Saturday, July 27, 2024
spot_img

यूसुफजइयों के कबीले

अफगानिस्तान के पहाड़ी प्रदेशों में कबाइली जाति निवास करती थी। अफगानिस्तान के पहाड़ी प्रदेशों में कबाइली जाति निवास करती थी। इनमें यूसुफजइयों के कबीले बड़े दुर्दान्त, लड़ाकू एवं क्रूर थे। वे प्रायः आसपास के मैदानों पर धावा बोलते थे और लूटमार करके भाग जाते थे।

अफगानिस्तान के पहाड़ी क्षेत्र में कृषि योग्य भूमि का अभाव होने तथा रोजगार का कोई अन्य साधन नहीं होने से, वहाँ के लोग बड़े लड़ाकू एवं असभ्य होते थे। जब भारत के व्यापारी अपना माल लेकर पहाड़ी दर्रों से जाने का प्रयास करते थे तब कबाइली लड़ाके, भारतीय व्यापारियों पर धावा करके उनका माल लूट लेते थे।

यूसुफजइयों के कबीले इतने अविश्वसनीय, उद्दण्ड तथा अनुशासनहीन थे कि उन्हें मुगल एवं ईरानी सेनाओं में भी भर्ती नहीं किया जाता था। भारत के सीमावर्ती प्रदेशों के शासक प्रायः इनके मुखियाओं को रिश्वत देकर शांत रखा करते थे। मुगलों ने कई बार अफगान लुटेरों पर रोक लगाने के प्रयास किये थे किंतु उन्हें सफलता नहीं मिली। शाहजहाँ ने किशनगढ़ नरेश रूपसिंह राठौड़ को अफगानिस्तान के क्षेत्र में नियुक्त कर रखा था।

जब तक महाराजा रूपसिंह जीवित रहा, तब तक बल्ख तथा बदख्शां की पहाड़ियां कबायलियों एवं उजबेकों के खून से तर रहीं किंतु जब ई.1658 में शामूगढ़ के मैदान में महाराजा रूपसिंह औरंगजेब के हाथी की अम्बारी की रस्सी काटता हुआ वीरगति को प्राप्त हुआ तब से मुगल सल्तनत में, अफगानिस्तान को नियंत्रण में रखने वाला कोई हिन्दू राजा या मुस्लिम अमीर नहीं रहा।

To purchase this book, please click on photo.

इस कारण कबायलियों एवं उजबेकों ने फिर से सिर उठाना आरम्भ कर दिया। ईस्वी 1667 में कई हजार युसुफजई लुटेरों ने भागू नामक मुखिया के नेतृत्व में एकत्रित होकर सिंधु नदी पार की तथा अटक से लेकर पेशावर तक के क्षेत्रों में लूटमार करने लगे। औरंगजेब ने युसुफजई लुटेरों को खदेड़ने के लिये तीन सेनाएँ भेजीं। इन सेनाओं ने अफगान लुटेरों का दमन करके अटक से पेशावर तक शांति स्थापित की।

इस घटना के पांच साल बाद ईस्वी 1672 में आफरीदियों ने मुगलों के राज्य पर आक्रमण करके सीमांत प्रदेशों पर कब्जा कर लिया तथा उनके नेता अकमल खाँ ने स्वयं को बादशाह घोषित करके अपने नाम के सिक्के ढलवाये। अकमल खाँ ने मुगलों के विरुद्ध व्यापक युद्ध की घोषणा कर दी तथा पठानों से सहयोग मांगा। उसने खैबर घाटी को बंद कर दिया ताकि मुगलों की सेना दर्रे को पार करके उस तक नहीं पहुंच सके।

उन दिनों मुगलों की तरफ से मुहम्मद अमीन खाँ, काबुल में सूबेदार के पद पर नियुक्त था। उसने पेशावर में अपना निवास बना रखा था। वह मीर जुमला का पुत्र था। उसी ने पांच साल पहले यूसुफजइयों के कबीले के विरुद्ध सफल कार्यवाही की थी। जब उसे अकमल खाँ द्वारा की जा रही कार्यवाहियों की जानकारी मिली तो वह अपनी सेना लेकर खैबरे दर्रे के मार्ग से काबुल की ओर बढ़ा। कबाइलियों के नेता अकमल खाँ ने अली मस्जिद नामक स्थान पर मुगल सेना को घेर लिया और दस हजार मुगल सैनिकों को तलवार के घाट उतार दिया।

पूरे आलेख के लिए देखें यह वी-ब्लॉग-

इसके बाद अकमल खाँ को मौत का नंगा नाच करने से रोकने वाला कोई न रहा। अकमल खाँ बीस हजार स्त्री-पुरुषों को बंदी बनाकर मध्य एशिया के बाजारों में बेचने के लिये ले गया। इनमें से ज्यादातर जीवित बचे हुए मुगल सिपाही, उनके खानसामे और बावर्ची आदि थे। मुगल सेना को इससे पहले इतना बड़ा नुक्सान नहीं हुआ था। मुगलों की कमजोरी का लाभ उठाने के लिये खटक कबीले ने भी आफरीदियों के साथ गठबन्धन कर लिया और सम्पूर्ण पश्चिमोत्तर प्रदेश उनकी चपेट में आ गया।

जब काबुल का मुगल सूबेदार मुहम्मद अमीन खाँ मारा गया तो औरंगजेब ने महाबत खाँ को अफगानिस्तान का सूबेदार नियुक्त किया। महाबत खाँ अफगानिस्तान के मोर्चे पर नहीं जाना चाहता था। वह लम्बे समय से औरंगजेब से नाराज भी चल रहा था। इसलिए वह अफगानिस्तान पहुंचकर अकमल खाँ से मिल गया तथा उसने आफरीदियों के विरुद्ध कोई कार्यवाही नहीं की।

जब यह सूचना औरंगजेब को मिली तो वह सिर पीट कर रह गया। उसने शुजात खाँ को अफगानिस्तान के आफरीदियों पर आक्रमण करने के लिए भेजा। जब तक शुजात खाँ नई सेना लेकर अफगानिस्तान पहुंचता, तब तक अफगानियों ने अपनी पकड़ बहुत मजबूत बना ली। उन्होंने शुजात खाँ की सेना को पहाड़ों में घेरकर बुरी तरह काट डाला। यहाँ तक कि ई.1674 में स्वयं शुजात खाँ भी युद्ध के मैदान में बेरहमी से काट डाला गया।

औरंगजेब की सेनाएं इस समय भारत की तीनों सीमाओं पर लड़ रही थीं। औरंगजेब का मामा शाइस्ता खाँ बंगाल के मोर्चे पर था और अराकानियों एवं असमियों से लड़ रहा था जबकि उसका पुत्र मुअज्जम तथा मारवाड़ नरेश जसवंतसिंह दक्खिन के मोर्चे पर लड़ रहे थे। मिर्जाराजा जयसिंह पहले ही औरंगाबाद में मृत्यु को प्राप्त हो चुका था।

भारत की तीसरी सीमा अर्थात् काबुल की तरफ औरंगजेब के दो सूबेदार मारे जा चुके थे और तीसरा सूबेदार बागी हो चुका था। इस कारण औरंगजेब के पास विश्वसनीय सेनापतियों की कमी हो गई थी। वह अफगानिस्तान की परिस्थिति से निबटने के लिए उपाय सोच ही रहा था कि उसे दक्खिन के मोर्चे से अत्यंत चिंताजनक समाचार मिला कि औरंगजेब का दूसरा शहजादा मुहम्मद मुअज्जम शाह, महाराजा जसवंतसिंह की सहायता से स्वतंत्र होने की चेष्टा कर रहा है।

इसलिए यह आवश्यक हो गया था कि महाराजा जसवंतसिंह को दक्खिन के मोर्चे से हटाकर किसी ऐसी जगह भेजा जाए जहाँ महाराजा जसवंतसिंह मुगलों के लिए युद्ध करने के अतिरिक्त और कुछ नहीं कर सके। 

अंत में औरंगजेब ने एक उपाय सोचा जिससे सांप भी मर जाए और लाठी भी नहीं टूटे। उसने मारवाड़ नरेश जसवन्तसिंह को दक्खिन से बुलाकर सीमांत प्रदेश की स्थिति संभालने के लिये भेज दिया तथा उस पर अंकुश रखने के लिए शाइस्ता खाँ को भी नियुक्त कर दिया जो इन दिनों बंगाल का सूबेदार था।

शाइस्ता खाँ कभी नहीं चाहता था कि उसकी नियुक्ति अफगानिस्तान में की जाए किंतु लाल किले से मिले आदेशों की पालना करने के अतिरिक्त उसके पास और कोई उपाय नहीं था। वह मन मारकर अफगानिस्तान के लिए रवाना हो गया। उधर महाराजा जसवंतसिंह पहले से ही अफगारिस्तान जाने के लिए दक्खिन का मोर्चा छोड़ चुका था।

इस प्रकार न केवल यूसुफजइयों के कबीले, अपितु आफरीदियों के कबीले भी जीवन भर औरंगजेब के लिए मुसीबत बने रहे।

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता

Related Articles

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

Stay Connected

21,585FansLike
2,651FollowersFollow
0SubscribersSubscribe
- Advertisement -spot_img

Latest Articles

// disable viewing page source