अटक नदी पार करनी चाही तो शाही हाकिम ने उन्हें यह कहकर रोकने का प्रयास किया कि उनके पास बादशाह की आज्ञा या काबुल के सूबेदार का परवाना नहीं है। इस पर राठौड़ सरदार मरने-मारने पर उतारू हो गए। अटक का हाकिम डर कर पीछे हट गया और ये लोग अटक पार करके भारत में प्रवेश कर गए। जब ये लोग लाहौर पहुंचे तो वहाँ दानों रानियों ने एक-एक पुत्र को जन्म दिया।

जब राजकुमारों के जन्म की सूचना औरंगजेब को मिली तब औरंगजेब अजमेर में था। उसके सेनापति जोधपुर राज्य पर कब्जा कर चुके थे और स्वर्गीय महाराजा की समस्त सम्पत्ति भी जब्त कर चुके थे। इसलिए औरंगजेब ने लाहौर में ठहरे हुए राठौड़ सरदारों को आदेश भिजवाए कि वे रानियों एवं राजकुमारों को लेकर दिल्ली आ जाएं। औरंगजेब स्वयं भी दिल्ली रवाना हो गया।

दोनों शिशु राजकुमारों में से छोटे राजकुमार दलथंभन की तो मार्ग में ही मृत्यु हो गई किंतु दूसरा राजकुमार अजीतसिंह अपनी माताओं के साथ सकुशल दिल्ली पहुंच गया। औरंगजेब ने इन्हें नूरगढ़ में रखने के आदेश दिए किंतु वीर दुर्गादास तथा मुकुंददास खीची ने दोनों विधवा रानियों एवं राजकुमार अजीतसिंह को किशनगढ़ महाराजा की हवेली में रखने की मांग की जो रूपसिंह राठौड़ की हवेली के नाम से जानी जाती थी। औरंगजेब ने राठौड़ों की यह मांग स्वीकार कर ली तथा इस हवेली के चारों ओर अपने सिपाही एवं गुप्तचर नियुक्त कर दिए।

राठौड़ सरदारों ने औरंगजेब से प्रार्थना की कि कुंवर अजीतसिंह को जोधपुर का राज्य लौटा दिया जाए। इस पर औरंगजेब ने जवाब दिया कि अजीतसिंह का लालन-पालन मुगल हरम में किया जाएगा तथा जब वह बड़ा हो जाएगा तो उसे मुगल सल्तनत का मनसबदार बनाकर जोधपुर का राज्य सौंप दिया जाएगा और यदि अजीतसिंह को आज ही मुसलमान बनना स्वीकार हो तो उसे तत्काल जोधपुर राज्य सौंप दिया जाएगा।

औरंगजेब के धूर्तता भरे प्रस्ताव को सुनकर राजपूत सरदारों को उसके खतरनाक इरादों का पता लग गया। अब उन्होंने बालक अजीतसिंह को दिल्ली से निकाल ले जाने की योजना बनाई। छत्रपति शिवाजी पहले ही इस तरह की एक योजना बनाकर औरंगजेब के चंगुल से निकल भागे थे। राठौड़ों ने भी उसी घटना को दोहराने का निश्चय किया।

एक दिन जोधपुर राज्य के विश्वसनीय सरदार मुकुंददास खीची ने संपेरे का वेश बनाया तथा चांदावत मोहकमसिंह की पत्नी बाघेली ने राजकुमार अजीतसिंह को गोद में ले लिया। बाघेली का पुत्र हरिसिंह भी अपनी माता के साथ हो लिया। इस तरह यह एक साधारण संपेरे का परिवार दिखाई देने लगा। ये लोग कुंवर को लेकर दिल्ली से बाहर निकल गये। औरंगजेब तथा उसके अधिकारी इसके सम्बन्ध में कुछ भी नहीं जान सके।

जब राठौड़ों ने बालक अजीतसिंह को मुगल हरम में भेजने से मना कर दिया तो 15 जुलाई 1679 को औरंगजेब ने दिल्ली के कोतवाल फौलाद खाँ को निर्देश दिए कि वह बालक अजीतसिंह को तत्काल पकड़कर हाजिर करे। औरंगजेब कभी किसी का विश्वास नहीं करता था, इसलिए उसने फौजदार के साथ अपने अंगरक्षक दल के मुखिया को भी बीस हजार सिपाहियों के साथ भेजा ताकि राजपूत सरदार किसी भी तरह दिल्ली से बाहर नहीं निकल सकें।

जब शाही सेना ने रूपसिंह राठौड़ की हवेली को घेर लिया तो भाटी सरदार रघुनाथसिंह ने अपने एक सौ सैनिकों के साथ मुगलों को ललकारा। देखते ही देखते दोनों पक्षों में तलवारें बजनी आरम्भ हो गईं। भाटियों का आक्रमण इतना जबर्दस्त था कि मुगल सेना में अफरा-तफरी मच गई। इस स्थिति का लाभ उठाकर स्वर्गीय जसवंतसिंह की विधवा रानियां मर्दाने कपड़े पहनकर वीर दुर्गादास के साथ राजा रूपसिंह की हवेली से बाहर निकल गईं।

भाटियों ने मुगलों को हवेली से दूर खदेड़ना शुरु किया तो मुगल सिपाही दिल्ली की तंग गलियों में दौड़कर अपनी जान बचाने लगे। दिल्ली की गलियों में खून की नदियां बह गईं। अंत में रघुनाथसिंह भाटी के सभी सिपाही वीरगति को प्राप्त हुए। जब मुगल सिपाही पुनः हवेली की तरफ आने लगे तो रणछोड़दास जोधा ने मुगलों के सिर काटने आरम्भ कर दिए। अंत में वीर जोधा भी पुण्य अर्जित करके इस लोक से चला गया।

जब मुगल सिपाही हवेली के भीतर घुसे तो उन्होंने हवेली को पूरी तरह रिक्त पाया। अब दिल्ली का फौजदार मारवाड़ की तरफ जाने वाले रास्ते पर दौड़ा किंतु उसके हाथ कुछ भी न लग सका।

स्वर्गीय महाराजा जसवंतसिंह की दोनों रानियों के सम्बन्ध में अलग-अलग ख्यातों में अलग-अलग बातें लिखी हुई हैं। कुछ ख्यातों के अनुसार राजपूत सिपाहियों के साथ पुरुष वेश में चल रही दोनों रानियों ने भी मुगलों से युद्ध करते हुए वीरगति प्राप्त की तथा उनके शरीरों को यमुनाजी को समर्पित कर दिया गया। कुछ अन्य स्रोत कहते हैं कि जब मुगल सेना का आक्रमण हुआ तो वीर दुर्गादास ने चन्द्रभाण नामक सरदार से कहा कि यदि मुगल सेना जीतने लगे तो रानियों पर लोहा कर देना अर्थात् अपने हाथों से उनकी गर्दन काट देना ताकि रानियों को मुगलों के हाथों में पड़ने से बचाया जा सके। उस समय वास्तव में क्या हुआ, यह बताने के लिए कोई भी जीवित नहीं बचा।

इस लड़ाई में औरंगजेब के पांच सौ सिपाही मारे गए जबकि वीर गति को प्राप्त होने वाले राजपूत सिपाहियों की संख्या लगभग तीन सौ थी जो राजा रूपसिंह की हवेली पर अपने राजकुमार की रक्षा के लिए तैनात थे।

 औरंगजेब को पूरा विश्वास था कि स्वर्गीय महाराजा जसवंतसिंह की रानियाँ एवं राजकुमार अजीतसिंह दिल्ली में ही कहीं पर छिपे हुए हैं। अतः घर-घर तलाशी ली गई।

दिल्ली के कोतवाल फौलाद खाँ ने औरंगजेब के कोप से बचने के लिए किसी हिन्दू के घर से एक बालक को जबर्दस्ती उठा लिया और औरंगजेब के सामने पेश करके कहा कि यही राजकुमार अजीतसिंह है। स्वर्गीय महाराजा की कुछ दासियों को भी कोतवाल ने पकड़ लिया जो दिल्ली के अलग-अलग घरों में छिपी हुई थीं। उनसे महाराजा जसवंतसिंह की रानियाँ के कुछ गहने एवं आभूषण भी बरामद किए गए।

जब बादशाह ने उन दासियों से पूछा कि क्या यही राजकुमार अजीतसिंह है, तो दासियों ने कोतवाल के भय से स्वीकार कर लिया कि यही राजकुमार है। इस पर औरंगजेब ने उस बालक की सुन्नत करवाकर उसका नाम मुहम्मदीराज रखा तथा अपनी पुत्री जेबुन्निसा को सौंप दिया ताकि मुगलिया हरम में उसकी परवरिश की जा सके। इस पर भी औरंगजेब संतुष्ट नहीं हुआ, उसने कोतवाल फौलाद खाँ को नौकरी से निकाल दिया।

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता

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